22 July 2017

भारत की भूटान नीति और चीन का भय : आनंद स्वरूप वर्मा

डोक ला1 में तनाव
भारत की भूटान नीति और चीन का भय
आनंद स्वरूप वर्मा
अब से चार वर्ष पूर्व 2013 में भूटान की राजधानी थिंपू में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यिक समारोह हुआ था जिसमें सांस्कृतिक क्षेत्र के बहुत सारे लोग इकट्ठा हुए थे। अतीत का आइना’ (दि मिरर ऑफ दि पास्ट) शीर्षक सत्र में डॉ. कर्मा फुंत्सो ने भारत और भूटान के संबंधों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं थीं। डॉ. कर्मा फुंत्सो ‘‘हिस्ट्री ऑफ भूटान’’ के लेखक हैं और एक इतिहासकार के रूप में उनकी काफी ख्याति है। उन्होंने भारत के साथ भूटान की मैत्री को महत्व देते हुए कहा कि ‘‘कभी-कभी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हो जाती हैं जैसी कि अतीत में हुईं।’’ उनका संकेत कुछ ही दिनों पूर्व हुए चुनाव से पहले भारत द्वारा भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी बंद कर देने से था। उन्होंने आगे कहा कि ‘‘शायद भूटान के लोग हमारी स्थानीय राजनीति में भारत के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते लेकिन अपने निजी हितों के कारण राज्य गलतियां करते रहते हैं। उनके इस कदम से दोस्ताना संबंधों को नुकसान पहुंचता है।’’ अपने इसी वक्तव्य में उन्होंने यह भी कहा था कि भारत के ऊपर अगर हमारी आर्थिक निर्भरता बनी रही तो कभी यह मैत्री बराबरी के स्तर की नहीं हो सकती। उन्होंने भूटान के लोगों को सुझाव दिया कि वे भारत से कुछ भी लेते समय बहुत सतर्क रहें।
डॉ. कर्मा ने ये बातें भूटान के चुनाव की पृष्ठभूमि में कहीं थी। हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि उस चुनाव के मौके पर ऐसा क्या हुआ था जिसने भूटान की जनता को काफी उद्वेलित कर दिया था। 13 जुलाई 2013 को वहां संपन्न दूसरे आम चुनाव में प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने उस समय की सत्तारूढ़ ड्रुक फेनसुम सोंगपा (डीपीटी) को हराकर सत्ता पर कब्जा कर लिया। पीडीपी को 35 और डीपीटी को 12 वोट मिले। इससे पहले 31 मई को हुए प्राथमिक चुनाव में डीपीटी को 33 और पीडीपी को 12 सीटों पर सफलता मिली थी। आश्चर्य की बात है कि 31 मई से 13 जुलाई के बीच यानी महज डेढ़ महीने के अंदर ऐसा क्या हो गया जिससे डीपीटी अपना जनाधार खो बैठी और पीडीपी को कामयाबी मिल गयी।
दरअसल उस वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में भारत सरकार ने किरोसिन तेल और कुकिंग गैस पर भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी पर रोक लगा दी। यह रोक भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के निर्देश पर लगायी गयी। डीपीटी के नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री जिग्मे थिनले से भारत सरकार नाराज चल रही थी। भारत सरकार का मानना था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री थिनले मनमाने ढंग से विदेश नीति का संचालन कर रहे हैं। यहां ध्यान देने की बात है कि 1949 की भारत-भूटान मैत्री संधिमें इस बात का प्रावधान था कि भूटान अपनी विदेश नीति भारत की सलाह पर संचालित करेगा। लेकिन 2007 में संधि के नवीकरण के बाद इस प्रावधान को हटा दिया गया। ऐसी स्थिति में भूटान को इस बात की आजादी थी कि वह अपनी विदेश नीति कैसे संचालित करे। वैसे, अलिखित रूप में ऐसी सारी व्यवस्थाएं बनी रहीं जिनसे भूटान में कोई भी सत्ता में क्यों न हो, वह भारत की सलाह के बगैर विदेश नीति नहीं तैयार कर सकता। हुआ यह था कि 2012 में ब्राजील के रियो द जेनेरो में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री थिनले ने चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री से एक अनौपचारिक भेंट कर ली थी। यद्यपि भारत के अलावा भूटान का दूसरा पड़ोसी चीन ही है तो भी चीनी और भूटानी प्रधानमंत्रियों के बीच यह पहली मुलाकात थी। इस मुलाकात के बाद भारत के रुख में जबर्दस्त तब्दीली आयी और उसे लगा कि भूटान अब नियंत्रण से बाहर हो रहा है। भूटान ने चीन से 15 बसें भी ली थीं और इसे भी भारत ने पसंद नहीं किया था।
मामला केवल चीन से संबंध तक ही सीमित नहीं था। भारत यह नहीं चाहता कि भूटान दुनिया के विभिन्न देशों के साथ अपने संबंध स्थापित करे। 2008 तक भूटान के 22 देशों के साथ राजनयिक संबंध थे जो थिनले के प्रधानमंत्रित्व में बढ़कर 53 तक पहुंच गए। चीन के साथ अब तक भूटान के राजनयिक संबंध नहीं हैं लेकिन अब भूटान-चीन सीमा विवाद दो दर्जन से अधिक बैठकों के बाद हल हो चुका है इसलिए भारत इस आशंका से भी घबराया हुआ था कि चीन के साथ उसके राजनयिक संबंध स्थापित हो जाएंगे। भारत की चिंता का एक कारण यह भी था कि अगर भारत (सिक्किम) -भूटान-चीन (तिब्बत) के संधि स्थल पर स्थित चुंबी घाटी तक जिस दिन चीन अपनी योजना के मुताबिक रेल लाइन बिछा देगा, भूटान की वह मजबूरी समाप्त हो जाएगी जो तीन तरफ से भारत से घिरे होने की वजह से पैदा हुई है। उसे यह बात भी परेशान कर रही थी कि थिनले की डीपीटी को बहुमत प्राप्त होने जा रहा था जिन्हें वह चीन समर्थक मानता था। इसी को ध्यान में रखकर चुनाव की तारीख से महज दो सप्ताह पहले उसने अपनी सब्सिडी बंद कर दी और इस प्रकार भूटानी जनता को संदेश दिया कि अगर उसने थिनले को दुबारा जिताया तो उसके सामने गंभीर संकट पैदा हो सकता है। भारत के इस कदम को भूटान की एक बहुत बड़ी आबादी ने बांह मरोड़ने की कार्रवाई माना
भारत के इस कदम पर वहां के ब्लागों, बेवसाइटों और सोशल मीडिया के विभिन्न रूपों में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। भूटान के अत्यंत लोकप्रिय ब्लॉगर और जाने-माने बुद्धिजीवी वांगचा सांगे ने अपने ब्लॉग में लिखा भूटान के राष्ट्रीय हितों को भारतीय धुन पर हमेशा नाचते रहने की राजनीति से ऊपर उठना होगा। हम केवल भारत के अच्छे पड़ोसी ही नहीं बल्कि अच्छे और विश्वसनीय मित्र भी हैं। लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं इसलिए भूटान का राष्ट्रीय हित महज भारत को खुश रखने में नहीं होना चाहिए। हमें खुद को भी खुश रखना होगा।अपने इसी ब्लॉग में उन्होंने यह सवाल उठाया कि चीन के साथ संबंध रखने के लिए भूटान को क्यों दंडित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि कौन सा राष्ट्रीय नेता और कौन सी राष्ट्रीय सरकार अपनी आत्मा किसी दूसरे देश के हाथ गिरवी रख देती है? हम कोई पेड सेक्स वर्कर नहीं हैं जो अपने मालिकों की इच्छा के मुताबिक आंखें मटकाएं और अपने नितंबों को हिलाएं।डॉ. कर्मा ने भी थिंपू के साहित्य समारोह में भारत की नाराजगी का कारण भूटान के चीन से हाथ मिलाने को बताया था।
बहरहाल सब्सिडी बंद करने का असर यह हुआ कि जनता को भयंकर दिक्कतों से गुजरना पड़ा लिहाजा थिनले की पार्टी डीपीटी चुना हार गयी और मौजूदा प्रधानमंत्री शेरिंग तोबो की पीडीपी को कामयाबी मिली।
उपरोक्त घटनाएं उस समय की हैं जब हमारे यहां केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी। 2014 में एनडीए की सरकार बनी और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। इस सरकार ने उसी नीति को, जो मनमोहन सिंह के ही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के समय से चली आ रही थी, और भी ज्यादा आक्रामक ढंग से लागू किया।
पिछले एक डेढ़ महीने से भारत-भूटान-चीन के आपसी संबंधों को लेकर जो जटिलता पैदा हुई है उसके मूल में भारत का वह भय है कि भूटान कहीं हमारे हाथ से निकल कर चीन के करीब न पहुंच जाय। आज स्थिति यह हो गयी है कि चुंबी घाटी वाले इलाके में यानी डोकलाम में अब चीन और भारत के सैनिक आमने-सामने हैं और दोनों देशों के राजनेताओं की मामूली सी कूटनीतिक चूक एक युद्ध का रूप ले सकती है। चीन उस क्षेत्र में सड़क बनाना चाहता है जो उसका ही क्षेत्र है लेकिन भारत लगातार भूटान पर यह दबाव डाल रहा है कि वह उस क्षेत्र पर दावा करे और चीन को सड़क बनाने से रोके। भूटान को इससे दूरगामी दृष्टि से फायदा ही है लेकिन भारत इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। अब दिक्कत यह है कि सिक्किम (भारत) और तिब्बत (चीन) के बीच डोकलाम में अंतर्राष्ट्रीय सीमा का बहुत पहले निर्धारण हो चुका है और इसमें कोई विवाद नहीं है। 1980 के दशक में भूटान और चीन के बीच बातचीत के 24 दौर चले और दोनों देशों के बीच भी सीमा का निर्धारण लगभग पूरा है। यह बात अलग है कि फिलहाल जिस इलाके को विवाद का रूप दिया गया है उसमें चीन भूटान के हिस्से की कुछ सौ गज जमीन चाहता है और बदले में इससे भी ज्यादा जमीन किसी दूसरे इलाके में देने के लिए तैयार है। चीन के इस प्रस्ताव से भूटान को भी कोई आपत्ति नहीं है लेकिन भारत के दबाव में उसने इस प्रस्ताव को मानने पर अभी तक अपनी सहमति नहीं दी है। अगर चीन को भूटान से यह अतिरिक्त जमीन नहीं भी मिलती है तो भी अभी जो जमीन है वह बिना किसी विवाद के चीन की ही जमीन है। भारत का मानना है कि अगर वहां चीन ने कोई निर्माण किया तो इससे सिक्किम के निकट होने की वजह से भारत की सुरक्षा को खतरा होगा। चीन ने तमाम देशों के राजदूतों से अलग-अलग और सामूहिक तौर पर सभी नक्शों और दस्तावेजों को दिखाते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि यह जगह निर्विवाद रूप से उसकी है। अब ऐसी स्थिति में भारत के सामने एक गंभीर समस्या पैदा हो गयी है। उसने अपने सैनिक सीमा पर भारतीय क्षेत्र में यानी सिक्किम के पास तैनात कर दिए हैं और भूटान में भी भारतीय सैनिक चीन की तरफ अपनी बंदूकों का निशाना साधे तैयार बैठे हैं। स्मरणीय है कि भूटान की शाही सेना को सैनिक प्रशिक्षण देने के नाम पर पिछले कई दशकों से वहां भारतीय सेना मौजूद है।
चीन और भारत दोनों देशों में उच्च राजनयिक स्तर पर हलचल दिखायी दे रही है। तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि समस्या का समाधान बातचीत के जरिए संभव है क्योंकि अगर युद्ध जैसी स्थिति ने तीव्र रूप लिया तो इससे दोनों देशों को नुकसान होगा। शुरुआती चरण में रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे अरुण जेटली ने जो बयान दिया कि ‘‘यह 1962 का भारत नहीं है’’ और फिर जवाब में चीन ने अपने सरकारी मुखपत्र में जो भड़काऊ लेख प्रकाशित किए उससे स्थिति काफी विस्फोटक हो गयी थी लेकिन समूचे मामले पर जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया दिखायी दे रही है उससे भारत को एहसास होने लगा है कि अगर तनाव ने युद्ध का रूप लिया तों कहीं भारत अलगाव में न पड़ जाए और यह नुकसानदेह न साबित हो।
26 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल जी-20 के सम्मेलन में भाग लेने चीन जा रहे हैं और हो सकता है कि वहां सीमा पर मौजूद तनाव के बारे में कुछ ठोस बातचीत हो और इससे उबरने का कोई रास्ता निकले। भारत और चीन दोनों ने अगर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया तो यह समूचे दक्षिण एशिया के लिए एक खतरनाक स्थिति को जन्म देगा।                       1. इस इलाके को भूटान डोकलाम’, भारत डोक लाऔर चीन डोंगलाङकहता है।
         
                            सबलोग के अगस्त 2017 में प्रकाशित 
लेखक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ और समकालीन तीसरी दुनिया के सम्पादक हैं|
+919810720714 vermada@hotmail.com

04 July 2017

अज्ञेय की पुस्तकों पर किसका अधिकार? शंकर शरण

अज्ञेय की पुस्तकों पर किसका अधिकार?

शंकर शरण

एक हिन्दी प्रकाशक ने न्यायालय से सच्चिदानन्द वात्स्यायन (अज्ञेय) की कुछ पुस्तकें अन्य प्रकाशनों द्वारा छापने पर रोक लगाने का मुकदमा किया है। ये पुस्तकें हैं, शेखर – एक जीवनी,नदी के द्वीप और अरे यायावर रहेगा याद?’ । इस प्रकाशक का कहना है कि उसे छः वर्ष पहले इन पुस्तकों को प्रकाशित करने का अधिकार वत्सल निधि न्यास ने दिया था, जो अज्ञेय की पुस्तकों का अधिकारी है।
लगता है, लेखक प्रकाशक के संबंध पर अज्ञेय ने जो चालीस-बयालीस वर्ष पहले लिखा था, वह अब भी वैसा ही है। अज्ञेय के शब्दों में, प्रकाशक और लेखक का संबंध साँप और नेवले का है, अथवा साँप और मेढ़क का, अथवा साँप और छछूंदर का – इस बारे में बहस हो सकती है; लेकिन सच मानिए कि हर हालत में साँप प्रकाशक ही है!’ फिर अज्ञेय ने जोड़ा था कि य लेखक की प्रतिभा पर निर्भर है कि वह क्या रहता है।  
अब कल्पना करने की बात है कि किसी दिवंगत लेखक की स्थिति ऐसे प्रकाशक के समक्ष क्या है, जिस का लेखक के जीते-जी कोई संबंध न रहा? अज्ञेय की अनेक महत्वपूर्ण कृतियाँ दिल्ली के राजपाल एंड संस तथा नेशनल पब्लिशिंग हाउस से दशकों से प्रकाशित होती रहीं। राजपाल से उन की 14 तथा नेशनल से 12 पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं। वस्तुतः शेखर – एक जीवनीऔर अरे यायावर रहेगा याद?लंबे समय से नेशनल द्वारा ही प्रकाशित होती रही हैं। अभी भी इन पुस्तकों के अधिकार नेशनल के ही पास हैं। नेशनल के अनुसार, वत्सल निधि ने उसे कभी वापस नहीं लिया।
इसलिए यह याचिका दायर करने वाले प्रकाशक की स्थिति कई तरह से संदिग्ध है, जिसे अज्ञेय ने केवल एक पुस्तक दी थी, वह भी दूसरा संस्करण नहीं दिया। यह अकारण नहीं था। कहीं पर स्वयं अज्ञेय ने यह कहा है कि अमुक प्रकाशकों से उन की पुस्तकें न छापी जाएं। पर आज उस की अवज्ञा हो रही है। ऐसे लोग अज्ञेय की पुस्तकों पर दावा कर रहे हैं जिन्होंने जीते-जी अज्ञेय को उपेक्षित, निंदित किया था। अज्ञेय के निकटवर्ती अनेक लेखक, विद्वान अभी मौजूद हैं। वे पुष्टि कर सकते हैं कि जिस प्रकाशक ने यह याचिका दायर की है, उसे अज्ञेय कभी प्रकाशन की अनुमति न देते।
अज्ञेय के जीवन, विचार और संबंध-शैली से परिचित सभी लोग जानते हैं कि कुछ प्रकाशकों से उन का आत्मीय संबंध रहा था। ये प्रकाशक आज भी कार्यरत हैं। अतः कोई गड़बड़ है कि ऐसे प्रकाशक को अज्ञेय की पुस्तकें दे दी गई, जिसे स्वयं अज्ञेय ने नहीं दिया था। क्या यही समझें कि लेखक के दिवंगत हो जाने पर साँप ने उस के साथ भी मनमानी का प्रबंध कर लिया, जो लेखक के जीते-जी नहीं हुआ होता?
अज्ञेय का संपूर्ण लेखन उस युग में हुआ जब दुनिया में मार्क्सवादी लेखकों की गुटबंदी और प्रचार का दबदबा था। पर अज्ञेय स्वतंत्र चेतना के कवि थे। यद्यपि उन्होंने स्वयं क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया था, जेल में रहे थे और उन्हें फाँसी की सजा संभावित थी। वे चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की टोली के सक्रिय सदस्य थे। जब भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बनी, उस में भी अज्ञेय शामिल थे। लेकिन लेखक रूप में अज्ञेय खुली दृष्टि और स्वतंत्र थे। वे साहित्य में राजनीतिक गुटबंदी पसंद नहीं करते थे। इसीलिए, भारत में वामपंथियों ने स्थाई रूप से अज्ञेय के विरुद्ध घृणा अभियान चलाए रखा था। इस के बावजूद अज्ञेय के लेखन की प्रसिद्धि देश-विदेश में फैलती रही।
यदि अज्ञेय के विरुद्ध वह अभियान न चला होता, तो और पाठकों तक उन का लेखन पहुँचा होता। तब संभवतः उन्हें यहाँ और दुनिया में भी वह स्थान मिलता जिस के वे सर्वथा योग्य थे। यहाँ टैगोर के बाद वैसी बहुमुखी, परिश्रमी प्रतिभा अज्ञेय ही थे। अब यह वे भी मानते हैं जिन्होंने अज्ञेय के रहते उन का तिरस्कार किया था। पर कैसी विडंबना कि वही अब अज्ञेय पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रहे हैं!
अपने अनुभवों में अज्ञेय ने यह भी कहा था, कि यहाँ ऐसे निष्ठावान प्रकाशक भी हुए हैं जो लेखक के हितैषी भी हों और सतसाहित्य के प्रणयन और प्रसार में योग दे सकें। क्या इस का महत्व बताने की जरूरत है? अज्ञेय के अनुसार उन्हें ऐसे प्रकाशक भी मिले जो बंधु पहले थे, प्रकाशक बाद में। अतः ध्यान रखना ही चाहिए कि निष्ठावान प्रकाशनों से अज्ञेय की पुस्तकें छपती रहें। इस में यदि भूल हुई है, तो उसे सुधारना चाहिए।
दुर्भाग्यवश, अज्ञेय के दिवंगत होने के बाद उन के द्वारा बनाए गए न्यास की स्थिति अच्छी न रही। डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, डॉ. कर्ण सिंह, इला डालमिया कोइराला, विद्यानिवास मिश्र, आदि सुयोग्य लोगों के बावजूद न्यास का काम ठंढा पड़ गया। इन में तीन का असमय निधन भी हो गया। कारण जो भी हो, जिस उद्देश्य से अज्ञेय ने वत्सल निधि बनाई थी उस में कोई प्रगति न हो सकी। उलटे अज्ञेय की सभी पुस्तकें भी सुंदर रूप में पाठकों को नियमित सुलभ रहें, यह भी न हो सका।
कम से कम यह तो सुनिश्चित करना ही चाहिए कि अज्ञेय की पुस्तकें यथारूप छपती रहें। अपनी कई पुस्तकों में अज्ञेय ने अपने हाथ से कुछ अर्थपूर्ण रेखा-चित्र बना कर जोड़े थे। उसे अज्ञेय रचनावली में हटा दिया गया है। यह कितनी विचित्र और गैर-जिम्मेदार बात है! कुछ अन्य संकलनों में तारीख तथा छापे की गलतियाँ भी मिलती हैं। इस से अज्ञेय को अत्यंत क्लेश होता था। क्या आज तकनीक और साधन की उन्नति के बावजूद यह भी ध्यान नहीं रखा जा सकता कि भारत के एक महान रचनाकार की पुस्तक त्रुटिहीन प्रकाशित हो सके? इस के प्रति लापरवाही दिखाती है कि अज्ञेय का वास्तविक मूल्य नहीं समझा गया है। उन की कविताएं, निबंध, व्याख्यान, आदि पढ़ कर देखें। उन की मूल्यवत्ता हू-ब-हू बनी हुई है।
वस्तुतः कई सामाजिक समस्याओं पर अज्ञेय ने जो मार्ग बताया था, उस के सिवा कोई विकल्प नहीं है। भाषा, शिक्षा और संस्कृति से जुड़े ज्वलंत प्रश्न तथा इन पर समाज और सरकार की अलग-अलग भूमिका पर जिस गहनता से अज्ञेय ने लिखा था, उसे अभी तक यहाँ कोई नहीं छू सका है। लेखक और सरकार का संबंध, अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान, जैसे विषयों पर भी उन का चिन्तन बहुमूल्य है। दुर्भाग्यवश इस का व्यवहारिक मूल्य बहुत कम लोगों ने पहचाना है। जबकि अज्ञेय के काव्य की देन से अलग, उन का सामाजिक चिन्तन भी एक बड़ी धरोहर है।    
निस्संदेह, अज्ञेय का संपूर्ण लेखन न केवल भारतीय ज्ञान-परंपरा, वरन विश्व-साहित्य की दृष्टि से भी क्लासिक श्रेणी में है। यदि वह सुलभ हो, तो उस की माँग उसी तरह कभी खत्म नहीं होगी, जैसे टैगोर या टॉल्सटॉय की पुस्तकों के साथ है। इस पाठक का अपना अनुभव है कि अज्ञेय की कविताएं, निबंध और व्याख्यान कितनी भी बार पढ़ने पर उस का नयापन समाप्त नहीं होता। जो याद रहती हैं, उन के अलावा पहले की पठित सामग्री में सदैव नये अर्थ दीखते हैं जो उसी तरह सामयिक और उपयोगी हैं, जब अज्ञेय के लिखते, बोलते समय थे। ऐसा लेखन ही क्लासिक कहलाता है।
इसीलिए अज्ञेय के रहते दुनिया के अनेक देशों में बड़े लेखक, कवियों ने उन की कविताओं का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया था। नोबल पुरस्कार के लिए अज्ञेय की चर्चा बार-बार होती रही थी। इस में संदेह नहीं कि यदि यहाँ अंदरूनी, विचारधाराग्रस्त, क्षुद्र साहित्यिक राजनीति ने पूरी ताकत से अज्ञेय को जब-तब दबाया, झुठलाया न होता, तो यह विश्व-सम्मान पहले ही उन्हें मिल चुका होता।
अतः आज हम कम से कम इतना तो करें कि अज्ञेय की पुस्तकें राजनीतिबाज लोगों के हाथ बंधक न बनें। जीवित लेखक ने साँप के हाथों अपने को बचाए रखा था। कोई कारण नहीं कि लेखक के दिवंगत होने पर उन की पुस्तकें साँप के हवाले कर दी जाए। अज्ञेय के निकटवर्ती रहे सभी महानुभावों को यह चिन्ता करनी चाहिए। वे आज भी प्रभावशाली हैं। अज्ञेय साहित्य के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के साथ अज्ञेय की भावनाओं का भी सम्मान हो, उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए।
सच तो यह है कि, जब वत्सल निधि अस्तित्वहीन जैसी हो चुकी है, तो अज्ञेय की पुस्तकों को कॉपी-राइट से मुक्त भी करने पर सोचना चाहिए – इस सावधानी के साथ कि मूल संस्करणों की सामग्री को मनमाने संपादित न किया जाए।

वैसे भी, अज्ञेय ने उसी पाठक के लिए लिखा था, जो समझता है और ग्रहण करता है – अर्थात् उस के अनुसार कर्म करता है – वही...मेरा पाठक है। ऐसे पाठक कितने भी कम हों, पर होते अवश्य हैं। वैसे पाठकों तक अज्ञेय की पुस्तकें निरंतर पहुँचती रहें, केवल यह चिन्ता की जानी चाहिए। इसे धर्म का कार्य समझना चाहिए। इस बात में तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं है, विश्वास करें।              
                         सबलोग के जुलाई 2017 में प्रकाशित


लेखक राजनीति शास्त्र विभाग,महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय,बड़ौदा में प्रोफ़ेसर हैं|
+919910035650   bauraha@gmail.com   

03 July 2017

मीडिया: संकट विश्वसनीयता का धीरंजन मालवे

मीडिया: संकट विश्वसनीयता का

 धीरंजन मालवे
विश्व में नवउदारवाद के उद्भव और विकास के साथ साथ विश्व के कतिपय बड़े देशों में मीडिया के बाजारीकरण की शुरुआत पिछली सदी के सत्तर के दशक में ही हो गयी थी. मीडिया के बाजारीकरण के विश्व के सबसे बड़े सरगना रूपर्ट मरडोक के नाम पर इस बाजारीकरण की घटना को मरडोकीकरण के नाम से भी जाना जाता है.

मरडोकीकरण और इसके चरित्र को समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना आवश्यक है. इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया का व्यवसाय एक खर्चीला व्यवसाय है और इस खर्च को निकालने के लिए परंपरागत रूप से दो तरीके चलते आ रहे हैं. पहला टी.वी. चैनल या अखबार या पत्रिका का क्रय मूल्य और दूसरा विज्ञापन. विज्ञापन से होने वाली आय मीडिया के लिए आय का एक प्रमुख स्रोत रहती आई है और इसके लिए मीडिया को बाज़ार पर किसी हद तक निर्भर रहना पड़ता रहा है. मगर इसके बावजूद मीडिया की अपनी कार्य संस्कृति, संस्कारों और मूल्यों के कारण संपादक और पत्रकार बाज़ार के इस दबाव को झेल पाने और अपनी अस्मिता को बचा पाने में सफल होते आ रहे थे. विशेषकर अखबारों के मालिक भले ही बड़े उद्योगपति होते थे मगर वे संपादकों और पत्रकारों के कामकाज में ज्यादा दखलंदाजी नहीं करते थे. संपादक और पत्रकार अपना काम पूरी व्यावसायिक स्वतंत्रता के साथ करते रहते थे. मगर रूपर्ट मरडोक ने इस परंपरा को तोड़ा.  उसने पहले ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका में प्रमुख अख़बारों, टेलीविज़न चैनलों और अन्य मीडिया प्लेटफॉरर्मों को खरीद कर अपना आधिपत्य कायम किया और फिर इस आधिपत्य के माध्यम से मीडिया के कामकाज में दखलंदाज़ी, या यूं कहें कि पूर्ण नियंत्रण की शुरुआत हुई.  सम्पादक का दर्जा घटने लग गया. मरडोक संचालित मीडिया खबरों का निष्पक्ष प्रस्तोता न रह कर यह तय करने लगा कि उसका एजेंडा क्या हो. एजेंडे के तहत खबरें इस हिसाब से परोसी जाने लगी कि किस नेता, पार्टी या सरकार का समर्थन करना है और किसकी लुटिया डुबोनी है. इस प्रकार के एजेंडे के पीछे कोई जनसेवा की भावना न होकर मरडोक का अपना व्यापारिक हित होता रहता आया है.

जहां तक भारत का प्रश्न है, यहाँ पत्रकारिता की शुरुआत एक मिशन के रूप में हुई थी, अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में एक हथियार के रूप में. आजादी की लड़ाई से जुड़े लगभग सभी बड़े बड़े नेता स्वतंत्रता  सेनानी के साथ साथ पत्रकार भी थे.  आजादी के बाद पत्रकारिता की भूमिका में बदलाव आया. अब उसे लोकतंत्र के चौथे खम्बे के रूप में अपने आप को स्थापित करना था.  भारत का स्वतंत्रयोतर इतिहास इस बात का गवाह है कि अनेक अख़बारों और पत्रकारों ने इस भूमिका को बखूबी अंजाम दिया. आज़ाद भारत में अनेक दिग्गज और निर्भीक पत्रकारों ने लोकतंत्र के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन बखूबी किया. इनमें हम एम. चलपति राव, एम. वी. कामथ, गिरिराज जैन, धर्मवीर भारती, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, रघुबीर सहाय, राजेंद्र अवस्थी और प्रभाष जोशी जैसे विभूतियों की गणना कर सकते हैं. इनकी अपनी शक्सियत इतनी बड़ी थी के वे किसी भी राजनैतिक या व्यापारिक दबाव का सामना कर सकने में सक्षम थे. सन १९७५ में लगाये गए आपातकाल के दौरान में अनेक पत्रकारों ने अपने जुझारूपन का खूबसूरत नमूना पेश किया था.

भारत में मरडोक की तर्ज पर मीडिया के व्यापारीकरण की शुरुआत पिछली सदी के नब्बे के दशक में हुई. अगर इसकी पहलकदमी का सेहरा बांधना हो तो हम इसके लिए बेनेट कोलमैन एंड कंपनी के सर्वेसर्वा समीर जैन को चुन सकते हैं.  उन्होंने बड़ी ही साफगोई से यह घोषित किया था कि मीडिया भी एक वैसा ही व्यापार है जैसा कोई भी व्यापार; और अखबार एक वैसा ही उत्पाद है जैसा कोई भी उत्पाद. यानि ठेठ व्यापारिक दृष्टिकोण से अखबार और साबुन, तेल में कोई अंतर नहीं है.

बेनेट कोलमैन और समीर जैन ने इस नए मीडिया दर्शन को टाइम्स ऑफ़ इंडिया पर लागू भी कर दिया. पत्रकारिता के व्यापारीकरण के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा संपादक था. संपादकीय मूल्य बाज़ार के तर्क से सीधे सीधे टकराते थे.  लिहाज़ा संपादक की पारंपरिक अवधारणा को समाप्त कर दिया गया. समाचार पत्र से जुड़े अलग अलग विषयों, जैसे, राजनीति, अर्थव्यवस्था, खेल-कूद, फैशन इत्यादि के लिए तो अलग-अलग संपादक रखे गए मगर संपादकीय विभाग में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं बच गया जिसके पास अखबार की संपूर्ण सामग्री के साथ साथ इसके कला पक्ष पर भी नज़र रखने की जवाबदेही हो.  समाचार पत्र के समग्र संचालन का दायित्व प्रबंधन ने अपने ऊपर ले लिया.

धीर धीरे  टाइम्स ऑफ़ इंडिया की प्रबंधन शैली अन्य अखबारों पर भी हावी होने लग गई.  पाठकों को इसका कुछ लाभ भी मिला.  अखबारों का प्रसार बढाने के लिए जहां इसकी कीमतें कम की गयीं वहीं पृष्ठ संख्या भी बेहताशा बढ गयी. आज ३२ पृष्ठों का अखबार ३-४ रुपयों में मिल जाता है जबकि उसका लागत मूल्य २० से २५ रुपये आता है. अखबारों की  छपाई-सफ़ाई में भी सुधार हुआ. श्वेत-श्याम अखबार रंगीन हो गए. प्रसार बढाने की आपसी प्रतियोगिता के कारण पाठकों को उपहारों के माध्यम से भी लुभाया गया. 

किसी सीमा तक इस बाजारीकरण का लाभ पत्रकारों के एक वर्ग को भी मिला. हिंदी अखबारों के पत्रकारों, ख़ासकर क्षेत्रीय अखबारों के पत्रकारों की सेवा शर्तों में तो कोई विशेष सुधार नहीं आया मगर अंग्रेज़ी अखबारों के पत्रकारों और टेलीविज़न पत्रकारों के एक बड़े वर्ग की  तनख्वाहें काफी बढ़ गईं.

लेकिन इस व्यापारीकरण का नुक्सान पूरे देश और समाज को हो रहा है. मीडिया को सिर्फ एक व्यापार नहीं माना जा सकता. यह लोकतंत्र का चौथा खम्बा है. इसका मुख्य उद्देश्य लोकतंत्र में जनता के अभिव्यक्ति के अधिकार को सुनिश्चित करना है.  जनता अपने इस अधिकार का इस्तेमाल तभी कर सकती है जब उसे अपने देश, समाज और सरकार से सम्बंधित सम्पूर्ण, निष्पक्ष और वस्तुपरक सूचनाएं मिल रही हों.  यानी मीडिया की प्रतिबद्धता जनता के प्रति हो, शासक या उद्योगपति के प्रति नहीं. जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, आजादी के बाद के कुछ दशकों में यह प्रतिबद्धता बहुत कुछ देखने में आती थी.  ग्रामीण और कृषि से जुड़े अनेक मुद्दे मीडिया में जगह पा जाते थे.  साठ के दशक के दौरान देश के कई हिस्सों में आये अकाल की विभीषिका तथा अकाल पीड़ित क्ष्रेत्रों में राहत सामग्री में वितरण कें होने वाली गड़बड़ियों को मीडिया ने बड़ी हे संवेदना के साथ उद्घाटित किया था और इसके परिणाम स्वरुप सरकार ने भी कारगर कदम उठाए थे. आम जनता के हित में यह मीडिया का अत्यंत सकारात्मक और सार्थक हस्तक्षेप था.  

अब स्थिति बहुत कुछ बदल चुकी है. बाजारीकरण के बाद कृषि, किसान, गाँव और इनकी समस्याएँ मीडिया से काफी कुछ गायब सी हो गई हैं. किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्याएं अब किसी मीडियाकर्मी की चेतना को नहीं झकझोरती.  इसे अब एक रोजमर्रे की घटना मान लिया गया है.

बाजारीकरण के पूर्व विज्ञापनों और खबरों के बीच एक विभाजन रेखा होती थी. विज्ञापन को ख़बरों के रूप में नहीं परोसा जाता था और ऐसा करना अनैतिक माना जाता था. मगर पेड न्यूज़ की अवधारणा ने इस विभाजन रेखा को मिटा दिया है. पहले खबरों की एक मर्यादा होती थी और उसकी रक्षा की जाती थी. वे खरीद बिक्री का सामान नहीं थीं. मगर अब खबरें बिकाऊ माल की तरह हैं.  पैसे देकर अपने पक्ष में कुछ भी छपवाया जा सकता हैं. इस विकृति की शुरुआत पेज ३ से हुई. चमक दमक वाली पार्टियों से जुडी ख़बरें और तस्वीरें पैसे लेकर छापी जाने लगीं.  धीरे-धीरे यह व्याधि मुख्य धारा की खबरों में भी आ गयी. पिछले चुनावों के दौरान चुनाव आयोग के समक्ष इस प्रकार की कई शिकायतें भी आईं और आयोग ने इसे अत्यंत गंभीरता पूर्वक लिया और लोकतंत्र के लिए घातक माना. मगर अभी तक इस बिमारी का कोई प्रभावकारी समाधान नहीं सामने आया है. 

बाजारीकरण से जो विकृति आयी है उसका निदान लोकतंत्र के हित में आवश्यक है. फिलहाल विधि निर्मित संस्था के रूप में इसका दायित्व प्रेस काउन्सिल पर है.  मगर प्रेस काउन्सिल के अधिकार अत्यंत सीमित हैं. इसे बिना दांत और नाखून के शेर की संज्ञा दी जाती है. टेलीविज़न चैनल इसके अधिकार क्षेत्र में वैसे भी नहीं आते.  प्रेस काउंसिल के अधिकार व्यापक किये जाने के खतरे भी हैं.  अधिकारों का दुरूपयोग मीडिया की स्वतंत्रता के हनन में भी हो सकता है. 

ऐसी स्थिति में मीडिया को स्वयं इसका निदान ढूँढना पड़ेगा- अपने दीर्घकालीन अस्तित्व के हित में. मीडिया की जीवनदायिनी शक्ति इसकी विश्वसनीयता में है. अगर एक बार विश्वसनीयता समाप्त हुई तो एक व्यापार के रूप में भी इसका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा. स्वनियमन ही इसका सबसे प्रभावकारी मार्ग हो सकता है. अगर यह संभव नही हो पाता तो संसद और सरकार को सामने आना पड़ सकता है, इसके संभावित खतरों के बावजूद.   

                   सबलोग के जून 2017 में प्रकाशित  




 लेखक प्रसिद्द मीडियाकर्मी हैं|+919810463338 dhiranjan@gmail.com