चम्पारण
सत्याग्रह की चिनगारी
विजय कुमार
उत्तर बिहार का
तिरहुत प्रमण्डल का चम्पारण जिला हिमालय के चरणों में नेपाल के समीप बसा हुआ
ऐतिहिासिक महत्त्व का स्थान रहा है । इन इलाकों में कभी विस्मृत अतीत के दार्शनिक
राजा जनक रहते थे । याज्ञवलक्य एवं कतिपय अन्य ऋषि–महर्षि उनकी राज सभा को प्राण भरते थे । इसकी
तुलना हम कतिपय यूनानी राजाओं की राजसभा से कर सकते हैं । जहाँ एथेन्स के विद्वान
एकत्र होते थे ।
चम्पारण कभी
लिच्छवियों के प्रख्यात गणतन्त्र का हिस्सा था । चम्पारण, जिसे चम्पक अरण्य के रूप में देखा गया, वहाँ के जंगलों में नगर के कोलाहल से दूर
बिहार का यह हिस्सा भारत के आत्मत्यागी ऋषियों एवं
मुनियों का तपस्या स्थल रहा है । कई स्थलों यथा-लोरिया, नन्दनगढ़ अरेराज में अशोक के स्तम्भ आज भी
उनके धर्म एवं नीति के सन्देश वाहक, सहिष्णुता एवं मानवीयता के प्रतीक के रूप में खड़े हैं ।
भारत के अन्य
भागों की तरह यह क्षेत्र भी अनेक शताब्दियों में राजनीतिक तौर पर उत्थान एवं पतन
के अनेकानेक चरणों से गुजरा है । अँग्रेजी राज में अनेक बदलाव के साथ–साथ योरोपीय भीलहों एवं नीलहे साहबों के
अत्याचार का गवाह और पीड़ित बना । प्राणान्तक शोषण के दौर से इसे गुजरना पड़ा ।
चम्पारण का
भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अद्वितीय महत्त्व कई मायनों में है ।
प्रयोगधर्मी गाँधी के सत्य के साथ प्रयोग का एक प्रयोगशाला चम्पारण बना । वह इस
मायने में भी कि हम कभी लड़ने से रुके नहीं थे । लगातार लड़ रहे थे । भारत के सपफल
स्वतन्त्रता संग्राम में बिहार का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रेरणादायी
रहा है । इसमें सन्देह नहीं कि 23 जून,
1757 के प्लासी युद्ध
का परिणाम ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पक्ष
में गया । किन्तु कुछ समय बाद मीरकासिम ने 1762–63 में तथा 1764 में मीरकासिम,
सिराजुद्दौला
तथा शाह आलम द्वितीय के साथ मिलकर चुनौती दी । अपफसोस कि 23 अक्टूबर, 1764 का बक्सर युद्ध भी पुनः कम्पनी के पक्ष में गया । युद्ध –दर– युद्ध होते रहे । 1827 से लेकर 1857
के विद्रोह की
कथायें । बाबू कुँवर सिंह सहित अनेकानेक लड़ाकों की कुर्बानी । बावजूद अनेक
प्रत्यनों के अँग्रेजी सत्ता अपनी जड़ें जमाने में लगातार सपफल होती रही । 1827, 1857, 1887 1917 के काल खण्डों में हमारे परखे कसमसाते रहे, लड़ते रहे । लड़ाई जारी थी । यहाँ तक कि नील की
खेती अमरीकी स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय (1775 से 1785) ही प्रारम्भ हो
चुका था । 1830
तक बंगाल
प्रेसिडेन्सी के तहत लगभग 1000
नील की कोठी का
विस्तार बिहार के शाहाबाद,
तिरहुत, पूर्णिया, भागलपुर,
संथाल परगना
प्रमण्डलों में खुल चुकी थी । व्यापारिक खेती लगातार आप किसानों को अपने नागपफाँस
में ले चुका था । भीलहों और नीलहों के मेल से बाजार और सरकार के एक निहित स्वार्थ
प्रकट हो चुका था । इसके खिलापफ इन इलाकों में आक्रोश और गुस्सा लगातार प्रकट हो
रहा था ।
इस दौरान देश
में क्रमागत रूप से एक नवोदित राष्ट्रवाद जाग्रत हो चुका था । देश में 1887 के कालखण्ड तक में काँग्रेस की स्थापना हो
चुकी थी । नवोदित राष्ट्रवाद युद्ध के
प्रभावी और वैकल्पिक रास्तों की तलाश में दक्षिण अर्ीका के कारण चर्चित गाँधी की
तरपफ भी आशाभरी निगाह से सम्भवतया देख रहा था । चम्पारण सत्याग्रह जिसका कालखण्ड 1917 है, वहाँ तक की यात्रा में गाँधी और काँग्रेस को तीस साल लग चुके थे । हमारे पुरखे
राजकुमार शुक्ल के तमाम प्रयासों के बाद अन्ततः गाँधी चम्पारण आये और चम्पारण
सत्याग्रह चिनगारी ने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण किया । 2017 में जब हम चम्पारण सत्याग्रह की शताब्दी
वर्ष मना रहे हैं तो इसे इस बात का अहसास है कि हमारे पुरखों ने हमारे लिए
स्वर्णिम इतिहास छोड़ा है ।
जहाँ तक गाँधी
जी के आगमन और नेतृत्व का सवाल है तो हमें चम्पारण सत्याग्रह की वैचारिकी वैकल्पिक
युद्ध नीति के साथ–साथ नवोदित राष्ट्रवाद की दृष्टि दिशा और आशा, आकांक्षा के लिए विस्पफोट के रूप में करना
चाहिए । गाँधी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं किµ‘‘यह अत्युक्ति नहीं,
बिल्कुल शब्दशः सत्य
है कि किसानों से इस भेंट में मैं भगवान, अहिंसा और सत्य का साक्षात्कार कर
रहा था ।’’
यही अहसास गाँधी
जी के नेतृत्व में नवोदित राष्ट्रवाद के मूल सन्देश को रेखांकित करते हुए पहला
प्रयोग सिद्ध होता है । जो अहिंसा, सत्य,
शोषण, शोषित, दलित जन समूह के जागरण तथा मुक्ति पर बल देने के कारण सवर्था अद्वितीय था ।
गाँधी के सामने भारत की आर्थिक विषमता, सामाजिक बिखराव,
सांस्कृतिक
गिरावट और राजनीतिक विपफलता का लहूलुहान नजारा था । इस कारण उनके सामने यह चुनौती
थी कि व्यक्ति के आत्मशुद्धि, सामाजिक ढाँचे में बदलाव और राजकाज की मर्यादा का समवेत अभ्यास का प्रयोग
स्थली देश का कोई इलाका चिद्मित हो । इस तलाश को चम्पारण यात्रा के साथ जोड़कर हम
देख सकते हैं । डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 1949 में लिखते हैं किµ‘‘चम्पारण में जो कुछ हुआ, मेरी आशा के अनुरूप सारे देश में विराट
पैमाने पर उसकी पुनरावृति की गई चम्पारण निलहे साहबों यगोरे भूपतियोंद्ध के
अत्याचार से मुक्त हुआ । भारत आज विदेशी राज्य से मुक्त है ।’’ चम्पारण में महात्मा गाँधी के आगमन ने इस
क्षेत्र के लोगों में उनके आन्दोलन के सही होने की चेतना तथा नैतिक आस्था भर दी ।
जो किसी भी रचनात्मक बदलाव एवं सपफलता के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है ।
गाँधी जी ने दक्षिण अर्ीका में दलित श्रमिकों की समस्या को हाथ में लिया था और
सच्चे सुधार सम्बन्धी अपने विचार को 22 दिसम्बर,
1916 को म्योर कॉलेज
इलाहाबाद के पिफजिक्स लेक्चर थियेटर में प्रस्तुत किया था । उन्होंने कहा थाµ‘‘हमें आदर्शों अथवा उन्हें कार्यरूप में परिणत
करने से जरा भी डरना नहीं चाहिए । जब हम धन की अपेक्षा सत्य को, वैभव और शानबान की अपेक्षा निर्भीकता को तथा
स्वार्थ प्रेम की अपेक्षा उदारता को प्रश्रय देने लगेंगे तभी सही अर्थ में
हम आध्यात्मिक राष्ट्र बन सकेंगे । यदि हम अपने घरों को, अपने महलों एवं मन्दिरों को धन की लोलुपता व
दिखावा से मुक्त करेंगे तथा उन्हें नैतिकता की विभूति से अभिमण्डित दिखायेंगे तभी
स्वयं सेवक सेना के दुर्बह बोझ का वहन बिना किये हुए ही शत्रुओं के किसी भी संगठन
से संघर्ष कर सकेंगे । हम पहले निसर्ग एवं धर्म की खोज करें और यदि हम उन्हें
हासिल करते हैं तो इसमें रंच मात्र भी सन्देह नहीं कि हमें सभी कुछ हासिल हो जाएगा’’ 1939 में गाँधी पुन% लिखते हैंµ‘‘सभाएँ एवं संगठन अपनी जगह पर सही हैं । उनसे
कुछ काम होता है किन्तु बहुत कम । वस्तुत%़ वे उस लकड़ी के ढाँचे के समान हैंµअस्थायी तथा कमाचलाऊ, जिसे एक शिल्पी निर्माण के पूर्व खड़ा करता है
। महत्त्व वस्तुत% अटूट आस्था का है जो कभी शिथिल न हो सके ।’’
2017
में चम्पारण
सत्याग्रह का सन्देश क्या हो सकता है ? वह भी तब जब आर्थिक विषमता अपने चरम पर है । लोेभ और मुनापफे का अनर्थ शास्त्र
सर्व स्वीकृत है । लूट की छूट, जुल्म और जबरदस्ती रग–रग में समा चुका है । त्याग का स्थान भोग ले
चुका है । संयम अराजकता में बदल चुका है । जीवन के विभिन्न आयामों में काम, क्रोध, लोभ,
मोह, मद, मत्सर प्रभावी हो चुका है । लोग अपने से भी डरते हों, तब इसे चम्पारण सत्याग्रह के बरक्स संवाद को
गाँधी के शब्दों में ही समझना चाहिए । गाँधी मेरे सपनों का भारत पुस्तक में भावी
भारत का एक चित्र निम्न रूप में रखते हैंµमैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें गरीब–से–गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उनका देश है । जिसके निर्माण में उनकी आवाज
का महत्त्व है । मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें ऊँचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों में
पूरा मेलजोल होगा । ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के
अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता । उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो
पुरुषों को,
चूँकि शेष सारी
दुनिया के साथ हमारा सम्बन्ध शान्ति का होगा, यानी न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे ।
इसलिए हमारी सेना छोटी–से–छोटी होगी । ऐसे सब हितों का, जिनका करोड़ों मूक लोगों के हितों से कोई विरोध नहीं है, पूरा सम्मान किया जायेगा । पिफर वे देशी हों
या विदेशी ।’’
उन्होंने आगे
कहा किµ‘‘यदि भारत ने हिंसा को अपना धर्म स्वीकार कर
लिया और यदि उस समय मैं जीवित रहा, तो मैं भारत में नहीं रहना चाहूँगा । तब वह मेरे मन में गर्व की भावना उत्पन्न
नहीं करेगा । मेरा देश–प्रेम–धर्म द्वारा नियन्त्रित है । मैं भारत से उसी तरह बँधा हुआ हूँ, जिस तरह कोई बालक अपनी माँ की छाती से चिपटा
रहता है । क्योंकि मैं महसूस करता हूँ कि वह मुझे मेरा आवश्यक आध्यात्मिक पोषण
देता है ।’’
गाँधी ने अपने
जीवन काल में ‘स्वराज’ की कामना प्रस्तुत की थी । चम्पारण सत्याग्रह उनका प्रयोग स्थल था । जहाँ
उन्होंने भूमि के सवाल,
बुनियादी शिक्षा
के सवाल,
खादी
ग्रामोद्योग के सवाल खड़े किये । जो उनकी स्वराज साधना तन्त्र और यन्त्र थे ।
स्वराज के मंत्र की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैंµ‘‘स्वराज एक पवित्र शब्द है । वह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्मशासन और आत्मसंयम है ।
अँग्रेजी शब्द इंडिपेंडेंस अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से युक्त निरंकुश आजादी
का या स्वच्छन्दता अर्थ देता है, वह अर्थ स्वराज शब्द में नहीं है ।’’ व्यक्ति,
समाज और राजकाज
तीनों के लिए यही कसौटी है ।
स्वराज से उनका
अभिप्राय हैµ‘‘लोक सम्पति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का
शासन’’
उनके अनुसार
सच्चा स्वराज थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो तब सब
लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है
।’’
आज जब हम
पंचायतों तक अधिकार,
कर्तव्य और
शक्ति–सम्पन्न किये वगैर स्वराज शब्द उपयोग सत्ता
के खेल के रूप में करते हैं तो यह एक प्रकार से गाँधी और चम्पारण सत्याग्रह के
सन्देश का इनकार है । राजनीतिक स्वराज, आर्थिक स्वराज,
अहिंसा स्वराज, नैतिक स्वराज, सांस्कृतिक स्वराज ?
सहित अनेकानेक
शब्दावली का प्रयोग गाँधी जी ने किया है । जिसका निचोड़ हम इस रूप में देख सकते हैं
। स्वयं उन्होंने अपने समय में स्वराज के लिए स्वदेशी स्वावलम्बन का विचार रखा ।
अपने सपनों के भारत की राजनीतिक, आर्थिक,
आध्यात्मिक, नैतिक, शैक्षणिक,
सांस्कृतिक, वैयक्तिक, सामाजिक स्तर पर आत्म स्वराज, आत्मसंयम को केन्द्र बिन्दु बनाया है उनके सपनों के स्वराज में जाति, धर्म, लिंग,
भाषा के स्तर पर
भेद–भाव अमान्य है । स्वराज पर शिक्षितों या
धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा । वह ‘‘सबके लिए और सबके कल्याण के लिए होगा ।’’ सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किन्तु लूले,
अंधे और भूख से
मरने वाले लाखों–करोड़ों मेहनतकश भी आते है ।’’
2017
के बरक्स हम जब
चम्पारण सत्याग्रह के विमर्श को आगे बढ़ाते हैं तो हमें आज के प्रश्नों को, सवालों को सामने रखकर विचार करना चाहिए । ऐसी
भूख में हम राजनीतिक तौर पर पूरी तरह से केन्द्रीकरण की तरपफ दौड़ रहे हैं तक
संविधान का 73वाँ और 74 वाँ संविधान बेमानी हो जाता है, क्योंकि हमने कमोवेश स्थानीय स्वशासन के पंचायती राज तथा नगर राज की पूरी
संरचना को सरकारों का मोहताज और गुलाम बना रखा है । आर्थिक तौर पर विचार करते हैं तो प्रकृति के साथ यु(, मुनापफा, संग्रह,
भोग जर्बदस्ती
का पर्याय बना दिया है । विकास के कथित मांडल के सहारे लूट की छूट का पूरा इन्तजाम
कर रखा है । यही कारण है कि पूँजी पाप, धरती का ताप और हिंसा का श्राप हमारे अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर रहा है ।
हमारा संसद सहभागी लोकतन्त्र का आईना नहीं बन पाता है । इस आलोक में गाँधी लिखते
हैं कि ‘‘स्वराज जितना किसी राजा के लिए होगा उतना ही
किसान के लिए,
जितना किसी
धनवान के लिए होगा उतना ही भूमिहीन खेतिहर के लिए, जितना हिन्दुओं के लिए होगा उतना ही मुसलमानों के लिए, जिना जैन, यहूदी और सिख लोगों के लिए होगा उतना ही पारसियों और ईसाइयों के लिए । उसमे
जाति–पाँति, धर्म और दरजे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा ।’’ आजादी के सत्तर सालों बाद जब हम चम्पारण
सत्याग्रह का विमर्श करते हैं तो यह सापफ करना जरूरी हो जाता है कि हम कहाँ पहुँचे
और जाना कहाँ था । सच तो यह है कि आज हम विषमता, भेदभाव,
अभाव, भय, भूख,
गरीबी, पर्यावरण असन्तुलन सहित अनेकों सवालों से
घिरे हैं । एक दु%खद चित्र सामने आता है । किसी एक को दोष देना सही नहीं होगा । पर
हम गाँधी को टुकड़ों में लेंगे तो वह पिफसल जाते हैं । आज का सच अगर इस रूप में कहा
जाये तो गलत नहीं होगा किµगाँधी का स्वराज सुराज वाले समाजवादी ले भागे
। स्वेदशी भाजपा ने चुरा लिया । काँग्रेसी स्वाबलम्बन लाते–लाते नयी आर्थिक नीति की गुलामी ले आये ।
सर्वोदय वालों की पूर्णाहुति हो गयी । अम्बेडकरवादी अमरत्व को मुखातिब हो गये ।
साम्यवादी पता नहीं कब सोये और कब जागे । सबों के पास एक ही यन्त्र विकास । एक ही
तन्त्र सत्ता और एक ही मन्त्र प्रशासन यअपफसरशाहीद्ध ऐसी सूरत में दिल्ली और पटना
बेचैन होने लगे और गाँधी को कवच बनाने लगे तो हास्यास्पद लगता है । चलिये मनवधा
भारत से रामधुन तो आता है । इस अर्थ में हम प्रादेशिक सत्ता को धन्यवाद करते हैं ।
वही दिल्ली तो गजब है किµस्वच्छाग्रह जैसे शब्दों के सहारे अब देश और
दुनिया को यह बता रही है कि 2 अक्टूबर को गाँधी का जन्मदिवस नहीं, विश्व अहिंसा दिवस नहीं बल्कि स्वच्छता दिवस है । हमारे स्कूली बच्चे तो यही
जान रहे हैं और याद कर रहे हैं । सम्भवतया यह वक्त आत्ममूल्यांकन का है, आत्म–प्रवचना का नहीं । और संकल्प का समय है किµ‘‘हम स्वराज का अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र,
नीतिशास्त्र, समाज शास्त्र, समयानुसार गढ़ने को आगे आये और सबोधि राज्य, न्याय का राज्य कायम करने के लिए कदम–कदम बढ़ायें जो सम्पत्ति से ही सम्भव है । तब यह नहीं चलेगा कि ‘‘भारतीय स्वराज तो ज्यादा संख्यावाले समाज का
यानी हिन्दुओं का ही राज्य होगा । इस मान्यता से ज्यादा बड़ी दूसरी गलती नहीं हो
सकती है ।’’
ऐसी सूरत में
गाँधी कहते हैंµकि अगर यह सही सि( हो तो अपने लिए मैं ऐसा कह
सकता हूँ कि मैं उसे स्वराज मानने से इनकार कर दूँगा, और अपनी सारी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूँगा
।’’
आइये । चम्पारण
सत्याग्रह के विमर्श के बहाने इनकार, बहिष्कार और आत्म साक्षात्कार को अपने–अपने स्तर पर उठा सकें तो सत्याग्रह एक गतिमान विकल्प बन सकता है यु(कारी
हिंसा का । पाप का । ताप का । श्राप का । लेकिन इसके लिए हमें ये तो करने ही चाहिए
कि-
1–
व्यक्ति स्वयं
में बदलाव लाये
2–
सामाजिक ढाँचे
को बदलने औ मानवीय बनाने का प्रयास तेज करे ।
3–
राजकाज का ढाँचा
बदले,
उसे मर्यादित
करे और लोकनीति एवं लोकशक्ति से नियन्त्रित करने का अभ्यास करे ।
ऐसा शुरू हो तो
आत्ममंथन,
चिन्तन और
मूल्यांकन से हृदय परिवर्तन की एक बड़ी रेखा बन सकती है । जो सत्याग्रह की सातत्यता
तथा सार्थकता को पारिभाषित करेगा ।
सबलोग के मई 2017 में
प्रकाशित
लेखक सामजिक
कार्यकर्ता,प्राध्यापक और गांधीवादी चिन्तक हैं.
+919431875214 vijaygthought@gmail.com