बस, अब और एक दिन भी नहीं !
मन्नू भण्डारी
भारतीय स्त्री की
नियति
क्या
सिर्फ
पीड़ा
और
प्रताड़ना
ही
है ? क्यों विवाह उसके
जीवन
को
पूरी
तरह से बदलकर रख
देता
है
? ऐसे कई सवाल उठाती मन्नूजी
लेखकों
की
तथाकथित संवेदनशीलता को भी प्रश्नांकित
करती
हैं। समकालीन साहित्य
जगत
के जीवंत चित्रण के साथ
ही
अपने जीवनसाथी राजेंद्र यादव
के
व्यक्तित्व
की
पड़ताल
करते
हुए
वह
उनकी खामियों और
कुंठाओं के साथ ही उनकी
क्षमताओं
और
उपलब्धियों
को
भी
रेखांकित
करती
हैं।
स्त्री
विमर्श
का
तीखा
तेवर
भले
ही
मन्नू जी के आत्मकथा के इस अंश में नहीं दिखता
लेकिन
भारतीय
स्त्री
का
अंतर्द्वंद्व
और
दर्द
बखूबी उभरा है।–गीता दूबे
"नहीं जानती इसे
पत्नियों
के
जीवन
की
विडंबना
कहूं
या
लेखकों
के
जीवन
की ....पर
है
यह
इतनी
बड़ी
सच्चाई
जिसे
झेलने - भोगने के
लिए
हर
लेखक - पत्नी तो अभिशप्त
है
ही ( इनमें
कई
अपवाद
होंगे
और
मेरी
जानकारी
में
कुछ
हैं
भी
पर
हैं
वे
अपवाद
ही ) पर
साठ
साल
की
उम्र
पार
करते
ही
ये
चिर
उपेक्षित
पत्नियां
एकाएक
उनकी
जिंदगी
की
अनिवार्यता
बन
जाती
हैं।
जब
भी
मैं
ऐसी
बातें
सुनती, देखती
या
खुद
उनसे
गुजरती
तो
एक
प्रश्न
जरूर
मुझे
परेशान
करता
।
लेखक
तो
बड़ा
संवेदनशील
प्राणी
होता
है....दुखी, त्रस्त
लोगों
की
वेदना , उनकी
यातना
उसे
किस
हद
तक
विचलित
कर
देती
है
कि
वह
उन
पर अपनी सारी करुणा
उड़ेल देता है
पर
अपनी
पत्नियों
की
व्यथा - वेदना
तक
आते - आते
उसकी
संवेदना
सूख
क्यों
जाती
है ? उसे
महसूस
करना
तो
दूर , वे
तो
बड़ी
निर्ममता
से
उसका
कारण
बने
रहते
हैं।
पर
क्यों... क्या पत्नी
उन्हें
हाड़ - मांस
का
प्राणी
ही
नहीं
लगती
या
कि
काल्पनिक
पात्रों
के
गढ़े
हुए
सुख - दुख
पर
ही
अपनी
सारी
संवेदना
उड़ेलकर
ये
इतने
खाली - खोखले
और
करुणा - विहीन
हो
जाते
हैं
कि
जीवित
पत्नी
के
लिए
उनके
पास
कुछ
बचता
ही
नहीं ?
नहीं जानती इतना
सब
जानने, सोचने, समझने
के
बावजूद
मैं
फिर
जिस
दिशा
की
ओर
मुड़
चली
थी
उसे
क्या
कहूं ? अपनी
मूर्खता
या
हमारी
पीढ़ी
की
भारतीय
पत्नी
की
नियति ? ( गनीमत
है
कि
हमसे
बाद
वाली
कई
पत्नियों ने संस्कारों
का
यह चोला उतार फेंका
है ) आर्थिक
रूप
से
परतंत्र
पत्नियों
के
लिए
तो
हर
स्थिति
में
साथ
रहना
उनकी
मजबूरी
थी....आज
भी
है, पर
मेरी
क्या
मजबूरी
थी ? क्यों
मैंने
अलग
रहने
का
अपना
निर्णय
बदल
दिया ? क्यों
मैं
सोचने
लगी
कि
जब
प्रतिकूल
परिस्थितियों
में
भी
मैंने
पैंतीस
साल
गुजार
दिए
तो
अब
तो
स्थितियां
भी
कुछ
अनुकूल
हो
चली
हैं....अब
इस
उम्र
में
अलगाव ? सो
भी
इस
लाइलाज
रोग
के
साथ ! मन
को
विश्वास
दिलाती
कि
अपने
बदले
व्यक्तित्व के साथ
अब
जरूर
राजेंद्र
तकलीफ
में मेरा ख्याल रखेंगे, जिसकी
मुझे
जरूरत
भी
थी।
उज्जैन
में
जमकर
तो
कुछ
काम
हो
भी
नहीं
रहा
था ...न्यूरोलजिया
क्या
दर्द भी काफी
बढ़
गया
था
सो
मैंने
दो
साल
पूरे
करते
ही
दिल्ली
लौटने
का
निर्णय ले लिया।
निर्णय
ले
तो
लिया
पर
मन
के
किसी
कोने
में
थोड़ी - सी
आशंका
जरूर
थी
।
लेकिन
जून
में
मेरी
भतीजी
की
शादी
में
इंदौर
आकर
राजेंद्र
ने
अपने
व्यवहार
और
अपनी
बातों
से
उसे
बिल्कुल
निर्मूल
कर
दिया।
लौटने
की
बात
सुनते
ही
प्रसन्न
होकर
बोले -"बस, बहुत
हुआ...अब
आ
जाओ...अपनी
अधूरी
चीजों
को
वहीं
बैठकर
पूरा
करना !" और
तीन
महीने
बाद
जब
दिल्ली
लौटी
तो
उसी
तरह
स्वागत
की
मुद्रा
में
ये
स्टेशन
पर
खड़े
थे। घर आई तो
साफ - सफाई, साज - सज्जा
सब
चुस्त- दुरुस्त
यानी
ये
अब
घर
में
भी
दिलचस्पी
लेने
लगे
हैं।
दो
साल
तक
मेरी
अनुपस्थिति
में
घर
के स्वामित्व - बोध ने
इन्हें
घर
से
भी
जोड़
दिया, अब
यही
घर
इन्हें
अपना
लगने
लगा ! स्वामित्व - बोध
पर
तो
पहले
भी
कभी
किसी
ने
प्रश्नचिन्ह
नहीं
लगाया
था
पर
यह
इनकी
अपनी
ही
ग्रंथि
थी ! अब
अगर
इन्हें
घर
और
मैं
सब
अपने
लगने
लगे
हैं
तो
फिर
मेरे
लिए
समस्या
ही
क्या
थी ? इसमें
कोई
संदेह
नहीं
कि
मैं
तो
इनसे
बहुत
जुड़ी
हुई
थी
ही
और
बदले
में
वैसा
जुड़ाव
ही
तो
चाहती
थी।
दिल्ली
लौटकर
सप्ताह, दस
दिन
तक
हम
लोग
मित्र - परिचितों
के
यहां
मिलने
जाते
रहे।
कभी - कभी
यह
भी
सुनने
को
मिला
कि
अच्छा
किया, आ
गई।
तुम्हारे
बिना
राजेंद्र
बहुत
उखड़े - उखड़े
रहते
थे।
सुना
तो
अच्छा
ही
लगा - आनेवाले
जीवन
के
लिए
एक
उम्मीद
बंधी।
उज्जैन
जाने
से
पहले
और
उज्जैन
जाते
समय
जिन्होंने मेरी मानसिक
दशा
को
देखा
था.....जाना
था, वे
अब
की
मानसिकता
को
देखकर
आश्वस्त
ही
हुए...चलो
देर
आये, दुरूस्त आये।
मैं भी सोचती
कि
सामान्य
जीवन
में
तो
उम्र
के
इस
बिंदु
पर
आकर
जिंदगी
की
उठा - पटक, जद्दोजहद
और
संघर्षों
से
थका - हारा
मन
सुस्ताने
का
सिलसिला शुरू करता
है
क्योंकि
संबंधों
के
सारे
कोने घिसघिसाकर ऐसे
फिट
हो
जाते
हैं
कि
तरह - तरह
के
जतनों
का
तेल डाले बिना भी
गाड़ी
चलती
रहती
है - सहज, अनायास।
मैंने
भी
संबंधों
की
उठा - पटक
तो
बहुत
झेल
ली जिंदगी में, बस
अब
तो
एक
सहज, सामान्यऔर
सकारात्मक
जीवन
की
दिशा
में
ही
बढ़ना
है
और
अब
यह
संभव
भी
होगा
क्योंकि
राजेंद्र
ने
भी
इस
दिशा
में
कदम
ही
नहीं
बढ़ाया
बल्कि
प्रयत्नशील
भी
हैं ! पर
फिर
वही
मूर्खता
मेरी, जो
इस
तरह
का
भ्रम पाल लिया।
क्यों
मैं
राजेंद्र
को
एक 'सामान्य
जीवन' के
चौखटे
में
फिट
करके
कुछ
अनहोनी
की
उम्मीद
लगा
बैठी ? राजेंद्र
और 'सामान्य' ! क्यों
भूल
गयी
कि
सामान्य
का
संबंध
उम्र
से
नहीं, किसी
के
व्यक्तित्व
की
बनावट
से
होता
है ? और
जो
राजेंद्र
अपने
हर
काम, हर
सोच
और अपनी हर बात से अपने 'विशिष्ट' व्यक्तित्व
का
डंका - चोट
ऐलान
करते
रहे
वे
किसी 'सामान्य' के चौखटे में
फिट
हो
सकते
थे
भला ? और
शायद
यही
कारण
था
कि
उम्र
के
इस
बिंदु पर आकर
भी
उनके
व्यक्तित्व
के
कील
कांटे
घिसे
नहीं
थे - हां, ऐसा
भ्रम
जरूर
पैदा
कर
दिया
या
कहूं
कि
मैंने
ऐसा
भ्रम
पाल
लिया
था।
पर
इस
बार
जब
वे
चुभे
तो मुझे केवल लहूलुहान
ही
नहीं
किया
बल्कि
मन
वितृष्णा
के
साथ - साथ
एक
गहरी
नफरत
से
भी
भर
गया
और
मैं
अपने
पुराने
निर्णय
पर
ही
लौट
आई।
बस, अब
और
एक
दिन
भी
नहीं ! इस
बार
अपना
निर्णय
सुनाने
के
साथ
मैंने
यह
भी
जोड़
दिया -"पहले
की
तरह
अब
आप
इस
घर
में
लौटने
की
कोशिश
भी
मत
करिएगा।
बार - बार
का
यह तमाशा मेरे लिए
असह्य
हो
गया
है।
जल्दी
से
जल्दी
घर
ढूंढिए
और
हमेशा
के
लिए
शिफ्ट
हो
जाइए !"
नहीं जानती यह
राजेंद्र
की
आदत
थी
कि
कोई
भीतरी
मजबूरी
कि
अलग
होकर
भी
ये
घर
नहीं
छोड़ना
चाहते
थे।
अलग
होते
ही
उन्होंने
फिर
वही
पुराना
सिलसिला
शुरू
कर
दिया
।
बराबर
फोन
करना....किसी
भी
आयोजन
में
मिलने
पर
सबके
बीच
जोर
से
आवाज
दे - देकर
बुलाना।
कभी
कोई
पत्रिका
पकड़ा
रहे
हैं
तो
कभी
कोई
किताब
केवल
यह
दिखाने
के
लिए
कि
हम
अलग
नहीं
हुए
हैं।
एक
साक्षात्कार
में
तो
इन्होंने
यह
छपवा
भी
दिया
कि
महज़
काम
करने
के
उद्देश्य
से
मैं
कुछ
दिनों
के
लिए
यहां
आ
गया
हूं।
मेरे
बारे
में
कुछ
ऐसी
नकारात्मक
टिप्पणियां
भी
थीं
जिनकी
वजह
से
काम
करने
के
लिए
इन्हें
बाहर
आना
पड़ा।
नहीं
जानती
कि
राजेंद्र
क्यों
करते
थे
यह
सब ? हो
सकता
है
कि
फिर
वही
उम्मीद...वही
अपेक्षा
कि
कुछ
तो
भी
करके
फिर
साथ
रहनेवाली
स्थिति
में
ले
आएंगे....हर
बार
की
तरह
मन्नू
को
फिर
पटा
लेना
कोई
मुश्किल
काम
नहीं
होगा ! पर
इस
बार
जब
मैंने
पहले
ही
दिन
से
साफ - साफ
कहना
शुरू
कर
दिया
कि
हम
अलग
हो
गये
हैं
तो
अंततः
इन्हें
भी
यह
अलगाव
स्वीकार
करना
ही
पड़ा।
और आज बारह
साल
हो
गये
हैं
हमें
अलग
हुए।
इन
बारह
वर्षों
में 'हंस' के
चलते
राजेंद्र
कहां
से
कहां
पहुंच
गये
हैं।
आज
इनके
चारों
ओर
मित्रों, परिचितों, पाठकों, इनके
चाहनेवालों
और
छपासुओं
की
भीड़
जमा
रहती
है....पैसे
का
भी कोई अभाव नहीं।
किशन
इनकी
गाड़ी
ही
नहीं
चलाता
इनके
घर
की
और
इनकी
जिंदगी
की
गाड़ी
भी
बखूबी
चला
लेता
है
और
सच
पूछा
जाए
तो
इन्हें
पत्नी
नहीं, किशन
जैसा
ही
कोई
व्यक्ति
चाहिए
था
जो
इनकी
देखभाल
के
बदले
तन ख्वाह के अतिरिक्त
और
कोई
अपेक्षा
नहीं
करे। उसके और
उसके
परिवार
के
लिए
ये
जरूरत
से
ज्यादा
करते
हैं
जिसके
लिए
वह
कृतज्ञ
भी
होता
ही
होगा।
सामनेवाले
की
ऐसी
अनकही
कृतज्ञता
ही
इन्हें
तृप्त
करती
है...इनके
असंतुलन
को पोसती है क्योंकि अपेक्षा
और
अधिकार
तो
इनके
बर्दाश्त
की
सीमा
में
आते
ही
नहीं, या
कहूं
तो
मेरे
संदर्भ
में
तो
कम
से
कम
नहीं
ही
आते
थे।
रही
मैं, सो
मुझे
कोई
संदेह
नहीं
कि
मैं
आज
बिल्कुल
अकेली
हो
गयी
हूं...पर
राजेंद्र
के
साथ
रहते
हुए
भी
तो
मैं
बिल्कुल
अकेली
ही
थी।
पर
कितना
भिन्न
था
वह
अकेलापन
जो
रात - दिन
मुझे
त्रस्त
रखता
था।साथ
रहकर
भी
अलगाव
की, उपेक्षा
और
संवादहीनता
की यातनाओं से इस
कदर
घिरी
रहती
थी
सारे
समय
कि
कभी
अपने
साथ
रहने
का
अवसर ही नहीं
मिलता
था। सबलोग जून 2017 में
प्रकाशित