23 August 2017

किसानी के कुछ अनछुए पहलू : रामप्रकाश कुशवाहा


       किसानी के  कुछ अनछुए पहलू


                                 रामप्रकाश कुशवाहा

भारतीय किसान और कृषि-व्यवस्था की समस्याएँ देश-व्यापी स्तर पर एक-सी नहीं हैं . भौगोलिक विषमता ,भिन्न-भिन्न प्रकार की कृषि-उपज ,जनसँख्या का असमान वितरण और उसी के अनुपात में कृषि-योग्य भूमि की कम या अधिक उपलब्धता , भूमि-स्वामित्व सम्बन्धी अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग क़ानूनों का होना इस समस्या को न सिर्फ जटिल बनाते हैं बल्कि बहुआयामी विस्तार भी देते हैं . किसान समस्याओं का एक हिस्सा भारत में जातीय किसानों के अस्तित्व से जुड़ा है तो दूसरा अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की भौगोलिक पारिस्थितिकी से ; तीसरे हिस्से में आजादी के बाद विभिन्न प्रान्तों में बने भू-स्वामित्व सम्बन्धी अलग-अलग कानूनों से सम्बंधित और प्रभावित पारिस्थितिकी है . इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि किस प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन क़ानून लागू हुआ है और किस प्रदेश में नहीं . यह एक तथ्य है कि जमींदारी उन्मीलन क़ानून लागू होने वाले प्रदेशों में बहुत बड़े किसान नहीं रह गए हैं . इसीलिए ऐसे प्रदेशों में,जिनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है - पश्चिमी देशों की तर्ज पर बड़े पैमाने पर कृषि-फार्म विकसित करने के लिए सोचा भी नहीं जा सकता . बढ़ती आबादी के साथ भू-मालिकों की बढ़ती संख्या और निरंतर छोटे होते खेतों के कारण बहुत अधिक भूमि मेड बंदी में भी व्यर्थ हो रही है .
      सामान्यत: दुग्ध-उत्पादन और कृषि-कार्य सह-व्यवसाय के रूप में ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित होते रहे हैं .  किसानों में भी सब्जी उत्पादक किसान और अन्न उत्पादक किसान का दो वर्ग देखने को मिलते हैं. सरकार और व्यापारियों का नियंत्रण प्राय: अन्न का उत्पादन करने वाले किसानों पर ही पड़ता है . सब्जी उत्पादन करने वाले किसान प्राय: अधिक लाभ की स्थिति में होते हैं , क्योंकि मांग और पूर्ति के स्थानीय और सुदूरवर्ती दोनों की प्रभावों का लाभ वे उठा पाते हैं ; जबकि अन्न उत्पादक किसानों का नियंत्रण उपज के बाज़ार–मूल्य पर कम ही रहता है . दरअसल किसान समस्या का सम्बन्ध अन्न के बाज़ार-मूल्य पर सरकारी और व्यापारी वर्ग के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण से ही है . उसके उत्पाद के जरुरी खाद्य-सामग्री होने कमे कारण सरकारें एक सीमा से अधिक अनाजों के दाम बढ़ने ही नहीं देतीं बल्कि एक तरह से उनके दाम को घटाने का ही नीतिगत प्रयास करती रहती हैं . वैसे भी नयी फसल आते-आते किसान इतना अधिक आर्थिक दबाव में आ चुकता है कि अधिकांश किसान प्रारम्भ के एक-दो महीने के अन्दर ही अपनी फसल का बड़ा हिस्सा सस्ते दर पर व्यापारियों के हवाले कर चुके होते हैं . इन कारणों से अनाज के मंहगा होने का लाभ किसानों को प्राय: नहीं मिल पाता  है . मंहगाई बढ़ने  कि स्थिति में सरकारें अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए उसे रियायती मूल्य पर बाज़ार में उपलब्ध करा देती हैं . ऐसा आयातित अनाज किसानों के लाभ कमाने की सम्भावना को ही समाप्त कर देता है .
       ध्यान से देखें तो भारत में किसान समस्याओं का एक हिस्सा किसान जातियों और जातीय व्यापारी –तंत्र के अलग-अलग वर्गीय हितों और उनके परंपरागत आर्थिक व्यवहार से भी जुड़ा है . ये जातीय तंत्र अफ्रीका कि नदियों में पाए जाने वाले मगरमच्छ और बिल्डर बीस्ट की तरह अलग-अलग और प्राय: परस्पर विरोधी वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं . जैसे पशु-समूहों के ग्रीष्मकालीन प्रवास के समय मगरमच्छ उन पर हमले और शिकार के लिए अपनी पोजीशन ले लेते हैं ,वैसे ही नयी फसल आते ही व्यापारी जातियाँ परंपरागत रूप से ही एक साथ अनाजों का क्रय-मूल्य गिराकर बैठ जाती हैं .यह सब सामूहिक और संगठित रूप में सदियों से हो रहा है कि सरकारी समर्थन मूल्य भी उसका कुछ नहीं कर पाता .कितनी भी मंहगाई हो बाज़ार किसानों की कोई भी सहायता नहीं कर पाता .एक सीमा के बाद सरकारें बहार से अनाज आयात करने के लिए मजबूर होती हैं और किसान अपनी उपज की मंहगाई का लाभ या आनंद नहीं उठा पाता . इस तरह देखा जाय तो बाज़ार और सरकार दोनों मिलकर  उसके हितों को चोट पहुंचाते हैं . इस नुकसान की भरपाई तभी हो सकती है ,जब सरकारें कृषि कार्य में लगे किसानों का न सिर्फ पंजीकरण अनिवार्य कर दें बल्कि उन्हें कुछ नियमित कृषि-कार्य भत्ता एवं क्षतिपूर्ति राशि भी दें . उन्हें बेरोजगारी भत्ता की तरह एक न्यूनतम वेतन भी कृषि-कार्य में लगे मजदूरों और किसानों को देते रहना चाहिए .
       सारे विकास के बावजूद भारतीय किसान सीमित स्तर पर ही आधुनिक,वैज्ञानिक और व्यावसायिक बन पाया है .सरकारी योजनाकारों की सुस्ती के कारण कृषि-कार्य के लिए भूगर्भजल का अंधाधुंध दोहन देश के भविष्य को ही संकट ग्रस्त कर रहा है . सरकारें यदि चाहतीं तो परित्यक्त एवं सूखे कुओं को ही भूमि-जल संग्रह-केंद्र के रूप में विकसित करा सकती थीं .ऐसे कुंएं सिर्फ उनके तल को पक्का कर दीवारों को सीमेंट की परत चढ़ाते ही राजस्थानी शैली की भूमिगत टंकियों में बदल जाते और कम स्थान घेरते हुए उनके जल से सिंचाई का कार्य भी निर्बाध गति से होता रहता . सरकारें जितनी पाइपें दूर संचार के प्रयोजन से बिछवा रही हैं ,लगभग उतनी ही लागत से फाइबर की पाइपें भी जल-संवहन के लिए भूमि में बिछायी जा सकती थीं .पुराने–नए तालाबों को ऐसी पाइपों के माध्यम से नहरों और नदियों से जोड़कर एक ऐसा सतत और स्थायी जलापूर्ति-ग्रिड या तंत्र विकसित किया जा सकता है जो किसानों को जल-उपलब्धता की दृष्टि से आजाद करा देता .जब तक ऐसा नहीं किया जा रहा है , तब तक किसान और कृषि दोनों के ही अच्छे दिन आना संभव नहीं होगा .
        इस तरह देखा जाय तो किसान-समस्या के समाधान के लिए कृषि का आधुनिकीकरण जिसमें वैज्ञानिककरण भी ही सम्मिलित है .छोटे-छोटे किसानों के भूमि-स्वामित्व को सुरक्षित रखते हुए सामूहिक एवं सहकारिता पद्धति से बड़े फार्मों वाले सामूहिक खेती को प्रोत्साहित करने वाले क़ानून बनाना ,कृषि-उत्पादों के उचित मूल्य पर विक्रय एवं विपणन के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना ,किसानों के लिए वैकल्पिक रोजगार एवं आर्थिक लाभ बढ़ाने वाले सहकार्यों की गाँव में ही व्यवस्था करना ;भविष्य की जरूरतों का ध्यान रखते हुए वर्षा के जल का वैज्ञानिक प्रबंधन करना एवं उन्हें वर्ष पर्यन्त कृषि-कार्य के लिए उपलब्ध कराना आदि जरुरी हैं . सबसे तात्कालिक जरुरत भूगर्भ जल पर आधारित खेती को समाप्त कर जल भण्डारण के नए विकल्प तैयार करने के है .
उत्तर और दक्षिण भारत की नदियों को आपस में जोड़ने का सुझाव और योजना पुरानी है . नेपाल को साथ लेकर कुछ बड़ी इंजीनियरी वाली परियोजनाओं की भी जरुरत है . ताकि हिमालय के ऊँचे स्थान से ही जल-प्रवाह को स्टील की दैत्याकार पाइपों में खींच कर झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ के पठारी क्षेत्रों में बड़े बाँध बनाकर जल भण्डारण किया जा सके . गंगा-जमुना जैसी नदियों के अधिक एवं सदानीरा प्रवाह के लिए निर्जन एवं कम उपजाऊ क्षेत्रों में बड़ी कृत्रिम झीलों का विकास किए जाने की अभियांत्रिकी अब हमारे पास है . खनन उद्योग की तर्ज पर बड़ी-बड़ी मशीनों द्वारा कम समय में ही बड़ी कृत्रिम झीलों का निर्माण अब संभव है .
       भूगर्भ-जल और कृषि-क्षेत्र दोनों को ही सबसे गंभीर खतरा बढ़ती जनसँख्या के साथ बढ़ते मकानों से भूमि का निरंतर आच्छादित होते जाना है . सीमेण्ट की फर्श से ढकते शहरी क्षेत्र न सिर्फ जल का भूमि में पहुंचना रोकते हैं बल्कि भवनों का उसमें रहने वाले लोगों की संख्या और आवश्यकता के अनुपात में न बनाकर धन के अनुपात में वैभव और प्रदर्शन की भावना से बनाना भी अनावश्यक रूप से कृषियोग्य भूमि को कम करता जा रहा है . सिर्फ दो या तीन व्यक्तियों वाले परिवार के लिए आलीशान बंगलों का चलन हतोत्साहित किया जाना चाहिए . बहुमंजिली इमारतें भूमि बचाने का अच्छा समाधान हो सकती हैं .
        एक किसान विरोधी तथ्य यह भी है कि अधिकांश भारतीय गांवों में चारागाह के लिए ग्राम समाज की जमीन ही नहीं बची है .पिछली सरकारों नें भूमिहीनों को भूमि आबंटित करने की मुहिम चलाकर अधिकांश गांवों में बच्चों के खेलने के लिए खुली जमीन भी नहीं रहने दिया है . इसका समाधान यह हो सकता है कि प्रांतीय सरकारों को प्रत्येक ग्राम ईकाई या पंचायत में सार्वजनिक भूमि की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अविलम्ब एक भूमि क्रय विभाग की भी स्थापना करनी चाहिए . गांवों में बहुत से लोग आर्थिक दबाव में अपनी कृषि-भूमि बेचते रहते हैं . ऐसा प्रावधान और तंत्र रहने पर जरुरत-मंद अपनी भूमि सरकार को भी बेच पाते और ग्राम पंचायतों के पास भी अपनी जमीन होती . इससे गाँव के वंचित एवं निर्धन लोगों को भी आजीविका का साधन ग्राम पंचायतें उपलब्ध करा सकेंगीं . ऐसी क्रय की गयी भूमि में वृक्षारोपण कराकर सरकारें उद्यान एवं वन क्षेत्र भी विकसित कर सकती हैं . इससे हरित पट्टी का विकास होगा .भूगर्भ जल का स्तर नीचे नहीं गिरेगा और किसानों की दशा भी सुधरेगी .
          
         
              


रामप्रकाश कुशवाहा

विभागाध्यक्ष हिन्दी ,राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,गाजीपुर (उ.प्र.) पिन-233001

05 August 2017

कृषि संकट की जड़ें : जावेद अनीस

             कृषि संकट की जड़ें : जावेद अनीस



मध्यप्रदेश विडम्बनाओं और विरोधाभासों का गढ़ बनता जा रहा है, एक तरफ तो यह सूबा भुखमरी, कुपोषण और किसानों की बदहाली के लिए कुख्यात है तो ठीक उसी समय यह देश का ऐसा पहला सूबा भी बन जाता है जहाँ हैप्पीनेस डिपार्टमेंटकी शुरुआत की जाती है. विडम्बनाओं की इस कड़ी में संवेदनहीनता और मक्कारी भी अपने चरम पर होती है. तभी आंदोलनकारी किसानों  को अपराधी घोषित किया जाता है और उनकी आवाज को कुचलने के हर संभव तरीके अपनाए जाते हैं. प्रशासन और सरकार में बैठे लोगों का व्यवहार लोकतंत्र की मर्यादा के विपरीत है और वे हिप्पोक्रेट्स हो गये हैं. लगातार पांचवीं बार कृषि कर्मण अवार्ड जीत चुकी मध्यप्रदेश सरकार किसानों पर गोलियां चलवाने का खिताब भी अपने नाम दर्ज करवा चुकी है. अगर शांति का टापू कहा जाने वाले मध्यप्रदेश सहित देशभर के किसान गुस्से से उबल रहे हैं तो इसके पीछे घाटे की खेती, कर्ज़ का बोझ और दशकों से उनकी सरकारों द्वारा की गयी अनदेखी है. मध्यप्रदेश सरकार द्वारा लाख धमकाने, पुचकारने और फरेब के बावजूद किसानों का गुस्सा शांति नहीं हुआ है.इस बार किसानों प्रतिरोध इनता तेज था कि एक बार तो  करीब 11 सालों से सूबे की गद्दी पर अंगद की तरह पसरे शिवराजसिंह चौहान की गद्दी हिलती नजर आयी. आदोंलन शुरू होने के करीब पखवाड़े भर के भीतर ही सूबे के करीब दो दर्जन किसानों ने  आत्महत्या कर ली लेकिन तथाकथित किसान पुत्र  शिवराज सिंह की सरकार का पूरा जोर  किसी भी तरह से इस पूरे मसले से ध्यान हटा देने या उसे दबा देने का रहा.  पहले आन्दोलनकारियों को एंटी सोशल एलिमेंटके तौर पर पेश करने की पूरी कोशिश की गयी और जब मामला हाथ से बाहर जाता हुआ दिखाई दिया तो खुद मुख्यमंत्री ही धरने पर बैठ गये. बाद में उनका कहना था कि  दिया कि किसान आंदोलन को  अफीम तस्करों ने भड़काया था और उन्होंने ही इसे  हिंसक बनाया.

किसानों का आक्रोश केवल मध्यप्रदेश तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह देशव्यापी है.पिछले दिनों देश के कई हिस्सों में किसान आन्दोलन हुए हैं लेकिन किसानों कि हालत में कोई फर्क नहीं देखने को मिला और ना ही सरकारों द्वारा उनकी मांगों पर कोई विशेष ध्यान दिया गया है.  ऐसे में सवाल यह है कि क्या यह कोई तत्कालिक समस्या है या इसका जुड़ाव पूरे कृषि क्षेत्र से है जिसकी जड़ें पूँजी के नियमों से संचालित मौजूदा विकास की धारा में अन्तर्निहित है और जिनकी नियति जीडीपी के ग्रोथ पर सवार भारत को "किसान मुक्त भारत" में तबदील कर डालने में है ?

साम, दाम, दंड ,भेद का खेल

आंदोलन के शुरुआत में मध्यप्रदेश के किसान लाखों लीटर दूध और सब्जी सड़कों पर फेंक कर अपना विरोध दर्ज करा रहे थे  जिसका  शिवराज सरकार द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया . इससे  किसानों का आक्रोश बढ़ता गया, बाद में सरकार द्वारा आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ के नेताओं को बुलाकर समझौता करने और आन्दोलनकारियों की मांगों को मान लेने का स्वांग रचा गया जबकि भारतीय किसान संघ का इस आंदोलन से सम्बंध ही नही था और फिर जब पुलिस द्वारा आंदोलन कर रहे  6 किसानों की हत्या कर दी गयी तो थ्योरी पेश की गयी कि आंदोलनकारी किसान नहीं बल्कि  असामाजिक तत्व थे जिन्हें कांग्रेस का संरक्षण प्राप्त था, यह दावा भी किया गया कि गोली पुलिस की तरफ से नहीं चलायी गयी थी. उसी दौरान देश भर के अखबारों में विज्ञापन छपवाए गये जिसका टैग लाईन था किसानों की खुशहाली के लिए सदैव तत्पर मध्यप्रदेश सरकार”.  इसके बाद जब लगा कि हालात बेकाबू होते जा रहे हैं तो  मारे गये किसानों मुवावजा देने की घोषणा कर दी गयी. पहले प्रत्येक मृतक को 10 लाख के मुआवजे देने की बात कही गयी फिर उसे बढ़ा कर 1 करोड़ कर दिया गया और आनन-फानन में इस घटना के न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गये. विपक्ष की तरफ से भी सरकार को पूरी तरह से घेरने की कोशिश की गयी. राहुल गांधी ने बयान दिया कि  सरकार किसानों के साथ युद्ध कि स्थिति में है”.

सत्ता का उपहास देखिये इसके बाद मुख्यमंत्री खुद उपवास पर बैठ गये. मृतक किसानों के परिवारवालों को बुलाकर शिवराज ने ये जताने की कोशिश की कि किसान उनके साथ हैं. अगले दिन शिवराज ने बहुत ही नाटकीय अंदाज में वहां मौजूद भीड़ से क्या मैं अपना उपवास खत्म कर दूं”? पूछ कर उपवास तोड़ दिया. इस दौरान उन्होंने करीब एक दर्जन घोषणायें भी कर डालीं.  मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह ने  हिसाब लगाया है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपने कार्यकाल के पहले दस वर्षों में करीब 8000 घोषणाएं कर चुके हैं यानी औसतन दो घोषणाएं हर रोज, जिनमें से लगभग 2000 को पूरा नहीं किया जा सका है. पिछले तीन सालों में की गयी 1500 घोषणाओं में से तो केवल 10प्रतिशत ही पूरी हो सकी हैं. ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि उपवास के दौरान की गयी घोषणाओं का क्या होने वाला है.

बाद में एक न्यूज़ चैनल द्वारा मुख्यमंत्री का उपवास को लेकर जिस तरह के खुलासे किये गये वो उस पूरे  पाखंड को उजागर करते हैं है जिसके लिए 5-7 करोड़ रूपए खर्च किया गया. लेकिन तमाम चालबाजियों और जादूगरी के बावजूद किसानों का गुस्सा बना हुआ है और अपने आप को किसान पुत्रके तौर पर पेश करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की यह छवि टूट चुकी है . पिछले ग्यारह सालों के अपने कार्यकाल में शिवराज सिंह चौहान ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं, मुसीबत को मौके में तब्दील कर देना उनकी सबसे बड़ी खासियत रही है, यहाँ तक व्यापमं जैसे कुख्यात घोटाले के बाद भी वे अपनी कुर्सी बचा पाने में कामयाब रहे हैं. आज एक बार फिर वे  अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. जिस किसान हितैषी छवि को उन्होंने बहुत करीने से गढ़ा था इस बार उसी को सबसे बड़ा झटका लगा है और यह झटका खुद किसानों ने ही लगाया है. गोलीकांड से ठीक पहले हालात  बिलकुल ही अलग नजर आ रहे थे. उनकी बहुप्रचारित नर्मदा यात्रा खत्म ही हुई थी और विपक्ष हमेशा की तरह कमजोर और असमंजस्य की स्थिति में नजर आ रहा था लेकिन किसानों के गुस्से और गोलीकांड से फिजा बदली हुई नजर आ रही है. दरअसल आंदोलन के शुरूआती दौर में जब किसान सड़क पर उतरे तो इसे गम्भीत्ता से नहीं लिया गया. अगले साल विधान सभा चुनाव हैं और शिवराज सरकार अपने आप को सबसे कमजोर स्थिति में पा रही है, लम्बे समय बाद विपक्षी कांग्रेस में हलचल और जोश दोनों नजर आ रही है.

खतरनाक पैटर्न

किसानों के प्रति मध्यप्रदेश सरकार के मंत्रियों और भाजपा के नेताओं के जिस तरह से बयान आये हैं वे उस खास पैटर्न की ओर इशारा करते हैं जिसमें सत्ताधारियों द्वारा जमीनी मुद्दों और संघर्षों को खाक बना देने के लिए हर संभव हथखंडे अपनाये जाते हैं. अखबारों में छपी खबरों के अनुसार किसान आंदोलन के दौरान गोली चलने से ठीक पहले मध्यप्रदेश के गृहमंत्री  भूपेंद्र सिंह कानून व्यवस्था कि समीक्षा के  दौरान कहा था कि किसानों कि आड़ में असमाजिक तत्व गड़बड़ी कर रहे हैं. ऐसे लोगों से सख्ती से निपटा जाए. इसके कुछ  घंटों बाद ही मंदसौर से पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने की ख़बरें आती हैं,  सत्ताधारी पार्टी और सरकार से जुड़े कई नेताओं ने  भी  आन्दोलनकारियों को नकली, मुट्ठी भर किसान और विपक्ष की साजिश साबित करने पर पूरा जोर लगा रहे थे. प्रदेश में किसानों की मौत को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजे गये अपने जवाब में मध्यप्रदेश सीआईडी ने कहा है कि मध्यप्रदेश में किसानों के आत्महत्या की बड़ी वजह खेती या कर्ज नहीं बल्कि वे पारिवारिक कलह, शराब पीने, शादी, सम्पत्ति विवाद और बीमारी आदि वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं.

मध्यप्रदेश के किसान नेता सुनीलम कहते हैं कि मुख्यमंत्री द्वारा किसान आंदोलन को अफीम तस्करों द्वारा प्रायोजित बताना बहुत हो शर्मनाक है. लेकिन श्रम की लकीर यहीं खत्म नहीं होती है सूबे में भाजपा के मुखिया नंदकुमार सिंह चौहान का बयान है कि, समस्याओं से लड़ने की 'विल पॉवर' (इच्छाशक्ति) कम होने के चलते किसान ही नहीं विद्यार्थी भी आत्महत्या कर रहे हैं,कई बार ऐसा होता है कि लोगों के मन के मुताबिक रिजल्ट नहीं आता और हताश होकर लोग आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं. यह पूरी की गयी है कि कैसे किसानों इस पूरी त्रासदी को बहुत ही सामन्य बना दिया जाए.

क्यों उबले किसान ?

मौजूदा किसान आंदोलन खेती-किसानी की कई सालों से कि जा रही अनदेखी का परिणाम है, इस आक्रोश के लिये सरकारों कि नीतियां जिम्मेदार है. आज भारत के किसान खेती में अपना कोई भविष्य नहीं देखते, उनके लिये खेती-किसानी बोझ बन गया है उनके  और अगर उन्हें दूसरा कोई विकल्प मिले तो वे आसानी से खेती छोड़ने के लिए तैयार हो जायेंगें. हालात यह हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है. 2013 में जारी किए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते है कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाये देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतम 47 हजार रुपए का कर्ज है. इधर मौजूदा केंद्र सरकार की तुगलगी हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं, नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ के रख दी है  यह नोटबंदी ही है जिसकी वजह से किसान अपनी फसलों को कौडि़यों के दाम बेचने को मजबूर हुए, मंडीयों में नकद पैसे की किल्लत हुई और कर्ज व घाटे में डूबे किसानों को नगद में दाम नहीं मिले और मिले भी तो अपने वास्तविक मूल्य से बहुत कम. आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के चलते किसानों को कृषि उपज का दाम 40 फीसदी तक कम मिला. जानकार बताते हैं कि खेती- किसानी पर  जीएसटी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इससे पहले से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ जायेगी. मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के आलावा कुछ खास नहीं किया है. आज भारत के किसान अपने अस्तित्व को बनाये और बचाए रखने के लिए अपने दोनों अंतिम हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके दावं पर उनकी जिंदगियां लगी हुई हैं.एक हथियार गोलियां-लाठियां खाकर आन्दोलन करने का है तो दूसरा आत्महत्या यानी खुद को ख़त्म कर लेने का.

कृषि संकट  की जड़ें

“खेती में अब इतना मुनाफा नहीं,खेती बंट-बंटकर घट गई है, खेती जनसंख्या का बोझ नहीं सह सकती है,खेती का काम जो कर रहे है वे करें उनकी मैं हर संभव मदद करूंगा लेकिन मेरी इच्छा है कि आपमें से कुछ लोग उद्योगों की तरफ आएं,सर्विस सेक्टर में जाएं,इसके लिए हम अकादमिक से लेकर मैदानी प्रशिक्षण देंगे". यह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के वाक्य हैं जिन्होंने  जाने-अनजाने अपने इन चंद वाक्यों से भारत के कृषि संकट की गहराई को छु लिया. दरअसल यह केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे `कृषि क्षेत्र का संकट है’, यह एक “कृषि  प्रधान” देश की “कृषक प्रधान” देश बन जाने की कहानी है. 1950 के दशक में  भारत के जीडीपी में  कृषि क्षेत्र का हिस्सा 50 प्रतिशत था,1991 में जब नयीआर्थिक  नीतियां को लागू की गयी थीं तो  उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 34.9 %  था  जो  अब  वर्तमान  में  करीब  13%  के  आस पास    गया  है.  जबकि  देश  की  करीब  आधी   आबादी  अभी भी खेती पर ही निर्भर  है.  नयी  आर्थिक  नीतियों  के  लागू  होने  के  बाद   से   सेवा  क्षेत्र  में  काफी फैलाव हुआ है जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिन्दा अर्थव्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उसअनुपात में  रोजगार का अवसर मुहैया कराने में नाकाम रहा है,

नतीजे के तौर पर  आजभी भारत की करीब  दो-तिहाई आबादी की   निर्भरता  कृषि  क्षेत्र  पर  बनी  हुई है . इस दौरान परिवार बढ़ने की वजह से छोटे किसानों की संख्या  बढ़ी  है  जिनके  लिए   खेती  करना बहुत मुश्किल एवं  नुकसान भरा काम हो गया  है और  कर्ज लेने की मजबूरी बहुत आम हो गयी है. एनएसएसओ के 70वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार देश  के  कुल   9.02  करोड़  काश्तकार  परिवारों  में  से 7.81 करोड़ (यानी 86.6 फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर पाते  जिससे वे अपने परिवार के खर्चों को पूरा कर सकें. खेती करने की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे किसानों के लिए खेती करना लगातार मुश्किल होताजा रहा है. दरअसल खेती का सारा  मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियां कूट रही हैं,भारत के कृषि  क्षेत्र   में पूँजी अभी भी सीधे तौर पर दाखिल नहीं हुआ है, अगर इतनी बड़ी संख्या में आबादी लगभग जीरो प्रॉफिट पर इस सेक्टर  में  खप  कर  इतने  सस्ते  में  उत्पाद  दे  रही  है  तो  फौरी तौर पर इसकी  जरूरत ही क्या है, इसी के साथ ही किसानी और खेती से जुड़े कारोबार तेजी से फल फूल रहे हैं . फर्टिलाइजर बीज, पेस्टीसाइड  और  दूसरे  कृषि  कारोबार  से जुड़ी  कंपनियां  सरकारी  रियायतों  का  फायदा  भी  लेती  हैं.  यूरोप  और  अमरीका जैसे पुराने पूंजीवादी मुल्कों के अनुभव बताते हैं  कि इस रास्ते पर चलते हुए अंत  में  छोटे  और  मध्यम किसानों को  उजड़ना पड़ा है क्योंकि पूँजी का मूलभूत  तर्क  ही  अपना  फैलाव  करना  है  जिसके  लिए  वो  नये  क्षेत्रों  की  तलाश  में  रहता  है. भारत  का  मौजूदा  विकास  मॉडल  इसी रास्ते पर फर्राटे भर रही है  जिसकी वजह  देश  के  प्रधानमंत्री  और  सूबाओं  के  मुख्यमंत्री  दुनिया  भर  में  घूम-घूम  कर  पूँजी  को  निवेश  के  लिये  आमंत्रित  कर  रहे हैं, इसके   लिए  लुभावने आफर  प्रस्तुत दिये जाते हैं  जिसमें  सस्ती जमीन और मजदूर शामिल है.

आगे का रास्ता और भी खतरनाक है

भविष्य में अगर विकास का यही रास्ता रहा तो बड़ी पूँजी का रुख गावों और कृषि की तरफ मुड़ेगा ही और जिसके बाद  बड़ी  संख्या  में  लोग  कृषि  क्षेत्र  छोड़  कर  दूसरे सेक्टर में जाने को मजबूर किये जायेंगें, उनमें से ज्यादातर के पास  मजदूर बनने का ही विकल्प बचा होगा. यह सेक्टोरियल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय साबित होगा. मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ भी चुकी है, इस साल  अप्रैल में नीति आयोग ने जो तीन वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया है उसमें 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कृषि में सुधार की रूप-रेखा भी प्रस्तुत की गई है.  इस एक्शन प्लान में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जिन नीतियों की वकालत की गई है उसमें  न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय  शामिल हैं. कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर है, यह दस्तावेज एक तरह से भारत में कृषि के निजीकरणका रोडमैप है

हमारे राजनीतिक दलों के लिये किसान एक ऐसा चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाह कर इसलिए भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते  क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है जो अब नासूर बन चूका है,विपक्ष में रहते हुए  तो सभी पार्टियाँ  किसानों के पक्ष में बोलती हैं और उनकी आवाज को आगे बढ़ाती हैं  लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी विकास के रास्ते  पर  चलने  को मजबूर  होती  हैं   जहाँ  खेती  और  किसानों की  कोई  हैसियत  नहीं  है. सरकारें आती जाती रहेंगीं लेकिन मौजूदा व्यवस्था में  किसान अपने वजूद की लड़ाई लड़ने  के लिए अभिशप्त हैं. सतह पर आन्दोलन भले ही शांत हो गया लगता हो लेकिन  किसानों का दर्द, गुस्सा और आक्रोश अभी भी कायम है, पूरे कृषि संकट संबोधित करने की बात तो दूर की कौड़ी है सरकारें आन्दोलनकारी किसानों की दो प्रमुख मांगों,फसल के अच्छे दाम और लिए गए कर्ज की पूरी माफी के सामने ही खुद को लाचार पा रही है.
सबलोग अगस्त 2017 में प्रकाशित |
                              
                              

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं |

सम्पर्क - +919424401459, javed4media@gmail.com

03 August 2017

किसानों की (आत्म) हत्या पर देश चुप क्यों ?



किसानों की (आत्म) हत्या पर देश चुप क्यों ?
 
हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचन्द ने 1932 में लिखा था कि  'अब तक सरकार ने किसानों के साथ सौतेले  लड़के का-सा व्यवहार किया है। अब उसे किसानों को अपना जेठा पुत्र समझकर उनके अनुसार अपनी नीति का निर्माण करना पड़ेगा।' आज की स्थिति तो यह है कि किसानों की समस्याओं के बारे में अव्वल तो लिखा नहीं जाता और यदि लिखा भी जाता है तो इतना कम और गौण तरीके से लिखा जाता है कि उसका कोई व्यापक असर नहीं होता।
अभी हाल ही में 10 जून की सुबह मध्यप्रदेश के सिहोर और भोपाल में जब  किसान एकजुट होकर  मंदसोर की गोलीबारी(जिसमें 5 किसान मारे गए थे) के खिलाफ धरना और प्रदर्शन के माध्यम से अपने गुस्से और क्षोभ का इजहार कर रहे थे तब देश के अधिकांश राष्ट्रीय और 'राष्ट्रभक्त' चैनल प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्रा की 'जरूरी' खबर परोस रहे थे।
किसानों के दुख दर्द इन समाचार चैनलों के सरोकार के हिस्से नहीं हैं तो इसलिए कि सत्ता और पूँजी के गंठजोड़ से संचालित मीडिया की प्राथमिकताएँ कारपोरेट के कारोबार हैं या फिर  सत्ता के गलियारे की गूँज। किसानों के मुद्दे पर लगातार लिखने वाले पत्रकार पी.साईनाथ ने कारपोरेट मीडिया के चरित्र का वर्णन करते हुए लिखा है कि 'विदर्भ में आत्महत्याओं की रिपोर्टिंग 6 से भी कम राष्ट्रीय पत्रकार कर रहे थे जबकि 'लैक्मे इण्डिया फैशन वीक' को कवर करने के लिए 512 मान्यता प्राप्त पत्रकार आपस में भिड़े हुए थे। इस फैशन वीक के कार्यक्रम में मॉडल सूती कपड़ों का प्रदर्शन कर रहे थे,जबकि नागपुर से मात्र डेड़ घण्टे के हवाई सफर की दूरी पर स्थित विदर्भ क्षेत्र में कपास उपजाने वाले स्त्री-पुरुष आत्महत्याएँ कर रहे थे।'
भारत की  66  प्रतिशत आबादी आज भी गाँवों में रहती है।लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि गाँवों के इस देश में आज सबसे अधिक उपेक्षा गाँवों और किसानों की ही हो रही है।
योजना बनाने वाले जितना ख्याल शहरों का रखते हैं उतना गाँवों का नहीं।ज्यादा बीमार गाँवों में रहते हैं लेकिन अस्पताल और डॉक्टर शहरों में बसते हैं। आग गाँवों के खलिहानों में लगती है और दमकल (अग्निशामक यन्त्र) शहरों में दहाड़ मारता है। भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने का सबसे बड़ा कारण गाँवों और खेती-किसानी में बुनियादी सुविधाओं की कमी है।अब लोग स्वेच्छा से गाँवों में रहना  और गाँवों में रहकर खेती करना नहीं चाहते।आखिर क्या वजह है कि कर्मठता,जिजीविषा और धैर्य के पर्याय माने जाने वाले किसान आत्महत्या करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कौम  बन गयी? आज हर 8 घण्टे में भारत का एक किसान आत्महत्या कर रहा है।
किसानी के लिए यह बुरा वक्त अचानक नहीं आया,अँग्रेजों के शासनकाल में किसानों के शोषण का जो सिलसिला शुरू हुआ था,वह देश की आजादी के 70 वर्षों बाद भी बदस्तूर जारी है। 1925 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 18 रुपये और एक क्विंटल गेहूँ का मूल्य 16 रुपये था।1960 में 10 ग्राम सोना 111रुपये का और एक क्जविंटल गेहूँ 41 रुपये का था।आज जब 10 ग्राम सोना 29000 रुपये का है तो एक क्विंटल गेहूँ 1625 रुपये का है।1965 में केन्द्र सरकार के प्रथम श्रेणी के अधिकारी के एक माह के वेतन से 6 क्विंटल गेहूँ खरीदा जा सकता था,आज केन्द्र सरकार के एक चपरासी के वेतन से 10 क्विंटल गेहूँ खरीदा जा सकता है।आजाद भारत में शासन और सरकार द्वारा किसानों की उपेक्षा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
हरित क्रान्ति ने खेती में तात्कालिक लाभ का भ्रम जरूर बनाया, लेकिन अब उस लाभ की 'असलियत' उजागर होने लगी है।छट्ठे दशक के अन्तिम वर्षों में जब भारत भयंकर खाद्यान संकट से जूझ रहा था तो अमेरिका द्वारा प्रायोजित  'हरित क्रान्ति' ने  खेती में जो परिवर्तन प्रस्तावित किया था वह भारत की पारम्परिक खेती के बिल्कुल विपरीत था। नए तरह के बीज और  नये नये रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से उपज में तो बढ़ौतरी हो रही थी लेकिन जमीन की स्वाभाविक उर्वरता उसी गति से नष्ट हो रही थी।मानव समुदाय और जीव-जन्तु भी नयी नयी जानलेवा बीमारियों के शिकार होने लगे।
उदारीकरण के दौर में जब भारत में नयी आर्थिक नीति लागू हुई तो यह प्रक्रिया और तेज हो गयी।इसने किसानों को और बदहाल बना दिया।  जाहिर है इसी दौर में हुए कई किसान आन्दोलनों के दबाव  में प्रो.एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में 2004 में एक आयोग 'नेशनल कमीशन फ़ॉर फार्मर्स' का गठन किया गया। इस आयोग ने अपनी चार रिपोर्टों में कई सिफारिशें की हैं,जिसमें कारपोरेट सेक्टर को कृषि और वन भूमि देने की साफ मनाही की गयी है।दुर्भाग्यवश केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया। केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद कारपोरेट घरानों के उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण का मामला और तेज हो गया है। अडानी के एक पावर प्लांट के लिये गोड्डा (झारखण्ड) के पास 1600 एकड़ कृषि भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लगभग 15 गाँवों के किसान पिछले एक वर्ष से आन्दोलनरत हैं। इस प्रोजेक्ट से बनने वाली बिजली जब बंगला देश को बेची जानी है तब  झारखण्ड की सरकार एक निजी कम्पनी के कारोबार के लिए अपने ही राज्य के रैयतों और किसानों को उजाड़ने के लिए आमदा क्यों है? सरकार के जनविरोधी रवैये को उजागर करने वाला यह सवाल लोकतन्त्र के अस्तित्व का भी सवाल है।                                                                                                            
किशन कालजयी                                               सम्पादक- सबलोग

02 August 2017

कैसा हिंदुस्तान, मरता जहाँ किसान?



क्या छत्तीसगढ़, क्या मध्यप्रदेश, क्या झारखंड और क्या महाराष्ट्र, हर प्रदेश से किसानों की आत्महत्याएँ सुर्खियों में हैं। मध्यप्रदेश में तो पिछले दिनों प्रतिदिन एक किसान ले आत्महत्या की। छत्तीसगढ़ में भी यह सिलसिला शुरू हो गया। सबसे शर्मनाक बात यह है कि किसानों की खुदकशी पर जो सरकारी टिप्पणियाँ आती हैं, वो हृदय को चीर कर कर रख देती हैं। सत्ता और प्रशासन का निर्मम चेहरा बताने के लिए ये टिप्पणियाँ पर्याप्त हैं। कोई कहता है कि किसान ने मानसिक परेशानियों के चलते आत्महत्या की, कोई कहता है उसका कोई प्रेम-प्रसंग था। 
कृषि-प्रधान देश में आज किसान आत्महत्या करने पर विवश क्यों हैं, इस पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है। किसान बचेगा तो खेत बचेंगे। खेत बचेंगे तो अनाज उपजेगा। अनाज उपजेगा तो मनुष्य समाज जिंदा रहेगा। इसलिए किसान को धरती का भगवान कहा जाता है लेकिन हमने किसान को आज इतना कमजोर और बेबस बना दिया है कि वह आत्महत्या के लिए बाध्य हो जाता है। और वह मरे क्यों न, जब सरकार और साहूकार दोनों उसकी जान लेने पर आमादा हो जाते हैं। किसान कर्ज लेता है और चुकाने के लायक नहीं रहता। उसकी फसल जब बर्बाद हो जाती है तो वह कर्ज पटाने के लिए पैसे कहाँ से लाएगा? लेकिन व्यवस्था निर्मम हो कर उसके पीछे पड़ जाती है। तब एक ही रास्ता बचता है पलायन । या तो गाँव छोड़ कर कहीं दूर भाग जाओ, या फिर अपनी जान ले लो। और अनेक टूटे-हारे किसान यही करते हैं। मानसिक रूप से वे इतने प्रताडि़त हो जाते हैं कि जान दे कर सारी झंझटों से मुक्त हो जाते हैं। तब  सरकारी प्रवक्ता कहता है वह मानसिक रूप से परेशान था। मगर क्यों था परेशान? क्योंकि उसके सिर पर कर्जे का बोझ था। प्रतिदिन के तकादे थे। अत्याचार था। छत्तीसगढ़ में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मैं छत्तीसगढ़ में रहता हूं। गाँवों को निकट से देखा है। यहाँ का किसान बड़ा खुशहाल ही रहता था। कभी आत्महत्या की सोचता भी नहीं था, लेकिन पिछले एक-दो दशकों से उसकी हालत खराब होती गई है। कर्ज के बोझ ने ही उसे आत्महत्या के लिए विवश किया है। और दूसरा कारण है ही नहीं। लेकिन निर्मम सत्ता और प्रशासन के भेजे में यह बात घुसती नहीं। वह अपने तरीके से चीजों को देखता है। अपनी छवि की उसे बड़ी चिंता है। एक दशक पहले जब महासमुंद में भूख से एक व्यक्ति मरा तो रातों रात उसके घर के भीतर घुस कर अनाज आदि रख दिया गया और कहा कि वह व्यक्ति भूख से नहीं, बीमारी से मरा। यही हालत आज है। किसान खुदकशी कर रहा है तो उसके प्रेम संबंध का खंगाला जाता है। पारिवारिक कलह को सामने ला कर रखने की कोशिश होती है। जबकि सच्चाई यही है कि किसान मरता है कर्जे के कारण । और जब किसान मर जाता है तो हमारे नेता आदर्शवादी संवाद बोलते नजर आते हैं कि आत्महत्या कोई समाधान नहीं। तो क्या किसान जिंदा रह कर अपने आप को नीलाम करके कर्ज चुकाता रहे? क्या वह जेल की हवा खाए
किसान आपदा फंड
किसानों को आत्महत्या से बचाने के लिए ठोस नीति बनाने की जरूरत है। सबसे बड़ी बात, यह देखना चाहिए कि क्या कोई किसान सचमुच परेशान है? उस पर कितना कर्ज है, उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि कैसी है। उसके घर की माली हालत क्या है? प्रशासन के लोग गाँवों को सर्वे करते रहें। किसानों के बारे में एक डाटा तैयार करें। फसलों का आंकलन करते रहें। फसलों को समुचित मूल्य किसान को मिले। उसे बोनस मिले। वह बिचौलियों से बचे। सरकार सीधे उसकी अनाज खरीदे। और अगर बाढ़ आदि के कारण किसान की फसल नष्ट हुई है तो उसका पूरा कर्जा माफ होना चाहिए। सरकार को किसान आपदा फंड बनाना चाहिए। और अगर सरकार आथिज्ञर््क रूप से दिवालिये जैसी हो चुकी है, उसके पास अपनी अय्याशी के लिए पैसे हैं और लोकमंगल के लिए खजाना खाली-सा है तो वह किसान कर भी लगा सकती है। किसी ने किसी वस्तु के साथ दो प्रतिशत किसान -कर भी लागू कर सकती है। ऐसा करके जो पैसे जमा हों, उससे वो पर उस किसान का कर्जा माफ करे जो चुकाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे कितने किसान हैं इसकी सूची आसानी से बन सकती है। सरकार पंचाययों के माध्यम से पता कर सकती है। इस सूची की प्रामाणिकता कै लिए दूसरे अधिकारी परीक्षण भी कर सकते हैं। इस देश में पंचायत स्तर तक भी भ्रष्टाचार व्याप्त है।  फर्जी सूची बना कर राशि हड़पने का केल निरंतर जारी रहता है। मनरेगा के मामले में हम सबने यह देखा ही है। अनेक निर्माण कार्यों में फर्जी मस्टररोल बना कर लाखों  रुपये हजम किये जाते रहे हैं। तो, यह देखा जाए कि किसानों के नाम पर कोई भ्रष्टाचार तो नहीं हो रहा है।  अगर ऐसा हुआ है तो कुछ नाम काटे जा सकते हैं, लेकिन जो सचमुच माफी के हकदार हैं, उन सबके कर्ज किसान आपदा फंड के जरिये माफ किये जाने चाहिए।  ऐसा करके सरकार कोई अहसान नहीं करेगी। यह उसका दायित्व है कि वह धरती के भगवान को बचाए। उसके साथ न्याय करे। 
लोकजागरण भी जरूरी
किसानों को आत्महत्या से बचाने के लिए उनके बीच जाकर एक सकारात्मक वातावरण बनाना जरूरी है। जब यवतमाल जिले में अनेक किसान आत्महत्या करने लगे थे तो हम कुछ साथी वहाँ जाकर अनेक गाँवों में घूम-घूम कर सभाएँ करते थे। किसानों से बातें करते थे। उन्हें समझाते थे कि जैसे भी विषम हालात हो, आत्महत्या न करें। मैं अपना एक गीत उन्हें गा कर सुनाया करता था, ''ओ धरती के भगवान , हमारे प्यारे बड़े किसान । अरे, तू मत ले अपनी जान, देख लज्जित है हिंदुस्तान''। युवा संत विवेकजी के साथ मैंने एक साथ अनेक गाँवों को दौरा किया। मेरे साथ कवि सतीश सक्सेना भी थे। हमने पाया कि हमारी सभाओं को व्यापक असर हुआ और बाद में आत्महत्याओं की घटनाएँ बेहद कम हो गईं।  किसान या किसी भी व्यक्ति को सहानुभूति के दो बोल चाहिए। उससे भी उसकी जख्मों पर मरहम लग सकता है। गाँवों में जा कर मैंने जो बातें रखीं उनमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि हम ये कैसा समाज रच रहे हैं कि हमारा कोई पड़ोसी आर्थिंक तंगी का शिकार हो कर दम तोड़ दे? पूरा गाँव, पूरा समाज आपस में चंदा करके क्या किसान की आर्थिक सहायता नहीं कर सकते? अनेक सामाजिक संस्थाएँ भी होती है, वे आपसे में धन एकत्र कर सकती हैं। जन प्रतिनिधियों के पास फंड होता है। उसमें से राशि निकाल कर कर्ज में डूबे किसानों का कर्जा माफ किया जा सकता है। अगर इच्छाशक्ति हो तो सरकार किसान का कर्ज माफ कर सकती है।  किसान मिलजुल कर खेती कर सकते हैं।  सहकारिता के आधार पर लघु बैंक चला सकते हैं।  साहूकारों के चंगुल में किसान न फँसे, इसकी देखरेख कर सकते हैं. ये ऐसे कुछ उपक्रम हैं जिसके माध्यम से किसानो के जीवन को बचाया और खुशहाल किया जा सकता है. यह अच्छी बात है कि इस दिशा में उत्तरप्रदेश के बाद महाराष्ट्र में भी जरूरमंद किसानों के कर्ज माफ ककरने की घोषणाएँ हुईं। अन्य राज्यों में भी यह सिलसिला प्रारंभ हुआ है। यह स्थायी नीति बने कि जब-जब कोई किसान कर्ज न पटाने की स्थिति से गुजरे तो उसका समुचित परीक्षण करके सरकार उसका कर्ज पटाए। अगर सरकारें करुणा के साथ काम करेंगी, वे साहूकारों की तरह निर्मम आचरण नहीं अपनाएंगी तो किसान आत्महत्या क्यों करेगा? वह भी जिंदा रहना चाहता है। हालात उसे मरने पर विवश करते हैं।   
   सबलोग अगस्त 2017 में प्रकाशित |


                                                                                      गिरीश पंकज 
                             लेखक प्रतिष्ठित रचनाकार और सदभावना दर्पण के सम्पादक हैं |
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