22 December 2017

अब नई पहचान- www.sablog.in

आप लिखते हैं और सबलोग में छपने का इंतजार करते हैं। लेकिन अब आपके इंतजार का समय कम हो गया है। अब से पहले सबलोग का अंक महीने में एक ही बार आता था। लेकिन अब सबलोग के 10 साल में प्रवेश के मौके पर इसका डिजीटल वर्जन लॉन्च हो गया है। अब आपको अपने लिखे के छपने का इंतजार उतनी शिद्दत से नहीं करना होगा।
ब्लॉग से आगे बढ़कर सबलोग अब वेबसाइट में कंवर्ट हो गई है। आप अपने लेखन का क्रम जारी रखें। हम उसे प्रकाशित करने का भरोसा दिलाते हैं।

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07 November 2017


भारतीय लोकतन्त्र और राजसत्ता का कांग्रेस-मुक्त दौर

आनन्द कुमार

भारतीय लोकतंत्र ने २०११-’१२ के अन्ना आन्दोलन के जरिये स्वराज और सुराज के लिए वैकल्पिक राजनीति की रचना के लिए निर्णायक करवट ली है. यह संसदवाद की धुंध में फंसी राजनीति को गतिवान बनाने का एलान था.  इसके जरिये मौजूदा दलीय व्यवस्था और चुनाव व्यवस्था की आड़ में पनप रहा भ्रष्टाचार और दु:शासन दोनों के खिलाफ जन-असंतोष की अभिव्यक्ति हुई थी. इसने परिवर्तन की राजनीति को प्रोत्साहन दिया. सड़क से लेकर संसद तक जंतर मंतर से शुरु होकर दूर दराज के नुक्कड़ों तक लोकशक्ति के आगे राजशक्ति पराजित हुई. इसके परिणामस्वरूप देश की राजसत्ता के कांग्रेस-मुक्त दौर का भी एक नया अध्याय नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सामने है. लेकिन मोदी शासन के दो तिहाई कार्यकाल के पूरा होने के बावजूद स्वराज की दिशा में हमारी प्रगति का नामोनिशान क्यों नहीं है. सुराज की सुगंध कहाँ है?
किसान की बेचैनी से लेकर नौजवानों की बेरोजगारी तक का कांग्रेस-राज से बेहतर समाधान का दावा केन्द्रीय सरकार के जबानी जमाखर्च से भी गायब है. अब तो भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुषों से लेकर भारतीय मज़दूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच तक के नेतृत्व की तरफ से कहा जा रहा है कि देश की दशा ठीक नहीं है.
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२)
लेकिन विपक्ष की दशा तो और भी दयनीय है. न व्यक्तिवाद और परिवारवाद में कमी है. न आत्म-समीक्षा और विचार-शक्ति के जरिये सकारात्मक परिवर्तन का वाहक बनने की तैयारी है. कहीं नयापन नहीं दीखता - न विचार, न कार्यक्रम. न संगठन. न नेतृत्व. इसलिए यह अजूबा अंतर्विरोध नहीं है कि आर्थिक मोर्चों पर अपनी  नाकामियों के बढ़ते सिलसिले और सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों के बारे में फैलती अराजकता और हिंसा के बावजूद भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक कद बढ़ता जा रहा है. इसके द्वारा गठित राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन का दायरा फैलाव पर है. असम और उत्तर प्रदेश में डंके की चोट पर चुनाव में जीत मिली. दिल्ली की तीनों नगर पालिकाओं में आम आदमी और कांग्रेस को बौना साबित किया. महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में स्थनीय निकाय में विजयी हुए. फिर बिहार की हार जीत में बदल गयी. बिहार के तेजस्वी मुख्यमंत्री ‘विकास पुरुष’ नितीश कुमार अपनी पार्टी के शरद यादव – अली अनवर  खेमे के विरोध की परवाह किये बिना जनता दल (यूनाइटेड) के बिहार विशाल विधायक दल का बल लेकर भारतीय जनता पार्टी के सहयात्री बन गए. उनका कहना था कि यह बिहार में परिवारवाद और भ्रष्टाचार की आड़ में जंगल-राज की वापसी को रोकने के लिए जरुरी हो गया था. दुसरे शब्दों में, नरेन्द्र मोदी के नेत्रित्ववाला राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन और उसके जरिये सत्ता-सञ्चालन भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के खिलाफ आज भी एक मजबूत गारंटी है.    
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३)
चुनावी दृष्टि से सिर्फ पंजाब में स्पष्ट हार हुई है. इसमें किसानों के दुःख, माध्यम वर्ग के मोहभंग  और नौजवानों की निराशा ने अकाली दल -भारतीय जनता पार्टी की दस साल पुरानी  सरकार के खिलाफ आग में घी का काम किया है. यह आम आदमी पार्टी की व्यक्ति-विशेष से जुडी अवसरवादी राजनीति के खिलाफ भी  जनादेश जैसा था. लेकिन बाकी देश में किसानों और गांवों की दुर्दशा की निरंतरता का ऐसा राजनीतिक परिणाम सामने नहीं आ रहा है. शायद विपक्ष का आत्मविश्वास अभी भी बन नही पाया है. क्योंकि कर्णाटक, बंगाल, हिमाचल, केरल, ओडिशा और पंजाब की गैर-भाजपा सरकारों ने भी तो किसानों को कोई खुशखबरी नहीं दी है.
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वैसे युवा-शक्ति के मोहभंग और बगावत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. रोहित वेमुला आत्महत्या के बाद से दलित विद्याथियों, विशेषकर आम्बेद्करवादी संगठनों को निशाने पर लिया गया. इसके बाद अलगाववाद समर्थक एक रहस्यमय प्रकरण के बाद जे. एन. यू. के छात्र-छात्राओं-शिक्षकों को तो देश-विरोधी बताया ही जा चुका है. हालाँकि अदालत ने इसके लिए पुलिस-सरकार-विश्वविद्यालय प्रशासन को गैर-जिम्मेदार ही पाया है. अब दिल्ली विश्वविध्यालय




४)
के छात्रसंघ में चार साल से चल रही जीत इसबार कांग्रेस के विद्यार्थी मंच के हाथों पराजय में बदल गयी. इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पिछले साल जीते थे लेकिन इस साल समाजवादी पार्टी के समर्थक उम्मीदवार ने मोदी-महंत जी की जय करने वालों को पटखनी दे दी. प्रधानमंत्री मोदी के अपने चुनाव क्षेत्र बनारस में तो बी.एच.यू. की असुरक्षित बेटियां सडकों पर बैठ गयीं और पुलिस के हाथों मान-मर्दित की गईं. सरकारी दबाव के बावजूद मीडिया चुप नहीं रह सका. इससे देश भर में धिक्कार मिलने लगा. शुरु में न-नुकुर करने के बाद अपने पोषित कुलपति को, दबंगों के जरिये छात्राओं को प्रताड़ित करने के प्रकरण सामने आने पर, कार्यकाल के अंतिम तिमाही में जबरन अवकाश पर भेजने का निर्णय लेना पड़ा. इसीके समान्तर सरोकारी पत्रकार और निडर नागरिक गौरी लंकेश की हत्या पर सत्ता-प्रतिष्ठान के नायकों की चुप्पी और सोशल मीडिया में कुछ तत्वों ने जैसी ख़ुशी जाहिर की उससे मौजूदा सत्ताधीशों की छबी धूमिल हुई है. प्रतिपक्ष ही नहीं बाकी लोगों में भी यह भाव फ़ैल रहा है कि यह निजाम महिला के प्रति असंवेदनशील है. २०१९ की आम पंचायत में यह मामूली दोष नहीं साबित होगा.
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दलित-विरोधी और मुस्लिम-प्रताड़क होने के आरोपों की सफाई अभीतक बकाया है. श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने की पहल से दलित प्रसंग की आंच कम हो चुकी है. लेकिन आम दलित के मन में गो-रक्षकों का आतंक गहरे तक बैठा है.



५)
इसके लिए सिर्फ दिल्ली दरबार में जगह बनाने से काम कैसे बनेगा. गाँव-कसबे की हवा में घुली हुई जातिवादी हिंसा के लिए कुछ नया करना होगा. गौरक्षकों की बान्हे बंधी गयी तो चुनाव में झंडे उठानेवाले हाथ कम हो जायेंगे. अगर उनको छुट्टा सांड बने रहने दिया गया तो देशभर में फैले २५ प्रतिशत दलितों-आदिवासिओं के वोट का छिटक जाना एक प्रबल संभावना है. इसमें अधिकांश मोदी-समर्थकों का  मुसलमान विरोधी होने का सच घाव पर नमक का काम कर्रेगा. पाकिस्तान से खराब खबरें कम नहीं हुई हैं. सरहद पर शहीद होनेवाले भारतीयों की यात्राओं ने यदि कांग्रेसी-राज की जड़ें हिला दीं तो मोदी सरकार के लिए खाद का काम नहीं कर रही हैं. फिर पाकिस्तान –भारत रिश्तों की खटास और इससे जुड़े कश्मीर प्रसंग और आतंकवादी हिंसा के अध्याय में भी तो कोई फरक नहीं आया है. चीन ने दोक्ला और अरुणाचल और लद्दाख तक सरहदी सुरक्षा का सच बेपरदा कर दिया है. अब म्यांमार-बंगलादेश से आ रहे रोहंगीय शरणार्थियों का दुविधा भरा प्रश्न भी समाधान के लिए सामने है.
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दूसरे शब्दों में, कांग्रेस-मुक्त राजसत्ता से देश को राहत कम और आफतें जादा मिली हैं. नए सत्ताधीशों की आर्थिक मोर्चे पर दृष्टिहीनता और असफलता छुपाये नहीं छिपी. व्यक्तिगत शुचिता का दावा धीरे धीरे धुधला गया है. हाँ, अभी




६)

उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार, परिवारवाद या अपराधियों से सांठ -गांठ वाला कलंक नहीं है. लेकिन लंगोटिया पूंजीपतियों से याराना जग-जाहिर है. सामाजिक जीवन में सांप्रदायिक तनाव पैदा करना तो वोट-बैंक के लिए रणनीति का हिस्सा ही था. सिर्फ वोट, मीडिया और धनबल के जरिये राजनीतिक व्यवस्था पर पकड़ मजबूत है. अब यह कितने दिन काम आयेगा यह  किसे मालूम? लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगना चाहिए कि देश में मोदी हटाओ-कांग्रेस लाओ का नारा गूँजने जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी के कद में कमी आई है. चार बरसों में कथनी –करनी के बीच बढ़ते फासले के कारन ‘मात्र वचनवीर’ की छबी बनी है. लेकिन मोदी की टीम के पास अभी भी १. संगठन, २. विचार, ३. प्रभुत्वशाली वर्गों का साधन और समर्थन, ४. प्रचारतंत्र, और ५. हिंदुत्व आधारित वोट बैंक का बल है. इसलिए उनके मुकाबले में साधु-शैतान सबका एकजुट हो जाना १९७१ में ‘इंदिरा हटाओ’ वाले नारे के भरोसे बने महागठबंधन की तरह ‘उलटा दांव’ भी साबित हो सकता है. बस ‘गरीबी हटाओ’ जैसे किसी नारे और पकिस्तान से हफ्ते –दो हफ्ते की धींगा-मुश्ती से मोदी की नाव पार लग जाएगी. क्योंकि गैर-मोदी जमातों में अभी भी आत्म-समीक्षा की तयारी नहीं है. प्रायश्चित भाव नहीं है. भ्रष्टाचार, व्यक्तिवाद, परिवारवाद, कार्यक्रमशुन्यता और विचारहीनता की दुर्गन्ध है.



७)

देश को वैकल्पिक लोकतान्त्रिक राष्ट्र-निर्माण का मार्ग चाहिए. भारतीय संविधान में निहित न्याय-त्रिवेणी अर्थात  – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की संयुक्तता पर आधारित नागरिकता और राष्ट्रीयता – के संकल्पों का असरदार क्रियान्यवयन चाहिए. इसलिए दल व्यवस्था और चुनाव व्यवस्था में सुधार की आधारशिला पर नयी नागरिक एकता और राजनीतिक महा अभियान के लिए नए-पुराने राजनितिक मंचों की एकजुटता की देश को जरुरत है. तभी मुट्ठी भर लंगोटिया पूंजीपतियों की पूंजी, हिंदुत्व के वोट बैंक और मोदी के करिश्मा के बलपर चल रहा मौजूदा अजूबा ढहेगा. इसलिए १. आर्थिक जीवन में, चुनाव में और दलों में लंगोटिया पूंजीपतियों के काले धन का प्रभुत्व, और २. राजनीति में विचारहीनता के मलबे पर उग आये व्यक्तिवाद-वंशवाद जैसे  महादोषों पर चुप्पी तोड़ना विकल्प निर्माण की पहली जरुरत है. यही तो भ्रष्टाचार के दो स्त्रोत रहे हैं. इनसे मुक्ति की तलाश में देश बेचैन २०११ से बेचैन है. बिना इस बारे में दिशा की स्पष्टता के २०१९ में एक और नयी सरकार बन सकती है लेकिन नयी राह नहीं बनेगी.
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८)

वैसे मौजूदा माहौल में यह सब कहना अवसरवाद के नक्कारखाने में आदर्शवाद की तूती बजाना है. क्योंकि हम सजग लोग धीरे धीरे दो खेमों में बंटते जा रहे हैं – मोदी के भक्त और मोदी के विरोधी. दोनों एक ही मनोभाव से पीड़ित हैं : सच से परहेज. इसीलिए हम सदगुरु कबीर की दो पंक्तियों को याद करके इस चर्चा के सन्दर्भ का भी ध्यान दिला कर बात को समेटना चाहते हैं:
साधू! देखो जग बौराना.
सांच कहे तो मारन दौड़े, झूठ कहे पतियाना.
साधू, देखि जग बौराना! 
नवम्बर, 2017 में प्रकाशित | 


लेखक प्रख्यात समाजशास्त्री और सामजिक कार्यकर्त्ता हैं.
anandkumar1@hotmail.com   +919650944604
  

19 October 2017






दलित रंगमंच उर्फ बर्रे के छत्ते पर ढेला

राजेश कुमार

अमूमन इस तरह के शीर्षक पारसी नाटकों के होते है। आलेख के लिए इस तरह का शीर्षक रखना कहाँ तक उचित है, ये तो लेख के अंत तक जाते - जाते स्पष्ट होगा। वैसे भी शीर्षक किसी कविता, कहानी, आलेख का मुकुट होता है। सारी बातें शीर्षक में ही खोल देना जायज नहीं है। एक रहस्य तो होना ही चाहिए। पर संपूर्णता की अंतर्निहिता भी आवश्यक है। मधुमक्खी का छत्ता ऊपर से बड़ा शांत नजर आता है, सन्नाटा भी छाया रहता है उसके इर्द - गिर्द। कामगार मधुमक्खियां छत्ते से बाहर निकलती हैं और फूल - पौधों से जो रस निकाल कर लाती हैं, यत्नपूर्वक सामूहिक ढंग से बटोरते रहती है। भसड़ तब फैलता है जब उस शांत, सब कुछ ठीक - ठाक चल रहे छत्ते पर कोई ढेला मार देता है। छत्ता फटता नहीं है कि एक साथ ढ़ेर सारे बर्रे निकलते हैं और चारों तरफ फैलकर भिन्न - भिन्नाना शुरू कर देते हैं।
आजकल इस तरह के परिदृश्य आपको फेसबुक, व्हात्सप्प जैसे सोशल मीडिया पर देखने को सहज सुलभ हो जायेंगे जब रंगमंच के शांत माहौल में दलित रंगमंच का कोई ढेला फेंक देता है। बर्रे की तरह फेसबुक के पन्नों से रंगकर्मी जिन्हें आप जानते भी न हो, जिनसे आपका कभी वास्ता भी न रहा हो, निकल - निकल कर आने लगते हैं और डंक मारने लगते हैं। जरूरी नहीं कि ये बर्रे केवल रंगकर्म से ही जुड़े हो, दूसरी जगहों के भी जबरन टपक पड़ते हैं। उनका आपसी भाईचारा इतना प्रगाढ़ होता है कि कोई भी मुद्दा हो, संस्कृति से लेकर राजनीति तक जबरदस्त यारी निभाने लगते हैं। परस्पर तालमेल भी इतना रहता है कि आवाज लगाने की भी जरूरत नहीं पड़ती है। एक - दूसरे को ये जानते भी न हो तो भी पहचान लेते हैं। सरनेम देखकर ही उनके अंदर का अपनत्व जोर मारने लगता है। इसलिए जब भी, जहां भी दलित रंगमंच का कोई राग छेड़ता है, प्रायः एक ही तरह के सरनेम वाले एकजुट हो जाते हैं और मारने लगते हैं, तड़ातड़ सवालों के डंक।
प्रायः पहला वार इसी सवाल से करते हैं कि ये दलित रंगमंच क्या है? ऐसा नहीं है कि सवाल करने वाले पहली बार इस नाट्य शब्द से परिचित हो रहे हो। दलित एक सामान्य सा शब्द है। राजनीति में तो काफी सालों से प्रचलन में है। साहित्य के लोग भी इससे अनजान नहीं हैं। न राजनीति और साहित्य से जुड़े लोगों को इस शब्द से कोई विशेष एलर्जी है। नाटक की दुनिया में भी प्रायः कोई न कोई शब्द आये दिन जुड़ते ही रहते हैं।  पिछले कुछ दशकों में एब्सर्ड थिएटर, मनोशारीरिक थिएटर, पुअर थिएटर, थर्ड थिएटर, स्ट्रीट थिएटर, ब्लैक थिएटर जैसे कई शब्द हमारे बीच आये और अपनी अवधारण को लेकर चर्चा के केंद्र में भी रहे। किसी ने न इनका विरोध किया, न आपत्ति की, न इसके विरुद्ध कोई मोर्चा खोला। फिर दलित थिएटर के प्रति जिस तरह के रिएक्शन्स सोशल मीडिया और रंग जगत के बीच इनदिनों आ रहे हैं, किस मानसिकता के परिचायक हैं?
     पिछले दिनोंसमकालीन रंगमंचके संपादक राजेश चंद्रा ने अपने व्हात्सप्प ग्रुपनया रंगविमर्शपर बहस चलाने के क्रम में स्वाभाविक ढंग सेदलित रंगमंचका मुद्दा उठाया। इसके पहले किसी न किसी रूप में मैंने भी फेसबुक पर पोस्ट डालने के बहाने इस मुद्दे को रखा हैं। जब - जब इस सवाल पर बात करने की कोशिश की गई है, प्रतिक्रियाएं काफी उत्तेजक, अराजक रही है। जहां तक मुझे याद है, ‘ नया रंगविमर्शव्हात्सप्प ग्रुप में 26 अक्टूबर 2016 को यह बहस प्रारंभ हुई थी जो तकरीबन 15 दिनों तक लगातार, कभी धीमी तो कभी तीव्र गति से चली। फेसबुक पर किश्तों में कई बार चली है जिसकी तारीख स्मरण में नहीं है। फिलहाल ज्यों व्हात्सप्प पर दलित थिएटर को रखा गया, पुंज प्रकाश का तत्काल रिएक्शन आया कि राजपूत थिएटर, ब्राह्मण थिएटर, भूमिहार थिएटर, लाला थिएटर, सरदार थिएटर भी शुरू हो? फिर गोरा थिएटर, सांवला थिएटर, काला थिएटर, मोटा थिएटर, पतला थिएटर, लंबा थिएटर, नाटा थिएटर भी शुरू हो तो कोई बुराई तो नहीं?
रमेश खन्ना भी इसकी सुर में सुर मिलाने का मौका कहाँ छोड़ने वाले थे? उसी में अपना और रंग दे दिया। दलित खुशी और दलित गम। दलित सुख और दलित दुःख। दलित हँसी, दलित परिहास। दलित अंधेरा, दलित उजाला। एनएसडी की स्नातक विधु खरे ने दलित शास्त्रीय संगीत कहा तो फिर से रमेश खन्ना ने लंबी तान खिंची, दलित पिज़्ज़ा, दलित समोसा। विधु खरे ने संगत दी, दलित नदी- दलित समंदर। दलित शेर । अभिषेक खरे ने इसमें कुछ और जोड़ दिया, दलित क्रिकेट -फुटबॉल -दलित कुश्ती। शिबू गौर ने फरमाया कि और भी कोई जाति हो तो फिर उनका भी होना चाहिए। इस पर विधु खरे ने ताल ठोका - कायस्थ रंगमंच, इस पर मेरा कॉपी राइट होगा। नीरज कुंदेर ने ठहाका लगाया - हा हा हा।
अतुल श्रीवास्तव भी कहाँ मानने वाले थे, आ गए अखाड़े में। आवाज लगाई, अगड़ा रंगमंच - पिछड़ा रंगमंच - दलित रंगमंच - सवर्ण रंगमंच - शौकिया रंगमंच - पेशेवर रंगमंच आदि ये चक्कर क्या है?
अनिल पतंग ने तो शाप ही दे दिया, सत्यनाशी रंगमंच। मनोज मिश्रा ने कहा कि दलित रंगमंच अभी तक मेरी जानकारी में कल्पना है, कुछ स्पष्ट नहीं है। बकैती है। अनिल तिवारी ने स्वीकारा कि मेरी समझ के बाहर का है ये सब। अभिषेक पंडित को कन्फ्यूज़न हुआ, रंगकर्म में दलित? या दलित का रंगकर्म? या दलित पर रंगकर्म? या दलित के लिए रंगकर्म? या दलित के नाम पर रंगकर्म? या रंगकर्म ही दलित? इस दुविधा पर किसी ने लंबी उबासी ली, यार रंगमंच को रंगमंच ही क्यों न रखा जाय। दलित रंगमंच, ब्राह्मण रंगमंच, ये रंगमंच, वो रंगमंच क्यों? इस पर अभिषेक पंडित उसके दर्द को सहलाते हैं, भई परेशान न हो, कुछ लोगों ने नई दूकान खोली है, उसकी मार्केटिंग का टैग लाइन है - दलित रंगमंच।
अखिलेश नारायण एक नए ज्ञान बोध के साथ फेसबुक पर प्रकट होते हैं और उपदेश देते हैं कि रंगमंच की कोई जाति नहीं होती। न इसका कोई धर्म होता है। कुछ लोग पता नहीं क्यों हर चीज में धर्म और जाति खोजने लगते हैं? आह्वान भी किया, कला को विभाजित मत करो, थिएटर को जाति में न बांटो।
जिस तरह दलित रंगमंच का नाम आते लोग ब्राह्मण - राजपूत - कायस्थ रंगमंच का राग अलापने लगते हैं यानी जातियों से संबंधित रंगमंच का नाम लेने लगते हैं, क्या दलित रंगमंच से वो जातिगत ध्वनि आती है? दलित रंगमंच से कौन सी जाति का स्वर उभरता है? पुंज प्रकाश  जिस तर्ज पर ब्राह्मण रंगमंच या भूमिहार रंगमंच शुरू करने की दलील देते हैं, वो एक विशिष्ट जाति को संबोधित करता है।
दलित किसी विशिष्ट जाति का पर्याय नहीं है। एक समाज के लिए बना शब्द है। भले इस समाज में निम्न जाति के लोग हैं लेकिन किसी खास जाति के लिए यह शब्द उपयोग में नहीं है। वर्णवादी व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं। ब्राह्मण - क्षत्रिय - वैश्य और शूद्र। सामाजिक और राजनीतिक स्तर से समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के सबल होने के कारण लोगों की दृष्टि में हमेशा उच्च रहे हैं, जिनके प्रति लोगों का कोई भेद - भाव नहीं रहा। सवर्ण होने के नाते समाज में आदरणीय और पूजनीय रहे हैं। सत्ता पर भी किसी न किसी रूप में इसी वर्ण का काबिज रहा है। प्रत्यक्ष या परोक्ष सत्ता पर नियंत्रण हमेशा से ब्राह्मणवादी धारा का ही रहा है। साहित्य व संस्कृति की मुख्यधारा पर ब्राह्मणवाद की ही वर्चस्वता रही है। शूद्र जिनका कार्य ही है तीनों वर्णों की सेवा करना, एक जाति के नहीं होते हैं। किसी को खेती करनी होती है, किसी को पशु पालना होता है, किसी के जिम्मे सफाई का कार्य होता है तो किसी को और विभिन्न तरह के कार्य। चूँकि सनातन धर्म उच्च- नीच और श्रेष्ठता की बुनियाद पर टिकी है, इसलिए हर जाति दूसरे से श्रेष्ठ होती है या निम्न। केवल जाति तक होती तो बात समझ में भी आती, यहां तो गोत्र में भी वही रामकहानी है। कोई गोत्र बड़ा है तो कोई छोटा। कोई उच्च है तो कोई निम्न।
इस लिए जो दलित रंगमंच का नाम आते किसी जाति विशेष से जोड़ लेते हैं, वो भ्रामक धारणा है। आज शूद्र वर्ण ही दो भागों में विभक्त है। शूद् और अतिशूद्र। शूद्र वर्ण में प्रायः पिछड़ी जातियां होती हैं। और अतिशूद्र में अधिकतर वो जातियां है जो वर्षों से अस्पृश्यता का शिकार रही हैं। उनके साथ इस स्तर पर अमानवीय व्यवहार हुआ है। वैसे पिछड़ी जातियां भी अस्पृश्यता से बच नहीं पायी हैं। लेकिन अतिशूद्र वर्ण के साथ सवर्णों ने जो सलूक किया है या आज भी देश के कोने - कोने में कर रहे हैं, कोई छुपा नहीं है। दलित शब्द जो आज प्रचलन में है, अतिशूद्र वर्ण के लोगों को ही संबोधित करता है। और दलित वर्ग में कोई एक जाति नहीं होती है। सौ से ऊपर जातियां इस वर्ग में आती है। इसी तरह का आंकड़ा शूद्र या कहे पिछड़ी जातियों का भी है। इसलिए जो रंगकर्मी दलित रंगमंच का नाम सुनते ब्राह्मण रंगमंच, भूमिहार रंगमंच, कायस्थ रंगमंच का राग अलापने लगते है, वो उनके अंदर की जातिगत कुंठा है जो किसी न किसी में फूट कर निकल रही है। अगर वे ब्राह्मण रंगमंच या राजपूत रंगमंच की कल्पना कर रहे हैं, तो वे मुक्त हैं स्थापना करने के लिए। और ऐसा नहीं है कि इस दिशा में लोग प्रयत्नशील नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में तो इन्होंने पहले से ही कुंवर सेना, रणवीर सेना, ब्रह्मर्षि सेना का गठन कर जातिगत संकीर्णता का परिचय दे चुके हैं। अगर राजनीति की तरह संस्कृति के क्षेत्र में ब्राह्मण या राजपूत रंगमंच का गठन करते हैं तो ये रंगमंच जरूर जातिवादी रंगमंच कहलायेगा। क्योंकि इस तरह का रंगमंच केवल अपनी जाति को महिमामंडित करने का काम करेगा। अपनी जाति तक सीमित रहेगा इस रंगमंच का दायरा। जबकि दलित रंगमंच के दायरे में कोई विशिष्ट जाति नही होती है, एक व्यापक समाज होता है जिनके साथ जाति के स्तर पर भेद भाव, अमानवीय व्यवहार होता रहा है। दलित रंगमंच सत्यनाशी रंगमंच नहीं है, प्रतिरोध का रंगमंच है जो समाज में जड़ जमाये वर्णव्यवस्था की असमानता के विरुद्ध जमीन तैयार कर रहा है। जो कह रहे हैं कि दलित रंगमंच समाज में जाति भावना को फैला रहा है, निर्मूल - निराधार है। दलित रंगमंच तो कुछ वर्षों की अवधारणा है, ये जातियां हमारे देश में हजारों वर्षों से है। और ये जातियां हमारे साहित्य, संस्कृति में हमेशा से किसी न किसी रूप में जीवित रही हैं, बल्कि पल्लवित - पुष्पित रही हैं। इसमें धर्म की भी खूब भूमिका रही है। रंगमंच में कई ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां शूद्र समाज के प्रति क्या व्यवहार हो, स्पष्ट वर्णित है। शूद्र पात्रों की क्या भाषा हो, उनके बैठने की जगह कहाँ निर्धारित हो, एक सोच के तहत तय किया जाता था। नाटक में नायक के निर्धारण के प्रति संस्कृत नाटक का जो नज़रिया था और उस नजरिये के मूल में कौन सा दृष्टिकोण था, किसी से छुपा नहीं है।
जिस तरह हमारे धर्म, समाज में वर्षों से वर्ण विभाजन रहा है, जाति का वजूद रहा है, नाटक इससे बचा नहीं है।
जो लोग रंगमंच को शुद्धता से देखते हैं, उन्हें राजदरबारों में फ़लने - फूलने वाले रंगकर्म की धारा को जानने की जरूरत है, जहां नाटक के नायक के लिए उच्च वर्ण का होना अनिवार्य बताया गया है। संस्कृत नाटकों के लिए नायक उच्च वर्ण का सब गुण सम्पन्न, श्रेष्ठ चरित्र वाला ही हो सकता है। सेवक , कारीगर जैसे पात्रों के लिए निम्न वर्ण के ही चरित्र गढ़े जाते थे। यहीं नही, भाषा के प्रति भी इनका जातिवादी नजरिया होता था। उच्च वर्ण के पात्र के लिए संस्कृत तो निम्न वर्ण के लिए प्राकृत, पाली जैसी भाषा तय रहती थी। प्रेक्षागृह में भी जाति के आधार पर स्थान निर्धारित होता था। ये तो सत्ता से जुड़े रंगकर्म के प्रति समाज का व्यवहार था, जो रंगमंच सत्ता से दूर, लोगों में था, उनके प्रति क्या दृष्टिकोण था, इसे जानना हो तो कौटिल्य केअर्थशास्त्रके पन्नों को पलटे जिसमें उन्होंने नट - नटियों की आचारहीनता की ओर संकेत किया है और नगरपालिकाओं तथा पंचायतों पर जोर डाला है कि वे नटों - बाजीगरों, मदारियों और तमाशा करनेवालों को नगर के समीप न फटकने दें। इनके लिए नगर के बाहर ही बस्ती बनायी जाये।अर्थशास्त्रमें ही नाट्यशालाओं का विरोध करते हुए यह भी लिखा गया है कि ये गॉवों में नहीं बनायी जानी चाहिए। क्योंकि इससे ग्रामीणों के काम में बाधा पहुंचती हैं।
रंगमंच को जाति में बाँटनेवाले अकेले कौटिल्य ही नही है, इसकी लंबी श्रृंखला है जो तब से आजतक अनवरत जारी है। आश्चर्य है, जो कहते नही अघाते हैं कि रंगमंच में जाति नहीं है, इन वर्णवादी दृष्टांतों पर गौर क्यों नहीं फरमाते है? अधिकतर संस्कृत नाटकों में राजाओं और सामन्तों की स्तुति कोई संयोगवश नहीं है। नाटकों के नायक के चयन के पीछे भी नाटककारों का यही मंशा रहती थी कि वह उच्च वर्ण का हो। इसी परंपरा का निर्वाह मुख्य धारा के भारतीय सिनेमा में आजतक चलती आ रही है। बहुसंख्यक आबादी को जान बूझकर नजरअंदाज कर उच्च वर्ण को नायकत्व देने का ट्रेंड है। धर्म से जुड़े होने और ईश्वर का प्रतिनिधि साबित करने के बहाने ब्राह्मण सत्ता के शीर्ष पर तो नहीं रहा, लेकिन धर्म, परंपरा, संस्कृति का भय दिखा- दिखा कर राजा हो या सामंत दोनों को अपने वश में रखता था। संस्कृत नाटकों में राजा के साथ प्रायः मित्र के रूप में विदूषक होता है जो ब्राह्मण ही होता है, वो मनोरंजन के साथ - साथ समाज की बुराइयों की पोल खोलता है या वक्रोक्ति का सहारा लेते हुए रूढ़िवादी तथा प्रतिगामी शक्तियों की खिल्ली उड़ाते हुए दिखता है। लेकिन यह चरित्र वर्ण, जाति के कारण समाज में जो भेदभाव है, उस पर कोई व्यंग्य, टिप्पणी करता हुआ नहीं दिखता है।
एक जुमला और फेंका जाता है कि दलित रंगमंच करनेवाले या उस पर बात करनेवाले जातिवादी होते हैं, जाति को फैलानेवाले लोग हैं।
कितनी सच्चाई है इस आरोप में?
उपरोक्त मिथकों, कथाओं, उद्धरणों ने मेरे ख्याल से काफी कुछ स्पष्ट कर दिया होगा। वर्ण और जाति किसने बनायी और इनके बनाने के पीछे क्या उद्देश्य था, जगजाहिर है। वर्ण और जाति के आधार पर जो असमानता, गैरबराबरी, अस्पृश्यता फैला रहे थे और आज भी किसी न किसी रूप में इसका समर्थन कर रहे हैं, ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है। लेकिन आश्चर्य होता है कि जो इसमें लिप्त हैं, वही दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे? इनका वश चले तो बुद्ध, महावीर, चार्वाक, कबीर, रैदास, फुले, पेरियार और अम्बेडकर पर भी जातिवादी होने का आरोप लगा दे? उनके साहित्य, दर्शन, राजनीति को जाति फैलाने वाला साबित कर खारिज कर दे?
दलित रंगमंच की मुख्यधारा बुद्ध, कबीर, रैदास, फुले से लेकर अम्बेडकर के चिंतन और आंदोलन से जुड़ी है। संस्कृति के क्षेत्र में विशेष कर रंगमंच के माध्यम से दलित थिएटर ऊंच - नीच पर आधारित समाज व्यवस्था को खारिज करती हुई मनुष्यता की पक्षधर है। वर्ण और जाति पर टिकी संस्कृति जो असमानता की हिमायती है, उसे नकार कर समानता और बरोबरी को पुर्नस्थापित करना ही दलित रंगमंच की प्रस्तावना है।
बेहतर होगा कि भारतीय रंगमंच की इस धारा को किसी जातिगत ग्रंथि से ग्रस्त होने के बजाय राजनीतिक, सामाजिक धरातल से जोड़कर देखने का प्रयास करें और इसकी जड़ में क्या है, वैज्ञानिक ढंग से विचारें, तभी भारतीय रंगमंच रूढ़ियों से मुक्त होगा। और एक के बाद एक नये विचारों के स्वागत के लिए तैयार रहेगा। 
सबलोग अक्टूबर 2017 में प्रकाशित |
लेखक धारा के विरुद्ध चलकर भारतीय रंगमंच को संघर्ष के मोर्चे पर लाने वाले अभिनेता, निर्देशक और नाटककार जो हासिये के लोगों के पुरजोर समर्थक हैं |
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