20 October 2014

ज्ञान की भाषा से भय - विनोद शाही

हिन्दी अपनी जातीय स्मृतियों के कारण एक जीवन्त भाषा है, इतिहास में उसका प्राण है: अगर हम भारत के किसी सामूहिक–यानी जातीय चित्त–की परिकल्पना करते हैं और उसके स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं - तो वह जिस भाषा से ओत–प्रोत मिलेगा - वह हिन्दी होगी चूँकि हिन्दी, इस रूप में, हमारे जातीय–चित्त की भाषा–देह है, इसलिए इस व्यापक बात के स्थान पर जब इसे, ‘हिन्दी जाति’ के तौर पर समझने की कोशिश होती है – तो वह ‘सीमित व अधूरी’ बात होकर रह जाती है, इस बात को समझने से बचने की कोशिश करने में होता यह है कि हम हिन्दी के मौजूद रूप के सामने दरपेश युगगत संकट का सम्यक मूल्यांकन करने से चूकते रहते हैं, हमारा ध्यान लगातार इस बात पर टिका रहता है कि कौन लोग ‘हिन्दी–भाषी’ हैं या ‘हिन्दी माध्यम की शिक्षा का सामाजिक उत्पाद’ हैं? इससे हिन्द के व्यापक जातीय–चित्त–गत रूप को नुक्सान पहुँचाता है; उसकी अन्य भारतीय भाषाओं से श्रोतगत एकता खण्डित होने लगती है ओर ‘इतिहास’ विभाजित होकर राजनीतिक व साम्प्रदायिक तौर पर ही बोध का हिस्सा होने लायक रह जाता है इससे हिन्दी के पास ‘अपना’ कहने को जो कुछ भी है, वह ‘अपर्याप्त’ से ‘अपंग’ की कोटि तक पहुँच जाता है एक इतिहास होता है उसके पास; और उसका भी विभाजन हो जाता है – तो हिन्दी के साथ समाज के विकास करने और ‘मनुष्य’ के ‘ज्ञान को उपलब्ध होने’ की बड़ी सम्भावनाएं, खुलने से पहले ही, स्थागित दशा में डाल दी जाती है: सवाल बड़े हैं; परन्तु हम उनका तात्कालिक समाधान पाते ही हड़बड़ी में नजर आते हैं।

यहाँ पूछने लायक बुनियादी सवाल यह है कि क्या हिन्दी को भारत की सम्पर्क–भाषा मान लेने से; उसे राज–भाषा के रूप में मजबूती से लागू करने से और अब योग्यता–चयन की आधार–भाषा बनाने की माँग करने से (यूपीएससी प्रसंग) हम इस भाषा के विकास के लिए वाकई अगली सीढ़ी पर पाँव टिकाने लायक हो जाते हैं? शरद जोशी ने भाषा पर लिखे अपने एक व्यंग्य में कहा था कि हमारे लिए भाषा के बड़े होने का सबूत यह हो गया है कि उसे कितने ज्यादा लोग बोलते हैं? वे ‘इतने ज्यादा लोग’ भाषा के जरिये क्या बोलते हैं? इसकी फिक्र किसी को नहीं। यहाँ मेरा अपना मानना यह है कि हमारी दिलचस्पी इस बात में तो है कि कैसे हिन्दी विश्व–भाषा के तौर पर, बहुसंख्य–भाषी होने के नये कीर्तिमान स्थापित करती रहे; परन्तु वह कैसे एक ऐसी भाषा के रूप में विकास करे–जिसे हम ‘ज्ञान की अपनी भाषा’ के रूप में हासिल कर तेजस्वी और आत्मवान होने के लायक हो सकें, इस पर अब ज्यादा बात नहीं होती है। ज्यादा क्या? भाषा के इस पक्ष को तो जैसे पूछे जाने लायक सवालों की सूची से ही अक्सर बाहर करने में हमारे बुद्धिजीवी फख्र–तक महसूस करते हैं – उनके पास तब बड़े विचित्र तर्क होते हैं वे ‘चिन्तकों’ की भाषा पर नाक–भौ सिकोड़ कर कहते हैं - ‘वह भाषा ही क्या जो किसी की समझ में ही नहीं आए?’ बात तो यों वे भी ठीक ही कहते हैं, क्योंकि हर ‘नयी मौलिक’ बात, कुछ अर्से तक ‘सामान्य समझ’ के लिए जरूर एक जुगती बनी रहती है – परन्तु इससे खतरा यह पैदा होता है, जिसे श्रीकान्त वर्मा ने ‘कोसल में विचारों की कमी है’ के रूप में देखा था – इस ‘कोसल–भारत’ में विचारों की कमी इसलिए आ गयी है क्योंकि मौलिक सोचने–लिखने वालों से हमारे हिन्दी के बुद्धिजीवी उपहार में अक्सर यह कहते हैं, जो ‘हिन्दी’ आप लिखते हैं, उसका जरा ‘हिन्दी’ में ही अनुवाद भी कर दीजिए।

तो क्या अब थोड़ी गम्भीर चर्चा करने की अनुमति दे सकेंगे आप–अपनी इस ‘हिन्दी ज़बान’ की वावत?

‘जुबान’ शब्द ‘भाषा’ से बेहतर है; क्योंकि वह ‘भाषा–देह की वाणी’ का पर्याय है – तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि हिन्दी को एक ‘जुबान’ से ‘एक भाषा’ बनाने तक का जो सफर हमने तय किया है, उसमें हमारी ‘अपनी वाणी’ हमसे कहीं खो गयी है? दर असल ‘हिन्दी’ हमारी ‘जबान’ बनने लायक तब हुई जब उसे गोरखपन्थियों की अपभ्रंश–भाषाओं के साथ, फरीद से लेकर खुसरो तक लगातार ‘हिन्दोस्तान’ में आते सूफियों ने अपनी अरबी-फारसी से तालमेल बिठाते हुए, उसे एक ‘नयी भाषा’ के रूप में रचना गढ़ना आरम्भ कर दिया था। इससे पहले हिन्दी का एक खास तरह का ‘सम्पर्क–भाषा’ वाला रूप, भारत से मध्य एशिया तक आने–जाने वाले व्यापारियों के द्वारा अनगढ़ रूप में निर्मित किया जा चुका था उसे नाथजोगियों और सूफियों के आपसी संवाद के लिए खुले माकूल माहौल ने, ‘सांस्कृतिक भाषा’ का रूप दे दिया था।

यों हिन्दी का वह जो ‘सम्पर्क–भाषा’ से लेकर ‘सांस्कृतिक–भाषा’ बनने का सफर तय हुआ था, और जिसे निरमुनियों व सूफी कवियों द्वारा एक तरह का ‘अखिल भारतीय रूप’ भी मिल साका था, उसे अब विकास की अगली मंजिल की तरह ‘ज्ञान–भाषा’ के रूप में प्रकट व विकसित होना था। परन्तु इससे पहले कि वह हो पाता, इस सफर में बड़े गतिरोध पैदा हो गये: ऐसे गतिरोध, जिनके ऊपर से होकर पार निकल पाने में हमारी यह हिन्दी अभी तक समर्थ हुई नजर नहीं आती परन्तु इन गतिरोधों पर विचार करने में पहले, हिन्दी के मध्यकाल में जन्म ले सके अखिल भारतीय किस्म के सांस्कृतिक–भाषा वाले रूप को, एहतियात के साथ समझना–पकड़ना जरूरी है।

हिन्दी में ‘ज्ञानधारा’ के काव्य की लगभग पूरे भारत में मौजूदगी के प्रमाण ‘गुरू ग्रन्थ साहित्य’ के संकलन में देखे जा सकते है: इस ग्रन्थ में संकलित ‘वाणियों’ को गुरु नानक देव ने अपनी ‘उदासियों’ के दौरान भारत–भ्रमण करते हुए इकट्ठा किया था इसका अर्थ यह है कि वह खास तरह की हिन्दी गुरुनानक देव से भी काफी पहले से, पूरे भारत में प्रचलित हो चुकी थी और उसमें ‘वाणियों’ की रचना की जा रही थी। वाणी का क्या अर्थ है? जुबान हिन्दी उस दौर में हमरी वाणी या ”ज़ुबान होने की प्रक्रिया में थी - कई भाषा वाणी तब हो पाता है, जब वह हमारी सांस्कृतिक–चित्त का प्रतिनिधित्व करने लायक हो जाती है।

और यहाँ समझने व रेखांकित करने की बात यह है कि हिन्दी हमारी ‘सांस्कृतिक चित्त की वाणी’ बनती है, उस भाषा में, जिसे ‘सधुक्कड़ी’ या ‘अनगढ़’ कहा गया और यह दरअसल वह भाषा है, जिसे बाद में, आधुनिक काल में महात्मा गाँधी ‘हिन्दोस्तानी’ कहना पसन्द करते थे और इसीलिए यह यकीनन, परिष्कृत किस्म की ब्रज या अवधी नहीं थी और न यह वह भाषा थी जिसे अँग्रेजों के इशारों पर नाचते हुए फोर्टविलियम कॉलेज के हिन्दी के विद्वान नमूने की तरह पेश कर रहे थे, यह कहते हुए कि वे इस हिन्दी के रूप में ‘भाषा में दिखाई देने वाले इतिहास–तिमिर’ का हटाकर समय के ‘उदित मार्तंड को प्रकट करने’ का कार्य कर रहे थे। कहने की जरूरत नहीं कि उनकी किताबों के नाम तक, उनकी इस सोच के आईने की तरह हमारे सामने है: और फिर द्विवेदी काल में हिन्दी का जिस तरह का ‘परिमार्जित’ ओर ‘मानक रूप’ गढ़ा गया, उसके गर्भ से वह ‘छायावादी’ साहित्य निकला जो गुणवत्ता में अंग्रेजी रोमेंटिसिज्म से भी भले ही एक कदम आगे नजर आता हो, पर जो भारतीय जनसमाज के ‘सांस्कृतिक चित्त की वाणी’ तो एकदम नहीं बन पाता।

बेशक हिन्दी के विकास का ‘इतिहास’ यहाँ जिस तरह से ‘पढ़ा’ जा रहा है, वह हमारे दौर के ज्यादातर हिन्दी–बुद्धिजीवियों के ‘अकादमिक–चित्त’ के लिए एक परेशानी का वायस तो होगा ही; परन्तु क्या कभी हम ‘अपनी हिन्दी’ के सन्दर्भ में, पूछे जाने लायक भी इसलिए नहीं पूछेंगे, कि वे अब तक पूछे नहीं गये हैं, यह एक विचित्र दलील है, जिसका सहारा लेकर मौलिक सवालों को खारिज करने की प्रथा हमारी यहाँ औपनिवेशिक गुलामी के दौर से लेकर अब तक बदस्तूर जारी है।

खैर, उपयुक्त रूप में देखने पर यह समझ पाना कठिन नहीं है कि आधुनिक काल में ‘सधुक्कड़ी–हिन्दोस्तानी’ का जो विभाजन ‘खड़ी बोली’ और ‘उर्दू’ के रूप में हुआ, उसने खड़ी बोली के सामने ‘सम्प्रेष्ण की समस्या’ को इतना नुमाया बना दिया कि उसकी तह जो ‘ज्ञानमूलक अन्तर्वस्तु’ थी–वह उपेक्षित होने लग पड़ी। यह खड़ी बोली और उर्दू–दोनों आधुनिक काल में अपने मौजूदा रूप से उपलब्ध हुई है: दोनों में वह जो अलग दिखने से जुड़ी आत्म–परिमार्जन और मानकीकरण की प्रतृतियाँ हैं, उन्होंने इन दोनों को ‘जनभाषा’ होने से हमेशा एक ‘कमतर’ स्थिति में रखा है। और खुद को ‘साहित्यिक’ व ‘सम्प्रेषणीय’ - दोनों कसौटियों पर खरा उतारने का जो नतीजा हुआ है, वह इन दोनों की ही ‘ज्ञानमूलक अन्तर्वस्तु’ के लिए घातक साबित हुआ है। घातक इसलिए क्योंकि इससे भाषा के विकास के लिए, ज्ञान के मौलिक विकास की ज़मीन को छोड़कर, इन दोनों भाषाओं ने खुद को ‘रसवादी’, या ‘कलावादी’ रूप में पेश किया है – लोगों को ‘मावविभोर’ तो खूब किया है, कला की ‘चुस्ती’ से प्रभावित करके चैंकाया भी बहुत है, परन्तु उस, ‘भाव–बोध’ के साथ जो कभी तय नहीं कर पाता कि उसके ‘आधुनिक होने–दिखने’ का ‘अर्थ’ और ‘प्रयोजन’ क्या है? नतीजतन हम बहुत ‘सुन्दर’ और ‘अच्छा’ कहने लायक तो हो जाते हैं; परन्तु अपनी रचनाशीलता की जमीन और उसके आकाश की ‘सम्यक समझ’ के बगैर ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जमीन के नाम पर हमारे पास या तो संस्कृत होती है और या अरबी–फारसी; और आकाश के नाम पर होती है, केवल और केवल अँग्रेजी। यह संस्कृत, अरबी–फारसी, तब हमारी रचनाशीलता के अन्तर्विकास में मदद कर सकते हैं; जब इनकी ज्ञानमूलक अन्तर्तस्तु को हम हिन्दी की देह के मुताबिक ढाल कर, उसकी आत्मा को नितान्त अपने ‘भीतर’ से, ‘अपने तौर पर’ खोजने के लिए फिक्रमन्द होते हैं और खोज करने के लिए जोखिम उठाने को तैयार मिलते।

अब कुछ सामान्य टिप्पणियाँ:

भाषा माध्यम के रूप में हिन्दी को ऐच्छिक ही नहीं; अँग्रेजी के साथ या उसकी बदल के रूप में ‘अनिवार्य’ तक बनाने में ऐतराज के लायक कोई बात नहीं है। परन्तु ऐसा तभी हो सकता है, जब समाज उसकी जरूरत महसूस करता है – समाज को जरूरत तब होगी, जब हिन्दी के पास ‘अपनी मौलिकज्ञान ज्ञानसम्पदा’ होगी, जो इतनी मूलयवान होगी कि उसे हिन्दी पढ़े–सीखे–लिखे बगैर जानना कठिन लगने लगा जैसे अँग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन के ग्रन्थों का मूलरूप में न पढ़कर, जब हम उनके अनुवाद पढ़ते हैं, तो बहुत कुछ बोद्यगम्य होने से रह जाता है – यह ‘भाषा’ के लिए एक आन्तरिक गुणवत्ता वाली जरूरत पैदा करने का मामला है। इसके बिना किसी भाषा के समृद्ध होने की परिकल्पना तक नहीं की जा सकती।

हिन्दी में हमें ऐसे मौलिक कार्य करने होंगे जिनकी ज्ञानधर्मी जरूरत पूरे समाज व मानवजाति के लिए ‘जानने योग्य’ कोटि वाली हो – जैसे पश्चिम के लोग मूल संस्कृत सीरत कर हमारे ग्रन्थ खुद पढ़ने–समझने का प्रयास करते हैं; वही स्थिति हिन्दी की होनी चाहिए औपनिवेशिक समय से चली आयी परानुभागिता से उबरने का दूसरा उपाय नहीं है। हिन्दी धर्मी साव में साम्प्रदायिकता के लक्ष्य दो कारणों से पैदा होते हैं। एक, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है यानी सधुक्कड़ी–हिन्दोस्तानी का ‘अवैज्ञानिक’ और ‘गैर जरूरी अंतर्तिभाजन - जो हिन्दोस्तान–पाकिस्तान के राजनीतिक–भौगोलिक विभाजन की तरह ‘इतिहास की जारज सन्तान मात्र’ है। भारत–पाक का भौगोलिक पुन: ऐकीकरण अब शायद मुनकिन नहीं, परन्तु भाषा के तल पर, अपने–अपने शुद्धतावादी–परिमार्जनों की मानसिकता को त्याग कर, हम भारत में एक आपागत सांस्कृतिक समन्वय व साझेपन का माहौल जरूर पैदा कर सकते हैं। इससे हमारी संस्कृत व अरबी–फारसी की ओर देखने की मोहवादी प्रवृत्ति का अन्त होगा और हम भाषा में मूलवादी पुनरुत्थानों की बजाये, वहाँ से यहाँ तक आते हुए, भाविष्य में अन्तर्विकास के लिए तैयार हो सकेंगे फिलहाल, इसके उलट हम, यहाँ से वहाँ तक जाने में ज्यादा ताकत जाया करते दिखाई देते हैं, थोड़ी कोशिश करेंगे तो दिशा उलट जाएगी और हम अतीतवादी न रह कर, भविष्योन्मुख होने लायक हो सकेंगे।

दूसरी बात राजनीतिक है। हिन्दी को वर्चस्ववादी प्रवृत्ति से युक्त बना कर या जान कर, उसके प्रति अन्य भारतीय भारतीय भाषाओं मैं सन्देह पैदा किया जाता है। दरअसल यह भी उसी उपर्युक्त मूलवादी मानसिकता का दूसरा रोगजन्य है। मूलवाद सदा अलहदा करता है और भविष्य की ओर उन्मुखता, आपसदारी की जरूरत को गहराती है। प्रश्न भारत की रचनाधार्मिता के ज्ञानमूलक मौलिक विकास का है। उसके भविष्योन्मुख होते ही सभी भारतीय भाषाएँ हिन्दी के साथ एक तरह के गठबन्धन में आकर काम करने लगेंगी। तब वर्चस्ववाद की राजनीति इस आंतरिक गठबन्धन को गुमराह करने की ताकत खो देगी बात जब ‘ज्ञान’ के वर्चस्वी होने की होता है, तब भाषा के वर्चस्वी होने या ना होने की बात खुद-ब-खुद हाशिये पर धकेल दी जाती है।

वे लोग जो हिन्दी में मौलिक चिन्तन करने वालों के काम को कठिन और दुर्वोध्य बताकर कहते हैं कि इस ‘हिन्दी’ का, हिन्दी में अनुवाद किया जाना चाहिए - वे दरअसल उस खिसियाये बल्लेबाज की तरह हैं जो आउट होने पर, गेन्दबाज से कहता है कि उसकी डाली हुई गेन्द ‘समझ’ में नहीं आती और उसे बताना चाहिए कि किताब में गेन्द डालने के जो तरीके लिखे हुए हैं, उनमें से किस तरीके की गेन्द वह डालता है – जाहिर है कि हिन्दी से अब ऐसे छद्म बुदधिजीवियों के विदा होने का समय आ गया है

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।)

 
लेखक चिंतक और आलोचक हैं।
drvinodshahi@gmail.com
+919814658098


09 October 2014

कॉरपोरेट भारत में भाषा का प्रश्न - हितेन्द्र पटेल

‘हिन्दी भारत के भास/उहे एक राष्ट्र के आसा हम ओकरो भंडार बडाइब/ओहू में बोलब ओ गाइब तबो न छोडब आपन बोली/चाहे केहु मारे गोली।’ मनोरंजनप्रसाद सिंह की इन पंक्तियों के पीछे की दृष्टि से आज भारत बहुत आगे आ गया लगता है। राष्ट्र निर्माण के जिस स्वप्न के साथ हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ था उसमें हिन्दी को देश की सम्पर्क भाषा के रूप में देखना एक सहज स्वाभाविक राष्ट्रीय संकल्प था। वह सपना क्यों टूटा यह यहाँ विचारणीय नहीं है लेकिन इस बात को याद रखे बिना कि हिन्दी हमारे राष्ट्रीय स्वप्न के साथ जुड़ा हुआ है, भारतीय भाषाओं के स्वतन्त्र भारत में अधिकार पर बात करना सम्भव नहीं है। आखिर क्यों एक कवि जो अपनी बोली के लिए गोली खाने के लिए तैयार है वह नि:संकोच हिन्दी को भारत (देश) की भाषा मानता है? ऐसे सैकड़ों–हजारों विद्वान लोग थे जो अपनी-अपनी भाषा पर पूरा अभिमान रखते हुए हिन्दी को देश की भाषा के रूप में सहज रूप से स्वीकार कर रहे थे। जब से राष्ट्र निर्माण का संकल्प इस देश में आया उसी समय से हिन्दी को ही यह स्थान दिया गया। इसकी शुरूआत बंगाल में हुई बनारस या पटना में नहीं हुई यह ध्यान दिलाना भी अनुचित नहीं होगा। गाँधी युग में अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया गया। देश के स्वाधीन होने के बाद जिस तरह अँग्रेजी को हटाकर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के सिद्धान्त को नेहरूवियन आधुनिक उदार सोच ने स्थगित किया उसपर बहुत चर्चा की जा चुकी है। यह गलत था या सही इसपर कोई मन्तव्य दिए बिना यह कहना सही होगा कि इस समय लिये गये निर्णयों से आखिरकार अँग्रेजी इस देश में शक्तिशाली होती गयी और अब यह उस समय से ज्यादा स्वीकृत है जिस समय अँग्रेजों की हुकूमत थी। मीनाक्षी मुखर्जी समेत कई विद्वानों ने इस अँग्रेजी की भारत में बढ़ती शक्ति को लेकर आश्चर्य व्यक्त किया है। इस विषय पर इस छोटे आलेख में पिछले डेढ़ सौ सालों में भाषा के प्रश्न पर हुए परिवर्तनों पर एक टिप्पणी की गयी है और अन्त में वर्तमान समय में उभर रहे विकल्पों पर एक मन्तव्य दिया गया है।

यह अब एक ‘क्लिशे’ हो गया है कि अगर चीन, जापान, फ्रांस, रूस और जर्मनी जैसे देशों का पूरा काम (तकनीकी जरूरत समेत) अपनी-अपनी भाषाओं में हो जाता है तो आखिरकार भारत का काम क्यों नहीं चल सकता। इस बात के समर्थन और विरोध में दशकों से कहा सुना जाता रहा है लेकिन कोई हल नहीं निकल सका। स्थिति यह हो गयी कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाषा बंग्ला भी अँग्रेजी दबाव में लगातार आती गयी, हिन्दी की तो बात छोड़ ही दें। ऐसे स्थिति आ गयी कि तकनीकी और समाज विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं साहित्य और धर्म के क्षेत्र में भी अँग्रेजी आने लगी। राजनीति, धर्म और पत्रकारिता सभी क्षेत्रों में अँग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। अब इस स्थिति में कुछ गुणात्मक किस्म के परिवर्तन हुए हैं जिससे समीकरण बदले हैं। इस नयी परिस्थिति में भारतीय भाषाओं के सामने एक नये विकल्प का संसार खुलता दीख रहा है इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह याद रखा जाना चाहिए कि बंकिम–रवीन्द्रनाथ या भारतेन्दु–प्रेमचन्द की औपनिवेशिक ‘राष्ट्रीय दुनिया’ अब नहीं है। उस समय के आदर्श अब जितने भी मोहक लगते हों वे हमारे लिए पर्याप्त नहीं हैं। अँग्रेजी का जो विरोध था वह अँग्रेजी हुकूमत के साथ जुड़ा हुआ था। एक राष्ट्र को कैसा होना चाहिए इसके बारे में सोचते हुए इंटेलिजेंसिया (इसे सुविधा के लिए हिन्दी में स्वीकार कर लिया जा सकता है) ने एक राष्ट्रीय स्वप्न का ताना-बाना बुना जिसमें एक स्वाधीन राष्ट्र के लिए अपनी भाषा का महत्त्व बना। उसकी खोज शुरू हुई और इस दौरान ही अँग्रेजी के स्थान पर एक स्तर पर हिन्दी और अन्य स्तरों पर हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं को रखकर सोचने का विकल्प उभरा। हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में देखने का जो आधार बना उसमें राष्ट्र के बनने के पूर्व के समय के सामूहिकता के आधारों–धर्म, धार्मिक पुस्तकें, धार्मिक स्थल आदि का महत्त्व है। जो हिन्दू मानस के थे उनके लिए संस्कृत सबसे ऊपर थी, पर विभिन्न कारणों से हिन्दी उनके लिए सबसे मान्य देश की सम्पर्क भाषा बन कर उभरी। हिन्दी के राष्ट्रीय विकल्प बन जाने का कारण हिन्दी के लोग नहीं थे यह याद रखें। हिन्दी किसी भी तरह से कई अन्य भारतीय भाषाओं से बेहतर स्थिति में नहीं थी। हिन्दी को सबसे बड़ी भाषा इसलिए माना गया क्योंकि यह हमारे राष्ट्रीय स्वप्न का हिस्सा थी।

जिसे हम गाँधी युग कहते हैं उसमें इस स्वप्न को जब रूप दिया गया भाषा का प्रश्न उलझने लगा। इस प्रश्न को दो स्तरों पर सुलझाने की कोशिश हुई - जनता के साथ संवाद में यह मान्य हुई। इससे हिन्दी को महत्त्व मिला इसमें सन्देह नहीं। भारत के सभी हिस्सों में हिन्दी ही जनता और उनके राष्ट्रीय नेताओं के बीच की भाषा बनी। लेकिन, नेताओं, बडे लोगों ने अपने घर और आपस के संवाद के लिए, ज्ञानार्जन के लिए अँग्रेजी को ही मान्य बनाया। लगभग सभी बड़े नेता, पूँजीपति और विद्वान आदि अँग्रेजी के साथ ही रहे। इस सन्दर्भ में गाँधी ने कुछ दबाव बनाया और हिन्दी प्रदेश के नेताओं के साथ हिन्दी में संवाद करना शुरू किया। यह दिलचस्प है कि गोविन्द बल्लभ पन्त जैसे हिन्दी प्रदेश के नेता ने गाँधी से अँग्रेजी में पत्राचार करना चाहा और दूसरी ओर से दबाव बनने पर अनिच्छा से हिन्दी में पत्र लिखना शुरू किया। काँग्रेस के बडे़ नेताओं में सिपर्फ राजेन्द्र प्रसाद थे जिन्होंने हिन्दी को सहज रूप से स्वीकार किया। उन्होंने अपनी आत्मकथा हिन्दी में लिखी, अन्य बडे़ नेताओं ने अँग्रेजी में। इस देश में एलिट अपने लिए नेताओं का चुनाव बड़ी सावधानी से करते हैं। उस दौर से लेकर 1990 के दशक तक एलिट किसी देशी नेता को अपना समर्थन देने से येन–केन प्रकारेण बचना चाहता है। गाँधी के मामले में वह मजबूर था इसलिए उसे ‘थोड़ा सनकी’ मानते हुए भी समर्थन देने के लिए तैयार हुआ क्योंकि वह ‘अच्छे आदमी’ थे। (ये इतिहासकार बरूण दे के शब्द हैं) यह खासा दिलचस्प है कि वामपन्थ के लगभग सभी बडे़ नेता, काँग्रेस के अधिकांश बडे़ नेता आदि अँग्रेजी से अपनी भाषाओं की तुलना में अधिक निकट थे। यानी, जनता के लिए भारतीय भाषा और एलिट के लिए अँग्रेजी (अपनी भाषा के साथ) यही आदर्श विकल्प था। बिहार के एक विद्वान हैं – शैबाल मित्र। उन्होंने एक दिलचस्प लेख लिखा है जिसमें उन्होंने कहा है कि बिहार में पारम्परिक इंटेलिजेंसिया के लिए भाषा अँग्रेजी थी। (यहाँ पारम्परिक का उपयोग समाजशास्त्रीय केटेगरी के रूप में है।) जो इस देश की भाषा के साथ थे उसे वे कॉकटेली इंटेलिजेंसिया कहते हैं। इस बात से भड़कने की जरूरत नहीं है। बिहार जैसे राज्य में सभी बडे़ विद्वान हिन्दी जानते हुए अँग्रेजी में ही काम करते रहे यह एक सच है। अब आप राहुल सांकृत्यायन का नाम न लें, वे एक अपवाद हैं। राहुल भाषा के मामले में बहुत ही लोकतान्त्रिक थे। वे 1926 में भी जनता के साथ उसकी अपनी बोली में राजनैतिक संवाद करना चाहते थे। राजेन्द्र प्रसाद आदि हिन्दी में भाषण देते थे। उन्हीं सभाओं में राहुल (तब रामोदर दास) छपरा की बोली में भाषण देते थे और जनता में वही ज्यादा लोकप्रिय होता था। बंगाल में यह प्रवृत्ति थोड़ी कम थी लेकिन वहाँ भी प्राथमिकता अँग्रेजी को ही दी जाती रही। इस देश के इंटेलिजेंसिया का जब कोई सम्यक विश्लेषण होगा यह साफ हो जाएगा कि यह अँग्रेजी की तरफ झुकी हुई रही है। चाहे उर्दू की ‘उँची दुनिया’ हो या पिफर बांग्ला का सांस्कृतिक संसार हो सब तरफ अँग्रेजी को ही बढ़त मिली हुई थी। प्रमाण के लिए समर सेन और तपन रायचैधरी की आत्मकथाएँ पढ लें। लेकिन उस समय राष्ट्रीय दबाव इतना अधिक था कि यह सबकुछ उभर कर नहीं आया। अकादमिक जगत का कोई भी आदमी इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि साहित्य के सीमित संसार ने भाषिक और अकादमिक का एक ‘नीचा नगर’ बनाया जिसके अलावा सब जगह अँग्रेजी को बढ़त मिली हुई थी। पर, सरकारी नीति निर्माण में सिद्धान्तत: अँग्रेजी को धीरे-धीरे हटना था सरकारी नीति के कारण भारतीय भाषाओं को कम से कम अँग्रेजी के समतुल्य स्थान देने की बाध्यता थी। इसी कारण हिन्दी को आगे आने का एक मौका बना। नेहरू के नेतृत्व में एक उदार उत्तर–औपनिवेशिक राष्ट्रीय दौर शुरू हुआ जिसमें अँग्रेजी को बने रहने का मौका मिला। इस देश में अँग्रेजी अगर इस शक्तिशाली रूप में बनी हुई है तो उसके लिए मैकॉले को श्रेय दिया जाता है लेकिन उसके साथ नेहरू का नाम भी लिया जाना चाहिए। हालाँकि यह भी एक सच है कि मैकॉले और नेहरू ने किसी बदनीयती से ऐसा नहीं किया था। वे जिस वैचारिक संसार से आते थे वहाँ से अँग्रेजी को इसी रूप में देखा जा सकता था।

उदार उत्तर–औपनिवेशिक दौर जब तक चला (कह सकते हैं अस्सी के दशक तक यह चला) इस देश के एलिट सुविधाजनक स्थिति में रहे। हर स्तर पर अँग्रेजी के साथ चलने के फायदे बने रहे। एकबारगी तो ऐसा लगा कि पूँजीपति वर्ग पूरी तरह से उदार एलिट के तर्कों से ही चलने के लिए तैयार हो गया है। यही वह दौर था जब सलमान रूश्दी जैसे लेखक ने मैकॉले जैसा भयानक वक्तव्य दिया जिसमें भारतीय साहित्य को लगभग अँग्रेजी साहित्य में घटा देने की भयावह कोशिश की गयी थी। वह उदारवाद का स्वर्णिम काल था जब लगा कि बाजार भी उनके साथ है। जितने नये शिक्षण संस्थान बने सबमें यही पाठ दोहराया गया कि अँग्रेजी के सिवा कोई विकल्प नहीं। ऐसी बातें कॉमन सेंस का हिस्सा बनने लगीं जिसमें यह निहित था कि जाने अंजाने अँग्रेजों ने भारत को अँग्रेजी में काबिलियत देकर भारत को चीन समेत अन्य देशों की तुलना में बढ़त दे दी है। यानी, अँग्रेजी हमारी ताकत है। यही वह दौर था जब हिन्दी के बड़े कवि (जिन्हें साहित्य जगत का सबसे बडा सम्मान मिल चुका है) ने उदारता से कहा कि वे अँग्रेजी को एक भारतीय भाषा मानते हैं।

बाजार और पूँजीवाद की अनिश्चितता ही उसकी शक्ति है। उदार पूँजीवाद के भीतर से नये तर्क उभरे और एक नये समीकरण ने जन्म ले लिया। उदार उत्तर–औपनिवेशिक दौर के महानायक वे लोग थे जो एक ऐसे एलिट को शक्तिशाली बना रहे थे जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने मुनाफे को देश के साथ साझा करने में पीछे नहीं हटेंगे। संजय बारू ने मनमोहन सिंह के सम्बन्ध में जो किताब लिखी है उसमें भी यही तर्क उभरता है। उत्तर–औपनिवेशिक कॉरपोरेट युग, जिसकी शुरूआत इस देश में हो चुकी है, ने एक नया समय शुरू किया है जिसमें देशी भाषाओं को बाजार की ओर से अधिक शक्तिशाली बनाया जाना शुरू हुआ। यह एक पेचीदा बात है जिसको वे नहीं समझ सकते जो अभी भी पिछले दोनों दौर के तर्कों के सहारे ही हल ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

यह नया समय शक्तिशाली बनने के नये स्वप्न के साथ लगातार आक्रामक होता जा रहा है। संयोग से यह समय इस देश में राजनैतिक रूप से उस विचारधारा के लोगों के नियन्त्रण में है जिसके स्वप्न की भाषा राष्ट्रीय है और वे शक्ति के देशी भावों के साथ चलना चाहते हैं। इस युग में आर्थिक और सांस्कृतिक जगतों को अलगाया जा रहा है। आर्थिक रूप से उन्नत होना जिनका ध्येय है उनको इस समय के राजनैतिक स्वरों से कम असुविधा हो रही है। उन्हें लग रहा है कि यह वह राजनैतिक नेतृत्व है जो उनके आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनने को काम्य मानता है। वह अगर सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्रों में अनुदार भी रहे तो भी उसे विशेष परेशानी नहीं होती है। चीन के मॉडल की सफलता के बाद इस मॉडल का जोर बढ़ा है। इसमें राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता का हनन बहुत चुभने वाला नहीं रह जाता, बशर्ते आर्थिक विकास सुनिश्चित हो। लेकिन इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने में लगे राजनैतिक नेतृत्व के लिए यह पूरा मामला ‘राष्ट्रीय’ है, ‘सांस्कृतिक’ है। वह देश को साफ–सुथरा, विकास से युक्त, सुखी और शक्तिशाली बनाना चाहता है।

वर्तमान भारत पर सोचते हुए एक इतिहास के विद्यार्थी को दो प्रसंगों को याद करने की छूट मिलनी चाहिए। प्रथम, फ्रांस की राज्य–क्रान्ति का प्रसंग और द्वितीय, बिस्मार्क का युग। फ्रांस की क्रान्ति इसलिए शुरू हुई क्योंकि राजा के पास आर्थिक विकल्प नहीं बचे थे और वह उस व्यवस्था द्वारा पोषित शक्तिशाली वर्गों से अधिक योगदान की अपेक्षा करता था जिसके लिए शक्तिशाली समूह तैयार नहीं थे। उससे आर्थिक संकट गहराया और क्रान्ति शुरू हुई, कई वर्षों तक चली और अन्तत: विप्लवी समाज फ्रांस ने एक निरंकुश अधिनायक को सत्ता सौंप दी जो मुकुट को अपनी तलवार की नोक से उठाकर अपने सिर पर रखना सही मानता था और जो ‘असम्भव को मूर्खों की डिक्शनरी का शब्द मानता था’। बिस्मार्क ने जर्मनी को आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनाया और कहा जाना चाहिए कि औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप इंग्लैंड ने जो कुछ सौ सालों में हासिल करके अपनी बढ़त बनायी थी उसको खारिज करते हुए बीस तीस सालों में जर्मनी ने इंग्लैंड के बराबर अपनी औद्योगिक क्षमता को बढ़ा दिया। उस बिस्मार्क ने इंजीनियरों को विद्वानों से बड़ा माना और नौजवानों को संदेश दिया – ‘परिश्रम, परिश्रम और परिश्रम!’ उस ‘लौह पुरूष’ ने ही तो महान जर्मनी के ऐतिहासिक संकल्प को पूरा किया।

इस दौर में कॉरपोरेट को काम करने वाले एक ‘हिन्दू बिस्मार्क’ की जरूरत थी। लोकतन्त्र के रूप में भारत की जो तस्वीर बनती दिखती है उसमें सबकुछ ऐसे ही चला तो सबकुछ बदल जाएगा। देश शक्तिशाली बनेगा, आर्थिक रूप से बनेगा, पूँजी का वर्चस्व बढे़गा, राजनीति में गुणात्मक बदलाव होंगे और देश की जनता के इतिहास और उसकी अपनी बोली–वाणी को महत्त्व मिलेगा। इस दौर में अँग्रेजी का वर्चस्व टूटना चाहिए। अब बाजार यह मान चुका है कि इस देश में विकास के लिए भारतीय भाषाओं का महत्त्व अँग्रेजी से अधिक है। वह इस ‘मास’ (आमलोग) को विकास में शामिल करके अपना विस्तार करना चाहता है। पूँजी के विस्तार के इस दौर में अखबारों में छपे मार्केट ट्रैंड को समझाने वाले कुछ दिनों से बार बार यह कह रहे थे कि इस देश की भाषा का ही भविष्य है। लेकिन इस नये समय में, इस (नये) ‘देश’ में देश की भाषा कैसी होगी इसे कैसे बनाया–बढ़ाया जाएगा यह इस बात पर निर्भर है कि देश की नयी इंटेलिजेंसिया कैसा व्यवहार करती है। आपने देखा होगा कि इन दिनों क्रिकेट की कमेंट्री अब वे लोग कर रहे हैं जिनकी भाषा (अँग्रेजी के अलावा) बांग्ला, तमिल, तेलुगु और मराठी है।

और अन्त में, यूपीएससी की परीक्षा के सम्बन्ध में जो आन्दोलन चल रहा था उसके बारे में दो शब्द। क्या किसी को भी यह लगता था कि यह आन्दोलन ‘सफल’ नहीं होगा? इसका ‘सफल’ होना तय था। ठीक वैसे ही जैसे पड़ोसी देश की एक रैडिकल लेखिका को लम्बे समय का वीसा दिया जाना! लगता है वे तमाम संस्थाएँ और पद–प्रतिष्ठान आदि ही अपनी शक्ति खोते जाएँगे जो पिछले दौर में शक्ति के केन्द्र हुआ करते थे। क्या आपको लगता है कि यूपीएससी, योजना आयोग या यूजीसी उतने शक्तिशाली रह सकेंगे? अगर लगता है तो आप अभी भी उदार औपनिवेशिक राष्ट्रीय युग के साथ चिपके हुए हैं। उदार अँग्रेजीपरस्तों की दीनता अभी नहीं दिख रही है साफ साफ, थोडे़ दिनों बाद दिखने लगेगी। ये बात और है कि ऐसा होना काम्य है या नहीं। 

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।)
 
हितेन्द्र पटेल
लेखक इतिहास के प्राध्यापक और उपन्यासकार हैं
hittisaba@gmail.com
+919230511567

03 October 2014

इस अंजुमन में आपको आना है बार–बार

(राजेंद्र यादव की प्रथम पूण्यतिथि पर 'सबलोग' परिवार की ओर विनम्र श्रद्धांजलि)

विगत पच्चीस अक्टूबर की रात उनके घर से निकलते हुए हमेशा की तरह मैंने कहा था, ‘पहुँच के फोन करता हूँ।’ आकर दफ्तर के कामों में ऐसा उलझा कि उन्हें उस दिन फोन नहीं कर पाया। देर रात याद भी आयी तो सोचा कल कर लूँगा। तब कहाँ पता था कि वह कल कभी नहीं आनेवाला। इस तरह महज एक दिन की देरी के कारण उनसे किया अपना आखिरी वादा नहीं निभा पाया। मेरा हाथ थामकर कविता के लिए आशीर्वाद और सोनसी के लिए प्यार कहने का उनका वह आत्मीय और उष्ण अन्दाज जैसे मेरे नसों में ठहर–सा गया है। उनकी वह आखिरी छुअन मेरी स्मृतियों में हमेशा ताजा रहेगी।

राजेंद्रजी को याद करते हुये उनकी कई–कई छवियाँ, उनके साथ के कई–कई किस्से रह–रह कर मेरे उंगली थाम ले रहे हैं। उम्र और कद की सारी परिसीमाओं को नकार कर आपके मन के अहातों में दाखिल एक सहज–सरल दोस्त, जिद्दी होने की हद तक का एक ऐसा दृढ़ व्यक्ति जिसने मुड़–मुड़ के देखने के बावजूद जीवन की राह पर कभी पीछे नहीं देखा, अपनी असहमतियों को तीक्ष्णतम तल्खियों के साथ रखने के बाद भी खुले मन से अपने प्रतिपक्षियों को सुनने को तैयार राजेंद्रजी की ये कुछ ऐसी छवियाँ हैं जो उन्हें भीड़ मे अलग करती हैं।

एक ऐसे समय में जब अपने समकालीनों की रचनाओं की प्रशंसा तो दूर कई बार उनकी उपस्थिति तक को हम खुले मन से नहीं स्वीकार पाते, राजेंद्रजी जिस तरह एक नये से नये लेखक को उसकी रचना पसन्द आने पर फोन किया करते थे यह दुर्लभ है। आज जब वे नहीं हैं, हम जैसे कितने नये–पुराने लेखकों के मन में उनका यह कहा गूंज रहा होगा, ‘मैं आपका प्रशंसक राजेन्द्र यादव बोल रहा हूँ।’ उन्हें न तब एहसास हुआ होगा कि वे किस राजेन्द्र यादव से बात कर रहे हैं न अब विश्वास हो रहा होगा कि उन्हीं राजेनद्र यादव की वह खनकती आवाज हमेशा के लिए खामोश हो चुकी है। अपनी उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों को ही लेकर अपने मित्रों-प्रशंसकों के मन में इस तरह का आश्चर्यजनक पर सुखद–दुखद अविश्वास पैदा कर देना राजेन्द्रजी की बहुत बड़ी विशेषता है। तमाम तरह के गुरुताबोध से अछूते सबके साथ सहज और आत्मीय समानधर्मिता का एक ऐसा बर्ताव कि उनसे जुड़ा हर व्यक्ति खुद को उनका खास होने का भ्रम पाल ले। जाने कितनों को हमनिवाला बनाया, कितनों को हमप्याला। जाने कितनों की सिगरेट के लिए अकुंठ भाव से खुद लाईटर जलाई (याद है न उमाशंकर भाई!) तो जाने कितने पैर छूने को झुके लोगों को बीच में रोककर गले लगा लिया...

उनके रहते हुए भी और आज उनके जाने के बाद भी उनके ठहाकों की लोग खूब चर्चा कर रहे हैं। ऐसा छतफोडू व उन्मुक्त ठहाका हम हिंदीवालों को शायद ही फिरर कभी सुनने को मिले। औरों की तरह मैं खुद भी इन ठहाकों का गवाह रहा हूँ और आज उनके ठहाके मेरे भीतर लगातार गूंज भी रहे हैं। लेकिन न जाने क्यों मुझे यह हमेशा लगता रहा और पिछले दो वर्षों में तो मेरा यह अनुमान लगभग यकीन में बदल गया था कि यह ठहाका जो हम ऊपर से देखते–सुनते थे दरअसल उनके भीतर किसी तपते ऊसर की तरह फैले अकेलेपन को झुठलाने या कि ढंकने की कोशिश थी। अकेले पड़ते जाने का यह सिलसिला शायद किन्हीं कारणों से पिछले दो वर्षों में बढता ही जा रहा था। अकेले में भी मस्त रहने की अदा और भारी–भरकम भीड़ के बावजूद भीतर के गहरेपन में नितांत अकेला हो जाने की नियति उनके जीवन का बहुत बड़ा सच थी। तल्लीनता और निस्संगता का इतना सहज और विपरीतधर्मी मेल शायद ही कहीं मिले... दुनिया के तमाम लोगों की दुख तकलीफ सुननेवाला यह शख्स शायद ही किसी के आगे अपने दुख–दर्द की पोटली खोलता हो... आप लाख कुरेद–पूछ के रह जाइए, ‘तबीयत तो ठीक है?’ आपको एक ही जवाब मिलेगा, ‘हाँ, बिलकुल ठीक।’ आप बहुत ज्यादा चिंताकुल हुये तो ज्यादा से ज्यादा यही कहेंगे, ‘क्या तुम कभी बीमार नहीं होते हो’ और आप निरुत्तर। 15 अगस्त 2006 की बात है, कविता का जन्मदिन था। वे खुद से कहकर स्कूल ब्लाक स्थिति हमारे आवास पर आए थे। हमने संजीवजी और राजीव रंजन गिरि को भी बुला लिया था। घंटों बोलने–बतियाने, हंसने–हंसाने, खाने–पीन के बाद अपने घर जाते हुए वे हमारी सीढ़ियों में फिसल गये थे। जिस तरह वे गिरे चोट का अंदाजा हम लगा सकते थे। लेकिन मजाल जो एक उफ भी उनके मुह से निकले... हम एक अनाम अपराधबोध से घिरे उनसे पूछ रहे थे, ‘कहीं कोई चोट तो नहीं आई?’ पर जवाब वही, ‘कमाल करते हो यार! कहीं तुम नहीं फिसले कभी?’

एक सहज सी विपरीतधर्मिता उनके व्यक्तित्व का स्थाई हिस्सा थी। उन्होंने अपने भीतर अपनी सार्वजनिकता और अंतरंगता का जबर्दस्त बंटवारा कर रखा था। कब कहाँ और कितना खुलना है यह सिर्फ और सिर्फ वही जानते थे। एक सीमा के बाद उन्हें सर्वाधिक जानने– समझनेवाले और अंतरंग लोगों की सीमा भी स्वयमेव समाप्त हो जाती थी। उनका जीवन सार्वजनिक और निजी के लगभग दो विपरीत ध्रुवों के बीच का अद्भुत संतुलन था। हमारे बीच के सर्वाधिक लोकतान्त्रिक लेकिन अपनी दृष्टि और सरोकारों को लेकर उतने ही दृढ। बात और आस्वाद का रसिया होना जहाँ उनके जीवन का सार्वजनिक स्वीकार था वहीं उनके अंत:पुर में धीमे–धीमे बजता उदासी का जलतरंग उनकी आंतरिकता का एक ऐसा सच था जिसे समझते तो बहुत लोग थे लेकिन शायद ही किसी ने उसे थाह या थाम पाया हो।

भीड़ के भीतर का एकाकीपन, ठहाके के भीतर की उदासी, लोकतान्त्रिक व्यवहार के भीतर का जिद्दीपन, सरलता के पीछे की जटिलता, खुलेपन के खोल में दुबका उनके भीतर का बन्द एकांत और इन जैसी कई और विपरीतधर्मी विशेषताओं की श्रृंखला में उनकी कविता–विरोधी छवि को भी देखा जा सकता है। बार–बार कविता की मृत्यु की घोषणा करनेवाले राजेन्द्रजी वक्त–बेवक्त कविता और शेरो–शायरी उद्धृत करने में माहिर थे। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने हंस के दफ्तर से उठते हुये उनके मुंह से न सुना हो, ‘इस अंजुमन में आपको आना है बार–बार, दीवारों दर को गौर से पहचान लीजिये...’ राजेन्द्रजी को जीवन की गांठें खोलनेवाली सहज–सरल कवितायें बहुत पसंद थी, मेरे कवि–मित्र मुझे माफ करेंगे, वे जीवन–रस से विहीन ठूंठ होती अतीतजीवी कविताओं का विरोध जरूर करते थे (जिसमें कई बार अतिरेक भी होता था) पर कविता संबंधी उनकी मूल बातों कों समकालीन कविता की एक सार्थक आलोचना के रूप में ही लिया जाना चाहिए।

स्त्री–विमर्श के सन्दर्भ में देह की स्वतन्त्रता के उनके सूत्र के असली निहितार्थों को लोगों ने ठीक से नहीं समझा। किसी पत्रिका के लिए मुझसे बातचीत करते हुये एक बार उन्होंने कहा था, ‘देह–मुक्ति स्त्री–मुक्ति का पहला कदम है, आखिरी नहीं। जब सारी बन्दिशें देह को लेकर ही हो तो मुक्ति की बात भी वहीं से शुरू होगी।’ ऐसा कहते हुये वे जिस बृहत्तर लैंगिक–राजनैतिक यथार्थ की तरफ इशारा करते थे, उसे अभी समझा जाना शेष है। और यह तबतक नहीं सकझा जा सकेगा जबतक हम देह–मुक्ति को मुक्त यौन सम्बन्धों के पर्याय की तरह देखना नहीं छोड़ेंगे।

राजेन्द्रजी का व्यक्तित्व एक मूर्तिभंजक का व्यक्तित्व रहा है। मनुष्यों का दैवीकरण उन्हें कभी मंजूर नहीं था। वे न तो किसी और को देवता के रूप में देखते थे न खुद के लिए किसी देवत्व की कामना करते थे। वे आजीवन मनुष्य की तरह रहे और मनुष्य की तरह जिए, वह भी अपनी शर्तों पर। जीवन के प्रति उनका गहरा और रागात्मक लगाव हमें हमेशा उनकी याद दिलाएगा। वे अपनी तरह के अकेले व्यक्ति थे, उनका प्रतिस्थानापन्न तो कोई नहीं हो सकता पर जिजीविषा और कहकहों से सिंचित प्रतिरोध के हर उत्सव में वे हमारे साथ हमेशा शामिल रहेंगे।

हम जब कभी असहमति, रंग, नमक और आस्वाद की बात करेंगे, राजेन्द्रजी आपकी बहुत–बहुत याद आएगी!
 
राकेश बिहारी
लेखक सुप्रसिद्ध कथाकार एवं आलोचक हैं
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