07 May 2017

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी







            

       वो सपनों का गाँव 

           शरद कोकास  


                                         वाकणकर सर मजदूरों को उस दिन के कार्य के लिए आवश्यक निर्देश देकर हम लोगों के पास आ गए थे । मैंने अपने मन में उठते सवाल को आख़िर उनसे पूछ ही लिया। सर ने कहना शुरू किया “ तुमने हाल-फिलहाल किसी सभ्यता को लुप्त होते नहीं देखा है ना इसलिए  ऐसा कह रहे हो । लेकिन पिछले हजारों बरसों में ऐसा कई बार हुआ है। जीवन अपनी गति से चलता रहता है लेकिन कभी अचानक उस पर विराम भी लग जाता है । सभ्यताओं के समाप्त हो जाने के एक नहीं अनेक कारण हैं । अक्सर नदियों के किनारे बसी बस्तियाँ भीषण बाढ़ में डूब जाती हैं । भूकम्प ,ज्वालामुखी, तूफान ,अकाल ,बाढ़  जैसी प्राकृतिक आपदाओं की वज़ह से भी लोग वहाँ से पलायन कर जाते हैं या समाप्त हो जाते हैं । फिर नदियाँ भी कालांतर में अपना मार्ग बदलती हैं तो उनके किनारे बसे लोगों को बस्ती छोड़ कर जाना पड़ता है । समुद्र के भीतर भी भूकम्प आते हैं तो उनके किनारे की बस्तियाँ नष्ट हो जाती हैं । इसके अलावा आगजनी , दुश्मनों के आक्रमण ,भोजन या जल की अनुपलब्धता जैसे अनेक कारण हैं ।

"तो सर हमें पता कैसे चलता है कि कौनसी बस्ती का विनाश किस कारण से हुआ ?" अजय ने सवाल किया । सर ने कहा " किसी भी साइट पर उत्खनन करते हुए उसकी विभिन्न परतों में हर स्तर पर हमें विनाश के कारण मिल जाते हैं । जैसे वस्तुओं पर आग से जलने के चिन्ह मिलते हैं तो उसका कारण आगजनी  होता है ,बाढ़ से नष्ट हुई बस्तियों में घर के भीतर की वस्तुओं पर सूखी हुई गाद दिखाई देती है ,समुद्र के किनारे पर यदि किसी ऊंची दीवार पर रेत दिखाई दे  तो समझो वहाँ सुनामी की वज़ह से विनाश हुआ होगा । भूकंप ज्वालामुखी के लक्षण भी ऐसे ही पता चलते हैं । “



मेरे मन में उत्खनन के तकनीकी पक्ष का ज्ञान प्राप्त करने के साथ साथ उत्खनन के कारणों को जानने की जिज्ञासा अधिक थी । दंगवाडा की साईट पर विगत एक माह से उत्खनन चल रहा था । हम लोग उत्खनन प्रारंभ होने के कुछ समय बाद दंगवाड़ा पहुंचे थे इसलिए  पूर्व में हो चुके काम से खुद को अपडेट करना ज़रूरी था । हालाँकि  हम लोग प्रशिक्षणार्थी थे और हमारी  कोई प्रत्यक्ष भूमिका उत्खनन में नहीं थी फिर भी भविष्य में पुरातत्ववेत्ता बनने के लिए प्रारंभिक आवश्यक जानकारी से लैस होने की अनिवार्यता तो थी ही । विद्यार्थी थे सो प्रश्न करने की भी हमें छूट थी । हम भी ज्ञान प्राप्ति का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते थे । बचपन से सुनते आ रहे थे कि पुरातत्ववेत्ताओं को जैसे ही पता चलता है कहीं कोई सभ्यता ज़मीन की परतों के नीचे दबी हुई है वे वहाँ पहुँच जाते हैं और खुदाई शुरू कर देते हैं । प्रश्न यह था कि उन्हें पता कैसे चलता है ? अब उन्हें सपना  तो नहीं आता होगा ।

रवीन्द्र ने कहा "चलो सर से ही पूछ लेते हैं  । "  और वह सर से मुखातिब हुआ .." अच्छा सर , यह बताइये , पुरातत्ववेत्ता को यह कैसे पता चलता है कि उसे कहाँ खुदाई करना है ? ”  “ तुम्हारा तात्पर्य इस बात से तो नहीं है कि हमें यह कैसे पता चलता कि कौनसी सभ्यता कहाँ दबी हुई है ? “ डॉ.वाकणकर ने प्रतिप्रश्न किया । “ जी । “ रवीन्द्र ने गर्दन हिलाई ।

" चलो तुम्हारी बात को यहाँ से समझने का प्रयास करते हैं । “ डॉ. वाकणकर ने बात जारी रखी “ दरअसल पुरातत्ववेत्ता विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त सूचना के आधार पर यह तय करते हैं कि उन्हें उत्खनन का कार्य कहाँ से प्रारम्भ करना है । अधिकांश सभ्यताएं बसाहट से दूर पाई जाती हैं । बहुत कुछ तो ज़मीन के भीतर दबा होता है लेकिन कभी कभी वर्षा से ,भूस्खलन से या किसी उथल - पुथल से कुछ चीज़ें सतह पर आ जाती हैं । कुछ अवशेष जंगलों के भीतर यूँ ही बिखरे हुए होते हैं जिसकी जानकारी किसी को नहीं होती । पुरातत्व विभाग या प्रशासन तक प्रारंभिक सूचना पहुँचाने वाले होते हैं ज्यादातर ग्रामीण लोग , किसान या उस जगह पर घूमने जाने वाले या काम करने वाले , जैसे कभी कभी चरवाहे भी बताते हैं कि फलाँ जगह पर उन्हें कोई प्रतिमा मिली है  या कोई सिक्का या बर्तन ,पॉटरी या कोई स्क्रेपर मिला है । कभी किसी किसान को खेत में हल चलाते हुए ज़मीन के नीचे भी कुछ मिल जाता है । कभी मकान बनाने के लिए नींव खोदते हुए कुछ वस्तुएँ या कोई संरचना दिख जाती है ।  कभी जंगल में लकड़ी काटने वाले लकड़हारे या शिकारी ऐसी सूचना देते हैं ।"

" लेकिन सर क्या लोग इमानदारी से ऐसी सूचना देते हैं ? " रवीन्द्र ने प्रश्न किया । सर ने कहा .." अगर हम तक सीधे सूचना न भी पहुंचे तो कुछ मिला है यह बात धीरे धीरे फैलती ही है ।  हालाँकि  हमारे यहाँ छुपाने की प्रवृत्ति ज्यादा है , सिक्के वगैरह मिलते हैं तो लोग बताते ही नहीं , मूर्तियाँ मिलती हैं तो लोग घरों में रख लेते हैं या गाँव के बीच कहीं स्थापित कर पूजा शुरू कर देते हैं । तस्कर या चोर लोग तो वैसे भी बात गुप्त रखते हैं । लेकिन ग्राम सहायक, पटवारी ,पुलिस या पत्रकारों  के माध्यम से बात हम तक यानि पुरातत्व विभाग तक पहुँच ही जाती है । फिर हम प्राप्त सूचनाओं के आधार पर सर्वे करते हैं और उन सूचनाओं की प्रामाणिकता की जाँच करते हैं ,  फिर प्रस्ताव बनाकर शासन को भेजा जाता है , मंजूरी मिलने के बाद पूरी कार्य योजना बनाई जाती है , खर्च की राशि  तय की जाती है । कार्य प्रारंभ करने से पूर्व कार्यस्थल पर जाकर यह  तय करते हैं कि खुदाई की शुरुआत कहाँ से करनी होगी  ,कहाँ ट्रेंच बनानी होगी ,  किस लेयर से शुरूआत  करना है , कहाँ तक करना है आदि आदि  ..।



सर ने एक बार में ही हमें संक्षेप में पूरी प्रक्रिया बता दी थी । सर जैसे ही खामोश हुए मेरे  भीतर के कवि ने दर्शन बखानना शुरू कर दिया “ लेकिन कितना अजीब है ना, ऐसे जीवन के बारे में सोचना जो अचानक  लुप्त हो गया हो । जैसे आज यहाँ चूल्हा जल रहा है , माताएँ  खाना पका रही हैं , बच्चे खेल रहे है,लड़कियाँ पेड़ों पर झूला डालकर झूल रही हैं , किसान हल चला रहे हैं ,रात में चौपाल पर गाना -बजाना चल रहा है और अचानक रात में भूकम्प आ जाए  या नदी में बाढ़ आ जाए और सुबह सब खल्लास  ।“

डॉ. वाकणकर मेरी बात ध्यान से सुन रहे थे उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा " लेकिन सभ्यता के विनाश से पूर्व का चित्र इतना भी रूमानी नहीं है भाई । मनुष्य के  जीवन में दुखों की कोई कमी तो है नहीं ,सामान्य मनुष्य सदा से शोषित ही रहा है , कभी प्राकृतिक विपदा की वज़ह से तो कभी खुद की वज़ह से उसका विनाश हुआ है । चारागाह या खेतों के लिए , धन -संपत्ति के लिए मनुष्य ही मनुष्य पर आक्रमण करता रहा है । कई बार रोजी-रोटी की कशमकश भी उसे बस्ती छोड़ने को विवश कर देती है ,गाँव के गाँव खाली हो जाते हैं  ऐसा तो अब भी होता है । लेकिन मनुष्य फिर भी हिम्मत नहीं हारता , वह नई जगह पर अपनी बस्ती बसाता है , हालाँकि अगली बार वह इतना सावधान तो रहता है कि फिर हादसे की पुनरावृत्ति न हो । यह मनुष्य ही है जिसने प्रकृति से युद्ध करके जीना सीखा है और जीवन को बेहतर बनाया है । जैसे कि आजकल आपदा प्रबंधन शब्द तुमने सुना होगा बाढ़ ,सुनामी ,अकाल इन सब स्थितियों से निपटना अब मनुष्य पहले की अपेक्षा बेहतर जानता है और यह उसने पिछले अनुभवों से ही सीखा है । इसीलिए  जीवन के भविष्य के बारे में जानने के लिए  सबसे ज़्यादा ज़रूरी है जीवन का अतीत जानना इसलिए कि अतीत ही जीवन के भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है । इस पर हमारे भविष्य की नीव टिकी है ,हर नया आविष्कार या खोज पहले की गई खोज के आधार पर ही आगे बढ़ाया जाता है ।“ सर ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी ..अब सर खुजाने की बारी मेरी थी ।                           'सबलोग' के मार्च 2017 में प्रकाशित.


                                                                                              


   लेखक पुरातत्त्ववेत्ता,कवि और कथाकार हैं;
   तथा 'सबलोग' के नियमित स्तम्भ लेखक हैं.

    +918871665060
     sharadkokas.60@gmail.com




2 comments:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद भाई ।

    ReplyDelete
  2. मनुष्य की इसी अदम्य जिजीविषा के कारण सारी विपदाओं से लड़ते-टकराते वह आज तक अपनी अस्मिता क़ायम किए हुए है और लगातार प्रगति भी कर रहा है। मनुष्य का इतिहास प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष का इतिहास ही तो है।

    ReplyDelete