04 October 2016


        धर्म के साथ या धर्म के खिलाफ ...

                                  नासिरूद्दीन



ज‍ब हम धर्म और कट्टरता की बात करते हैं तो कई सवाल दिमाग में कौंधते हैं। पहला, क्‍या धर्म और कट्टरता में कोई रिश्‍ता है?दूसरा, क्‍या कट्टरता के लिए धर्म जिम्‍मेदार है? तीसरा, क्‍या कट्टरता और धर्म दो धुरि हैं? चौथा, क्‍या मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक ताना-बाना धर्म और कट्टरता दोनों का पोषक है?क्‍या पूंजीवाद, धर्म और कट्टरता तीनों ही एक जैसी परेशानी का सबब हैं?क्‍या सामाजिक गैरबराबरी दूर करने के लिए इन तीनों को खत्‍म करना जरूरी है? इस तरह के अनेक सवाल हैं।
यहां इतने सारे सवालों पर एक साथ चर्चा करना न तो मुमकिन है और न ही व्‍यक्तिगत रूप से यह मेरे बस की बात है। मैं अपने को धर्म से जुड़े कुछ पहलुओं तक ही अपने को सीमित रखना चाहूंगा।
सामाजिक व्‍यवस्‍था के रूप में धर्म काफी प्राचीन है। उसकी तुलना में पूंजीवाद हाल का विचार और व्‍यवस्‍था है। इसलिए धर्म के बारे में यह देखना दिलचस्‍प होगा कि उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं-
भारत में धार्मिक लोगों की तादाद
विश्‍वास/मत/धर्म
कुल संख्‍या
फीसदी
हिन्‍दू
96,62,57,353
79.8
मुसलमान
17,22,45,158
14.2
ईसाई
2,78,19,588
02.3
सिख
20833116
01.7
बौद्ध
8442972
00.7
जैन
4451753
00.4
अन्‍य
7937734
00.7
जिन्‍होंने धर्म नहीं बताया
2867303
00.2
कुल आबादी
1210854977
100.0


स्रोत:जनगणना 2011

इन आंकड़ों पर जरा गौर करते हैं। ये भारत की जनगणना के ताजा धार्मिक आंकड़े हैं। इससे एक बात बिल्‍कुल साफ है- भारत की 99.8 फीसदी आबादी किसी न किसी धर्मको मानती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि भारत धार्मिक देश है... लेकिन कोई एक धर्म ही यहां नहीं है। लगभग 20 फीसदी आबादी ऐसी है, जो कई धर्मों के मानने वालों से मिलकर बनी है।
यानी धर्म हमारे समाज की जमीनी सचाई है। इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। विचार के रूप में यह काफी मजबूत है। लेकिन इसका कोई एक रूप ही नहीं हैबल्कि एक ही धर्म के कई रूप हैं। 
धर्मों के बारे में बात करते हुए, एक और बात ध्‍यान में रखनी जरूरी है। सभी धर्मों के बारे में एक जैसी राय कायम करना या एक ही विश्‍लेषण से सभी धर्मों को समझने की कोशिश, शायद गलत नतीजे निकालने पर मजबूर करेगी। भारत के संदर्भ में देखें तो यहां हिन्‍दुओं की बड़ी तादाद है। लेकिन जो अपने आप को हिन्‍दू मानते हैं, वे सब किसी एक किताब को पवित्र या किसी एक भगवान को ही नहीं मानते। इसके उलट मुसलमान, ईसाई और पारसी हैं। बौद्ध और जैन हैं। इसलिए
हिन्‍दू धर्म के बारे में विचार करने का जो तरीका अख्तियार किया जाएगा, वही तरीका बाकि धर्मों के बारे में नहीं हो सकता है। ठीक इसी तरह अकादमिक दायरे में धर्म को समझने का काम यूरोप में काफी हुआ। उनके विश्‍लेषण का मुख्‍य आधार ईसाई धर्म रहा। यही नहीं, उस विश्‍लेषण की पृष्‍ठभूमि भीपूंजीवाद के उभरते हुए दौर की है। उनसे धर्म को समझने का सिरा तो मिल सकता है लेकिन उनके विचारों को हू ब हू भारत जैसे मुल्‍क में उतारने की कोशिश नाकाफी होगी। ऐसे में यह चुनौती है कि भारत में धर्म को कैसे समझा जाए? धार्मिक लोगों से कैसे रिश्‍ता बनाया जाए?
शायद हम यहां धर्म पर बात इसलिए भी कर रहे हैं कि हम सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में इसकी भूमिका देखना चाहते हैं। जहांतकमजहबप्रैक्टिसकरनेकासवालहै, यह एक निहायत ही निजी मामला है और होना चाहिए।कोई शख्स व्यक्तिगत रूप में लामजहब या नास्तिक हो सकता है।यह उसका हक है।उसके ऐसे व्यवहार से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
हालांकि फर्क तब पड़ता है, जब हम सामाजिक परिवर्तन की जद्दोजहद में शामिल होते हैं। उस वक्त मजहब को किस रूप में देखते हैं या उससे किस तरह का रिश्‍ता बनाते हैं।धार्मिक लोगों से कैसा रिश्ता बनाते हैं।यानी सार्वजनिक तौर पर मजहब के साथ क्या रिश्ता होगा।
अब सवाल है, भारत में धर्मों और इनके मानने वाले 1 अरब 20 करोड़ 79 लाख 87 हजार 674 लोगों से कैसे संवाद किया जाए। (इनमें धर्म न बताने वाले 28,67,303 लोग शामिल नहीं हैं।)
आमतौर पर धर्म के बारे में बात करते हुए कार्ल मार्क्‍स की एक लाइन बहुत ज्‍यादा याद दिलाई जाती है- मजहबआमजनताकीअफीमहै!इसलिए धर्म के बारे में जो समझ बनी वह इसी शब्‍द के इर्द-गिर्द बनी। धार्मिक लोगों के बारे में एक ऐसी समझ विकसित हुई जिनसे संवाद मुश्किल है। लेकिन मार्क्‍स ने अफीमके आगे-पीछे भी बहुत कुछ कहा है। वह इस वाक्‍य के ठीक पहले लिखते हैं, ‘...धर्म उत्‍पीडि़त प्राणि की आह है। एक हृदयहीन दुनिया का वह हृदय है। उसी तरह जिस तरह कि किसी आत्‍मा विहीन स्थिति की वह आत्‍मा है। वह जनता की अफीम है।
अगर  मार्क्स को यह कहना होता कि मजहब को नकारे बिना उत्पीडि़त जनता का भला नहीं है।मजहब को उखाड़ फेंकना चाहिए तो शायद यह बात कहने में उन्हें किसी तरह की दिक्कत नहीं पेश आती।इसमें अफीम शब्द गौर करने लायक है। लगता है, यहां 'अफीम' मुहावरे के तौर पर इस्‍तेमाल किया गया है।अफीम क्या करता है, शांति देता है।सेवन करने वाले को दुनियावी माहौल से अलग कर देता है।लेकिन यह तो उत्‍पीडि़तों की आवाज है।यह प्रतिरोध का भी जरिया बनता है, बेदिल दुनिया का दिल है़।... बेरूह हालात की रूह है।यह भी मार्क्स खुले दिल से स्वीकार करते हैं।तोसिर्फआखिरीलाइन क्यों याद रखी जाती है? इसीलिए धर्म के  साथ हमारा रिश्ता क्या होगा, यह हमारे मजहब मानने या न मानने से तय नहीं होगा बल्कि उत्‍पीडि़त जनता की बड़ी तादाद जो धार्मिक हैं, उनके हिसाब से तय होगा। होना चाहिए।
अब इस बात का जमीनी इस्‍तेमाल देखना जरूरी है। फिदेल कास्‍त्रो के साथ फ्राई बेटो ने मजहब के मुद्दे पर लंबी बातचीत की है। बाद में यह बातचीत किताब की शक्‍ल में भी आई। इस बातचीत के दौरान एक सवाल के जवाब में फिदेल कहते हैं, ''मजहब के मकसद और जो मकसद समाजवाद के हैं, उनमें कोई विरोधाभास नहीं है।मेरा मानना है कि मजहब और समाजवाद एवं मजहब और क्रांति के बीच रणनीति का रिश्ता होना चाहिए।...मेरा यह मानना है कि किसी ईसाई का मार्क्सवादी होना और दुनिया को बदलने के लिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट के साथ मदद करना मुमकिन है।'' ये विचार हमारे दौर के महान जीवित क्रांतिकारी के हैं। फिदेल कहते हैं, 'हमारे संविधान में हर नागरिक के विश्वास के आदर की साफ तौर पर बात की गई है और इसकी गारंटी दी गयी है।यह सिर्फ राजनीतिकरण नीति नहीं है।राजनीतिक सिद्घांत के रूप में मजहबी विश्वास करने वालों का सम्मान करना सही है क्योंकि हम आज जिस दुनिया में रह रहे हैं, वहां कई विश्वासों पर यकीन करने वाले लोग रहते हैं।यही नहीं धार्मिक विश्वासों और क्रांति के बीच टकराव की बात अच्छी नहीं है।जब भी ऐसा होता है, प्रतिक्रियावादी और साम्राज्यवाद, धर्म का इस्तेमाल क्रांति के खिलाफ कर सकते हैं।हम क्यों उनके लिए यह आसान कर दें कि वे किसी मजदूर, किसान या गरीब शख्स के धार्मिक विश्वासों का क्रांति के खिलाफ इस्तेमाल करें? राजनीतिक रूप से ऐसा करना गलत हैं... मेरा यह मानना है कि हर नागरिक के धर्म मानने के हक का उसीतरह सम्मान किया जाना चाहिए जिसतरह उसके स्वास्थ्य, जिंदगी जीने और आजादी और अन्य अधिकारों का सम्मान किया जाता है।' फिदेल इस आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करने की भी बात करते हैं, कि कोई खास मजहब का मानने  वाला  है।यानी वे भी मजहब को खत्म करने की बात नहीं कर रहे।यह धर्म और धार्मिक लोगों के साथ संवाद बनाने की रणनीति है। 
तो हमारे आसपास धर्म के नाम पर जो हो रहा है, क्‍या उसे चलने दिया जाए? नहीं और कतई नहीं। यह कट्टरता है। कट्टरतायानी धर्म का राजनीतिक इस्‍तेमाल है। धर्म के नाम पर राजनीतिक वर्चस्‍व का विचार ही कट्टरता है। इसमें धर्म का कोई भी मूल्‍य शामिल नहीं है। संभवत: इसीलिए असगर अली इंजीनियर मानते थे धर्मान्धता या कट्टरता किसी मज़हब का खास गुण नहीं है।यह किसी शख्स की मनोवैज्ञानिक हालत का नतीजा है।हम मज़हब को कट्टर या धर्मान्धता की वजह कैसे कह सकते हैं जब कि हमारे पास पंडित सुंदरलाल और मौलाना अबुल कलाम आजाद का उदाहरण मौजूद है।दोनों धार्मिक थे लेकिन धर्मान्ध नहीं।

मेरे जहन में कुछ सवाल भी हैं
·       भारत में तर्क बुद्धि (रेशनल) और नास्तिकता काफी पुराना विचार है। फिर भी यह विचार क्‍यों नहीं फैला। या इसके बारे में आज भी लोग खुलकर बात करने से क्‍यों डरते हैं। 
·       धर्म और धार्मिक व्‍यवस्‍था शोषण का जरिया हैं। फिर ऐसा कैसे होता है कि शोषित इसे खुशी खुशी अपनाते हैं और जीते हैं।
·       हिन्‍दू धर्म की वर्ण व्‍यवस्‍था ने बड़े समूह को शताब्दियों से धर्म से खारिज कर रखा था और आज भी वे खारिज हैं। ये खारिज लोग, अपनी मुक्ति का रास्‍ता उसी धर्म में कैसे तलाशते हैं।
·       यह क्‍यों हुआ कि डॉक्‍टर भीमराव अम्‍बेडकर को हिन्‍दू धर्म छोड़ना पड़ा। वे जाति का विनाश क्‍यों नहीं कर पाए। और उन्‍हें भी एक धर्म छोड़कर दूसरा धर्म क्‍यों अपनाना पड़ा।
·       क्‍या धर्म के समूल नष्‍ट हुए बिना बराबरी वाला समाज मुमकिन नहीं है।
·       क्या मजहब को नकारकर, उसकी निंदाकर, उसको खत्म करने की घोषणा कर या अल्लाह या ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देकर व्यापक सामाजिक बदलाव की बात की जा सकती है। अगर हां, तो इसके तरीके क्‍या होंगे।
इन सवालों को बचकाना कह कर टाला जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि इनके जवाब सवाल में ही निहित हैं। लेकिन कई बार बचकाने सवालों का साफ-साफ जवाब मिलना जरूरी होता ताकि तर्कबुद्धि मजबूत हो।
इसलिए इंगेजमेंट का मतलब समर्पण नहीं है।सवाल बड़े समुदाय के साथ संवाद कायम करने का है।एक ओर, जहां इस देश में वर्ग संघर्ष का न सिर्फ अभाव है बल्कि जो हिरावल दस्ता है, वह खुद उहापोह के दौर में है।इसलिए मेरी समझ में व्यापक सामाजिक बदलाव के लिए संवाद जरूरी है तब ही मजहब के नाम पर चल रहे गैरबराबरी के उसूलों को भी चुनौती दी जा सकती है।


 लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सामाजिक तथा स्त्री मुद्दों पर नियमित लिखते हैं.
nasiruddinhk@gmail.com  +919711191103 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.







पंचायत को पटरी पर लाने की मुहीम

अनिल कुमार राय
 ‘आसा’ (एसोसिएशन फॉर स्टडी एंड एक्शन) बिहार के प्रबुद्ध नागरिकों और संघर्षशील समाजसेवियों का एक अग्रणी मंच है,जो देश और समाज के विभिन्न समकालीन सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक मुद्दों के अध्ययन-मूल्यांकन और संविधान के आमुख में वर्णित आदर्शों-आकांक्षाओं को हासिल   करने के मार्ग में खड़ी बाधाओं को दूर करने की व्यापक समझ विकसित करने के लिए लिए लगातार विमर्श और हस्तक्षेप करता रहा है.

 

पिछले दिनों भारत सरकार के द्वारा जारी भूमि अधिग्रहण बिल और फिर नयी शिक्षा नीति के विमर्श पत्र पर ‘आसा’ ने बिहार और झारखंड के विभिन्न जिलों में जीवंत विमर्श सभाओं का आयोजन किया. नयी शिक्षा नीति के निर्माण के लिए गठित सुब्रह्मण्यम समिति को, बिहार में केवल ‘आसा’ ने ही, सम्पूर्ण विमर्श पत्र पर अपने 52 पृष्ठों का सुझाव सौपा. 
इधर बिहार में पंचायत चुनाव संपन्न हो जाने के बाद ‘आसा’ के द्वारा चुने हुए  पंचायत के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर आदर्श पंचायत के विकास और निर्माण में सहयोग प्रदान करने का सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया. इस योजना को कार्यरूप देने के लिए विभिन्न क्षेत्र के विशेषज्ञों की एक समिति बनायी गयी. इस समिति ने ‘आसा’ का पंचायत दृष्टिकोण पत्र और कार्ययोजना तैयार की. इस पत्र में माना गया कि जब तक राजकाज में जन-जन की भागीदारी नहीं होगी, तब तक सच्चे लोकतंत्र का स्वरूप नहीं उभर सकता है. पंचायतों के सशक्तिकरण के द्वारा ही सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक समस्याओं का लोकतांत्रिक समाधान ढूँढा जा सकता है.
      पंचायत चुनाव की प्रक्रियाओं की समाप्ति के उपरान्त ‘आसा’ के सदस्य अपने इसी महत्त्वाकांक्षी अभियान पर स्थानीय संस्था ‘समुदाय’ के सहयोग से रोसड़ा पहुँचे. ‘आसा’ के संस्थापक तथा बिहार सरकार में भूमि सुधार एवं राजस्व तथा आपदा प्रबंधन के प्रधान सचिव माननीय व्यास जी की अध्यक्षता में संचालित कार्यशाला में समस्तीपुर जिले के विभिन्न पंचायतों के 36 पंचायत प्रतिनिधि शामिल हुए.
      श्रीमती कल्पना शास्त्री के स्वागत संबोधन के उपरान्त मो. ग़ालिब के द्वारा ‘आसा’ का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया. कार्यशाला का आरम्भ करते हुए श्री व्यास जी ने उसके स्वरूप पर प्रकाश डाला. उन्होंने इस कार्यशाला के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए बताया कि हमलोग आपके सहयोगी की भूमिका निभाना चाहते हैं. हमलोग चाहते हैं कि आप बताएँ कि अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि होने के नाते आप अपनी पंचायत में क्या करना चाहते हैं, जिससे उसकी समस्याएँ दूर होने के साथ ही वह आदर्श पंचायत के रूप में स्थापित हो सके. अर्थात एक आदर्श पंचायत के रूप में आप अपनी पंचायत को किस तरह देखना चाहते हैं.
      विभिन्न उत्साही प्रतिनिधियों के द्वारा अपने क्षेत्र में एक साल की जो कार्ययोजना प्रस्तुत की गयी, उसमें अनेक बिंदु उभरकर आये. प्रमुखता के आधार पर पंचायत प्रतिनिधियों ने अपने-अपने क्षेत्र में हर टोले तक और प्रत्येक घर तक पक्के पहुँच पथ के निर्माण तथा प्रत्येक घर में शौचालय के निर्माण पर काम करना चाहा. अन्य प्राथमिकताओं में अपनी पंचायत में स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की आवश्यकता और उसके लिए प्रयास किये जाने की बात उभर कर सामने आयी. जब स्वास्थ्य केंद्र की बात होने लगी तो अनेक प्रतिनिधियों ने, विशेषकर महिला प्रतिनिधियों ने, स्वास्थ्य केन्द्रों पर महिला चिकित्सक की आवश्यकता पर बल दिया. महिला प्रतिनिधियों ने गर्भवती महिलाओं की उचित चिकित्सकीय देखभाल, संस्थागत प्रसव की सुनिश्चितता एवं प्रसवोपरांत जच्चा-बच्चा की उचित देखभाल की बात के साथ ही ससमय टीकाकरण के संकल्प को प्रमुखता से उठाया. अनेक प्रतिनिधियों ने आंगनबाड़ी केंद्र की सुचारुता और गुणवत्तापूर्ण अनिवार्य शिक्षा के लिए प्राणपण से काम करने के संकल्प की बात की. इसी तरह हर घर के लिए स्वच्छ पानी, हर घर को बिजली, हर खेत को पानी, प्रत्येक परिवार को घर, लड़कियों के लिए अलग से खेल का मैदान, पंचायत में ही 12वीं तक की शिक्षा की सुनिश्चितता, नशामुक्ति, पर्चाधारियों को जमीन पर कब्जा, पुस्तकालय के निर्माण, पंचों के लिए न्याय भवन, महिला हिंसा पर रोक, बाढ़ नियंत्रण के उपाय, पानी निकासी के उपाय, वृक्षारोपण मनरेगा की सुचारुता, मजदूरों के लिए सभी योजनाओं का क्रियान्वयन, रोजगार सृजन के प्रयास, मजदूरों के पलायन पर रोक, बाल मजदूरी की समाप्ति, सामाजिक सद्भाव की स्थापना आदि अनेक क्षेत्रों में काम करने और बदलाव लाने के प्रति अपना उत्साह जाहिर किया गया.

      पंचायत प्रतिनिधियों के साथ वार्ता के प्रसंग में सबसे रोचक बात यह रही की अनेक नवनिर्वाचित प्रतिनिधि, जो प्रारम्भ में अपनी बात रख पाने में हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे, बाद में माहौल बन जाने पर उन्होंने भी मजबूती के साथ अपनी बात रखी. मोतीपुर की मुखिया श्रीमती परमा देवी प्रारम्भ में, अनेक प्रकार से प्रोत्साहित करने के बाद भी, अपनी बात नहीं कह पायीं. लेकिन माहौल के सहज हो जाने के उपरान्त वे स्वयं उठकर आयीं और स्पष्टता के साथ अपनी कार्ययोजना को प्रस्तुत किया. इस तरह की बात अनेक प्रतिनिधियों के साथ हुई. इस तरह इस कार्यशाला में केवल पंचायत के प्रति प्रतिनिधियों की कार्ययोजना और संकल्प ही उभर कर सामने नहीं आये, बल्कि समाज के लोगों के सम्मुख प्रस्तुत होने और प्रस्तुति करने के रूप में उनका सशक्तिकरण भी हुआ.
      इस कार्यशाला में रोसड़ा, रहुआ, विरहापुर, सोनुपुर, सौहारडीह, हिरुआ, मोतीपुर आदि पंचायतों के श्री राजेन्द्र शर्मा, प्रवीण कुमार, श्याम नारायण मोची, फूलो पासवान, मो. खुरैश, लाल बिहारी ठाकुर, प्रेमा देवी, नीलम गुप्ता, मीरा देवी, अनीता देवी, मिंकी गुप्ता, अंजुमन खातून, हरिकांत झा, अरविन्द कुमार सिंह, विमला देवी, सुनील कुमार आदि ने आदर्श पंचायत की अपनी संकल्पना, विचार और कार्ययोजना प्रस्तुत की.
      प्रतिनिधियों की संकल्पना और विचार की प्रस्तुति के बाद ‘आसा’ के सदस्यों में प्रो. नवल किशोर चौधरी ने पंचायत की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्लेटो ने कहा था कि जहाज़ों और पुलों का निर्माण करके क्या होगा, जब इंसानियत ही पिछड़ी हुई है. इसलिए पंचायतें यह तय करे कि इंसानियत के निर्माण की दिशा में क्या करेगी. शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति दोपाये जानवर से इंसान में तब्दील होता है. पहले हमलोग स्कूल में पढ़ते हुए सामाजिक कार्य भी किया करते थे. इस तरह अपने गाँव-समाज के साथ जुड़ाव उत्पन्न होता था. पंचायतों को यह तय करने की जरूरत है कि वे इस दिशा में क्या करेंगी. आज के समय में जब सामुदायिकता टूट रही है, उस समय पंचायतों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है. उन्होंने मुखिया प्रतिनिधियों को ललकारते हुए कहा अपील की कि यदि आप पंचायतों को लोकतांत्रिक नहीं बना सकते तो सरकार पर क्या दवाब बन सकेगा. इसलिए समाज को जोड़ने और समाज से जुड़ने की जरूरत है.
      ‘आसा’ के संयोजक डॉ. अनिल कुमार राय ने पंचायत प्रतिनिधियों को उनके चयनित होने की बधाई देते हुए कहा कि त्रिस्तरीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में पंचायत अपने-आप में लघु गणतंत्र है. उसे लोकप्रशासन और पंचायत के विकास के समस्त अधिकार प्राप्त हैं. उन्होंने उपस्थित प्रतिनिधियों का आवाहन करते हुए कहा कि आप ही इस गणतंत्र की बुनियाद को मजबूत बना सकते हैं, पंचायतों से ही इसकी शुरुआत हो सकती है.

      भूदान यज्ञ समिति के अध्यक्ष श्री शुभमूर्ति ने बताया कि आधुनिक भारत में पंचायती शासन की परिकल्पना गांधी जी की देन है. उन्होंने विस्तार से पंचायत के बारे में गाँधी जी की अवधारणा को रखा और प्रतिनिधियों से आदर्श पंचायत निर्माण की दिशा में आगे बढ़ने का आह्वान किया.
      ‘आसा’ के साथी श्री अजय कुमार ने पंचायत में विश्वास जगाने की बात रखते हुए कहा कि अगर हम पहले अपने दायित्व, कर्तव्य और उसके बाद अधिकार की बात करते हैं तो अनेक समस्यायों का अंत आसानी से हो जाता है. जब समाज को आपकी कर्तव्यशीलता का बोध हो जाएगा तो समाज में भी कर्तव्यबोध तेजी से क्रियाशील हो जाएगा. समाज की इस सामाजिक भावना को जगाने की आज सबसे अधिक जरूरत है.
      ‘आसा’ की ओर से मो. अज़ीम, सुनील कुमार सिन्हा, मो. इरफ़ान, बसंत कुमार मिश्रा, अमरकांत कुमार आदि ने भी संबोधित किया. कार्यशाला का संचालन श्री जयप्रकाश ने किया, वहीँ श्री अजित कुमार ने प्रतिनिधियों की आकांक्षाओं की समेकित प्रस्तुति की.
 
      अंत में श्री व्यास जी ने अपने अध्यक्षीय निष्कर्ष में समस्त परिचर्चा को समेटते हुए कहा कि अभी पंचायतों में भौतिक साधनों के विकास के साथ ही इंसान बनाने की बात हुई. उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक विश्वास के माहौल के निर्माण पर बल देते हुए कहा कि आप जब यहाँ से जाएँ तो इन बातों को आगे बढायें. उन्होंने आगामी कार्ययोजना को प्रस्तुत करते हुए मुख्य रूप से चार बातें कहीं – ग्राम सभा आयोजित करें, साल भर की कार्य योजना बनाएँ, सरकार से क्या मदद चाहिए यह बताएँ तथा ‘आसा’ आपकी क्या और किस तरह मदद कर सकती है, यह बताएँ.

      इस क्रम में दखल-देहानी में विसंगति के भी अनेक मामले सामने आये. श्री व्यास जी ने उपस्थित अधिकारियों से इस मामलों के त्वरित निष्पादन के लिए कहा.


  लेखक सामजिक कार्यकर्त्ता और 'आसा' के संयोजक हैं.
  dranilkumarroy@gmail.com +919934036404 पर इनसे सम्पर्क   किया जा सकता है.

02 October 2016

 गांधी की खोज में 
मणीन्द्र नाथ ठाकुर



एक बार प्रसिद्ध राजनैतिक चिंतक रणधीर सिंह से जे एन यू के एक रात्रि भोजन के बाद होने वाली  बातचीत में किसी  ने पूछा कि क्या गांधी उदारवादी थे, या गांधी मार्क्सवादी  थे; क्या गांधी आज भी प्रासंगिक हैं? उनका जवाब भी उतना ही अच्छा था कि ‘ गांधी न तो मार्क्सवादी थे, न ही उदारवादी थे, और  इसलिए वे प्रासंगिक हैं’।
पूरी दुनिया को गांधी देर से समझ में आ रहे हैं तो मेरे साथ भी ऐसा होना कोई आश्चर्य नहीं है। पाँचवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा तक लगभग हर बरस दो अक्टूबर को गांधी के बारे में कुछ न कुछ भाषण देने की आदत सी हो गयी थी। कभी लगता था कि वे  महान व्यक्ति थे और कभी लगता था कि चालाक थे। दोस्तों के बीच ख़ूब बहस होती थी। लेकिन बचपन से ही गांधी  हमारे जैसे बहुत से बच्चों की चेतना के हिस्से थे। गांधी के दर्शन से रू-ब-रू होना शुरू हुआ जब मैंने विज्ञान विषयों को छोड़ कर राजनीति विज्ञान पढ़ना शुरू किया। फिर मार्क्सवाद ने चिंतन को झकझोर दिया। युवावस्था में तो लगने लगा कि गांधी केवल पूँजीपतियों के लिए काम करते थे और उन्होंने भारत में आमूल परिवर्तन को होने से रोक दिया। लेकिन इस समय भी मन के किसी कोने में  ऐसा लगता था कि मामला इतना सरल भी नहीं है। रणधीर सिंह के मार्क्सवाद से प्रभावित होने के चलते गांधी से संवाद कभी बंद नहीं हुआ। फिर गांधी को पढ़ाने का मौक़ा मिला। इस दौरान भी अम्बेडकर ने प्रभावित किया और गांधी की आलोचना मन में बनी रही। तय किया कि मार्क्स, अम्बेडकर और गांधी को एक साथ पढ़ाया जाए, ताकि तुलनात्मक अध्ययन  हो सके। इस मायने में जेएनयू  ने बड़ी मदद की। एक तो अपने मन मुताबिक ऐसा पाठ्यक्रम बना पाना सिर्फ यहीं सम्भव था और यहाँ का माहौल, यहाँ के छात्र सभी इस प्रयोग के लिए उपयुक्त थे। कई वर्षों तक जूझने के बाद अब मुझे लगता है कि मेरी थोड़ी गति इसमें हो गई है। गांधी की बातें मेरी समझ में थोड़ी-थोड़ी आने लगी हैं। इस संदर्भ में मैं कुछ  उदाहरण देना चाहूँगा। 

बहुत दिनों से सोच रहा था कि  इस घोर पूँजीवादी और उपभोक्तावादी युग में जहाँ हर काम फ़ायदे के लिए किया जाता है चाहे वह मानव विरोधी क्यों नहीं हों, तो ऐसे में मनुष्य के पास अपनी रक्षा का क्या उपाय है। हर्बर्ट मार्कूज़ का विचार सही जान पड़ता है कि इस उपभोक्तावादी समाज में हम सुतुर्मुर्गीय व्यक्तित्व हो गए हैं; हमारी अस्मिता ही उपभोग की क्षमता से निर्धारित होती है। फिर हमारा स्वराज कैसे हो सकता है? गांधी ठीक कहते थे कि यदि स्वराज नहीं है तो तुम मनुष्य नहीं हो और स्वराज के लिए श्रम और संयम ज़रूरी है। जिस तरह से बाज़ार हमें केवल उपभोक्ता की अस्मिता में तब्दील कर रहा है, उससे बचने का यही नुस्ख़ा सही लगता है।   भारत के जाने माने हृदय रोग  विशेषज्ञ डाक्टर एस सी मिनोचा एक बातचीत में मुझसे कह रहे थे  कि  हमें अब पता चल रहा है कि चार रेफ़ायंड चीज़ों ने हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला है: रेफ़ायंड तेल, मैदा, चावल, और चीनी। कहने लगे हमें सरसों तेल और वह भी कच्ची घानी का खाना चाहिए। मैं आश्चर्य चकित था कि डाक्टर कह क्या रहे हैं? मैंने डाक्टर हबीबुल्ला, जो हृदय रोग के बड़े महारथी थे, का हवाला देते हुए कहा कि मेरे सामने उन्होंने  एक रोगी को लगभग डाँटते हुए कहा था: बिहारियों से मैं तबाह हूँ। वे सरसों तेल खाते हैं, उसका छोंका लगाते हैं और इससे जी नहीं भरता है तो सरसों की चटनी भी खाते हैं। डाक्टर मिनोचा का जवाब था, उस समय उन्हें क्या किसी और  को भी  यह पता नहीं था कि रेफ़ायंड तेल के प्रचार प्रसार के लिए पूरी दुनिया में उत्पादकों की लॉबी काम कर रही है। इसके दुष्प्रभाव से सम्बंधित सूचनाओं को छुपाया गया। उन्होंने बताया कि बास्किन रॉबिंज़ आइसक्रीम कम्पनी के मालिक के बेटे जान रॉबिंज़ ने अपनी पुस्तक में पिता को अपराधी घोषित किया है क्योंकि उसका मानना है कि भोजन के नाम पर उनके पिता की कम्पनी सहित अन्य नामचीन अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ ज़हर परोस रही हैं। मैं तो सकते में आ गया। जी एम फ़ूड पर उनकी बातों को सुनकर तो मुझे डर सा लगने लगा। और अंतराष्ट्रीय मेडिकल रीसर्च और उसके प्रकाशकों की करतूतों को सुनने के बाद तो मेरे पास कुछ आगे कह पाने की हिम्मत ही नहीं हुई। क्योंकि बिना पूँजीपतियों की सहायता के न तो रीसर्च हो सकता है न ही प्रकाशन। मैंने पूछा इसका उत्तर क्या है? उन्होंने कहा गांधी। प्रकृति के नियमों का पालन करो, देश के भोजन की संस्कृति को समझो और तार्किक ढंग से उसका पालन करो। 

मुझे पहले लगता था कि गांधी राजनीति पर बात करते-करते भोजन पर क्यों बात करने लगते हैं। अब समझ में आता है कि उन्हें भोजन पर उपभोक्तावादी संस्कृति के हमले का आभास होने लगा था। बाज़ार की मध्यस्थता ने प्रकृति से हमारे संवाद को ख़त्म कर दिया है। हम ज़रूरत और चाहत में अंतर करना भूल गए हैं। चाहतें बाज़ार निर्धारित कर देती हैं और हम उसके पीछे भागने लगते हैं। उदारवादी अर्थनीति के दर्शन से निजात पाने के लिए हमें वापस गांधी को ध्यान से समझना पड़ेगा। दर्शनिकों को  समझने और उनसे सीखने के बदले हम उनके बीच के विवाद में फ़सने लगते हैं और उनको अपनी अस्मिता से जोड़ कर उनके नाम पर लड़ने भी लगते हैं। ज़रूरत शायद उनसे सीख कर अपनी जीवन दृष्टि को निर्धारित करने की है। गांधी भोजन की राजनीति को समझ ही नहीं रहे थे बल्कि उससे बचने के लिए पूरी रणनीति भी तैयार कर रहे थे। मार्क्स और अम्बेडकर को माननेवाले महानुभावों को इस बात पर ग़ौर करना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि जिस क्षेत्र में गांधी की समझ सही नहीं लगे  तो उसकी आलोचना नहीं करें। बल्कि इस विषय पर जापानी चिंतक कोज़िन कारातानी की बात सही है कि पढ़ने का एक तरीक़ा ट्रान्सक्रिटिकभी हो सकता है, जिसमें एक चिंतक के माध्यम से दूसरे को पढ़ा जा सकता है। 

इसी तरह धर्म के बारे में गांधी की बात मुझे तब समझ में आयी जब मैं क़ुरान, बाइबिल और गीता को एक साथ पढ़ने का प्रयास करने लगा। गांधी जब कहते हैं कि सभी धर्मों में एक ही बात है तो मुझे लगता था कि तत्कालीन राजनीति में धार्मिक बहुलता के लिए यह सब कहा करते होंगे। लेकिन इन ग्रंथों को ग़ौर से पढ़ने पर पता चलता है कि गांधी एक दृष्टिकोण की बात करते थे; इनमें उपलब्ध मनुष्य की अवधारणा के बारे में बात करते थे; धर्म को सामूहिक अस्मिता से नहीं बल्कि मानवीय अस्मिता से जोड़ते थे। हिंद स्वराजमें उन्होंने  विचार दिया है कि लोगों के  धर्म विमुख होने से उन्हें चिंता होती है। नेहरु जैसे लोग भी गांधी के इस बात से सहमत नहीं थे। सर्व धर्म समन्वयका उनका विचार ज़्यादातर लोगों को केवल यूटोपिया  ही लगता है। लेकिन गांधी के इस विचार का  ठोस ऐतिहासिक आधार था; इसका एक ऐशियायी संदर्भ था। रूमी जैसे लोग उनके विचारों के श्रोत थे, कहा जाता है की रूमी के जनाज़े में हर धर्म के लोग शामिल थे। गांधी धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ करते थे। गीता को पढ़ने के लिए उन्होंने संस्कृत विशेषज्ञों  से सम्पर्क नहीं किया। कहा कि गीता तो माता है, जो मेरी वैचारिक और नैतिक समस्याओं का समाधान करती है। उसे इसी भाव से पढ़ने की ज़रूरत है। उनके लिए धर्म ग्रंथ तो ज्ञान ग्रंथ हैं, अस्मिता ग्रंथ नहीं हैं। यदि क़ुरान के पहले अध्याय  को ध्यान से पढ़ें तो गांधी की बात समझ में आ जाती है। उसमें मानवता के लिए जो अपील है, गांधी के अनुसार वही धर्म का सार है। गांधी का हिंद स्वराजधर्म के एक दृष्टिकोण का प्रतिपादन है। लैटीन अमेरिका में मार्क्सवादी क्रांतिकारियों ने जिस लिबरेशन थीयोलोजी को अपने क्रांति संघर्ष के लिए उपागम बनाया, गांधी उसके प्रतिपादक माने जा सकते हैं।  आज के युग में गांधी के दृष्टिकोण से धर्म ग्रंथों का समन्वित पुनर्पाठ आवश्यक है। शायद आतंकवाद से मुक्ति का भी यही मार्ग है। जिस धर्मान्धता का उपयोग सम्प्रदायवादी करते हैं उसका यही उचित काट हो सकता है। 

आंदोलन और नेतृत्व के संदर्भ में गांधी के विचारों के महत्त्व को ख़ास कर मैंने तब समझा जब हाल ही में एक राजनैतिक प्रयोग करने का मौक़ा मिला। बिहार के कुछ मित्र जिनमें प्रवासी होने का दर्द है, बिहार चुनाव के पहले एक राजनैतिक प्रयोग के लिए जमा हुए। आम आदमी पार्टी के प्रयोग ने उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया था कि कुछ ऐसा ही बिहार में भी सम्भव हो सकता है। मध्यमवर्गीय लोग जो अब तक राजनीति को काजल की कोठरी ही मानते थे, उसमें अपनी भूमिका तलाशने लगे थे। विमर्श के कई दौर चले। राजनीति की  एक आदर्शवादी अवधारणा की  कल्पना की गई, कुछ आम आदमी पार्टी  के प्रयोग से भी आगे। इस बातचीत की प्रक्रिया में मुझे गांधी की बहुत याद आयी। मैं सोचता रहा कि आख़िर गांधी कैसे लोगों के दिल तक पहुँचते थे, कैसे उनके पास  लड़ते-भिड़ते नेताओं को वे  शांत कर काम के लिए प्रेरित करते थे, कैसे स्वयं पर इतना नियंत्रन करते थे। लोगों ने तय किया कि हमें किसी ख़ास  जगह पर बैठ कर चिंतन करना चाहिए कि हम क्या करें। वह ख़ास जगह चुनी गई बुद्ध की ज्ञान भूमि बोधगया। सोचा गया कि शायद गांधी ओर बुद्ध की थोड़ी सी आभा हम भी समेट लेंगें। यह बात तो समझ में आयी कि इस अविश्वास, हिंसा और धोखा की राजनीति का जवाब हमें प्रेम, लोक कल्याण, जनसेवा की राजनीति से  देना होगा। गांधी की बात याद आयी  कि संघर्ष जितना अंदर है उतना ही बाहर है। गांधी बुद्ध के अष्टांग मार्ग की बात करते थे, आज की राजनीति उन आठों मार्गों को छोड़ कर कुपथ पर चलने का ही पर्याय है। सोचने की बात है कि गांधी ने कैसे इस कुपथ से रथ को सुपथ पर लाया होगा जो फिर रथ उन्हें वहीं छोड़ कर राजपथ पर निकल पड़ा; कैसे गांधी ने अपना आत्मबल इतना  संकलित किया होगा कि इन सब चीज़ों को देखते रह गए होंगे और फिर नया रास्ता खोजने में लग गए। बोध गया के एक गांधी आश्रम में लोगों से मिलने का मौक़ा भी मिला। इसे विनोबा जी ने बनवाया था। यहाँ नब्बे वर्ष से ऊपर के द्वारको जी से मुलाक़ात  हुई। आज के युग में इस आश्रम का कितना महत्व है कहना मुश्किल है। छोटा जीर्ण शीर्ण मकान और उसमें मुसहर बच्चों  के लिए किसी तरह से चलता एक विद्यालय। इसका भूत भले  ही बहुत वैभवशाली था, इसका वर्तमान तो यही था और भविष्य की कोई उम्मीद है ऐसा कहना कठिन है। लेकिन फिर भी वहाँ जाने पर मन गांधी के उस जादुई प्रभाव पर चला गया जिससे एक  बुज़ुर्ग व्यक्ति अपने जीवन को बांधे जी रहे थे। कितना कठिन होगा ऐसा जीवन जीना जिसका इतना प्रभाव अभी तक बचा है। 

इस कठिनाई का अनुभव मुझे तब और होने लगा जब पिछले बिहार विधान सभा  चुनाव के दौरान हमलोगों ने यह  तय किया  कि चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेकर सीखने का मौक़ा लिया जाए।  चुनाव के दौरान दो  क्षेत्रों में कुछ गहन अध्ययन करने का मौक़ा मिला। एक था जमुई ज़िले का चकाई और दूसरा था मज्जफफरपुर ज़िले का बोचहा।चकाई में लगभग एक सप्ताह एक गांधी आश्रम में रहने का मौक़ा मिला। सर्वोदयी कार्यकर्ताओं से मिलने का भी मौक़ा मिला।देखकर दुःख हुआ कि इस जनतंत्र में गांधी के सिपाही कितने कमज़ोर हो गए हैं।उनके सिद्धांतों की रक्षा करने में कार्यरत ये आश्रम नवउदारवादी अर्थनीति के दौर में कितने बेकार से दिखने लगे हैं।यहाँ भी आश्रम जीर्ण शीर्ण अवस्था में था।लेकिन रहने में मज़ा आया।लगता था महानगरी  उपभोक्तावादी परिवेश की तुलना में  यहाँ हवा ज़्यादा शुद्ध  हो और हरियाली मन को मोहती हो।चुनाव के दौरान गावों में घूमने लगा तो समझ पाया कि ग़रीबों की आँखें अब भी गांधी को तलाश रहीं हैं। आश्रम भले ही जीर्ण शीर्ण हो गए हैं लोगों की उम्मीदें अभी बांकी हैं।मन बेहद विचलित हो रहा था कि हम मध्यमवर्गीयों में गांधी बन पाने की हिम्मत किसी में क्यों नहीं है।लोगों के विस्फ़ारित नयन हमारे चेहरों को भी पहचानने का प्रयास कर रहे थे।मुझे तो ख़ुद ही शर्म आ रही थी कि कहीं उन्हें गलतफ़हमी न हो जाए। गांधी का बाह्य संघर्ष को तो लोगों ने पढ़ा और देखा होगा, लेकिन उसके अंदर का संघर्ष उससे कहीं ज़्यादा रहा होगा, जिसे समझना अभी बाकी है।                        
इसी चुनाव के दौरान बोचहा क्षेत्र में एक नया अनुभव हुआ।गांधी के संघर्ष से निकले जनतंत्र की बदहाली को देखकर रोना आ रहा था। लोगों का विश्वास इस प्रक्रिया पर ख़त्म होता दिखा।तभी एक चमत्कार सा हुआ और मुझे लगा कि गांधी अभी ज़िंदा हैं उनके दिमाग़ों में। एक महिला जिसकी न जाति ही बहुसंख्यक थी और न ही बहुत धनी थी, फिर भी उनके लिए जन समर्थन देखकर आश्चर्य हुआ। लोगों ने जाति, धर्म, वर्ग, उम्र सबसे परे जाकर उन्हें समर्थन दिया। और मज़े की बात थी कि वह एक स्वतंत्र उम्मीदवार भी थीं। कारण क्या था? कारण था उनके साथ हुआ धोखा। पहले भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें टिकट देने की उम्मीद दिलाई, लेकिन वह सीट रामविलास जी की पार्टी लोजपा  को मिला।उनकी पार्टी ने उन्हें टिकट दे दिया था।लेकिन आख़िरी दिन वापस ले लिया। इस घटना ने लोगों को उनकी ओर मोड़ दिया।यह जो नैतिकता का ज़ोर है, शायद इसी के बल पर गांधीं ने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी होगी। मुझे तो लगता था कि बदले संदर्भ में शायद इसके बारे में बात करना बेकार है।लेकिन इस घटना ने मेरे अंदर  गांधी के विचारों के प्रति एक उम्मीद जगा दी है।लंदन स्कूल ओफ़ इकॉनोमिक्स के एक सेमिनार में  मैंने बोचहा की इस घटना पर एक लेख पढ़ा और विद्वतजनों से आग्रह किया कि आप बताएँ कि इसका क्या मतलब है।शायद उन्हें गांधी की किरण इसमें दिखी नहीं और वे उपागम की उपयोगिता ढूँढते रहे।मुझे तो इसमें गांधी ही दिखते रहे।

आगे गांधी के विचारों के साथ कुछ प्रयोग करना चाहता हूँ।इस दो अक्तूबर को मैंने सोचा था इसका प्रारम्भ करूँगा।संयोग से बेगूसराय (बिहार) के एक गाँव से इस अवसर पर आने का आमंत्रण मिल गया है।नई खोज यह करनी है कि क्या बिहार की राजनीति में गांधीवादी प्रयोग की कोई सम्भावना हो सकती है।बिहार को दयनीय हालत से निकालने के लिए क्या किसी गांधी की ज़रूरत फिर से है? क्या सम्भव है कि चंपारण से फिर एक प्रयोग शुरू हो जो जनतंत्र के इस विद्रूप चेहरे  से लोगों को निजात दे पाए
 लेखक जेएनयू में प्राध्यापक और क्रिएटिव थ्योरी आन्दोलन के सदस्य हैं.
+919968406430 manindrat@gmail.com पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.