17 May 2017

गुलाब बाई के बिना नौटंकी

ध्रुव गुप्त

उत्तर भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय लोकनृत्य और नाट्य-विधा नौटंकी का इतिहास लगभग चार सौ साल पुराना है। आधुनिक नौटंकी की शुरूआत पंजाब से हुई। अभिजात्य वर्ग द्वारा गंवई और सस्ता घोषित किए जाने के बावजूद अपनी जनप्रियता की वज़ह से यह आहिस्ता-आहिस्ता पंजाब से निकल कर पूरे उत्तर भारत और नेपाल में फ़ैल गई। उत्तर भारत में नौटंकी के विषय मिथकीय प्रेम कथाएं, सामाजिक विसंगतियां और वीरता के किस्से रहे हैं। मुख्य कथा से  लोगों को बांधे रखने के लिए उसमें फिलर के तौर पर हास्य-व्यंग्य और गीत-नृत्य के प्रसंग जोड़े जाते हैं। इस लोक नाट्य शैली के विकास में बहुत सारे अनाम कलाकारों का योगदान रहा, लेकिन इसके लंबे इतिहास से अगर किसी एक शख्सियत का नाम निकाल लेने को कहा जाय तो निर्विवाद रूप से वह नाम होगा नौटंकी की मलिका कही जाने वाली पद्मश्री स्व. गुलाब बाई का। 

अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बनी इस महान लोक कलाकार का जन्म उत्तर प्रदेश के कन्नौज जनपद के बलपुरवा गांव के बेड़िया जाति के एक गरीब लोक-गायक परिवार में हुआ था। परिवार के लिए रोज़ी-रोटी की तलाश में गुलाब का बचपन गांव की गलियों में पैसों के लिए नाचते-गाते बीता। सडकों पर नाचती-गाती गुलाब पर एक दिन एक थिएटर मालिक की नज़र पड़ी तो उसने अपनी नौटंकी में उसे बाल कलाकार की एक छोटी-सी भूमिका का दे दी। 1931 में जब गुलाब ने नौटंकी में पहली बार बाल कलाकार के रूप में क़दम रखा तो पुरूषों के गढ़ कहे जाने वाले मंच पर किसी स्त्री का यह पहला प्रवेश था। तब सिनेमा की तरह यहां भी स्त्रियों की भूमिकायें पुरुष ही निभाते थे।  धीरे-धीरे गुलाब जवान हुई और अपनी अभिनय-क्षमता, उन्मुक्त अदाओं और विलक्षण लोकगायिकी के बूते देखते-देखते नौटंकी की बेताज मलिका बन बैठी। 'लैला मजनूं' में लैला, 'बहादुर लड़की' में फ़रीदा और 'शीरीं फ़रहाद' में शीरीं की भूमिकाओं में लोगों ने उन्हें बेहद पसंद किया। उस समय तक नौटंकी में कथ्य और शैली का महत्व ही हुआ करता था। गुलाब के साथ उस दौर की शुरूआत हुई जब किसी कलाकार का नाम सुनकर लोग थिएटर की ओर खिंचे चले आते थे। गुलाब बाई की लोकप्रियता 1940 तक शिखर पर थी। उनकी तनख्वाह तब महीने के दो हज़ार रुपयों से ज्यादा तय की गई थी जो उस ज़माने के हिसाब से बड़ी रकम थी। उस दौर के बहुत-से सिनेमा कलाकारों को भी उतने पैसे नहीं मिलते थे। 


बेहतर वेतन के बावज़ूद तब के थिएटर मालिकों के तानाशाही रवैये, प्रतिभा और कला की बेक़द्री और कलाकारों के प्रति संवेदनहीनता से गुलाब क्षुब्ध रहा करती थी। अपने उस्ताद मोहम्मद खान के विरोध के बावज़ूद उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ पिछली सदी के पांचवे दशक में अपनी नौटंकी कम्पनी  'गुलाब थियेट्रिकल कम्पनी' की स्थापना की। प्रमुख स्त्री पात्रों की भूमिका निभाने के अलावा बहुमुखी प्रतिभा की धनी गुलाब अपनी नौटंकी के लिए खुद ही कहानी और पटकथा लिखती थी। गीत तैयार करती थी और नृत्य संयोजन भी। नौटंकी को उत्तर भारत के गांव-गांव तक ले जाने का श्रेय गुलाब की इसी कंपनी को जाता है। नौटंकी के इतिहास में इस थियेट्रिकल कम्पनी का वही योगदान था जो फिल्मों के इतिहास में प्रभात टाकिज और बाम्बे टाकिज का रहा था। गुलाब और उनकी कंपनी की लोकप्रियता का आलम यह था कि उन्हें देखने-सुनने के लिए लोग खुशी-खुशी दस-दस, बीस-बीस कोस की पैदल यात्राएं करते थे। शाम को शो में बैठने की जगह मिल जाय, इसके लिए लोग सुबह से थिएटर के बाहर डेरा जमा दिया करते थे। 'सुल्ताना डाकू' उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय नौटंकी थी जिसके द्वारा उन्होंने अमीरों को लूटकर गरीबों में बांटने वाले और अपने सामाजिक सरोकारों के लिए प्रसिद्द उत्तर प्रदेश के एक दुर्दांत डकैत सुलतान को लोकमानस का नायक बना दिया। गुलाब द्वारा तैयार और अभिनीत कुछ अन्य प्रसिद्द नौटंकियां हैं - लैला मजनू, शीरी फरहाद, हरिश्चन्द्र तारामती, भक्त प्रह्लाद, सत्यवान सावित्री, इन्द्रहरण और श्रीमती मंजरी। 

1960 तक अपनी ढलती उम्र और अपनी कंपनी की व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं की वज़ह से नौटंकी में उनकी भागीदारी कम होती चली गई। उन्होंने अपने अभिनय और गायन के उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी बहन सुखबदन और अपने से जूनियर अभिनेत्री नंदा गुहा और बेटी मधु को चुना। दोनों को बहुत हद तक सफलता भी मिली, लेकिन वे गुलाब की लोकप्रियता को नहीं छू सकी। दुर्भाग्य से तबतक सिनेमा हॉल की बढ़ती संख्या के कारण मनोरंजन के साधन के रूप में सिनेमा ने नौटंकी सहित सभी लोककलाओं को विस्थापित करना शुरू कर दिया था। विस्थापन की यह प्रक्रिया इतनी तेज थी कि छठे दशक के अंत तक नौटंकी अपना आकर्षण खो चुकी थी और गुलाब की थिएटर कंपनी भी। 

गुलाब बाई अभिनेत्री के अलावा बेहतरीन गायिका भी थीं। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की आरंभिक शिक्षा ली थी और निरंतर रियाज़ से अपनी आवाज़ को निखारा था। उनके बनाए और गाए कुछ गीतों का शुमार आज भी बिहार और उत्तर प्रदेश के श्रेष्ठ लोक गीतों में होता है। उनके गाए कुछ बेहद लोकप्रिय गीत हैं  - पान खाए सैया हमार, नदी नारे न जाओ श्याम पैया परूं, मोहे पीहर में मत छेड़, जलेबी बाई, भरतपुर लुट गयो हाय मेरी अम्मा, पटना शहरिया में जाओ रानी, अकेली डर लागे, गोरखपुर की एक बंजारन और हमरा छोटका सा बलमुवा। छठे दशक में सुनील दत्त की फिल्म 'मुझे जीने दो' में उनके दो गीतों 'नदी नारे न जाओ श्याम' और 'मोहे पीहर में मत छेड़' और शैलेन्द्र की फिल्म 'तीसरी कसम' में कुछ परिवर्तन के साथ 'पान खाए सैया हमारो' का इस्तेमाल उनके जीवनकाल में ही किया गया था। यह गुलाब के लिए गौरव की बात थी, लेकिन इसका दुखद पक्ष यह था कि उन गीतों के लिए पारिश्रमिक देना तो दूर, क्रेडिट में उनका नाम तक देना किसी ने ज़रूरी नहीं समझा। गुलाब अपने जीवन काल में बॉलीवुड के इस सलूक से बेहद मर्माहत हुई थी। 

1996 में सत्तर साल की उम्र में उनका देहावसान हुआ। मरते समय उनका सबसे बड़ा दुख यह था कि उन्हें अपने जीवन-काल में ही नौटंकी को मरते हुए देखना पड़ा था। व्यावसायिक दबाव में धीरे-धीरे उसमें अभद्रता, नंगापन और अश्लीलता का प्रवेश हो चुका था। गुलाब बाई की मृत्यु के बाद उनके कुछ शागिर्द उनकी विरासत संभाल तो रहे हैं, लेकिन उत्तर भारत के मेलों-ठेलों में ' द ग्रेट गुलाब बाई थियेट्रिकल कंपनी' के नाम से दर्ज़न भर थियेटर कंपनियों में अश्लीलता और अपसंस्कृति परोसने की प्रतियोगिता चलती है। कभी एशिया का सबसे बड़ा पशुमेला कहे जाने वाले बिहार के सोनपुर मेले में घूम आईए तो पता चल जाएगा कि नौटंकी अभी किस मुकाम पर खड़ी है। जिस मंच पर कभी देर रात तक गुलाब के दादरे 'नदी नारे ना जाओ श्याम पय्यां परुं' का तिलिस्म जागता था, वहां 'सटा ले पिया फेविकोल से' की कर्कश ध्वनि के बीच लड़कियों के नंगे-अधनंगे जिस्म थिरका करते हैं। ऐसा शायद दर्शकों को सिनेमा से थिएटर तक खींच लाने के उद्धेश्य से हो रहा है, लेकिन जो हो रहा है उसे देखते हुए नौटंकी जैसी जनप्रिय लोकनाट्य विधा की मौत की घोषणा तो की ही जा सकती है।
                                             ‘सबलोग’ के मई 2017 में 'खुला दरवाजा' स्तम्भ में  प्रकाशित

                                                                                                                                                                                                                                                लेखक भारतीय पुलिस सेवा के  पूर्व
अधिकारी,कवि और कथाकार हैं.
dhruva.n.gupta@gmail.com                 +919934990254      

3 comments:

  1. वाह, अंक आ गया। इंतज़ार है।

    ReplyDelete
  2. जो गुलाब बाई आज याद के पन्नों से भी बाहर होती जा रही हैं, उनकी याद दिलाने के लिए धन्यवाद! उन्हें याद करना इतिहास के एक युग को याद करना है। तकनीक किस तरह मैनुअल को रिप्लेस करता है, नौटंकी इसका ज्वलंत उदाहरण है। लेकिन इसको ऐसे भी देखा जा सकता है कि नौटंकी बदलते वक़्त की ज़रूरतों के अनुरूप अपने को बदल नहीं सका। आख़िर योग्यतमावशेष का सिद्धांत तो चलता ही है। मेरी समझ में बदलती हुई जनाकांक्षाओं, युगीन प्रवृत्तियों और नई तकनीक को अपनाने में असफलता नौटंकी की बदहाली का प्रमुख कारण है।

    ReplyDelete