04 October 2016


        धर्म के साथ या धर्म के खिलाफ ...

                                  नासिरूद्दीन



ज‍ब हम धर्म और कट्टरता की बात करते हैं तो कई सवाल दिमाग में कौंधते हैं। पहला, क्‍या धर्म और कट्टरता में कोई रिश्‍ता है?दूसरा, क्‍या कट्टरता के लिए धर्म जिम्‍मेदार है? तीसरा, क्‍या कट्टरता और धर्म दो धुरि हैं? चौथा, क्‍या मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक ताना-बाना धर्म और कट्टरता दोनों का पोषक है?क्‍या पूंजीवाद, धर्म और कट्टरता तीनों ही एक जैसी परेशानी का सबब हैं?क्‍या सामाजिक गैरबराबरी दूर करने के लिए इन तीनों को खत्‍म करना जरूरी है? इस तरह के अनेक सवाल हैं।
यहां इतने सारे सवालों पर एक साथ चर्चा करना न तो मुमकिन है और न ही व्‍यक्तिगत रूप से यह मेरे बस की बात है। मैं अपने को धर्म से जुड़े कुछ पहलुओं तक ही अपने को सीमित रखना चाहूंगा।
सामाजिक व्‍यवस्‍था के रूप में धर्म काफी प्राचीन है। उसकी तुलना में पूंजीवाद हाल का विचार और व्‍यवस्‍था है। इसलिए धर्म के बारे में यह देखना दिलचस्‍प होगा कि उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं-
भारत में धार्मिक लोगों की तादाद
विश्‍वास/मत/धर्म
कुल संख्‍या
फीसदी
हिन्‍दू
96,62,57,353
79.8
मुसलमान
17,22,45,158
14.2
ईसाई
2,78,19,588
02.3
सिख
20833116
01.7
बौद्ध
8442972
00.7
जैन
4451753
00.4
अन्‍य
7937734
00.7
जिन्‍होंने धर्म नहीं बताया
2867303
00.2
कुल आबादी
1210854977
100.0


स्रोत:जनगणना 2011

इन आंकड़ों पर जरा गौर करते हैं। ये भारत की जनगणना के ताजा धार्मिक आंकड़े हैं। इससे एक बात बिल्‍कुल साफ है- भारत की 99.8 फीसदी आबादी किसी न किसी धर्मको मानती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि भारत धार्मिक देश है... लेकिन कोई एक धर्म ही यहां नहीं है। लगभग 20 फीसदी आबादी ऐसी है, जो कई धर्मों के मानने वालों से मिलकर बनी है।
यानी धर्म हमारे समाज की जमीनी सचाई है। इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। विचार के रूप में यह काफी मजबूत है। लेकिन इसका कोई एक रूप ही नहीं हैबल्कि एक ही धर्म के कई रूप हैं। 
धर्मों के बारे में बात करते हुए, एक और बात ध्‍यान में रखनी जरूरी है। सभी धर्मों के बारे में एक जैसी राय कायम करना या एक ही विश्‍लेषण से सभी धर्मों को समझने की कोशिश, शायद गलत नतीजे निकालने पर मजबूर करेगी। भारत के संदर्भ में देखें तो यहां हिन्‍दुओं की बड़ी तादाद है। लेकिन जो अपने आप को हिन्‍दू मानते हैं, वे सब किसी एक किताब को पवित्र या किसी एक भगवान को ही नहीं मानते। इसके उलट मुसलमान, ईसाई और पारसी हैं। बौद्ध और जैन हैं। इसलिए
हिन्‍दू धर्म के बारे में विचार करने का जो तरीका अख्तियार किया जाएगा, वही तरीका बाकि धर्मों के बारे में नहीं हो सकता है। ठीक इसी तरह अकादमिक दायरे में धर्म को समझने का काम यूरोप में काफी हुआ। उनके विश्‍लेषण का मुख्‍य आधार ईसाई धर्म रहा। यही नहीं, उस विश्‍लेषण की पृष्‍ठभूमि भीपूंजीवाद के उभरते हुए दौर की है। उनसे धर्म को समझने का सिरा तो मिल सकता है लेकिन उनके विचारों को हू ब हू भारत जैसे मुल्‍क में उतारने की कोशिश नाकाफी होगी। ऐसे में यह चुनौती है कि भारत में धर्म को कैसे समझा जाए? धार्मिक लोगों से कैसे रिश्‍ता बनाया जाए?
शायद हम यहां धर्म पर बात इसलिए भी कर रहे हैं कि हम सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में इसकी भूमिका देखना चाहते हैं। जहांतकमजहबप्रैक्टिसकरनेकासवालहै, यह एक निहायत ही निजी मामला है और होना चाहिए।कोई शख्स व्यक्तिगत रूप में लामजहब या नास्तिक हो सकता है।यह उसका हक है।उसके ऐसे व्यवहार से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
हालांकि फर्क तब पड़ता है, जब हम सामाजिक परिवर्तन की जद्दोजहद में शामिल होते हैं। उस वक्त मजहब को किस रूप में देखते हैं या उससे किस तरह का रिश्‍ता बनाते हैं।धार्मिक लोगों से कैसा रिश्ता बनाते हैं।यानी सार्वजनिक तौर पर मजहब के साथ क्या रिश्ता होगा।
अब सवाल है, भारत में धर्मों और इनके मानने वाले 1 अरब 20 करोड़ 79 लाख 87 हजार 674 लोगों से कैसे संवाद किया जाए। (इनमें धर्म न बताने वाले 28,67,303 लोग शामिल नहीं हैं।)
आमतौर पर धर्म के बारे में बात करते हुए कार्ल मार्क्‍स की एक लाइन बहुत ज्‍यादा याद दिलाई जाती है- मजहबआमजनताकीअफीमहै!इसलिए धर्म के बारे में जो समझ बनी वह इसी शब्‍द के इर्द-गिर्द बनी। धार्मिक लोगों के बारे में एक ऐसी समझ विकसित हुई जिनसे संवाद मुश्किल है। लेकिन मार्क्‍स ने अफीमके आगे-पीछे भी बहुत कुछ कहा है। वह इस वाक्‍य के ठीक पहले लिखते हैं, ‘...धर्म उत्‍पीडि़त प्राणि की आह है। एक हृदयहीन दुनिया का वह हृदय है। उसी तरह जिस तरह कि किसी आत्‍मा विहीन स्थिति की वह आत्‍मा है। वह जनता की अफीम है।
अगर  मार्क्स को यह कहना होता कि मजहब को नकारे बिना उत्पीडि़त जनता का भला नहीं है।मजहब को उखाड़ फेंकना चाहिए तो शायद यह बात कहने में उन्हें किसी तरह की दिक्कत नहीं पेश आती।इसमें अफीम शब्द गौर करने लायक है। लगता है, यहां 'अफीम' मुहावरे के तौर पर इस्‍तेमाल किया गया है।अफीम क्या करता है, शांति देता है।सेवन करने वाले को दुनियावी माहौल से अलग कर देता है।लेकिन यह तो उत्‍पीडि़तों की आवाज है।यह प्रतिरोध का भी जरिया बनता है, बेदिल दुनिया का दिल है़।... बेरूह हालात की रूह है।यह भी मार्क्स खुले दिल से स्वीकार करते हैं।तोसिर्फआखिरीलाइन क्यों याद रखी जाती है? इसीलिए धर्म के  साथ हमारा रिश्ता क्या होगा, यह हमारे मजहब मानने या न मानने से तय नहीं होगा बल्कि उत्‍पीडि़त जनता की बड़ी तादाद जो धार्मिक हैं, उनके हिसाब से तय होगा। होना चाहिए।
अब इस बात का जमीनी इस्‍तेमाल देखना जरूरी है। फिदेल कास्‍त्रो के साथ फ्राई बेटो ने मजहब के मुद्दे पर लंबी बातचीत की है। बाद में यह बातचीत किताब की शक्‍ल में भी आई। इस बातचीत के दौरान एक सवाल के जवाब में फिदेल कहते हैं, ''मजहब के मकसद और जो मकसद समाजवाद के हैं, उनमें कोई विरोधाभास नहीं है।मेरा मानना है कि मजहब और समाजवाद एवं मजहब और क्रांति के बीच रणनीति का रिश्ता होना चाहिए।...मेरा यह मानना है कि किसी ईसाई का मार्क्सवादी होना और दुनिया को बदलने के लिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट के साथ मदद करना मुमकिन है।'' ये विचार हमारे दौर के महान जीवित क्रांतिकारी के हैं। फिदेल कहते हैं, 'हमारे संविधान में हर नागरिक के विश्वास के आदर की साफ तौर पर बात की गई है और इसकी गारंटी दी गयी है।यह सिर्फ राजनीतिकरण नीति नहीं है।राजनीतिक सिद्घांत के रूप में मजहबी विश्वास करने वालों का सम्मान करना सही है क्योंकि हम आज जिस दुनिया में रह रहे हैं, वहां कई विश्वासों पर यकीन करने वाले लोग रहते हैं।यही नहीं धार्मिक विश्वासों और क्रांति के बीच टकराव की बात अच्छी नहीं है।जब भी ऐसा होता है, प्रतिक्रियावादी और साम्राज्यवाद, धर्म का इस्तेमाल क्रांति के खिलाफ कर सकते हैं।हम क्यों उनके लिए यह आसान कर दें कि वे किसी मजदूर, किसान या गरीब शख्स के धार्मिक विश्वासों का क्रांति के खिलाफ इस्तेमाल करें? राजनीतिक रूप से ऐसा करना गलत हैं... मेरा यह मानना है कि हर नागरिक के धर्म मानने के हक का उसीतरह सम्मान किया जाना चाहिए जिसतरह उसके स्वास्थ्य, जिंदगी जीने और आजादी और अन्य अधिकारों का सम्मान किया जाता है।' फिदेल इस आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करने की भी बात करते हैं, कि कोई खास मजहब का मानने  वाला  है।यानी वे भी मजहब को खत्म करने की बात नहीं कर रहे।यह धर्म और धार्मिक लोगों के साथ संवाद बनाने की रणनीति है। 
तो हमारे आसपास धर्म के नाम पर जो हो रहा है, क्‍या उसे चलने दिया जाए? नहीं और कतई नहीं। यह कट्टरता है। कट्टरतायानी धर्म का राजनीतिक इस्‍तेमाल है। धर्म के नाम पर राजनीतिक वर्चस्‍व का विचार ही कट्टरता है। इसमें धर्म का कोई भी मूल्‍य शामिल नहीं है। संभवत: इसीलिए असगर अली इंजीनियर मानते थे धर्मान्धता या कट्टरता किसी मज़हब का खास गुण नहीं है।यह किसी शख्स की मनोवैज्ञानिक हालत का नतीजा है।हम मज़हब को कट्टर या धर्मान्धता की वजह कैसे कह सकते हैं जब कि हमारे पास पंडित सुंदरलाल और मौलाना अबुल कलाम आजाद का उदाहरण मौजूद है।दोनों धार्मिक थे लेकिन धर्मान्ध नहीं।

मेरे जहन में कुछ सवाल भी हैं
·       भारत में तर्क बुद्धि (रेशनल) और नास्तिकता काफी पुराना विचार है। फिर भी यह विचार क्‍यों नहीं फैला। या इसके बारे में आज भी लोग खुलकर बात करने से क्‍यों डरते हैं। 
·       धर्म और धार्मिक व्‍यवस्‍था शोषण का जरिया हैं। फिर ऐसा कैसे होता है कि शोषित इसे खुशी खुशी अपनाते हैं और जीते हैं।
·       हिन्‍दू धर्म की वर्ण व्‍यवस्‍था ने बड़े समूह को शताब्दियों से धर्म से खारिज कर रखा था और आज भी वे खारिज हैं। ये खारिज लोग, अपनी मुक्ति का रास्‍ता उसी धर्म में कैसे तलाशते हैं।
·       यह क्‍यों हुआ कि डॉक्‍टर भीमराव अम्‍बेडकर को हिन्‍दू धर्म छोड़ना पड़ा। वे जाति का विनाश क्‍यों नहीं कर पाए। और उन्‍हें भी एक धर्म छोड़कर दूसरा धर्म क्‍यों अपनाना पड़ा।
·       क्‍या धर्म के समूल नष्‍ट हुए बिना बराबरी वाला समाज मुमकिन नहीं है।
·       क्या मजहब को नकारकर, उसकी निंदाकर, उसको खत्म करने की घोषणा कर या अल्लाह या ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देकर व्यापक सामाजिक बदलाव की बात की जा सकती है। अगर हां, तो इसके तरीके क्‍या होंगे।
इन सवालों को बचकाना कह कर टाला जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि इनके जवाब सवाल में ही निहित हैं। लेकिन कई बार बचकाने सवालों का साफ-साफ जवाब मिलना जरूरी होता ताकि तर्कबुद्धि मजबूत हो।
इसलिए इंगेजमेंट का मतलब समर्पण नहीं है।सवाल बड़े समुदाय के साथ संवाद कायम करने का है।एक ओर, जहां इस देश में वर्ग संघर्ष का न सिर्फ अभाव है बल्कि जो हिरावल दस्ता है, वह खुद उहापोह के दौर में है।इसलिए मेरी समझ में व्यापक सामाजिक बदलाव के लिए संवाद जरूरी है तब ही मजहब के नाम पर चल रहे गैरबराबरी के उसूलों को भी चुनौती दी जा सकती है।


 लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सामाजिक तथा स्त्री मुद्दों पर नियमित लिखते हैं.
nasiruddinhk@gmail.com  +919711191103 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.





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