विचारहीनता के दौर में लोकतन्त्र
हितेंद्र पटेललोकतन्त्र एक मोहक शब्द है और राजनीति का चुनाव के साथ जो सम्बन्ध है उसके
हिसाब से जिससे चुनाव जीता जा सकता है उसके अलावा अन्य बातों का महत्त्व नहीं होता। यह सच है। पार्टी की विचारधारा-पार्टी की ओर से आया सामूहिक विचार - क्या राजनीति के लिए महत्त्वपूर्ण रह गया है?
इसका उत्तर है- चुनाव के पहले हाँ, और चुनाव के बाद नहीं। यह अवसरवाद नहीं, मजबूरी है। पार्टी की मजबूरी है कि उसे अपनी संख्या बल को बचाना और उसे विस्तार देने के लिए काम करना जरूरी होता है। भारतीय
लोकतन्त्र का अनुभव यही समझाता है कि देश को विभाजित करने वाले कारक - वर्ग, जाति, लिंग, क्षेत्रवाद, अस्मिता, साम्प्रदायिकता, अल्प-संख्यकवाद आदि चुनावी गणित को ज्यादा प्रभावित करते हैं। ऐसे में किसी भी दल के लिए पार्टी को प्रभावी बनाने के लिए,उसे बनाए रखने के लिए दल को विचारधारा के आधार पर चलाना और पार्टी के भीतर लोकतन्त्र बहाल रखना मुश्किल होता जा रहा है।
उदाहरण पहले के भी दिए जा सकते हैं - सुभाष को गांधी समर्थकों ने पार्टी छोड़ने के लिए विवश किया था, नेहरू को पार्टी की किसी भी इकाई द्वारा नेता के रूप में नहीं चुनने के बाद भी नेता बना दिया जाना, टण्डन पर दबाव डालने के बाद आखिरकार नेहरू द्वारा खुद ही पार्टी और सत्ता की बागडोर को सम्भालने का निर्णय लेना आदि, लेकिन पिछले पचास सालों में विचारधारा, लोकतन्त्र आदि के आधार पर राजनीति करना और लोक
आस्था को हासिल करना कठिन हो गया है। उसकी जगह ले ली है, पार्टी के ‘अनुशासन’
ने, जिसका सीधा अर्थ है-पार्टी के प्रभावी ग्रुप या नेता के मत को स्वीकार कर लेना।
वाम और दक्षिण-पन्थी पार्टी में तो इस अनुशासन ने एक सांस्थानिक आधार ही पा लिया है। काँग्रेस और समाजवादी पार्टियों में लोक तन्त्रा की धारणा का ढिंढोरा तो पीटा जाता है लेकिन जानने वाले जानते हैं कि वहाँ भी ‘अनुशासन’ का ही महत्त्व है। दलितपन्थी और शैत्र् पार्टियों के बारे में पार्टी के लोक तन्त्र की
बात करना अपने को हास्यास्पद बनाना ही है। अब तो यह राजनैतिक काॅमन सेंस का हिस्सा है कि जब तक दल पर नेता का नियन्त्रण न हो वह अपना काम कर ही नहीं सकता। इसी कारण से जैसे ही कोई नेता
शक्तिशाली होता है वह दल पर नियन्त्राण करने की सोचता है। विचार और कार्यक्रम के सहारे
नहीं, बल्कि खेमेबाजी के सहारे। इस तरह से दल के भीतर असली दल बनते हैं और
इस असली के पास ही पार्टी की विचारधारा का जिम्मा होता है। कोई लाल कृष्ण आडवाणी
से पूछे कि पार्टी की विचारधारा को कौन नियंत्रित करता है।
पर यह भी याद करें कि बलराज मधोक को क्या नीति के कारण किनारे किया गया था? कहते हैं कि साठ के दशक में जब ज्यां पाल सात्रा ने कानून का उल्लंघन किया और कानूनी तौर पर उन्हें गिरफ्रतार करने की बात
राष्ट्रपति के सामने आयी तो डी गाल ने कहा था कि कोई ‘वोल्तेयर’ को कैसे गिरफ्रतार कर
सकता है! भारत में लोकतन्त्रा के लिए लड़ने वाले जय प्रकाश नारायण को न सिपर्फ गिरफ्रतार
किया गया बल्कि यातना भी दी गयी। आप कह सकते हैं कि देश ने प्रतिवाद किया और तानाशाही को लोकशाही के सामने घुटने टेकने पड़े। लेकिन, असली बात यह है कि उसके बाद राजनीति और अधिक लोकतन्त्र से दूर
होती गयी। और दिलचस्प है कि ऐसा करने में उन लोगों का हाथ अधिक है जिन लोगों
ने लोकतन्त्र के लिए लड़ाई लड़ी थी। शायद समस्या के मूल में यही है कि लोकतन्त्र हमारे सामाजिक मूल्य के रूप में नहीं है। हम लोकतन्त्र की बात करते हैं लेकिन इसमें हमारी आस्था नहीं है। समाज के किसी
भी क्षेत्र में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति हम सचेत नहीं हैं। जब तक समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति आस्था का वातावरण तैयार नहीं होगा, राजनीति में यह नहीं आ सकता। भारतीय समाज की वास्तविकता यह है . कि हम सोच के स्तर पर एक छद्म आदर्शवाद को छोड़ना नहीं चाहते और जीवन में घनघोर सुविधावादी होने में हमें कोई असुविधा नहीं होती। जनता के बीच विचार के साथ जाने वाले लोगों को अभी स्वीकृति मिलना बाकी है। कोई भी रेणु, रामदयाल मुण्डा, भूपेन हजारिका, यू आर अनंतमूर्ति जनता के दरबार
में राजनेता के सामने कमजोर प्रमाणित होता है। और अगर कभी मौका मिला भी तो उसे
अपने दल के बड़े नेता के हिसाब से ही चलना होता है।
बंगाल के दो उदाहरणों पर गौर करें। गायक कबीर सुमन और इतिहासकार सुगतो बसु ;हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, सुभाष बोस परिवार के सदस्यद्ध पिछले चुनावों में लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। दोनों को
बाद में पार्टी के अनुशासन से असुविधा हुई। कबीर सुमन तो अपने दल नेत्रित्व की और अपने
दल के लोकतांत्रिक कार्यों के प्रति इतने मुखर हो गए कि उन्हें हट ही जाना पड़ा। एक चिट पफंड स्कैंडल में जब दल का एक नेता और मंत्री गिरफ्रतार हुए और दल की ओर से आदेश मिला कि अदालती कार्रवाई
को अनैतिक मान कर आन्दोलन हो, उदारमना और लोकतान्त्रिक सुगतो बसु के लिए काम
करना कठिन हो गया। सबलोग के पाठकों के लिए शिवानन्द तिवारी के उदाहरण को पेश करने की जरूरत
नहीं है। लालू प्रसाद यादव के बारे में नीतीश कुमार के जीवनी लेखक अरूण सिन्हा ने एक
बात मार्के की लिखी है कि वे शुरू से ही यह समझ चुके थे कि अगर आप पावर में
नहीं हैं तो आपको कोई नहीं पूछेगा। कई दशकों के बाद नीतीश कुमार ने यह पाठ ठीक
से याद रखा। किसी भी तरह से पावर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। पिछले दिनों बिहार में जो कुछ हुआ उसने यह दिखा दिया कि असली चीज है पावर। अब तो सुना जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा
को यह निर्देश दे रही है कि वह नीतीश के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाए।
आप पार्टी इस अँधेरे में एक रौशनी की तरह आयी। कितने ही लोगों को लगा कि आप एक ऐसे राजनैतिक आदर्श का उदाहरण बनेगी जिसके बारे में कभी जेपी ने या लोहिया ने सोचा था। जिस तरह से दिल्ली के तमाम
लोगों ने इस नौसिखुआ लोगों को एक बार समर्थन देकर मजबूती प्रदान की और दूसरी
बार लगभग राजनैतिक लामबन्दी के सभी नियम कानूनों को गलत साबित किया उससे तो एकबारगी लगा कि उम्मीद अभी बाकी है।
पर, महान विजय के बाद जो हुआ वह तो अवसरवादी राजनीतिज्ञों के लिए भी कुछ
ज्यादा ही माना जाना चाहिए। कहा जा रहा है कि योगेन्द्र यादव और भूषण पार्टी की विचारधारा के खिलापफ काम कर रहे थे और यह गलत था। यह भी कहा गया कि वे एक नेता के इतना अधिक शक्तिशाली
बनाने के खिलापफ थे। अब सवाल उठता है कि इसमें बुराई क्या है? क्या किसी नेता के पास इतनी ताकत दे देना कि वह पार्टी सुप्रीमो बन जाए किसी भी तरह से लोकतन्त्रा के लिए सही माना जा सकता है? जो बहस हुई और जिसमें मान जैसे लोगों ने पार्टी के हित में बातें की, और अन्ततः योगेन्द्र यादव और भूषण
को पार्टी से हटाया गया उसके बारे में क्या कहा जाए।
यह कहना एक घिसापिटा वाक्य लगेगा कि जब तक जनता लोकतान्त्रिक मूल्यों के
प्रति आस्थावान नहीं होगी परिस्थिति नहीं बदलेगी। संख्या के इस खेल में, जिसे लोकतान्त्रिक भाषा में चुनाव कहते हैं, विचार की स्थिति प्रचार के मुकाबले कमजोर ही रहेगी अगर लोकतन्त्र के प्रति आस्थावान लोग
समाज के विभिन्न क्षेत्रों में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति जागरूक न हों।
लोकतन्त्र की रक्षा और उसके साथ दल की विचारधारा के सम्बन्ध पर विचार कराते हुए यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए आखिर जनता आलोकतान्त्रिक दलनेताओं का साथ किस आधार पर देती है और देती रहती है?
दरअसल, इस देश में शक्ति पर राजनीति का लगभग एकाधिकार हो गया है। धर्म से लेकर क्रिकेट चलाने वाले संगठनों तक राजनीति को ही सब कुछ ठीक करने का अधिकार मिल सा गया है। जैसे ही राजनीति बदली,
शिक्षा संस्थानों से लेकर खेलकूद की कमिटी तक सब बदल जाते हैं। जब ऐसा आलोकतान्त्रिक
माहौल समाज में बन जाए तो यह अपेक्षा करना कि राजनीति में स्वछता आए एक कपोल कल्पना है।
जरूरत है लोकतन्त्र समाज में स्वीकृत हो। इसके लिए सभी स्तरों पर प्रयास करना
होगा। घिसा पीटा वाक्य? हो सकता है, लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है।
हितेंद्र पटेल
लेखक इतिहास के प्राध्यापक और उपन्यासकार हैं।
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