29 May 2015

मई 2015


खासी समाज से गुजरते हुए                      
                     बनना राम मीणा 

कुछ दिनों पहले पूर्वोतर के मेघालय राज्य में जाना हुआ। वास्तव में मेघालय की धरती खासी, गारो और जयंतिया आदिवासियों की धरती है। यहाँ का जन जीवन कुदरत के बहुत नजदीक है। मेघालय घूमना वहाँ के प्रमुख आदिवासी समाज खासी और गारो की संस्कृति, प्रकृति, लोग और उनकी भाषा से होकर ही
गुजरना था। मन्त्र मुग्ध कर देने वाले नजारों से तो मेघालय कापफी खूबसूरत जगह है। लेकिन मुझे यहाँ के खासी समाज की संस्कृति ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। असम से चेरापूँजी जाते हुए हम लोग खासी के कुछ गाँव सोरा, मौसिमग्राम, रि-भोई, नाँनपोह, उमनिंग और शिलांग में रुके और वहाँ के समाज और  संस्कृति को करीब से जानने की कोशिश की। मेरे गुरूवर मानते थे कि यात्राएँ ज्ञान का अक्षय स्रोत होती है और वह भौगोलिक ही नहीं मानसिक स्तर पर भी अपना अस्तित्व रखती है। खासी समाज के सन्दर्भ में इस यात्रा ने हमारे समाज के बीच पफैले कई पूर्वग्रहों को भी दूर किया। दरअसल, यहाँ पर शुरू से ही ईसाई धर्म का बहुत प्रभाव रहा है। पूर्वोतर शुरू से ही  ईसाई मिशनरियों का केन्द्र रहा है। भारत में ईसाई प्रचारकों का आदिवासियों के बीच आगमन 19 वीं सदी के तीसरे दशक में हुआ था। ईसाई मिशनरियों को जनजातियों के साथ निरन्तर सम्पर्क का एक प्रतिपफल हुआ  जनजातियों में दृढ़ विश्वास और आन्तरिक शक्ति का उद्भव। वहाँ के स्थानीय लोगों से  पत्ता चला कि खासी समाज में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन के उदाहरण न के बराबर है। हाँ, अपनी मर्जी से अधिकाँश लोगों ने ‘ईसाईयत’ को अपना रखा है। ईसाई धर्म के प्रभाव में आने के बावजूद उन्होंने अपनी कुछ परम्परा, रीति रिवाजों और आदिवासियत को आज तक बचाये रखा है। 
आज भले ही आर.एस.एस थिंकर यह कहकर कुलाचें भर रहे कि ‘मदर टेरेसा’ ने गरीबी की आड़ में जबरदस्ती ईसाई धर्म परिवर्तन कराया जबकि शुरू से लेकर अब तक खासतौर से खासी समाज में मिशनरियों
के योगदान का आकलन करें तो सापफ होगा कि यहाँ कहीं भी मिशनरियों द्वारा जबरदस्ती या सेवाभाव की आड़ में धर्म परिर्वतन के उदाहरण नही मिलते हैं।  बल्कि उन्होंने तो उनके लिए आधुनिक शिक्षा-दीक्षा के दरवाजे खोले। उन्हें आत्मसम्मान से जीने के सपने और सम्भावनाएँ दिखायी। वहाँ जाकर यह अहसास हुआ कि वास्तव में यह समाज शेष भारत के समाजों से बहुत अलग है। हिन्दू प्रभाव से मुक्त ऐसा समाज जहाँ मातृप्रधान व्यवस्था है। महिलाओं के प्रति आदर उनकी संस्कृति है। स्त्रिायों का समाज में सम्मानजनक स्थान है और वे पुरुष की दासी या अधीनस्थ नहीं हैं न ही धौंस जमाने वाली पुरुष प्रवृति की गुलाम। ‘मौसिमग्राम’ गाँव के कुछ लोगों ने उन्हीं की अपनी भाषा मे हमें एक अपनी लोकोक्ति सुनाई-‘अदुर लानोत,वेई बाला किन्इह का क्यिर किनथेई’ अर्थात ‘जब मुर्गीयाँ बांग देने लगे’ तो समझो समय खराब है। दरअसल यहाँ औरत की शालीनता और सहनशीलता को ही उसका सबसे बड़ा गुण माना है। उनकी अवमाना और अपमानित करने वाली शोषित मानसिकता वहाँ नही है। वह स्वतन्त्र एंव स्वछन्द वातावरण में सांस लेती है। एक तरपफ जहाँ दिल्ली में चलती बस और कारों में हो रहे बलात्कार, सड़क पर छेड़खानी, दफ्रतरों में महिला अधिकारियों का शोषण होने जैसी घटनाएँ दिल को दहला देती हैं वही हिन्दुस्तान में एक ऐसा राज्य भी है जहाँ स्त्री और पुरूष में बराबरी का दर्जा है। यहाँ बलात्कार, महिलाओं का शोषण, अन्याय अत्याचार जैसी घटनाएँ न के बराबर हैं। यहाँ पर महिलाएँ अपने आप को सहज सुरक्षित और संरक्षित महसूस करती हैं। रात को भी शिलांग और आसपास के शहरों में महिलाएँ बैखोपफ बेपिफक्र होकर घूमती हैं वहाँ लड़की के पिता को यह चिन्ता नही सताती कि मेरी बेटी सुरक्षित घर पहुँचेगी या नहीं। हमारे यहाँ मुख्यधारा के समाजों में स्त्री पुरुष के सम्बन्धों में मर्दवाद का इतिहास बहुत खराब है। स्त्री पर पुरूष का हक जैसी धारणाएँ स्त्री का जीना मुश्किल कर देती हैं। खासी समाज स्त्राी को खुली आजादी देता है। भारतीय संस्कृति के उलट यहाँ स्त्री को अपना वर खुद चुनने की आजादी है। खासी समाज में स्त्राी के हक और अधिकार सुरक्षित हैं। वह बारात लेकर दूल्हे के घर जाती है और वहाँ के रीति रिवाजों के अनुसार शादी कर अपने घर लाती है। 
शेष भारत के समाजों की तरह,  दहेज जैसी कुप्रथा यहाँ नही है। वर्चस्ववाद, मर्दवाद, असमानता की अवधारणा से यह समाज कोसों दूर है। चाहे महानगर हो या शहर गली हो या मोहल्ला किसी भी स्थान पर महिलाओं के
प्रति अन्याय अत्याचार असमानता का भाव कहीं भी नही दिखा। यहाँ के आदिवासी समाज ने आधुनिकता और परम्परा के बीच सांमजस्य बैठा रखा है। अपने जीवन के आधारभूत रीति रिवाजों से लेकर अपने कार्यों में मौसम और प्रकृति को संजोया है। बरसों का अर्जन, विचार  विमर्श, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विचारों
का आदान प्रदान इस समुदाय की संस्कृति का हिस्सा है। मुख्यधारा का समाज खासी समाज को उपेक्षित भरी नजरों से देखता है। शेष भारतके लोगों की नजर में उनकी संस्कृति हेय है। लेकिन मुझे बहुत से मामलों में उनकी जीवन शैली, सांस्कृतिक विरासत बेहतर लगी। इसलिए श्रेष्ठता का दम्भ भर रहे समाजों को भी उनसे कुछ सीखने की जरूरत है न कि इन समुदायों के आन्तरिक लोकतन्त्र को हेय दृष्टि से देखने की। इन लोगों में बहुत अनुशासन है और वे भारत में अधिकांश लोगों की तुलनामें कहीं अधिक लोकतान्त्रिक भी हैं। आज हमारे अकादमिक माहौल में पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज को लेकर बहुत कम चर्चा होती हैं। अभी सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेले की थीम ‘पूर्वोत्तर के आदिवासी स्वर’ थी। किन्तु मेले से पूर्वोत्तर के स्वर गायब थे। ज्ञान, विचार और सांस्कृतिक आयोजनों में इस समाज पर बातचीत न होने से शेष भारत का  समाज झूठे तथ्यों और प्रतिमानों के आधार पर पूर्वोंतर के बारे में अपने मनगढ़न्त डिजाईन बना लेता है और उसी दृष्टि से उस समाज का आकलन और व्याख्या करता है। परम्परा और आधुनिकता के बीच एक बेहतर तालमेल बैठा रहे समाज के सन्दर्भ में मुख्यधारा का समाज अपने प्रतिमानों के आधार पर गलत समझ विकसित किये हुए है। निश्चित रूप से किसी समाज को बिना देखे समझे अपने सर्टिपिफकेट बाँटना उस समाज के साथ अन्याय करना ही होगा। शेष भारत ने उनमें परायेपन का बोध कराया है वहाँ का खासी समुदाय यह सोचता है कि हम लोग भारत के हैं भी या नहीं? एक अलगाव की भावना उनके मन में बस गयी। हम रात को शिलांग में घूम रहे थे, हमें तो वहाँ किसी ने अजनबी आँखों से नही ताड़ा। जब दिल्ली में इसी प्रदेश के वाशिन्दे सड़कों पर घूमते हैं तो लोगों की नजरें तिरिस्कृत, उपेक्षित भाव से ताड़ती हैं साथ ही उन्हें चिंकी, चीनी जैसे शब्दों से कटाक्ष करने से भी नही चूकते और लाजपत नगर  जैसी घटनाएँ घटती हैं। ये परायेपन की पीड़ा  पल-पल उन्हें कचोटती रहती है। इसका अहसास मुझे वहाँ के स्थानीय नागरीक ‘जेम्स फ्रलांओग’ जिन्हें हिन्दी की अच्छी खासी समझ थी, से बातचीत करने से हुआ। उनका  कहना था- सर हम तो आपको ‘भाई’ मानते हैं और आप हमें ‘चारा’ ये कैसा ‘भाई-चारा’ है ? ऐसे कैसा चलेगा? हम दिल्ली जाते हैं तो हमें विदेशी ;नेपाली, चीनीद्ध समझा जाता है? आदि बहुत से सवालों ने मन को उदास कर दिया। हमारे जैसे पर्यटकों के साथ मिलकर यहाँ के निवासी नर्तकों के अखाड़े में नाचे और कहा ये हमारा ‘कल्चर’ है सरजी, हम लोग झुण्ड बनाकर सामूहिकता में अपने ईश्वर की अराधना करते हैं। अपनी कला और संस्कृति के अनूठे रंग में रंगा यह समूह अपनी सरलता सामूहिकता सहभागिता को आज भी जीवित रखे हुए है। आज मुख्यधारा के समाज को उनसे कुछ सीखने की जरूरत है, न कि उन्हें अपनी अध-कचरी संस्कृति सिखाने की। 


              लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग  
                              में असिस्टेंट प्रोपफेसर हैं।
                               +919910272879
                   bannarammeena@yahoo.co.in

19 May 2015

सबलोग मई 2015


समाजवाद के पुरोध के नाम पाती

              मनोज कुमार झा

परम आदरणीय जवाहरलालजी  
सादर प्रणाम!
इससे पहले कि आप चैंके मैं आपसे कुछ बातें बिना लाग लपेट के कह देना चाहता हूँ। मेरा परिचय आपके लिए कुछ खास महत्त्व नहीं रखता है और रखना भी नहीं चाहिए। मैं आपकी मृत्यु के ढाई तीन वर्ष पश्चात उस
धरती पर आया था जिसकी जमीन में आपका अस्थि अवशेष समाहित हो चुका था। आप चल बसे थे लेकिन आपकी मौजूदगी मेरी पीढ़ी के इर्दगिर्द हमेशा बनी रही। बचपन से ही सुनता रहा था। नेहरू ने ये किया। नेहरू
ने वो किया। ये बाँध, ये बराज नेहरू ने बनवाया था। इस काॅलेज का उद्घाटन नेहरू ने किया था। ये नीति नेहरू ने बनायी। इतने विशाल और विविधता से भरे मुल्क में उदार लोकतन्त्रा और हर व्यक्ति को वोट का अधिकार
देने में नेहरू की महत्ती भूमिका रही। आदि आदि। हमारे गाँव में एक मिलन मन्दिर हुआ करता था ;जिसके मैंने सिपर्फ भग्नावशेष देखे थेद्ध। लोग बताते थे कि आपके द्वारा शुरू किये गये ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ के तहत यह बना था। मेरे दादा बताते थे कि नाम में मन्दिर शब्द होने के बावजूद किसी के लिए
‘प्रवेश निषेध’ का प्रावधान नहीं था घोषित या अघोषित... न जाति पर, न वर्ग पर और
ना ही पूजा पति की भिन्नता पर। शायद  आपके होने के कारण उस दौर में मन्दिर को स्जिद से और मस्जिद को मन्दिर से खतरा  नहीं था और घर के बड़े बुजुर्ग बताते थे कि आप दंगाइयों के बीच घुस कर खुद लात घूसा
चलाने लगते थे। कमाल है भाई। आप ये सब कर गये और पीछे छोड़ गये ये कहानियाँ  जिनको सुनकर और पढ़कर मेरी पूरी पीढ़ी को एक अहसासे-कमतरी होता रहा, मैंने और मेरे कई साथियों ने हजारो दपफे यह सोचा कि काश आपके रहते ही हम भी पृथ्वी पर आ गये होते तो ‘इन्दर मल्होत्राजी’ की तरह हम भी कहते कि, ‘हिन्दुस्तान दुनिया की सबसे खास जगह है क्योंकि यहाँ नेहरू रहते थे। आजादी की हीरक जयन्ती पर पैदा हुए बच्चे भले कितने ही बरस जियें लेकिन वो नेहरू की तरह के जिन्दादिल और उदार शख्स को कभी नहीं देख पाएँगे।’  खैर! इस खत को लिखने का आशय यह नहीं था कि आपकी तारीपफ में काढ़े जाएँ।

 वैसे भी कसीदों ने आप में हमेशा झल्लाहट ही बढ़ायी है। सच कहूँ तो यह चिट्ठी मैं दस-बारह वर्ष की जब मेरी उम्र थी तब से ही लिखना चाह रहा था, तब रूक गया क्योंकि लगा कि लोग कहेंगे कि बौरा गया है। स्वर्गीय हो गये लोगों को लिखने की बात कर रहा है। पिफर बढ़ती उम्र के साथ यह जान पाया कि मुझसे पूर्व कई लोग यह
गुस्ताखी कर चुके हैं। पिफर दुनियादारी  में उलझ कर भूल ही गया लेकिन बीती 16 मई
को जब आम चुनाव के नतीजे आये और एक नयी सरकार कुछ अलहदा सरोकारों के साथ आयी तो ऐसा प्रचारित किया गया मानो चुनाव काँग्रेस पार्टी नहीं बल्कि आप और आपकी प्रतिबताएँ हार गयी हों। हालाँकि सच तो यह है कि काँग्रेस इसलिए हारी कि आप और आपके द्वारा प्रतिपादित मूल्यों को स्वयं काँग्रेस
वालों ने ही तिलांजलि दे दी थी। और पिफर आपके विचारों और मूल्यों को नेस्तनाबूद करने का एक ऐसा राष्ट्रीय अभियान चला कि जिसकी कोई हद ही नहीं थी। यह एक ऐसा दौर था जब मैंने ठान लिया कि चाहे आपकी चिर निद्रा में थोड़ी खलल पड़े लेकिन आपको हालात से रूबरू कराना बेहद जरूरी है। हमारे
शहर की एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका ;अँग्रेजीद्ध ने तो बीते नवम्बर के अपने एक अंक का शीर्षक ही रख दिया ‘क्या नेहरू मोदी से बच सकते हैं?’। हम सब पहले तो सन्न रह गये परन्तु शीर्षक में ‘प्रश्नवाचक
चिन्ह’ देखकर राहत महसूस हुआ कि अभी सब खत्म नहीं हुआ है लेकिन कई सवाल पिफर भी बचे रहे। इस चिट्ठी के माध्यम से मैं मौजूदा सरकार और समाज के एक वर्ग में आप और आपके विचारों के प्रति वैमनस्य
;घृणाद्ध को समझने की चेष्टा करूँगा। शायद  आप भी जान पायें कि ‘कितना बदल गया आपका हिन्दुस्तान’।
अब वैज्ञानिक सोच को ही लीजिये। आपने स्वयं कई अवसरों पर यह स्वीकार  किया कि जीवन और यथार्थ को देखने और समझने के लिए आपके आशावाद की पृष्ठभूमि में एक स्पष्ट वैज्ञानिक दृष्टिकोण था। सम्भवतः
इसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण और धर्म के साथ कुरीतियों और बासी रिवाजों के मद्देनजर अपने आपको ‘संशयवादी’ घोषित किया। आपके लिए लौकिक महत्त्वपूर्ण था ना कि अलौकिक  जिसकी सबसे पहली शर्त है कि बगैर संशय और वैज्ञानिक आलोचना के व्यक्ति स्वयं को  समर्पित करे। दूसरी तरपफ इन दिनों आपके
पद पर सुशोभित व्यक्ति महाभारत के कर्ण के माध्यम से जेनेटिक विज्ञान और भगवान् गणेश के माध्यम से प्लास्टिक सर्जरी के ज्ञान को दुनिया को भारत की देन बताते हैं। हमारे मौजूदा प्रधानमन्त्राी मंगल यान के प्रक्षेपण से पूर्व नवरात्रि की महिमा बताना उतना ही जरुरी समझते हैं। अब आप ही सोचें अगर आपके
वैज्ञानिक विचार और मूल्य अगर समाज में प्रभावी रहे तो हमारे प्रधानमन्त्राी यह कैसे घोषित कर पाएँगे कि स्टेम सेल रिसर्च प्राचीन भारत में एक समृविधा थी। हम किसे समझाएँ कि तर्क और वैज्ञानिक सोच के
आधार पर आपने हिन्दुस्तान की निरन्तरता को समझते हुए आपने एक प्रगतिशील और उदार हिन्दुस्तान की तामीर की थी। सत्तासीन मौजूदा विचारधारा को अपने प्रतिद्वन्दी राजनीतिक दलों से नहीं आप से भय है और शायद यह कारण है कि आज की पीढ़ी को बताया और समझाया जा रहा है कि अगर आप न होते
भारत प्राचीन गौरव को कभी न खोता और स्टेम सेल, प्लास्टिक सर्जरी और जेनेटिक विज्ञान आदि विषयों का विश्व को हमारा एकान्तिक योगदान होता। हमारी जयजयकार हो रही होती। उनके हिसाब से आप तारीखी
गुनाहगार हैं, लेकिन कोई उन्हें कैसे बताए कि आप से ज्यादा शायद ही किसी ने भारत की समृविरासत को विश्व पफलक पर रखा हो। हम उन्हें कैसे समझाएँ कि सार्वजनिक जीवन में तर्कहीन आस्था ने मुल्क में
अन्तर-समुदाय सम्बन्धों को किस प्रकार लगातार कमजोर किया था यह आपकी चिन्ता का विषय रहा।
हाँ। अब थोड़ी चर्चा आपके धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों की।
आपके लिए भले ही धर्मनिरपेक्षता न्याय, समानता और लोकतन्त्रा के लिए आपकी प्रतिब(ता की एक महत्त्वपूर्ण  कड़ी थी लेकिन आज के शासकगण और उनकी विचारधारा के झंडाबरदार मानते हैं
भारत जैसा महान और असीम सम्भावनाओं वाला देश सिपर्फ इसी कारण ‘सोने की चिडि़या’ के स्तर से पदच्युत हो गया कि आपने इसे धर्मनिरपेक्ष देश बना दिया। आपके पश्चात यह आपकी विचारधारा वालों को धर्मनिरपेक्षता से पहले ‘छद्म’ उपसर्ग लगाकर नवाजने लगे’। कमाल तो यह है जवाहरलालजी कि आपके
मूर्तिभंजक इस बात को नहीं मान पाते हैं कि आपकी धर्मनिरपेक्षता की समझ पश्चिमी देशों से आयातित नहीं थी। उनका मानना है जब पढ़ाई पूरी कर इंग्लैंड से लौटने के दौरान आप अपने साजो सामान के साथ धर्मनिरपेक्षता भी ले आये। न मानने को कटिब लोगों को हम यह कैसे बताएँ कि आपकी धर्मनिरपेक्षता की जड़ें हिन्दुस्तान के धार्मिक सन्दर्भ, राजनीतिक चिन्तन और संस्कृतिक अवधारणाओं के मध्य सिंचित हुई थीं। आपके लिए, धर्मनिरपेक्षता बस एक राजनीतिक दर्शन नहीं था, बल्कि एक व्यापक और मानक संकल्पना थी जिसमें  सभी धर्मों, मान्यताओं और समुदायों को पूरी स्वतन्त्राता के साथ जिन्दगी जीने और राष्ट्रनिर्माण
में हिस्सेदारी की आजादी थी। प्रिय जवाहरलालजी, तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विघ्न बाधाओं के बावजूद सभी के  लिए समान अवसर के लिए राज्य की प्रतिबता तय करना आसान नहीं था तब जबकि पड़ोस
में पाकिस्तान बना हो और आपके कुछ सहयोगियों द्वारा हिन्दुस्तान में हवा गर्म करके ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बनाने का दबाव रहा हो। स्वाधीनता संग्राम के केन्द्रीय विमर्श में उदार लोकतान्त्रिाक प्रावधानों और धर्मनिरपेक्ष सिधान्तो  को लाने में आपको अपने कई सहयोगियों से जद्दोजहद करनी पड़ी। लोग आपको
धर्मविरोधी, नास्तिक और न जाने क्या क्या उपमा देते रहे। आपने न सिपर्फ अपने साथियों बल्कि समग्र हिन्दुस्तानियों को यह बताया कि धर्म के बहुलवादी स्वरूप ने हिन्दुस्तान की सभ्यता को लगातार परिमार्जित किया था लेकिन किसी एक समुदाय की पूजा पति और धर्म के आधार पर निर्मित राज्य हिन्दुस्तान
की विविधता के मौलिक स्वरूप और चिन्तन को नष्ट कर देगा। आपको शायद याद हो कि 5 नवम्बर 1946 को मुंगेर में हुए दंगो के पश्चात आपने कहा थाः 12 वर्ष पूर्व भी मैं यहाँ आया था जब
एक भीषण भूकम्प आपके पूरे जिले को तबाह कर गया था और आज मैं पुनः यहाँ एक तबाही के मंजर के समक्ष खड़ा हूँ। और यह तबाही प्रकृति ने नहीं बल्कि इनसान ने दूसरे इन्सान के खिलापफ की है। जब प्रकृति तबाही
लाती है तो लोग एक दूसरे की मदद के लिए  आगे आते हैं लेकिन इस तबाही में तो एक भाई दूसरे भाई का गला काटने को तत्पर है। यह कौन सा तर्क है, यह कौन सा चिन्तन है कि आप पूर्वी बंगाल में हुए साम्प्रदायिक
हिंसा का बदला अपने बिहार के पड़ोसी मुसलमान भाइयों से लेना चाहते हैं। क्या यह है आपकी संस्कृति और सभ्यता जिस पर आपको गर्व है? मैं जनता हूँ इसमें सबसे ज्यादा नुकसान सरल और सहज आम लोगों का
होगा, किसानों का होगा और भड़काने वाले लोग दूर खड़े होकर इस तबाही के लिए ताली बजा रहे होंगे। आप सबों को अपने घृणित और अराजक व्यव्हार पर शर्म आनी चाहिए। (Selected Works, Volume-1, p. 61)
जवाहरलालजी ! उस दौर में आप लगातार लोगों को एकजुट होकर इस वहशीपने से लड़ने को कहते रहे। और आप कापफी हद तक सपफल भी रहे। आप कहते रहे कि साम्प्रदायिक उन्माद ने भारत के दिल को कापफी हद तक तोड़ दिया है लेकिन सनातनी एका और साझी तहजीब की डोर पूरी तरह नहीं टूटी है। बापू की हत्या से ठीक दो दिन पहले आपने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को पत्र लिखकर हिन्दू महासभा की नापाक गतिविधियों के बारे में अपनी चिन्ताओं को साझा करने के साथ साथ आरएसएस की भड़काऊ साम्प्रदायिक तेवर के कारण भारत के विभिन्न हिस्सों में हो रहे दंगों का भी जिक्र किया। यह वह दौर था जिसमें आपके ही कुछ साथी मुसलमानों से हिन्दुस्तान के प्रति वपफादारी का सबूत माँगते थे। हर उस ‘वपफादारी’ का सबूत माँगने वालों के कारण आपका दिल रोया जरूर होगा लेकिन आपने हार नहीं मानी और न ही अपनी संवेदनाओं और प्रतिबताओं के
साथ समझौता किया बल्कि कई कदम आगे जाकर आपने अपने सरोकारों को एक आन्दोलन  का भी स्वरूप दिया। कई वैसे लोग जो आपके दल में नहीं थे, वे भी आपके साथ आये। क्योंकि उदार लोकतन्त्रा, समानता और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित हिन्दुस्तान के लिए एक व्यापक सहमति बन चुकी थी और कम से
कम तब की तारीख शायद उलटे कदम चलने की इजाजत नहीं देती थी। खैर। जवाहरलालजी। कितनी बातें कहीं जाए आपसे और वह भी एक चिट्ठी में। पूरी दुनिया और तमाम समावेशी और एकान्तिक विचारों का गम्भीरता से अध्ययन करने के पश्चात आपको हिन्दुस्तान के लिए लोकतान्त्रिक समाजवाद से बेहतर कुछ नहीं लगा। शीर्ष नेताओं के साथ आपके संवाद से वाकिपफ हूँ और शायद इसलिए यह समझता हूँ कि आपके लिए लोकतान्त्रिक समाजवाद की लड़ाई धर्मनिरेपक्षता की लड़ाई जितनी ही दुरूह थी। आपको याद हो उद्योगपतियों के कुछ बड़े समूहों ने तो आपके समाजवादी तेवर के कारण काँग्रेस को चन्दा बन्द कर देने तक की धमकी
दे दी थी। लेकिन बिना भय के आप काँग्रेस को यह मनवाने में सपफल हुए कि लोकतान्त्रिक समाजवाद सिपर्फ राज्य का सरोकार ना होकर हर हिन्दुस्तानी की जीवन पति का हिस्सा होना चाहिए। संसदीय लोकतन्त्रा की मजबूती को लेकर आप अम्बेडकर साहेब से सहमत थे कि जब तक आर्थिक एवं सामाजिक बराबरी के मसले हल नहीं होंगे लोकतन्त्रा सिर्फ एक सीमित ‘प्रभु वर्ग’ का तन्त्र बनकर रह जाएगा। शायद इसी तकाजे से लम्बी बहस के बाद 1954 के दिसम्बर महीने में भारतीय संसद ने भी ‘समाज के समाजवादी ढाँचे’ पर मुहर लगा दी थी। और देखिये इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या बात होती कि आपकी ही पार्टी ने सन 1991 में आपके समाजवादी दर्शन का दानवीकरण शुरू कर दिया। अर्थव्यवस्था में नवउदारवाद का ‘युगान्तकारी प्रादुर्भाव’ हुआ
और लोग हमें बताने लगे कि आपकी गरीब परस्त नीतियों के कारण हिन्दुस्तान पूँजी की चमक से वंचित रह गया। वे आपके ही लोग थे जिन्होंने एक ‘व्यापक सहमति’ के आधार पर आपके लोकतान्त्रिाक समाजवाद को
अभियुक्त बनाना शुरू कर दिया और रही सही कसर हमारे नए प्रधानमन्त्राी ने पूरी कर दी
मैं भी उन लोगों में शुमार हूँ जिनका मानना है कि बीते आठ दस महीने में इस देश की राजनीतिक सामाजिक आबोहवा में कई बुनयादी बदलाव आये हैं। सिर्फ सरकार नहीं बदली बल्कि कई सरोकार बदल गये।
सिपर्फ शब्द नहीं बदले बल्कि उनके मायने बदल गये। गरीबी और सामाजिक सरोकारों की बात करना अचानक से ‘गरीबी का जश्न मनाने वाले कालविरु विकास विरोधी’ की संज्ञा से नवाजे जाने लगे हैं। सत्ता संगठन और
क्रोनि पूँजीवाद का यह अद्भुत गठबन्धन गुस्से और आक्रोश में आपके विचारों की बात करने
वालों को ‘गरीबी का जश्न’ मनाने वाले छद्म क्रन्तिकारी मानते हैं। कुल मिलाकर ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ वाली नयी सरकार ने आप पर अभियोग करते हुए आपके लिए  ‘संगसार’ की सजा तय कर दी है। हर हाथ
में पत्थर है और निशाने पर आप हैं जवाहरलालजी। आपके बचाव की कोशिश  में कुछ पत्थर हम जैसे आपके मुरीदों के हिस्से भी आ जाते हैं। सहानुभूति के लिए नहीं कह रहा हूँ। यूँ ही इस पफसाने में जिक्र हो आया।
प्रिय जवाहरलालजी। अपने बचपन की एक बात बताना चाहता हूँ। बिहार के एक छोटे से शहर में जब बजट का दिन आता था तो हम बजट में आम आदमी, मध्यम वर्ग, निम्न माध्यम वर्ग और वंचित समूह अपने सरोकार के प्रति सरकारों की प्रतिबता और प्राथमिकता ढूंढ़ते थे। केरोसिन, माचिस, मोमबत्ती, चीनी, अगरबत्ती, खाद्य पदार्थों, कपडे़ इत्यादि। सरकारें और आम बजट इन चीजों की बढ़ती-कम होती कीमतों के मानकों पर तौली जाती थी। सन नब्बे के पश्चात अचानक से हमारा बजट, हमारा नहीं रह गया। आम बजट
बिलकुल खास होता चला गया। थोड़ी नाराजगी आप से भी है कि न जाने कैसे लोगों को
छोड़ गये आप काँग्रेस में कि सन 1991 के बाद से साल दर साल, आने वाली सभी सरकारों के ;काँग्रेस सहितद्ध बजट से आम लोगों के चेहरे और उनके सरोकार लुप्त होते गये। अब तो आलम यह है कि बजट के दिन हर मीडिया संस्थान कोर्पोरेट के चेहरे पर की मुस्कराहट की लम्बाई और चैड़ाई नापता रहता है। क्या-क्या लिखूँ और क्या याद करूँ। यह अपफसाना खत्म ही नहीं होना चाहता है...। और कासिद को कैसे बताऊँ कि मामला...।
बात निकलेगी तो पिफर दूर तलक जाएगी के अन्दाज का है। आपके मुल्क की आबोहवा अगर और खराब होगी तो पिफर लिखूँगा..। अन्यथा इसे अपने एक मुरीद का पहला और आखिरी खत मानियेगा।
और हाँ...। आराम में खलल के लिए मुआपफी के साथ!

                                                      मनोज कुमार झा
                         लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सामाजिक            
                                                 कार्य के प्राध्यापक हैं।
                                                    +919899694883
                                           jhamanoj100@gmail.com


17 May 2015

सबलोग मई 2015


लोकतान्त्रिक मर्यादा के शिखर पुरुष  

                     कर्मेन्दु शिशिर

पण्डित जवाहरलाल नेहरू अपने समकालीनों में सम्भवतः सबसे अधिक आधुनिक सोच वेफ थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा इंग्लैण्ड में हुई थी और वे यूरोप को देखकर ही नहीं, जी कर समझ चुके थे। मगर वे इतिहास वेफ एक बड़े  अध्येता भी थे और उन्होंने भारतीय इतिहास को गहराई से समझा था। अपनी आत्मकथा मेरी कहानी में वे लिखते हैं, ‘‘पुरानी दुनिया खत्म होने जा रही है और एक नये संसार का निर्माण हो रहा है, किसी समस्या का जवाब ढूंढ़ने के  लिए यह जरूरी है कि पहले यह जान लिया जाय कि वह है क्या? निस्सन्देहसमस्या को समझना उतना ही महत्त्व रखता है, जितना कि उसका हल निकालना।’’ इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे वत्र्तमान समस्याओं को अच्छी तरह समझ रहे थे और उन्होंने साम्राज्यवाद, पफासिज्म और भारत में सम्प्रदायवाद के  खतरों को स्पष्टता से समझा था। वे किसानों और मजदूरों की समस्याओं को भीबारीकी से समझ रहे थे। उन्होंने इस पर गम्भीरता से विचार भी किया है। उनवेफ भीतर नये भारत के  निर्माण की जेनुइन तड़प भी थी। उनकी समस्या वह द्वन्द्व था कि वे किस प्रणाली से भारत का निर्माण करें? यूरोप के  अलावे उनके  सामने दो उदाहरण और थे, जिसे वे साफ-साफ देख रहे थे। लिखते हैं ‘‘रूसके  अलावा और जगह भी ‘नवीन योजनाओं’ और महान परिवत्र्तनों की चर्चाएँ हो रही हैं। पूंजीवादी  प्रणाली को सब प्रकार से कायम  रखने और मजबूत करने की प्रबल आन्तरिक इच्छा वेफ बावजूद प्रेसीडेण्ट रूजवेल्ट ने अत्यन्त साहस-भरी ऐसी योजनाएँ प्रचलित की हैं, जिससे अमेरिका का सारा जीवन ही बदल सकता है।’’ रूस और अमेरिका में हो रहेपरिवत्र्तनों, योजनाओं और प्रणालियों का यह द्वन्द्व तो समझ में आता है, जिसे वे भारत में आयात करने को लेकर प्रयत्नशील रहे। मगर जो बात हैरान-परेशान करती है कि वे मौलिक  भारत के  निर्माण के  लिए गाँधी जी की योजनाओं और प्रणालियों को अपनाने को लेकर क्यों नहीं उत्सुक हुए? आश्चर्य है कि महात्मा गाँधी उनके  विचार और व्यवहार में कभी आये ही नहीं। हर समय, हर पल उनसे एक दूरी बनती गयी और भारत एक अलग राह पर चलता चला गया। अगर आज महात्मा गाँधी स्वर्ग से भारत में लौट आते तो वे अपने  को बेहद अजाना और बेगाना महसूस करते। कहीं से उनको अपना भारत लगता ही नहीं।अब नेहरू जी की नये भारत वेफ निर्माण की उस शैली पर भी विचार करें-‘‘अगर किसी प्रमुख आवश्यक परिवत्र्तन के  रास्ते में स्थापित स्वार्थवाले बाधक हों तो क्या यह धर्म होगा कि जन-समूह को दुःखी तथा दरिद्र  रखकर उनको कायम रखने का प्रयत्न किया जाय? अवश्य ही हमारा उद्देश्य स्थापित स्वार्थों को आघात पहुँचाना नहीं है, बल्कि उनको दूसरे लोगों को हानि पहुँचाने से रोकना है। इन स्थापित स्वार्थों से समझौता हो सकना मुमकिन हो सकता हो तो वह कर लेना अत्यन्त वांछनीय होगा।’’ समस्या यहाँ थी। स्थापित स्वार्थों को बनाए रखकर उनसे समझौता करना उसी तरह की बात थी, जैसे कोई बिल्ली से समझौता करे कि वे चूहे को न खाए। परस्पर विपरीत वर्गीय स्वार्थों को बनाये रखना और समझौते की रणनीति की यह प्रक्रिया आज तक चलती चली आ रही है। पूंजीपति वर्ग, राजशाही और सामन्त, कट्टरवादी सभी को कायम रखकर आखिर नेहरू जी प्रगति और विकास की कौन सी और वैफसी परिकल्पना कर रहे थे? लेकिन वे इस खतरे से अनजान थे, ऐसा भी नहीं था। आगे वे लिखते हैं-‘‘यह समझौता इस प्रकार नहीं हो सकता कि नया स्थापित स्वार्थ कायम करवेफ पहले स्थापित स्वार्थ को हटाया जाय।’’ उनका विश्वास यह था कि मुआवजा देकर झगड़े से बचा जा सकता है क्योंकि वे किसी वर्गीय अशान्ति के  खिलापफ थे। नेहरू जी की सोच और कार्यप्रणाली में मुख्य पेंच यही था कि वे हर हालत में वर्गीय हितों में सामंजस्य स्थापित करने के  पक्षधर थे, जो नामुमकिन था। खुद आगे लिखते हैं -‘‘परन्तु दुर्भाग्य से सारा इतिहास यह बताता है कि स्वार्थ वाले वर्ग इस प्रकार से समझौता मंजूर नहीं करते’’। फिर  वे अन्ततः किस सोच और किस रास्ते का चयन करना चाहते थे? उनवेफ उद्देश्य को लेकर तो कोई संकट नहीं, संकट उसे मूत्र्त करने में था। उद्देश्य सापफ था ‘‘हमारा उद्देश्य किसी को वंचित करना नहीं, वरन् सम्पन्न करना है, वत्र्तमान दरिद्रता को सम्पन्नता में बदल देना है।’’ पं0 जवाहरलाल नेहरू जैसा विरल व्यक्तित्व क्या इन तमाम पक्षों वेफ प्रति उदासीन था? क्या उसे आनेवाले समय का अहसास नहीं था? उनकी ईमानदारी कहीं से सन्दिग्ध नहीं थी, तो क्या उनका मूल संकट असमंजस और द्वंद्व था? मेरी कहानी के  आखिरी हिस्से में उन्होंने आत्म निरीक्षण करते हुए अपने मानस और सोच वेफ बुनावट की खुद पड़ताल की है। यह पं0 नेहरू को समझने के  लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंश है। ‘‘मैं पूर्व और पश्चिम का एक अजीब-सा सम्मिश्रण बन गया हूँ, हर जगह बे-मौजूं, कहीं भी अपने को अपने घर में होने जैसा अनुभव नहीं करता। शायद मेरे विचार और मेरी जीवन-दृष्टि पूर्व की अपेक्षा पश्चिमी अधिक हैं, लेकिन भारतमाता अनेक रूपों में अपने अन्य बालकों की भांति, मेरे हृदय में भी विराजमान है, और अन्तर के  किसी कोने में, कोई सौ ;या संख्या वुफछ  भी होद्ध पीढि़यों वेफ ब्राह्मणत्व वेफ संस्कार छिपे हुए हैं। नेहरू जी की इस स्वीकारोक्ति से उनको विद्वानों ने कोई क्षमादान नहीं बक्शा । प्रसि इतिहासकार सर्वपल्ली गोपाल ने इस पर विचार करते हुए इस सवाल की गंभीर पड़ताल की  है। उन्होंने 1920 वेफ उनवेफ उत्तर प्रदेश में किसानों वेफ बीच जाने को लेकर लिखा है कि ‘‘उन्हें इससे मनोवैज्ञानिक सन्तोष मिलता था... वह खुद का पुनः भारतीयकरण कर रहे थे।’’ सर्वपल्ली गोपाल ने बेलाग-लपेट लिखा है कि ‘‘उन्होंने आर्थिक तथा जमीन सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन नहीं किया था और न ही उनके  पास जनसाधारण को देने वेफ लिए कोई आर्थिक विचारधारा थी। भारतीय राष्ट्रवाद को क्रान्तिकारी आयाम देने की बात उन्होंने नहीं सोची थी और निश्चय ही वह किसान विद्रोह की बात नहीं सोच रहे थे। वस्तुतः उनका पूरा प्रभाव सन्तुलन की ओर लगा हुआ था।’’ ‘सन्तुलन’ बनाये रखने का मूलमन्त्र ही काँग्रेसी शासन की संजीवनी बनी रही- देश भले कबाड़खाना बन जाए। सर्वपल्ली गोपाल उनकी विचार सीमाओं का ठीक-ठीक आकलन करते हुए इस निष्कर्ष तक आते हैं कि ‘‘नेहरू के  राजनीतिक विचार एक संकीर्ण खांचे में पफंसे हुए थे, जो कि अराजकतावाद और ग्राम सरकार, गाँधी और बट्र्रेंड रसेल का अधकचरा मिश्रण था।’’ इस पर वे विस्तार से विचार करते हैं। एक जगह वे लिखते हैं- ‘‘क्यों नेहरू ने माक्र्सवाद तक पहुँचकर भी, इसे इसकी  सम्पूर्णता में अस्वीकार कर दिया? इसका उत्तर व्यक्तित्व, माहौल और मानसिक अभिवृत्तियों का एक मिश्रित रूप है। नेहरू वेफ मस्तिष्क में बहुत गहरे उनका रोमानीपन था, जिसे उन्होंने कभी नहीं छोड़ा, प्रतिक्रिया करने वेफ लिए उनकी भावनाओं का जागना और अन्तग्र्रस्त होना जरूरी था। और इससे पता चलता है कि क्यों उनवेफ जीवन के  पहले तीस वर्षों में उनमें वुफछ भी असाधारण न था।’’ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘तात्कालिक सन्दर्भों के  प्रति उनवेफ भीतर इतनी आत्मसचेत प्रसन्नता थी कि आगे  के रास्ते के लिए या अपने सुदूरगामी लक्ष्यों के  प्रति उन्होंने चिन्ता नहीं की। उन्होंने अपने लिए भावनात्मक राष्ट्रवाद का एकपालना बना रखा था, जिसमें वे झूल रहे थे।’’उनवेफ अनुसार पं0 नेहरू की विचारधारा में ही बुनियादी खोट थी। नेहरू जी अति आत्मविश्वास के  साथ एशियाई परम्परा और आर्थिक पिछड़ेपन वाले समाज में यूरोपीयपरम्परा का ऐसा परिवत्र्तन लाना चाहते थे-जो  प्रजातान्त्रिाक समाजवाद जैसा हो। सर्वपल्ली गोपाल वेफ अनुसार वे जीवनभर यही असम्भव और अतिमानवी प्रयोग करते रहे। आज हम कह सकते हैं कि उनवेफ पास भारत वेफ भविष्य रचने का कोई विज्ञानं नहीं था। नेहरू जी भले स्वप्नदर्शी हो सकते हैं, मगर वे स्वप्नशिल्पीकहीं से नहीं थे। पं0 नेहरू वेफ व्यक्तित्व में पूर्व और पश्चिम का यह सम्मिश्रण, यह द्वन्द्व आने वाले समय में पूरे भारत की नियति बन गयी। भारत का व्यक्तित्व न ठीक-ठीक पश्चिम जैसा बना,  न वह पूर्व जैसा बन पाया। एक मौलिक विकास की बात तो दूर की थी। आज भारत और इंडिया की मौजूदगी एक बड़ी समस्या वेफ रूप में सामने है। नेहरू अब नहीं हैं, मगर भारत है। उसे इस दोराहे पर अपने रास्ते का चयन करना है। नेहरू जी ने जिस ब्राह्मणत्व वेफ संस्कार की चर्चा की है, उसकी जड़ें भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को दशकों तक प्रभावित करती रही। नेहरू जी और इन्दिरा गाँधी की राजनैतिक व्यवस्था में वेफन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और तमाम तत्कालीन बड़े पदों पर सवर्णों खासतौर पर ब्राह्मणों का आधिपत्य बना रहा। ब्राह्मण, दलित और मुसलमान वेफ नाम पर काँग्रेस दशकों तक राज करती रही। डाॅ राममनोहर लोहिया वेफ लगातार चेताये जाने वेफ  बावजूद भारतीय सामाजिक यथार्थ को झुठलाया  

                                                                                                                                                     कर्मेन्दु शिशिर                                     लेखक  राष्ट्रीय नवजागरण के अध्येता और                                                                              प्राध्यापक हैं।                                                              +919431221073                                  

11 May 2015

सबलोग मई 2015


         आधुनिक भारत और नेहरु 




नेहरू ने 1942-44 के दौरान अहमदनगर की जेल में रहने की अवधि में भारत- एक खोजकी रचना की थी। पर ऐसा लगता है कि इतिहास ने उनकी नियति भारत की खोज से अधिक भारत के नवनिर्माण की दिशा में मोड़ दी थी। नेहरू किसी शान्त, स्थिर या परिवर्तहीन देश के नहीं बल्कि बुरी तरह से उबलते और स्वयं को बदलने के लिए आतुर देश के मुखिया के रूप में उभरे थे। वह अपनी सम्पूर्ण बौद्धिक प्रतिभा और राजनीतिक अनुभवों से उस भारत को राष्ट्र के रूप में संगठित कर रहे थे जहाँ धर्म और छोटी-छोटी जातिगत पहचानें कई तरह के हिंस्र टकरावों में उलझी थीं। हिन्दुओं और मुस्लिमों के साम्प्रदायिक संगठन किसी भी छोटी घटना को तूल देकर कत्लेआम का आयोजन कर सकते थे। अँग्रेजी साम्राज्यवाद द्वारा भारत को साम्प्रदायिक रूप से बाँटने और भारतीयों को आपस में लड़ाने के प्रयास काफी हद तक सफल हो चुके थे। इसी कारण भारतीय समाज की संस्कृतियों व धर्मों की विविधता को मूलतः विविधता के रूप में न देखकर उसे अलगाव या विभाजन के रूप में स्वीकार किया जाता था। गाँधी के अहिंसा सम्बन्धी आह्वान किसी पवित्र धार्मिक सन्त की अनसुना कर देने योग्य आवाज से अधिक कुछ नहीं रह गये थे। वह अक्सर ही अपने महात्मापन में कैद हो जाते थे और भारतीय समाज जिन सत्यों से आवेष्टित था, उससे स्वयं को अलग कर लेते थे। तब नेहरू ने ज्यादा व्यवहारिक चातुर्य से भारत को धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में परिभाषित करने का ऐतिहासिक योगदान दिया। 1954 के आम चुनावों में उन्होंने कहा- मैं अगले दस चुनाव हार जाने के लिए तैयार हूँ पर किसी भी कीमत पर साम्प्रदायिकता और जातिवाद से समझौता करने के लिए नहीं तैयार हूँ।नेहरू में राजनीतिक शुचिता के लिए भी गहरा सरोकार था और मध्यप्रदेश के रीवां में एक बार वे अपने काँग्रेसी उम्मीदवार के पक्ष में भाषण देने गये थे। वहां उन्हें पता चला कि वह उम्मीदवार कुछ विवादास्पद मसलों में पफंसा  है तो उसको हराने की अपील कर आये थे। प्रधानमंत्री  मोदी विदेश में जाकर भारतीय संस्कृति की धार्मिक बहुलता की रक्षा करने की सौगन्ध खाते हैं, पर पीछे उन्हीं के संगठन के लोग चर्च, मस्जिद और अल्पसंख्यकों के खिलापफ रोज हिंसा करते हैं, और मोदी एक सियासी चुप्पी ओढ़ लेते हैं। जाहिर है कि वर्तमान भारत खतरनाक दिशा की ओर बढ़ रहा है जहाँ वह लोकतन्त्रा को छोड़कर अल्पसंख्यकों के दमन, नागरिकों के अधिकारों के हनन और मानवाधिकार उल्लंघन को बढ़ावा देने लगेगा। इसी तरह नेहरू का समाजवादी भारत का स्वप्न इस समय सबसे कम स्वीकार और किया जाने वाला और सबसे कम सम्मानित स्वप्न के रूप में देखा जाता है। समाजवादी भारत केवल एक अधूरा प्रोजेक्ट नहीं बल्कि पूरी तरह से तिरस्कृत प्रोजेक्ट में बदल गया है। भारत में राजकीय समाजवाद को लागू करने वाली एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्था योजना आयोग को पहले तो काँग्रेस ने कमजोर किया और अब भाजपा ने  उसे पूरी तरह से इतिहास का अंग बना दिया है। कुल मिलाकर भारत में नेहरू की नीतियों और सियासत के लिए जगह कापफी घट चुकी है। इसका एक कारण तो यह है कि कोई विचारधारा किसी पीढ़ी या युग के द्वारा प्रयुक्त होने के बाद धीरे-धीरे अपनी आभा को खो देती है और वह नये भौतिक यथार्थ का सामना नहीं कर पाती है। विचारों की आयु भी निश्चित होती है और भविष्य पर एकाधिकार रखने की ताकत किसी विचार को नहीं प्राप्त होती है। अतीत में जो विचार या विचारधारा जितनी आदर की पात्रा लगती है, वर्तमान में वही उपयोग के लायक नहीं लगती है। कहने की जरूरत नहीं कि दुनिया में जिस तरह के मानव समाज हर चीज का उपयोगिता के आधार पर आकलन करता है, उसी तरह वह विचारों की  उपयोगिता न कि किसी आदर्शवाद के आधार पर स्वीकार या खारिज करता है। इसलिए नेहरू के विचारों की उपेक्षा केवल नेहरू के विरोधियों के द्वारा नहीं बल्कि समाज के वर्तमान आर्थिक-राजनीतिक चरित्रा के द्वारा भी होती है। नेहरू की खूबी यह भी थी कि वे आधुनिकतावादी होने के साथ-साथ समाज  की परम्पराओं को भी स्वीकार कर सकते थे। वे अतीत के बोझ को उतार पफेंकने के साथ-साथ अतीत-इतिहास से सीखने के लिए भी तैयार रहते थे। उनकी अँग्रेजी शिक्षा ने उन्हें जमीन की जीवन से काटने के स्थान पर जमीनी सचाइयों से बेहतर तालमेल कायम करने के लिए तैयार किया था। इसीलिए नेहरू के मन में उन आधुनिकतावादियों के लिए तिरस्कार था जो विशिष्ट और शिक्षित होने के नाम पर  परम्परा-अतीत का नाम सुनते ही मुँह बनाने लगते थे। या जो कुछ बड़े महानगरों में स्थायी  आवास बसा लेने के कारण शेष भारत से स्वयं को अलग कर लेते थे। नेहरू ने वामपन्थियों की भी अपनी पुस्तक भारतः एक खोजमें इस आधार पर आलोचना की है कि वे देशज परम्पराओं से संवाद करने की जरूरत को नहीं समझते हैं और हर तरह के ज्ञान के लिए पश्चिम का मुँह ताकते हैं। पर कुछ विषयों पर नेहरू भी एकांगिता के शिकार थे। जैसे कि नेहरू की धर्मनिरपेक्षता बहुत सराहनीय लगने के बावजूद प्रायः यान्त्रिक और यूटोपियन प्रतीत होती थी क्योंकि वह भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण की पीड़ादायक प्रक्रिया को समझने के स्थान पर उसे ऊपर से आरोपित की जाने वाली कोई वस्तु समझते थे। उन्हें यकीन था कि जैसे ही आर्थिक सवाल प्रमुख होने लगेंगे, साम्प्रदायिक दल पीछे हटने लगेंगे। लोगों के रोजगार, उद्योग, आवास के प्रश्नों को जब भारतीय राज्य हल करने का संकल्प प्रकट करने लगेगा तो समाज अपने आप धर्मनिरपेक्षता के महत्त्व को स्वीकार कर लेगा। किसी बुनियादी क्रान्ति के अभाव के बावजूद समाजवादी राज्य धीरे-धीरे धर्म का राजनीतिक प्रयोग करने वालों को  हाशिए पर पहुँचा देगा। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी सोच के अन्तर्विरोधों पर स्वयं नेहरू के प्रशंसकों की नजर पड़ी है। विपिन चन्द्रा जैसे इतिहासकार जो नेहरू को आधुनिक भारत के निर्माण का श्रेय देने का पक्ष लेते रहे हैं, वे भी मानते हैं कि नेहरू की धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नीति कुछ अतिरेकी आत्मविश्वास  पर आधारित थी। गत सदी के पूरे 40 के दशक में नेहरू मानते थे कि हिन्दू राष्ट्र या मुस्लिम राष्ट्र की राजनीति कल्पना पर टिकी है और सचाई का सामना होते ही यह लुप्त हो जाएगी। पर पफासीवाद या साम्प्रदायिकता को निकट से समझने के प्रयासों के बावजूद  वे यह नहीं देख पा रहे थे कि साम्प्रदायिक दल केवल धर्म के आधार पर नहीं बढ़ते हैं बल्कि लोगों के बीच अपनी  अपील को बढ़ाने के लिए कई बार वे अपनी राजनीति में आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रमों को भी शामिल कर लेते हैं। इसलिए जो नेहरू हिन्दू महासभा या मुस्लिम लीग जैसे साम्प्रदायिक दलों पर ताना कसते थे कि उनके पास देश के लिए कोई सुचिंतित आर्थिक कार्यक्रम ही नहीं है, उन्हें भी बाद में दिखने लगा कि मुस्लिम बड़ी आसानी से रेडिकल आर्थिक सुधारों, स्वतन्त्राता सम्बन्धी मांग या समानता सम्बन्धी विचारों  को अपनी टू-नेशन थ्योरीके साथ जोड़ने लगी। इस तरह साम्प्रदायिकता या साम्प्रदायिक दल अपनी विचारधारा के अन्तर्गत प्रगतिशीलता के कुछ तत्त्वों को भी  अपने भीतर समेटने की सपफल कोशिश करते हैं।  यह वर्तमान में भी दिखता है जहाँ आरएसएस-भाजपा एक ओर हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करते हैं तो दूसरी ओर अम्बेडकर के विचारों या गाँधी दर्शन के लिए भी समर्थन जताने से नहीं चूकते हैं। साम्प्रदायिक-पफासिस्ट दल लम्बे समय तक किसी एक मुद्दे पर अपनी ऊर्जा को नष्ट नहीं करते हैं बल्कि वे नए-नए उपायों को अपनाते हैं ताकि उनका जनाधार किसी एक वर्ग या जाति तक सीमित रहने के स्थान पर व्यापक रूप से फैलता चला जाए। इसीलिए आजादी के कई साल बाद नेहरू को अहसास हुआ कि केवल शिक्षा अथवा प्रयोगशाला व तकनीकी विज्ञान के प्रसार से साम्प्रदायिकता को नहीं रोका जा सकता है बल्कि शिक्षा की वैज्ञानिक अन्तर्वस्तु पर भी उतना ही जोर देना पड़ेगा। भारत को धर्मनिरेपक्षता की राजनीतिक संस्कृति देने में भले ही नेहरू सफल न हुए हों, पर भारत के शासन तन्त्रा को धर्मनिरपेक्ष बनाने में उनकी ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। ढेरो संस्कृतियों और भाषाओं वाला भारत नामक राष्ट्र विविधता से घृणा करने वाले टुच्चे और बौने दिमाग के नेताओं के द्वारा कभी नहीं समझा जा सकता है। भारत को समझने के लिए आज भी नेहरू जैसे किसी उदारमना नेता की जरूरत है।




                            


                                                                                 वैभव सिंह 


                                                         लेखक आलोचक और प्राध्यापक है       
                                                                        +919711312374

                                                                  vaibhavjnu@gmail.com

03 May 2015

आधुनीकीकरण का स्वरूप


आधुनीकीकरण का स्वरूप


भारत में आधुनिकता  के प्रभाव से जो प्रतिक्रिया हुई, उससे पुरानी परम्परा और संस्कृति के प्रति
नया बोध् उत्पन्न हुआ, उसकी पुनव्र्याख्या और  पुनरुत्थान के प्रयत्न हुए तथा उसे नया रूप
देने की कोशिश की गयी।आधुनिकता की प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीयता की भावना इतनी बढ़ी और इसे नये अर्थ और रूप देने का प्रयास किया गया। भारत में यह बात नहीं स्वीकार की गयी कि आधुनिकता का अर्थ पुरानी बातों को जड़मूल से नष्ट करके एकदम नयी बातों को अपनाना है। दूसरी ओर यहाँ यह रूख भी
नहीं रहा कि नयी बातों में कोई तत्त्व नहीं और पुरानी परम्परा और पुराने मूल्य ही शाश्वत
और सही हैं। अगर कहें कि भारत ने मध्यमार्ग ग्रहण किया और कुछ पुरानी बातों को बनाए रखने के साथ-साथ नयी बातों को भी स्वीकार किया, यह भी भारत में हुई प्रतिक्रिया का सही वर्णन नहीं। कुछ लोगों ने इसको इस
तरह कहा है कि भारत में प्राचीन परम्परा को लोकतान्त्रिाक रूप दिया गया। मगर इस मत
में प्राचीन परम्परा को अत्यध्कि महत्त्व दिया गया और इस पर सही ध्यान नहीं दिया गया कि आधुनिकता मूल्यों और संस्थाओं ने पुरानी परम्परा के प्रति गौरव के भाव को जगाने और उसे आधुनिकता अर्थ देने में कितना योगदान दिया। पुरानी परम्परा यूं ही स्वयं नहीं जीवित हो गयी। इसलिए हमें पुरानी परम्परा और
आधुनिकता को अलग-अलग न लेकर उनके परस्पर सम्बन्ध् पर, उस प्रक्रिया पर, जिस से ये सम्बन्ध् बने और एक-दूसरे के लिए उनकी उपयोगिता पर विचार करना चाहिए। जब एक प्राचीन समाज अपनी समृ( परम्परा
और विविध्ता को त्यागे बिना, अपने में नये युग के अनुरूप परिवर्तन करके अपने को जीवित रखने का प्रयत्न करता है तो नये और पुराने का यह मिश्रण क्या रूप धरण करता है, इसे समझना आवश्यक है।
परिवर्तन कब शुरु हुआ, इसकी कोई तारीख या समय बताना कठिन है खासकर भारत के लिए, क्योंकि यहाँ के समाज की यह विशेषता है कि, इसका कुछ अंश तो एकदम जड़ हो गया और कुछ अंश गतिशील
बना रहा। यह कहना हास्यास्पद है कि भारत 
का समाज एकदम जड़ और निर्जीव हो चुका था और विदेशी शासन के ध्क्के से इसमें
पिफर चेतना आयी। हमने देखा है कि मुस्लिम आक्रमण और मुगल शासन की स्थापना ने
पुरानी व्यवस्था को गहरा ध्क्का दिया। इसके बाद विदेशी अँग्रेजों का औपनिवेशिक शासन स्थापित हुआ, जिसके अन्तर्गत सारे देश में एक केन्द्रीय सत्ता स्थापित हुई, कानून और
व्यवस्था कायम हुई और सामाजिक और  बोद्धिक  क्षेत्रा में व्यापक परिवर्तन हुए, जिससे
विदेशी शासन के विरोध् में राष्ट्रीय आन्दोलन का जन्म हुआ, तथा नये राष्ट्र की नींव पड़ी। इस दृष्टि से देखने से यह बात असन्दिग्ध् है कि परिवर्तन की मुख्य प्रेरणा अँग्रेजी राज्य के माध्यम से भारत में पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान विचारधरा, शिल्प और संस्थाओं के प्रवेश से प्राप्त हुई। हमने यह भी देखा है कि जहाँ एक ओर
भारत में पाश्चात्य उदार और समाजवाद विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा वहाँ दूसरी ओर उसका गहरा विरोध् भी हुआ। इन दोनों विरोधी विचारधराओं के सम्मिलित प्रभाव से समाज में ऐसे परिवर्तनों को स्वीकार किया
गया, जिससे भारत आधुनिक संसार में अपना स्थान ग्रहण कर सके, साथ ही भारतीयता की भावना ने भी नया रूप, नया बल और नया अर्थ प्राप्त किया। इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण के नेताओं ने वर्तमान में परिवर्तन किया और भविष्य की नयी कल्पना की। राष्ट्र और समाज की नयी कल्पना का आधर केवल यही नहीं
था कि अतीत में हम क्या थे बल्कि यह भी था कि भविष्य में हमें क्या होना है। नये युग ने भारत में पहली बार एक राष्ट्रीय प्रमुख या नेतावर्ग को जन्म दिया। पहले गाँवों या कस्बों में स्थनीय मुखिया होते थे।
जो स्थनीय मामलों को निपटाया करते थे। इनके अलावा भी प्रतिभाशाली लोग होते थे जो अपने-अपने क्षेत्रा में समाज-सुधर के लिए काम करते थे। परन्तु अब ऐसे, प्रमुख लोगों  का उदय हुआ, जो पूरे देश के बारे में सोचते
थे, राष्ट्र के भविष्य पर और राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करते थे। ये लोग राष्ट्रीय लक्ष्यों,
उद्देश्यों और विचारधरा की बात करते थे। यह एक नयी बात थी। 
राष्ट्रीय स्तर पर सोचने वाले इन नेताओं ने स्वभावतः राष्ट्रीय स्तर पर संगठन करने
का प्रयत्न किया और देश की जनता तक पहुँचने की कोशिश की। कापफी समय तक राष्ट्रीय नेतावर्ग का काम शहरों में हुआ। इसके बाद इनको इस समस्या का सामना करना पड़ा कि वे एक प्राचीन समाज को कैसे आधुनिक रूप दें और अपनी बात ऐसी जनता के कान तक कैसे ले जाएँ जो आधुनिकता की भाषा
को नहीं समझती। उसे तो पुराने प्रतीकों  और उदाहरणों के जरिये ही समझाया जा सकता
था। हम बता चुके हैं कि गाँधी जी ने किस प्रकार दया, ध्र्म, मोक्ष, परमार्थ आदि पुराने प्रतीकों और आदर्शों के द्वारा जनता में सार्वजनिक कत्र्तव्य और देशप्रेम की भावना का संचार किया। ये सब ठेठ भारतीय प्रतीक थे। इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व ने अपने उद्देश्यों के लिए प्राचीन परम्परा का सहारा लिया। राष्ट्रीय नेतृत्व
के उदय से समाज की शक्ति संगठन का ढाँचा बदल गया।
यह नहीं समझना चाहिए कि इस प्रकार परम्परागत आदर्शों और प्रतीकों का सहारा लेकर आधुनिकता  की पूरी पति  को स्वीकार कर लिया गया। वास्तव में देश के सामने जो नये आदर्श और लक्ष्य रखे गये, वे भी एक
नहीं थे। उनमें से अनेक विकल्प परस्पर विरोधी भी थे। उदाहरण के लिए, देश में व्यवस्था रखने और अनुशासनपूर्वक विकास के लिए शक्तिशाली एकतान्त्रिये  व्यवस्था बनाम व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आधरित प्रतिनिधित्वपूर्ण लोकतन्त्र, मजबूत केन्द्रिय सत्ता बनाम स्वायत्त इकाईयों का ढीला ढाला संघ, दलों की प्रतिद्वन्द्वित और बहुमत का राज्य अथवा अल्पसंख्यकों का विशेष हितों का प्रतिनिधित्व, अर्थव्यवस्था
पर सरकारी स्वामित्व या राष्ट्रीयकरण बनाम निजी उद्योग, उन्नत औद्योगिक देशों के लिए कच्चे माल का उत्पादन और निर्यात करके उनसे सहायता और विशेष व्यवहार प्राप्त करना या खुद पूरी तेजी से उद्योगीकरण करनाऋ और ऊँचे सुसंस्कृत वर्ग की शिक्षा प्रणाली या समाज में समानता को बढ़ावा देने वाली सर्व
साधरण की शिक्षा। भारतीयों में संसदीय लोकतन्त्रा की पेचीदा प्रणाली को चलाने की योग्यता है या नहीं, इस पर अँग्रेजों को सन्देह  था और कुछ भारतीय भी उनसे सहमत थे। महत्त्व की बात यह है कि अन्त में भारत ने कौन-सा रास्ता चुना और किस विचारधारा की जीत हुई।इस चुनाव को ब्राह्मण की उदार विचार की प्रवृत्ति और विचारों की विभिन्नता के प्रति सहिष्णुता की हमारी परम्परा, दोनों ने प्रभावित  किया। कुछ पुरानी दूषित परम्पराओं को त्याग दिया गया, जैसे समाज में ऊँच-नीच, घोर असमानता तथा कट्टर संकीर्णता को। दूसरी
ओर पुरानी परम्परा ने यह आत्मविश्वास उत्पन्न किया कि भारत के लोगों में विवेक और बुद्धि
का मार्ग ग्रहण करने की क्षमता है। इस बात पर भी सहमति थी कि भारतीय सभ्यता की समृ( परम्परा को बनाए रखने के लिए ऐसी शासन व्यवस्था को अपनाना चाहिए, जिससे देश के सभी मतों और सम्प्रदायों की स्वतन्त्रता सुरक्षित रहे। आधुनिक अध्निायकतन्त्र या तानाशाही की व्यवस्था न तो इतने बड़े देश
की एकता कायम रख सकती थी ओर न उसकी भाषा, ध्रम संस्कृति की विविधता की ध्रोहर की रक्षा कर सकती थी। यह चुनाव सहज ही या स्थायी रूप से नहीं हो गया। उदाहरण के लिए बहुत से नेता मजबूत केन्द्रित एकात्मक सरकार के पक्ष में थे ;और हैंद्ध जो देश की केन्द्रियेविरोधी  शक्तियों पर अंकुश रख सके। देश के विभाजन ने ढीले ढाले संघ के पक्ष में ;जिसमें हिन्दू बहुमत और मुस्लिम बहुल प्रान्तों को बहुत स्वायत्तता
होतीद्ध सबसे बड़े तर्क को खत्म कर दियाऋ और ‘‘शक्तिशाली केन्द्र’’ का पक्ष और मजबूत कर दिया। लेकिन दूसरी ओर विकेन्द्रित व्यवस्था की धरणा भी बड़ी मजबूत थी और प्रभावशाली प्रान्तीय नेता जिन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को मजबूत बनाया था, केन्द्र को सारे अध्किार दे देने के विरुध   गन्धिवधि  परम्परा भी कन्द्रीकरण के विरुद्ध  थी और गाँवों को राष्ट्रीय शासन का आधर बनाना चाहती तथा गरीब और शोषित ग्रामीण जनता को देश की स्वतन्त्राता से होने वाले लाभों का उचित हिस्सा देना चाहती थी। देश के संविधन के
निर्माताओं को इन दोनों विरोधी विचारधराओं में सामंजस्य करना था। अतः उन्होंने ऐसी व्यवस्था की, जिसमें केन्द्र को व्यापक क्षेत्र 
और शक्ति-साध्नों में प्रमुख भाग और अवशिष्ट अध्किार दिए गये। साथ ही राज्यों को भी
कापफी अध्किार प्राप्त हुए। आगे चल कर एक और बात की गयी जिससे भारतीय राज्यव्यवस्था
के संघीय स्वरूप को और बल मिला। यह थी पंचायती राज ;लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरणद्ध की व्यवस्था। इसका आधर पुरानी परम्परा और गाँधी विचारधारा में था, लेकिन इसे लागू करने का श्रेय जवाहरलाल नेहरू को
था। इस पद्धती  पर भारतीय संघ व्यवस्था के साधरण स्वरूप पर हम आगे के अध्यायों में विचार करेंगे। यहाँ हम यह देखेंगे कि केन्द्र और परिधि  राज्य के   सम्बन्ध् को निश्चित करने में, परम्परा और आध्ुनिकता की प्रवृत्तियाँ, उनके प्रभाव से निर्मित राष्ट्रीय आन्दोलन की विचारधरा देश की परिस्थितियों तथा नेताओं
की दूरदर्शिता और विचार - इन सब का प्रभाव पड़ा। इस नयी व्यवस्था को चलाने में सबसे
महत्त्वपूर्ण भाग था एक मध्यवर्ती नेतृवर्ग का जो सबसे ऊपर के राष्ट्रीय नेताओं में और सबसे नीचे ग्रामीण नेताओं के सम्बन्ध् में जोड़ता है। इन बीच के आदमियों ने प्राचीनता और आधुनिकता में समझौता कराने में बड़ी  योग्यता का परिचय दिया है। भारत में राजनीतिक सौदेबाजी या मोलभाव की इस नयी प्रणाली
को कुछ राजनीतिक आलोचक लक्ष्य नहीं कर सके। ऊपर के नेताओं और जनता के अगुओं में यह मोलभाव सीधा नहीं, उपर्युक्त मध्यस्थ वर्ग के जरिये होता है। यह मध्यस्थ वर्ग जिला या निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर काम करता है। ये मध्यस्थ दलालों की भांति महज सौदा ही नहीं पटाते, बल्कि ये दोनों पक्षों को एक-दूसरे
के सम्पर्क में लाते है और बताते हैं कि उन्हें क्या अवसर मिल रहे हैं। इस तरह वे नयी व्यवस्था के सर्वोत्तम संचालक और संगठक सिद्ध होता है  पश्चिमी लोकतन्त्रा में विभिन्न हितों का समुच्चयन या एकत्राीकरण राष्ट्रीय स्तर पर होता है जबकि पुराने ढंग की राजनीतिक व्यवस्था में हित व निष्ठाएँ अलग-अलग खंडों
में बंटी होती हैं। भारत में जो प्रणाली विकसित हुई है, वह इस से भिन्न है। इस में शक्ति
बिखरी हुई या अकेन्द्रित है ओर विकसित हुई है, एक व्यापक व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक स्वतन्त्रा छोटी व्यवस्थाओं का रूप धरण करती है। इन छोटी व्यवस्थाओं से स्थानीय हितों की रक्षा होती है। पुराने समय में स्थानीय सामन्त या मुखिया और उनकी आश्रित प्रजा में जो सम्बन्ध् होता था, कुछ वैसा ही इस मध्यवर्ती
व्यवस्था का भी है। इसके साथ ही आधुनिकता राजनीतिक क्रिया-कलाप मे भी ये हाथ बँटाती 
हैं। इस प्रणाली को हम मध्यवर्ती समुच्चयन कह सकते हैं। आगे के अध्यायों में हम प्रशासनिक और दलीय प्रणाली में इस मध्यवर्ती समुच्चयन कह सकते हैं। आगे के अध्यायों में हम प्रशासनिक ओर दलीय प्रणाली में इस मध्यवर्ती शृंखला के स्थान पाने पर विचार करेंगे। इस समय इतना ही कहना कापफी है
कि पुराने और अनेकात्मक समाज में राष्ट्र निर्माण की क्रिया इस प्रकार की मध्यवर्ती प्रणाली को जन्म देती है, जो केन्द्र और इकाइयों में, पुरानी और नयी व्यवस्था में सम्बन्ध् जोड़ती है। इस मध्यवर्ती प्रणाली का
मुख्य काम नेता और जनता, सरकार और प्रजा, केन्द्र और जिला प्रदेश या जिलों के बीच मध्यस्थता करना है।
परम्परा और परिवर्तन की प्रवृत्तियों की परस्पर क्रिया पर विचार करते समय राजनीतिक विकास सम्बंधित कुछ और प्रश्न उठते हैं। एक तो यह कि परम्परा और आधुनिकता की इस दोहरी प्रणाली को केन्द्रीय प्रतीक कहाँ तक प्रभावित कर सकते हैं। नयी शिल्प विध्यिाँ और राजनीतिक तन्त्र के सामने पुराने आदर्श और
प्रतीक डगमगा रहे हैं। इस स्थिति में यह प्रश्न  महत्त्व का है। दूसरा प्रश्न यह है कि ऐसे अनेकात्मक समाज में राष्ट्रीयता का सच्चा बोध् कहाँ तक हो सकता है। तीसरा, यदि नयी अस्मिताएँ या निष्ठाएँ उदय होती हैं तो इसके साथ कौन से नये संघर्ष और अन्तर उत्पन्न होते हैं। तीसरे, ऐसी दोमुँही ;आगे ओर पीछे देखने
वालीद्ध व्यवस्था में भविष्य की ओर देखने की प्रवृत्ति कैसे लाई जा सकती है, जिससे आगे उठने वाली समस्याओं को देखा जा सके और उनका उपाय किया जा सके और उनको भविष्य के भरोसे न छोड़ा जाए।

                    
                                       रजनी कोठारी देश के शीर्ष राजनीतिक चिन्तक

रहे हैं। हाल ही में उनका निधन हुआ है। श्राधान्जली

स्वरूप उनकी पुस्तक का एक अंश प्रकाशित किया          
जा रहा है।

01 May 2015

विचारहीनता के दौर में लोकतन्त्र







विचारहीनता के दौर में लोकतन्त्र

                    हितेंद्र पटेल 

लोकतन्त्र एक मोहक शब्द है और राजनीति का चुनाव के साथ जो सम्बन्ध है उसके
हिसाब से जिससे चुनाव जीता जा सकता है उसके अलावा अन्य बातों का महत्त्व नहीं होता। यह सच है। पार्टी की विचारधारा-पार्टी की ओर से आया सामूहिक विचार - क्या राजनीति के लिए महत्त्वपूर्ण रह गया है?
इसका उत्तर है- चुनाव के पहले हाँ, और चुनाव के बाद नहीं। यह अवसरवाद नहीं, मजबूरी है। पार्टी की मजबूरी है कि उसे अपनी संख्या बल को बचाना और उसे विस्तार देने के लिए काम करना जरूरी होता है। भारतीय
लोकतन्त्र का अनुभव यही समझाता है कि देश को विभाजित करने वाले कारक - वर्ग, जाति, लिंग, क्षेत्रवाद, अस्मिता, साम्प्रदायिकता, अल्प-संख्यकवाद आदि चुनावी गणित को ज्यादा प्रभावित करते हैं। ऐसे में किसी भी दल के लिए पार्टी को प्रभावी बनाने के लिए,उसे बनाए रखने के लिए दल को विचारधारा के आधार पर चलाना और पार्टी के भीतर लोकतन्त्र बहाल रखना मुश्किल होता जा रहा है।
उदाहरण पहले के भी दिए जा सकते हैं - सुभाष को गांधी समर्थकों ने पार्टी छोड़ने के लिए विवश किया था, नेहरू को पार्टी की किसी भी इकाई द्वारा नेता के रूप में नहीं चुनने के बाद भी नेता बना दिया जाना, टण्डन पर दबाव डालने के बाद आखिरकार नेहरू द्वारा खुद ही पार्टी और सत्ता की बागडोर को सम्भालने का निर्णय लेना आदि, लेकिन पिछले पचास सालों में विचारधारा, लोकतन्त्र आदि के आधार पर राजनीति करना और लोक
आस्था को हासिल करना कठिन हो गया है। उसकी जगह ले ली है, पार्टी के ‘अनुशासन’
ने, जिसका सीधा अर्थ है-पार्टी के प्रभावी ग्रुप या नेता के मत को स्वीकार कर लेना।
वाम और दक्षिण-पन्थी पार्टी में तो इस अनुशासन ने एक सांस्थानिक आधार ही पा लिया है। काँग्रेस और समाजवादी पार्टियों में लोक तन्त्रा की धारणा का ढिंढोरा तो पीटा जाता है लेकिन जानने वाले जानते हैं कि वहाँ भी ‘अनुशासन’ का ही महत्त्व है। दलितपन्थी और शैत्र्  पार्टियों के बारे में पार्टी के लोक तन्त्र  की
बात करना अपने को हास्यास्पद बनाना ही है।  अब तो यह राजनैतिक काॅमन सेंस का हिस्सा है कि जब तक दल पर नेता का नियन्त्रण न हो वह अपना काम कर ही नहीं सकता। इसी कारण से जैसे ही कोई नेता
शक्तिशाली होता है वह दल पर नियन्त्राण करने की सोचता है। विचार और कार्यक्रम के सहारे
नहीं, बल्कि खेमेबाजी के सहारे। इस तरह से दल के भीतर असली दल बनते हैं और
इस असली के पास ही पार्टी की विचारधारा का जिम्मा होता है। कोई लाल कृष्ण आडवाणी
से पूछे कि पार्टी की विचारधारा को कौन नियंत्रित करता है।
 पर यह भी याद करें कि बलराज मधोक को क्या नीति के कारण किनारे किया गया था? कहते हैं कि साठ के दशक में जब ज्यां पाल सात्रा ने कानून का उल्लंघन किया और कानूनी तौर पर उन्हें गिरफ्रतार करने की बात
राष्ट्रपति के सामने आयी तो डी गाल ने कहा था कि कोई ‘वोल्तेयर’ को कैसे गिरफ्रतार कर
सकता है! भारत में लोकतन्त्रा के लिए लड़ने वाले जय प्रकाश नारायण को न सिपर्फ गिरफ्रतार
किया गया बल्कि यातना भी दी गयी। आप कह सकते हैं कि देश ने प्रतिवाद किया और तानाशाही को लोकशाही के सामने घुटने टेकने पड़े। लेकिन, असली बात यह है कि उसके बाद राजनीति और अधिक लोकतन्त्र से दूर
होती गयी। और दिलचस्प है कि ऐसा करने में उन लोगों का हाथ अधिक है जिन लोगों
ने लोकतन्त्र के लिए लड़ाई लड़ी थी। शायद समस्या के मूल में यही है कि लोकतन्त्र हमारे सामाजिक मूल्य के रूप में नहीं है। हम लोकतन्त्र की बात करते हैं लेकिन इसमें हमारी आस्था नहीं है। समाज के किसी
भी क्षेत्र में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति हम सचेत नहीं हैं। जब तक समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति आस्था का वातावरण तैयार नहीं होगा, राजनीति में यह नहीं आ सकता। भारतीय समाज की वास्तविकता यह है . कि हम सोच के स्तर पर एक छद्म आदर्शवाद को छोड़ना नहीं चाहते और जीवन में घनघोर सुविधावादी होने में हमें कोई असुविधा नहीं होती। जनता के बीच विचार के साथ जाने वाले लोगों को अभी स्वीकृति मिलना बाकी है। कोई भी रेणु, रामदयाल मुण्डा, भूपेन हजारिका, यू आर अनंतमूर्ति जनता के दरबार

में राजनेता के सामने कमजोर प्रमाणित होता है। और अगर कभी मौका मिला भी तो उसे
अपने दल के बड़े नेता के हिसाब से ही चलना होता है।
बंगाल के दो उदाहरणों पर गौर करें। गायक कबीर सुमन और इतिहासकार सुगतो बसु ;हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, सुभाष बोस परिवार के सदस्यद्ध पिछले चुनावों में लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। दोनों को
बाद में पार्टी के अनुशासन से असुविधा हुई। कबीर सुमन तो अपने दल नेत्रित्व  की और अपने
दल के लोकतांत्रिक कार्यों के प्रति इतने मुखर हो गए कि उन्हें हट ही जाना पड़ा। एक चिट पफंड स्कैंडल में जब दल का एक नेता और मंत्री  गिरफ्रतार हुए और दल की ओर से आदेश मिला कि अदालती कार्रवाई
को अनैतिक मान कर आन्दोलन हो, उदारमना और लोकतान्त्रिक सुगतो बसु के लिए काम
करना कठिन हो गया। सबलोग के पाठकों के लिए शिवानन्द तिवारी के उदाहरण को पेश करने की जरूरत
नहीं है। लालू प्रसाद यादव के बारे में नीतीश कुमार के जीवनी लेखक अरूण सिन्हा ने एक
बात मार्के की लिखी है कि वे शुरू से ही यह समझ चुके थे कि अगर आप पावर में
नहीं हैं तो आपको कोई नहीं पूछेगा। कई दशकों के बाद नीतीश कुमार ने यह पाठ ठीक
से याद रखा। किसी भी तरह से पावर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। पिछले दिनों बिहार में जो कुछ हुआ उसने यह दिखा दिया कि असली चीज है पावर। अब तो सुना जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा
को यह निर्देश दे रही है कि वह नीतीश के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाए।
आप पार्टी इस अँधेरे में एक रौशनी की तरह आयी। कितने ही लोगों को लगा कि आप एक ऐसे राजनैतिक आदर्श का उदाहरण बनेगी जिसके बारे में कभी जेपी ने या लोहिया ने सोचा था। जिस तरह से दिल्ली के तमाम
लोगों ने इस नौसिखुआ लोगों को एक बार समर्थन देकर मजबूती प्रदान की और दूसरी
बार लगभग राजनैतिक लामबन्दी के सभी  नियम कानूनों को गलत साबित किया उससे तो एकबारगी लगा कि उम्मीद अभी बाकी है। 
 पर, महान विजय के बाद जो हुआ वह तो अवसरवादी राजनीतिज्ञों के लिए भी कुछ
ज्यादा ही माना जाना चाहिए। कहा जा रहा है कि योगेन्द्र यादव और भूषण पार्टी की विचारधारा के खिलापफ काम कर रहे थे और यह गलत था। यह भी कहा गया कि वे एक नेता के इतना अधिक शक्तिशाली
बनाने के खिलापफ थे। अब सवाल उठता है कि इसमें बुराई क्या है? क्या किसी नेता के पास इतनी ताकत दे देना कि वह पार्टी सुप्रीमो बन जाए किसी भी तरह से लोकतन्त्रा के लिए सही माना जा सकता है? जो बहस हुई और जिसमें मान जैसे लोगों ने पार्टी के हित में बातें की, और अन्ततः योगेन्द्र यादव और भूषण
को पार्टी से हटाया गया उसके बारे में क्या कहा जाए।
यह कहना एक घिसापिटा वाक्य लगेगा कि जब तक जनता लोकतान्त्रिक मूल्यों के
प्रति आस्थावान नहीं होगी परिस्थिति नहीं बदलेगी। संख्या के इस खेल में, जिसे लोकतान्त्रिक भाषा में चुनाव कहते हैं, विचार की स्थिति प्रचार के मुकाबले कमजोर ही रहेगी अगर लोकतन्त्र के प्रति आस्थावान लोग
समाज के विभिन्न क्षेत्रों में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति जागरूक न हों।
लोकतन्त्र की रक्षा और उसके साथ दल की विचारधारा के सम्बन्ध पर विचार कराते हुए यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए आखिर जनता आलोकतान्त्रिक दलनेताओं का साथ किस आधार पर देती है और देती रहती है?
दरअसल, इस देश में शक्ति पर राजनीति का लगभग एकाधिकार हो गया है। धर्म से लेकर क्रिकेट चलाने वाले संगठनों तक राजनीति को ही सब कुछ ठीक करने का अधिकार मिल सा गया है। जैसे ही राजनीति बदली,
शिक्षा संस्थानों से लेकर खेलकूद की कमिटी तक सब बदल जाते हैं। जब ऐसा आलोकतान्त्रिक
माहौल समाज में बन जाए तो यह अपेक्षा करना कि राजनीति में स्वछता आए एक कपोल कल्पना है।
जरूरत है लोकतन्त्र समाज में स्वीकृत हो। इसके लिए सभी स्तरों पर प्रयास करना
होगा। घिसा पीटा वाक्य? हो सकता है, लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है।



 
           
                                                                                                            
                                                                                     हितेंद्र पटेल  
                                               लेखक इतिहास के प्राध्यापक और  उपन्यासकार हैं।  
                                                                             
     +919230511567
                                                                             hittisaba@gmail.com