03 October 2014

इस अंजुमन में आपको आना है बार–बार

(राजेंद्र यादव की प्रथम पूण्यतिथि पर 'सबलोग' परिवार की ओर विनम्र श्रद्धांजलि)

विगत पच्चीस अक्टूबर की रात उनके घर से निकलते हुए हमेशा की तरह मैंने कहा था, ‘पहुँच के फोन करता हूँ।’ आकर दफ्तर के कामों में ऐसा उलझा कि उन्हें उस दिन फोन नहीं कर पाया। देर रात याद भी आयी तो सोचा कल कर लूँगा। तब कहाँ पता था कि वह कल कभी नहीं आनेवाला। इस तरह महज एक दिन की देरी के कारण उनसे किया अपना आखिरी वादा नहीं निभा पाया। मेरा हाथ थामकर कविता के लिए आशीर्वाद और सोनसी के लिए प्यार कहने का उनका वह आत्मीय और उष्ण अन्दाज जैसे मेरे नसों में ठहर–सा गया है। उनकी वह आखिरी छुअन मेरी स्मृतियों में हमेशा ताजा रहेगी।

राजेंद्रजी को याद करते हुये उनकी कई–कई छवियाँ, उनके साथ के कई–कई किस्से रह–रह कर मेरे उंगली थाम ले रहे हैं। उम्र और कद की सारी परिसीमाओं को नकार कर आपके मन के अहातों में दाखिल एक सहज–सरल दोस्त, जिद्दी होने की हद तक का एक ऐसा दृढ़ व्यक्ति जिसने मुड़–मुड़ के देखने के बावजूद जीवन की राह पर कभी पीछे नहीं देखा, अपनी असहमतियों को तीक्ष्णतम तल्खियों के साथ रखने के बाद भी खुले मन से अपने प्रतिपक्षियों को सुनने को तैयार राजेंद्रजी की ये कुछ ऐसी छवियाँ हैं जो उन्हें भीड़ मे अलग करती हैं।

एक ऐसे समय में जब अपने समकालीनों की रचनाओं की प्रशंसा तो दूर कई बार उनकी उपस्थिति तक को हम खुले मन से नहीं स्वीकार पाते, राजेंद्रजी जिस तरह एक नये से नये लेखक को उसकी रचना पसन्द आने पर फोन किया करते थे यह दुर्लभ है। आज जब वे नहीं हैं, हम जैसे कितने नये–पुराने लेखकों के मन में उनका यह कहा गूंज रहा होगा, ‘मैं आपका प्रशंसक राजेन्द्र यादव बोल रहा हूँ।’ उन्हें न तब एहसास हुआ होगा कि वे किस राजेन्द्र यादव से बात कर रहे हैं न अब विश्वास हो रहा होगा कि उन्हीं राजेनद्र यादव की वह खनकती आवाज हमेशा के लिए खामोश हो चुकी है। अपनी उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों को ही लेकर अपने मित्रों-प्रशंसकों के मन में इस तरह का आश्चर्यजनक पर सुखद–दुखद अविश्वास पैदा कर देना राजेन्द्रजी की बहुत बड़ी विशेषता है। तमाम तरह के गुरुताबोध से अछूते सबके साथ सहज और आत्मीय समानधर्मिता का एक ऐसा बर्ताव कि उनसे जुड़ा हर व्यक्ति खुद को उनका खास होने का भ्रम पाल ले। जाने कितनों को हमनिवाला बनाया, कितनों को हमप्याला। जाने कितनों की सिगरेट के लिए अकुंठ भाव से खुद लाईटर जलाई (याद है न उमाशंकर भाई!) तो जाने कितने पैर छूने को झुके लोगों को बीच में रोककर गले लगा लिया...

उनके रहते हुए भी और आज उनके जाने के बाद भी उनके ठहाकों की लोग खूब चर्चा कर रहे हैं। ऐसा छतफोडू व उन्मुक्त ठहाका हम हिंदीवालों को शायद ही फिरर कभी सुनने को मिले। औरों की तरह मैं खुद भी इन ठहाकों का गवाह रहा हूँ और आज उनके ठहाके मेरे भीतर लगातार गूंज भी रहे हैं। लेकिन न जाने क्यों मुझे यह हमेशा लगता रहा और पिछले दो वर्षों में तो मेरा यह अनुमान लगभग यकीन में बदल गया था कि यह ठहाका जो हम ऊपर से देखते–सुनते थे दरअसल उनके भीतर किसी तपते ऊसर की तरह फैले अकेलेपन को झुठलाने या कि ढंकने की कोशिश थी। अकेले पड़ते जाने का यह सिलसिला शायद किन्हीं कारणों से पिछले दो वर्षों में बढता ही जा रहा था। अकेले में भी मस्त रहने की अदा और भारी–भरकम भीड़ के बावजूद भीतर के गहरेपन में नितांत अकेला हो जाने की नियति उनके जीवन का बहुत बड़ा सच थी। तल्लीनता और निस्संगता का इतना सहज और विपरीतधर्मी मेल शायद ही कहीं मिले... दुनिया के तमाम लोगों की दुख तकलीफ सुननेवाला यह शख्स शायद ही किसी के आगे अपने दुख–दर्द की पोटली खोलता हो... आप लाख कुरेद–पूछ के रह जाइए, ‘तबीयत तो ठीक है?’ आपको एक ही जवाब मिलेगा, ‘हाँ, बिलकुल ठीक।’ आप बहुत ज्यादा चिंताकुल हुये तो ज्यादा से ज्यादा यही कहेंगे, ‘क्या तुम कभी बीमार नहीं होते हो’ और आप निरुत्तर। 15 अगस्त 2006 की बात है, कविता का जन्मदिन था। वे खुद से कहकर स्कूल ब्लाक स्थिति हमारे आवास पर आए थे। हमने संजीवजी और राजीव रंजन गिरि को भी बुला लिया था। घंटों बोलने–बतियाने, हंसने–हंसाने, खाने–पीन के बाद अपने घर जाते हुए वे हमारी सीढ़ियों में फिसल गये थे। जिस तरह वे गिरे चोट का अंदाजा हम लगा सकते थे। लेकिन मजाल जो एक उफ भी उनके मुह से निकले... हम एक अनाम अपराधबोध से घिरे उनसे पूछ रहे थे, ‘कहीं कोई चोट तो नहीं आई?’ पर जवाब वही, ‘कमाल करते हो यार! कहीं तुम नहीं फिसले कभी?’

एक सहज सी विपरीतधर्मिता उनके व्यक्तित्व का स्थाई हिस्सा थी। उन्होंने अपने भीतर अपनी सार्वजनिकता और अंतरंगता का जबर्दस्त बंटवारा कर रखा था। कब कहाँ और कितना खुलना है यह सिर्फ और सिर्फ वही जानते थे। एक सीमा के बाद उन्हें सर्वाधिक जानने– समझनेवाले और अंतरंग लोगों की सीमा भी स्वयमेव समाप्त हो जाती थी। उनका जीवन सार्वजनिक और निजी के लगभग दो विपरीत ध्रुवों के बीच का अद्भुत संतुलन था। हमारे बीच के सर्वाधिक लोकतान्त्रिक लेकिन अपनी दृष्टि और सरोकारों को लेकर उतने ही दृढ। बात और आस्वाद का रसिया होना जहाँ उनके जीवन का सार्वजनिक स्वीकार था वहीं उनके अंत:पुर में धीमे–धीमे बजता उदासी का जलतरंग उनकी आंतरिकता का एक ऐसा सच था जिसे समझते तो बहुत लोग थे लेकिन शायद ही किसी ने उसे थाह या थाम पाया हो।

भीड़ के भीतर का एकाकीपन, ठहाके के भीतर की उदासी, लोकतान्त्रिक व्यवहार के भीतर का जिद्दीपन, सरलता के पीछे की जटिलता, खुलेपन के खोल में दुबका उनके भीतर का बन्द एकांत और इन जैसी कई और विपरीतधर्मी विशेषताओं की श्रृंखला में उनकी कविता–विरोधी छवि को भी देखा जा सकता है। बार–बार कविता की मृत्यु की घोषणा करनेवाले राजेन्द्रजी वक्त–बेवक्त कविता और शेरो–शायरी उद्धृत करने में माहिर थे। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने हंस के दफ्तर से उठते हुये उनके मुंह से न सुना हो, ‘इस अंजुमन में आपको आना है बार–बार, दीवारों दर को गौर से पहचान लीजिये...’ राजेन्द्रजी को जीवन की गांठें खोलनेवाली सहज–सरल कवितायें बहुत पसंद थी, मेरे कवि–मित्र मुझे माफ करेंगे, वे जीवन–रस से विहीन ठूंठ होती अतीतजीवी कविताओं का विरोध जरूर करते थे (जिसमें कई बार अतिरेक भी होता था) पर कविता संबंधी उनकी मूल बातों कों समकालीन कविता की एक सार्थक आलोचना के रूप में ही लिया जाना चाहिए।

स्त्री–विमर्श के सन्दर्भ में देह की स्वतन्त्रता के उनके सूत्र के असली निहितार्थों को लोगों ने ठीक से नहीं समझा। किसी पत्रिका के लिए मुझसे बातचीत करते हुये एक बार उन्होंने कहा था, ‘देह–मुक्ति स्त्री–मुक्ति का पहला कदम है, आखिरी नहीं। जब सारी बन्दिशें देह को लेकर ही हो तो मुक्ति की बात भी वहीं से शुरू होगी।’ ऐसा कहते हुये वे जिस बृहत्तर लैंगिक–राजनैतिक यथार्थ की तरफ इशारा करते थे, उसे अभी समझा जाना शेष है। और यह तबतक नहीं सकझा जा सकेगा जबतक हम देह–मुक्ति को मुक्त यौन सम्बन्धों के पर्याय की तरह देखना नहीं छोड़ेंगे।

राजेन्द्रजी का व्यक्तित्व एक मूर्तिभंजक का व्यक्तित्व रहा है। मनुष्यों का दैवीकरण उन्हें कभी मंजूर नहीं था। वे न तो किसी और को देवता के रूप में देखते थे न खुद के लिए किसी देवत्व की कामना करते थे। वे आजीवन मनुष्य की तरह रहे और मनुष्य की तरह जिए, वह भी अपनी शर्तों पर। जीवन के प्रति उनका गहरा और रागात्मक लगाव हमें हमेशा उनकी याद दिलाएगा। वे अपनी तरह के अकेले व्यक्ति थे, उनका प्रतिस्थानापन्न तो कोई नहीं हो सकता पर जिजीविषा और कहकहों से सिंचित प्रतिरोध के हर उत्सव में वे हमारे साथ हमेशा शामिल रहेंगे।

हम जब कभी असहमति, रंग, नमक और आस्वाद की बात करेंगे, राजेन्द्रजी आपकी बहुत–बहुत याद आएगी!
 
राकेश बिहारी
लेखक सुप्रसिद्ध कथाकार एवं आलोचक हैं
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