27 February 2016

विश्वविद्यालय की स्वायत्तता लोकतन्त्र के लिए जरूरी

                                            
मंडी हॉउस से जंतर मंतर तक के विशाल जुलुस में जान से भी प्यारा जे० एन० यके नारे ने मुझे अचम्भित कर दिया अपसंस्कृति के इस दौर में  छात्र यदि विश्वविद्यालय को इतना प्यार करते हों तो लोगों को इस मानसिकता को समझने का प्रयास करना चाहिए. पिछले कुछ दिनों से  भारतीय राजनीति में जो  कुछ हो रहा है वह लोकतंत्र के हित में नहीं है. सरकार ने और उससे भी ज्यादा सतारुढ़ पार्टी ने अपने आप को एक विश्विद्यालय के खिलाफ खड़ा कर दिया है. ऐसा विश्व इतिहास में शायद पहलीबार हुआ होगा. सरकार के इस रवैय्ये का तात्कालिक कारण तो यह कहा जा रहा है कि विश्वविद्यालय प्रांगण में कुछ छात्रों ने एक ऐसे व्यक्ति को शहीद बताकर उसके पक्ष में  नारे लागए जिसे राष्ट्र द्रोह का अपराधी मान कर फांसी दिया जा चुका है. उनका मानना है कि इस नारेबाजी से हमारी राष्ट्रीय भावना आहत हुई है. और इसलिए इस घटना के मद्दे नजर उन छात्रों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाया जाना जरुरी है. इस परिदृश्य में कई सवाल ऐसे हैं जिस पर बहस जरुरी है.

मेरे विचार से प्रश्न एक या दो ऐसी घटना का नहीं है. सवाल है विचारधारात्मक प्रतिरोध का. यह बात जग जाहिर है कि संघ और भाजपा की नजर में  भारत के प्रमुख शैक्षणिक संस्थाओं पर वामपंथी विचारधारा का कब्जा है. भाजपा के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए संस्थाओं में वामपंथियों का वैचारिक कब्जा होना बाधक है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय उन संस्थाओं में सबसे ज्यादा लब्धप्रतिष्ठ ही नहीं बल्कि  मुखर भी है. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अपने पांचजन्य लेख के माध्यम से इस सन्दर्भ में हिन्दुत्ववादी विचारों को स्पष्ट कर दिया है. इसलिए ऐसा सोचना गलत नहीं होगा कि सरकार केवल मौके की तलाश में थी कि अपने विचारों को कार्य रूप दिया जा सके. और जिस तरह से तथ्यों का खुलासा हो रहा है उससे तो यह स्पष्ट है कि एक साजिश के तहत तोड़-मरोड़ कर एक ऐसा वीडियो तैयार किया गया  ताकि पुलिसिया कार्रवाई का एक झूठा आधार बनाया जा सके और जेएनयू  के अलावा अन्य विश्वविद्यालयों को भी  यह सन्देश दिया जा सके कि उनके अच्छे दिनआनेवाले हैं. इसलिए जो लोग यह समझ रहे हैं कि कोई एक घटना हो गयी और ऐसा करना राष्ट्रहित में नहीं है इसलिए विश्वविद्यालय के छात्रों को माफी मांगनी चाहिए, उन्हें इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए कि यदि यह घटना ही महत्त्वपूर्ण होती   मिडिया में विश्वविद्यालय  पर बहस नहीं हो कर कुछ और ही होता. इसलिए महत्वपूर्ण सवाल दो हैं. एक आदर्श विश्वद्यालय कैसा होना चाहिए और दूसरा कि सत्ताधारी पार्टी की  विचारधाराओं का विश्वविद्यालय के क्रियाकलापों में क्या असर होना चाहिए. 

लेकिन इन दोनों मुद्दों पर बातचीत के पहले उस सवाल को सीधे लेना सही रहेगा जिसके चलते पूरे भारत में आम आदमी इस विश्वविद्यालय को शक की नजर से देखने लगा है. यह सच है कि भारत को स्वतंत्रता के लिए लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी है और इस लड़ाई में राष्ट्रवाद हमारा एक महत्वपूर्ण आधार था. और आज भी पूरी दुनिया राष्ट्र राज्यों में बटी है और लोग चाहे कितना भी मानवतावाद और अन्तराष्ट्रीयता की बात कर लें आखिरकार राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है. इसलिए भारत के किसी विश्वविद्यालय में या कहीं और भी राष्ट्रविरोधी नारा लगने से मन सशंकित हो जाता है कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है. और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय  का यह दायित्व है कि आम लोगों को वह  यह विश्वास दिलाए कि इस विश्वविद्यालय  का शोध या इसकी गतिविधियां देश विरोधी या संविधान विरोधी नहीं है. पिछले कई दशकों में इस विश्वविद्यालय ने कई  हजारों छात्रों को नया जीवन दिया है और जिन्होंने भारतीय समाज को बहुत कुछ दिया है. अचानक ऐसा कोई कारण नजर नहीं आ रहा है जिससे यह मान लिया जाये कि उनका सामूहिक या व्यक्तिगत स्वार्थ भारत को तोड़ने में हो जाये. वैचारिक रूप से जिन वामपन्थी दलों के विचारों का यहाँ वर्चस्व माना जाता है वे सब के सब लिखित रूप से भारतीय संविधान के प्रति अपनी आस्था व्यक्त कर चुके हैं.

वास्तविकता यह है कि उनके लिए राष्ट्रवाद के मायने अलग हैं. इसके लिए यह समझना जरूरी है कि भारत का राष्ट्रवाद स्वाधीनता आन्दोलन से उपजा राष्ट्रवाद है जिसमें मानवीय मूल्यों की लड़ाई लड़ी गयी थी. भारतीय चिन्तक उपनिवेशवाद के खिलाफ अपनी निजी लड़ाई जरूर लड़ रहे थे लेकिन साथ में स्वाधीनता और  मानवता के विचारों के इतिहास के लिए भी ज्ञान सृजन कर रहे थे. यह राष्ट्रवाद विवेकानंद, गाँधी और अम्बेडकर जैसे चिन्तकों का मानवमुक्ति का राष्ट्रवाद था न कि हिटलर जैसे लोगों का अतिउग्रवादी राष्ट्रवाद था. इस राष्ट्रवाद में  हर उस आदमी के लिए संवाद की सम्भावना थी जिसे यह लगता कि उसे स्वराजनहीं है. देश के और दुनिया के जिस भी हिस्से में किसी भी प्रकार का शोषण हो, यह राष्ट्रवाद उसके खिलाफ होगा. क्योंकि हम अपनी स्वतन्त्रता की बात ही नहीं कर सकते हैं यदि हमारी स्वतन्त्रता अन्य लोगों की स्वतन्त्रता  में बाधक हो. स्वतन्त्रता पर किसी भी विमर्श की यह आवश्यक शर्त है कि एक व्यक्ति या समाज की स्वतन्त्रता हर किसी की स्वतन्त्रता को निश्चित करे. इसलिए यदि भारत या दुनिया के किसी भी कोने में परतन्त्रता बची है तो भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम अभी अधूरा है. उसकी यात्रा अभी ख़त्म नहीं हुई है.

ऐसे में यदि उनलोगों के लिए जिन्हें वर्तमान व्यवस्था से असन्तोष है कौन सी जगह है जहाँ वे अपने दर्द का इजहार  कर सकें. चाहे वे दो जून रोटी के लिए संघर्ष करता हुआ गरीब मजदूर हो, आत्महत्या करनेवाला किसान हो, पितृसत्ता का मार झेलनेवाली महिला हो, अपनी अस्मिता पर आघात और जल, जंगल, जमीन की लूट से परेशान आदीवासी हो, कश्मीर से भागे पंडित हों, आतंकवाद और भारतीय सेना की मार झेलनेवाले कश्मीरी मुस्लिम हों या इस आधुनिक भारत में भी जातिप्रथा से प्रताड़ित दलित हों; उनके पास किस भाषा, किस माध्यम और किस जगह पर आपनी बात कहने की छूट है. यदि उनके दुःख को कोई समाज ख़त्म नहीं कर पायेगा तो हजार फीट ऊँचा झंडा लगाने से भी राष्ट्रनिर्माण या राष्ट्रीय भावना का विकास नहीं होगा. राष्ट्र कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है, वह तो भावना है जो लगाव से उत्पन्न होता है. यदि किसी विश्वविद्यालय  का छात्र उसे जान से ज्यादा प्रिय मानता है तो क्यों मानता है. क्योंकि उसे उससे लगाव है. लगाव क्यों है? क्योंकि उस विश्वविद्यालय  ने उसे स्वतन्त्र  होने का एहसास करवाया है; निर्भय होने का एहसास करवाया है; उसके महत्वपूर्ण होने का एहसास करवाया है; उसे मनुष्य होने का एहसास करवाया है. उसकी  पारिवारिक स्थिति से इतर उसकी    अपनी  प्रतिभा को तरासने का मौक़ा दिया है. इसलिय सच तो यह है राष्ट्र निर्माण का जो काम राज्य को करना चाहिए, उसे विश्वविद्यालय कर रहे हैं. और शायद इसलिए विश्वविद्यालय को स्वतंत्र भारत में महत्वपूर्ण स्थान भी मिला और सरकारी सहायता भी. देश भर के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग जाति, धर्म और भाषा के लोगों को भारत के राष्ट्र होने का एहसास  ही विश्वविद्यालयों के माध्यम से हुआ है. इसलिए एक आदर्श विश्वविद्यालय वह है जहाँ ज्ञान सृजन हो, जहाँ जनहित की बात की जाये और जहाँ विमर्श की स्वतंत्रता हो. इन मापदण्डों पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय बिलकुल खरा उतरता है. इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि इस घटना के बाद दुनिया के पांच सौ से ज्यादा विश्वविद्यालयों ने इसका समर्थन किया है.

अब सवाल है कि सरकारों के बदलने और उनके अलग-अलग विचारधाराओं का विश्वविद्यालयों पर क्या प्रभाव होना चाहिए. यह सम्भव है कि किसी खास राजनैतिक दल की  विचारधारा का किसी खास विश्वविद्यालय से तालमेल हो. क्या ऐसे में राजनैतिक दलों को उन्हें बदलने का प्रयास करना चाहिए. विभिन्न विचारधाराओं के बीच बौद्धिक और रचनात्मक मुठभेड़  विश्वविद्यालयों के अध्ययन-अध्यापन का हिस्सा तो होना चाहिए लेकिन सरकारों को उसमें दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए. विश्वविद्यालयों में विचारधाराओं के तर्कपूर्ण आपसी सघर्ष से नए विचारों का भी जन्म हो सकता है. राजनैतिक दलों को उस संघर्ष में हिस्सेदारी तो  करनी चाहिए, लेकिन इस संघर्ष का  राजनैतिक उपयोग करना उचित नहीं है. वैचारिक संघर्ष में राजनैतिक हिस्सेदारी जनहित और राष्ट्रहित के विरुद्ध होगा. राष्ट्र निर्माण के लिए इस तरह के विमर्शों की जगह बनाये जाने की जरुरत है न कि बने जगहों को ख़त्म करने की.

जो लोग भारत की परम्परा की बात करते हैं उन्हें इस बात पर शोध करना चाहिए कि भारतीय परम्परा में शिक्षा के केन्दों और उसके शिक्षकों का राजा से क्या सम्बन्ध होता था. परंपरा को जानने वाले लोगों का मानना है कि लगभग सभी गुरुकुल राजाश्रय के सहारे चलते थे, लेकिन कभी भी राजा उन गुरुकुलों में बिना कुलपति के अनुमति के प्रवेश नहीं करते थे. चाणक्य के प्रसंशकों को यह भी जानना चाहिए कि मगध साम्राज्य के पतन के पीछे राजा का बुद्धिजीवी के साथ दुर्व्यवहार ही था. किसी भी देश में बौद्धिक जगत की स्वतंत्रता राष्ट्र के विकास लिए आवश्यक है. दरअसल में आधुनिक भारत के परम्परावादी सरकार के मंत्रियों को कुलपति की गरिमा का ध्यान नहीं रहता है. एक समाचार के अनुसार केन्द्रीय वि०वि० के उपकुलपतियों को प्रबन्धन का कोई कोर्स करने का आदेश दिया गया है. कोई मंत्री जब उपकुलपतियों को आदेश करे तो उसे राष्ट्र पर संकट समझना चाहिए. क्योंकि उससे विश्वविद्यालय की अस्मिता पर खतरे की आशंका होती है.

जे० एन० यु० के छात्रों में बहस की पुरानी परम्परा है. यहाँ देश के उन हिस्सों से भी छात्र  आते हैं जहाँ के लोग भारतीय राष्ट्रवाद से अभी तक आश्वस्त नहीं हैं. उनके तर्कों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं. यही सहमति-असहमति संवाद के लिए जरूरी है. इस विश्वविद्यालय की यही ट्रेनिंग महत्वपूर्ण है. इन बहसों से कभी आतंकवाद नहीं पनप सकता है बल्कि लोगों में संवाद पर आस्था बनती है. इसी संवाद का परिणाम है कि इस विश्वविद्यालय में छात्र महिलाओं, दलितों और मजदूरों के अधिकारों को लेकर सजग रहते हैं.

बहुत से लोग यह तर्क देते हैं कि टैक्सदाताओं के धन पर ये छात्र पलते हैं और फिर भी राष्ट्र के खिलाफ बोलते हैं.. आश्चर्य तब होता है जब सरकार का एक मंत्री भी यही बात दुहराता है. शायद निजी विश्वविद्यालयों के छात्रों को वे इसकी छुट देना चाहते हैं. और जिस धन पर वे टैक्स देते हैं उसका श्रोत भगवान् है. सच तो यह है कि इस प्राकृतिक भूभाग के प्राकृतिक सम्पदा पर यहाँ रहनेवाले हर मनुष्य का अधिकार है. राज्य कुछ लोगों को उसके विकास का अधिकार देती है ताकि बांकी लोगों के लिए यथेष्ट उपलब्ध हो सके. इसलिए जिनलोगों ने धन इकठ्ठा किया है उनके बारे में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि सामूहिक संपत्ति का यह व्यक्तिगत दोहन है. अब उसमें से एक छोटा हिस्सा सामूहिक कोष में वे वापस करते हैं उसमें भी बंकि लोगों के ऊपर एहसान जताना चाहते हैं. राज्य का यह दायित्व है कि उस धन का उपयोग नागरिकों के हित में करे. इसलिए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर खर्च कर सरकार के मंत्रियों को नागरिकों पर एहसान जताने की जरुरत नहीं है. बल्कि यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. यदि इन क्षेत्रों में प्राइवेट पूंजी को प्रवेश देकर उन्हें आर्थिक दोहन के लिए खोला जा रहा है तो यह राष्ट्रद्रोह माना जाना चाहिए क्योंकि इससे राष्ट्र पर जनता की आस्था कम होगी और रष्ट्रीय भावना कमजोर होगी. यदि सरकार चाहती है कि लोग राष्ट्र को जान से ज्यादा प्यारा माने तो झंडा की ऊंचाई बढ़ाने के बदले जनता को जीवन जीने की उचित सुविधा, स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा का एहसास करवाया जाये. यही नहीं बल्कि सरकार इस सुविधाओं की मांग को भी राष्ट्रद्रोह कह देती है. अब विडियो से यह जाहिर है कि छात्र नेता क्यां मांग रहे थे; उन्हें आजादी चाहिए गरीबी से, बेरोजगारी से और हर तरह के शोषण से. लेकिन मंत्री महोदया को ये बातें समझ में नहीं आती है क्योंकि उनके उनकी  सोच में विचारों का विरोध पार्टी का विरोध है, पार्टी का विरोध सरकार का विरोध है, सरकार का विरोध राज्य का  विरोध है और राज्य का विरोध राष्ट्र का विरोध है. इन सबको अलग से देखने की उन्हें आदत नहीं है.

इस घटना को सामान्य राष्ट्र विरोध की घटना समझना गलत होगा. इसे दक्षिणपन्थी राजनीति का हिस्सा समझना  ज्यादा सही होगा. नयी आर्थिक नीति के तहत सरकार उच्च शिक्षा को बाजार का हिस्सा बनाना चाहती है. शोध के लिए सरकार विश्वविद्यालयों पर निर्भर नहीं रहना चाहती है क्योंकि वहां सरकार की नीयत को समझने की क्षमता होती है और विरोध की संभावना भी रहती है.  सरकार समझने लगी  है कि जनहित का शोध अब अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां ही कर सकती हैं. भारतीय जनता तो केवल वेद और पुराण में विज्ञान खोजने के लिए ही सक्षम हैं. इस विचार के अपने खतरे हैं. एक तरफ यह भी कहना गलत होगा कि दुनिया में सारा ज्ञान केवल पश्चिमी जगत में है और अन्य हिस्सों में ज्ञान-विज्ञान नहीं था. लेकिन यह कहना और भी गलत होगा कि ज्ञान का राष्ट्रवाद से सम्बन्ध है. ज्ञान की पुष्टी तो ज्ञान की कसौटी पर ही होनी चाहिए न कि राष्ट्रवाद की कसौटी पर. यदि सरकार भारतीय ज्ञान परम्परा  के प्रति आस्था रखती है हो उसे सत्य की कसौटी पर कसने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.  विश्वविद्यालयों के वैचारिक पक्ष पर हमला करने से तो इसमें कोई फायदा नहीं हो सकता है.   
  
यदि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय को आर्थिक सहायता में कटौती की गयी तो यह बेहद आपत्तिजनक होगा. जिस संस्था और उसकी संस्कृति को बनाने में कई दसक लगे हैं और उसे नष्ट करना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी. यदि सत्तरूढ़ पार्टी अपनी  विचारधारा के सही होने पर इतना आश्वस्त है तो फिर इसे वैचारिक संघर्ष का युद्धक्षेत्र बनाने का प्रयास करना चाहिए. और इस संघर्ष में विश्वविद्यालय की मर्यादा को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए. इस मंथन में संभव है कोई नयी बात भी निकल आये जो आनेवाले समय के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हो. यह समय इस विश्वविद्यालय  के विद्वत मंडली के लिए भी चुनौती का समय है और जनता के मन में जिस तरह की  शंकाएं पैदा की गयी हैं उससे उबरने केलिए इसे नए प्रयास भी करने होंगे. यह घटना इस बात का भी उदाहरण है कि आधुनिक राज्य के पास जनमत को प्रभावित कर कृतिम आम सहमति  बनाने के लिए एक और तंत्र है. जाहिर है मैं मीडिया की बात कर रहा हूँ. अब इस अंधराष्ट्रवाद के विरोधी ताकतों के लिए इस तरह के प्रोपेगेंडा से लड़ने का तरीका भी ढूंढना होगा. विश्वविद्यालय  की गरिमा पर जो चोट इस घटना से हुई है उससे निकलने के लिए नए सिरे से सोचने की जरुरत होगी.  
                                                                                                                                                      

मणीन्द्र नाथ ठाकुर
लेखक प्रसिद्ध समाजशास्त्री
और जेएनयू में प्राध्यापक हैं।
Mob- +91 99684 06430

सबलोग, मार्च 2016

मुनादी

धूल चेहरे पर हो तो आईना चमकाने से क्या होगा?




समाज में हो रहे परिवर्तनों का सांस्कृतिक नियोजन और समुचित विकास के लिए एक उपयुक्त ढांचे की तलाश आदि काल से ही मनुष्य की प्रमुख समस्या रही है. यह सच है कि परिवर्तन और विकास की नीतियों को निर्धारित करने में शासक वर्ग ने ही अपना प्रभुत्व कायम रखा है, चाहे शासन व्यवस्था जिस तरह की भी रही हो. अठ्ठारहवीं शताब्दी में जब दुनिया के कई देशों में क्रान्ति और आजादी की लहर चल रही थी और बदलती हुई शासन व्यवस्था का लोकतंत्रीकरण हो रहा था तो विकास के स्वरूप पर भी विमर्श गहराने लगा और अलग अलग देशों ने अपनी अपनी जरुरत और क्षमता के अनुसार विकास के आकार और प्रकार को ग्रहण किया. 

आम तौर पर विकास का आशय आर्थिक प्रगति और आधरभूत संरचना के विकास से है. बहुत दिनों से  विकास का तात्पर्य केवल एक मंद अर्थव्यवस्था में पाँच से सात प्रतिशत की दर से सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वार्षिक बढ़ोतरी लाना और उसे कायम रखना रहा है. नयी विश्व अर्थव्यवस्था ने ज्यों ज्यों दुनिया को अपने नियन्त्रण में लेना शुरू किया, ‘विकास’ का अर्थ ‘आधुनिकता’ के करीब जाने लगा.आज तो आलम यह है कि विकास आधुनिकता का पर्याय बन गया है.सच्चे अर्थों में कहें तो आज के विकास ने अर्थशास्त्र से अपना जीवन पाया है. इस जीवन में यदि समता, संस्कृति, मानवीय मूल्य और पारिस्थितकीय सन्तुलन को जगह मिली होती तो आज देश पर्यावरणीय संकट, बेरोजगारी और गैरबराबरी के गड्ढे में गड़ा नहीं होता. क्या हम विकास के दायरे को इतना बड़ा नहीं कर सकते कि उसमें संस्कृति, पर्यावरण और मानवीय मूल्यों का भी विकास समाहित हो सके? हर प्रखंड में एक प्रखंड विकास अधिकारी होता है जिन्हें प्रचलित भाषा में बीडीओ कहते हैं. कोई शोधार्थी इस अधिकारी के क्रिया कलापों पर शोध कर ले तो बहुत ही चौंकाने वाले तथ्य सामने आयेंगे. वहाँ अधिकतर काम ऐसे होते हैं जिनमें जनता के पैसों का कर्मचारियों,अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों के बीच आसानी से बन्दरबांट हो सके. यह सिर्फ एक प्रखण्ड का समाचार नहीं है, लगभग सात हजार प्रखंडों का यह देश इसी दलदल में डूबा हुआ है.
दरअसल भूमंडलीकरण के दौर में नयी आर्थिक नीति के लागू होने के बाद भारत वही नहीं रहा जो पहले था. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक द्वारा निर्धारित नीतियों के प्रभाव में देश की नीतियाँ बनने लगीं. कई परियोजनाओं के लिए आसानी से उपलब्ध अकूत धन के कारण लालच बढ़ने और ईमान के डगमगाने की सम्भावना बढ़ गयी. एक तरह से ऐसी विशाल परियोजनाएँ भ्रष्टाचार का प्रवेश द्वार बन गयीं. जाहिर है आम आदमी के हितों की उपेक्षा होने लगी. इसी उपेक्षा के कारण जनपक्षीय सरोकारों की जरुरत महसूस हुई और वैकल्पिक अवधारणा ने आकार लेना प्रारम्भ कर दिया. यह वही दौर था जब वैकल्पिक अर्थनीति, वैकल्पिक खेती, वैकल्पिक मीडिया जैसे शब्द युग्म लोकप्रिय होने लगे. इतना ही नहीं विकास की सरकारी परिभाषा को चुनौती मिलने लगी और सरकार की नीतियों पर सवाल भी उठने लगे.

देश के सभी गांवों तक सड़क पहुंचाना ज्यादा जरूरी है या चार लेन वाले महंगे हाइवे बनाना? यह जानते हुए भी कि हाइवे सिर्फ सड़क नहीं एक संस्कृति भी है और इसका लाभ देश के आम आदमी से ज्यादा उन भू माफियाओं को होगा जो हाइवे के किनारे बड़ी-बड़ी इमारतें, पाँच सितारा होटल और मौल बनायेंगे, सरकारें इसी तरह के निर्माण में निरन्तर लीन हैं तो यह समझा जा सकता है कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं और उनके सरोकार क्या हैं? यह सिर्फ एक सड़क के मामले में नहीं, बिजली, बांध और उद्योग के सन्दर्भ में भी विकास का सरकारी दर्शन यही है. जिस देश के बहुजन (70प्रतिशत) को रेल के साधारण डब्बे में पैर रखने की जगह नहीं मिलती हो वहाँ अभिजन के लिए बुलेट ट्रेन की यदि चर्चा हो रही है तो यह समझना कठिन नहीं है कि शासक वर्ग ऐसा क्यों सोच रहा है और ऐसा सोचने का नैतिक साहस उसे कहाँ से मिल रहा है?  

दुनिया के 20 सबसे अधिक गन्दे शहरों में से 15 भारत में हैं. हर नगर निगम, नगरपालिका और पंचायत यदि अपने नगर और गाँव की गंदगी को ‘ट्रीट’ करके उसे र्जा में तब्दील कर ले तो अनुमान लगाइए र्जा के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता कितनी बढ़ जाएगी? बड़े-बड़े बिजली घर हमें नहीं बनाने होंगे, टिहरी में कोई बांध बनाना नहीं पड़ेगा, कोई हरसूद नहीं डूबेगा, किसी आदिवासी का गाँव नहीं उजड़ेगा, कोई बेघर नहीं होगा. लेकिन हमें तो मोटी रकम चाहिए भले उसके लिए भीख ही क्यों ना मांगनी पड़े. कोई विश्व बैंक हमें दो चार सौ अरबों का कर्ज दे दे तो हमारा कल्याण हो जाये.विश्व बैंक के दिए कर्ज से सम्भव है हमारे शहरों की चमक थोड़ी बढ़ जाए, लेकिन इस भारी रकम से हमारे अधिकारियों और नेताओं का ईमान कितना गन्दा हो जायेगा इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकता
क्या यह जरूरी है कि विकास और आधुनिकता के मामले में हम पश्चिम की ही नक़ल करें? उनके ख़ारिज कर दिए गए जूठे तकनीक को हम सर आँखों पर रखें? क्या हम किराये के ज्ञान और शोध पर भरोसा किये बिना अपने लिए अपनी तरह का एक विकास का ढाँचा नहीं बना सकते?
हाँ, बना सकते हैं उसके लिए अपनी दृष्टि और सा सोच चाहिए।
                                               
                                   किशन कालजयी
                                                                       09868184228



19 February 2016

मोदी-राज में भारत-पाक रिश्ते

पठानकोट आतंकी हमले के बाद भारत-पाक के विदेश सचिवों के बीच होने वाली वार्ता एक बार फिर स्थगित हो गयी। इससे पहले हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग में वार्ता के लिये निमंत्रित किये जाने को लेकर इस्लामाबाद में होने वाली विदेश सचिवों की वार्ता रद्द हुई थी। गनीमत है, इस बार वार्ता रद्द नहीं की गयी, स्थगित हुई है। नयी ताऱीख का ऐलान होना बाकी है। दोनों देशों के बीच फिर से बातचीत की शुरुआत का फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आकस्मिक पाकिस्तान-दौरे का नतीजा है। कुछ विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री की आकस्मिक लाहौर-यात्रा का यह कहते हुए मजाक उड़ाया कि इस तरह के दिखावटी और बनावटी कदमों से भारत-पाक रिश्ते बेहतर नहीं होंगे। यह बात सही है कि भारत-पाक जैसे जटिल रिश्तों वाले दो पड़ोसियों के मामले में दोनों तरफ से ज्यादा गंभीर और सुसंगत कूटनीति की दरकार है। लेकिन प्रधानमंत्री के दौरे को एक लाइन में खारिज करना सही नहीं होगा। उनकी कोशिश चाहे नुमायशी ही क्यों न हो, संभव है, कार्यक्रम की योजना कुछ पहले तय हुई हो, हो सकता है, इसके पीछे किसी बड़े उद्योगपति की भूमिका हो, संभव है, इसके जरिये मीडिया की सुर्खियां बदलने का मकसद भी हो, यह भी संभव है कि यह महज एक राजनीतिक नौटंकी हो, पर भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद की हर कोशिश का समर्थन किया जाना चाहिये। दो प्रधानमंत्रियों के अनौपचारिक ढंग से मिलने के भी फायदे होते हैं। दोनों देशों के बीच रिश्तों की बेहतरी की हर कोशिश को पंचर करने वाली कट्टरपंथी मानसिकता को भी ऐसी पहल से कुछ झटका लगता है, जो अंततः दोनों देशों के हक में होता है। इसलिये, प्रधानमंत्री मोदी की विवादास्पद लाहौर यात्रा को सकारात्मक घटनाक्रम के रूप मे देखा जाना चाहिये। लेकिन भारत-पाक रिश्ते महज इस एक यात्रा से नहीं सुधर जायेंगे। सरकार को साफ करना चाहिये कि आगे का उसका रोडमैप क्या है?
विचार और परिप्रेक्ष्य के स्तर पर अब भी कम कन्फ्यूजन नहीं है। एक तरफ सरकारी स्तर पर दोनों देशों के रिश्तों को बेहतर बनाने की बात होती है तो दूसरी तरफ मुख्य सत्तारूढ़ दल के सहयोगी और सहोदर-संगठनों के स्तर पर अब भी पाकिस्तान को शत्रु नंबर-1 या आतंकवाद का सदरमुकाम कहा जाता है। अभी हाल में आतंकवाद के मामले में पड़ताल के लिये गठित एक शीर्ष खुफिय़ा एजेंसी ने देश के विभिन्न शहरों में छापेमारी करके दर्जन भर से अधिक ऐसे मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार किया, जिन पर अंतरराष्ट्रीय़ आतंकी संगठन आईएस का सहयोगी होने का आरोप है। इनमें कुछेक आरोपी युवाओं के घरों या दुकानों पर अपने आपको हिन्दूवादी बताने वाले लोगों के समूह ने हमला कर दिया। जमकर नारेबाजी और तोड़ फोड़ हुई। सबसे अधिक लगने वाले नारे थे-पाकिस्तान मुर्दाबाद। सवाल उठता है, अगर पाकिस्तान को हम भारत में आतंकी हमलों या आतंकी कार्रवाइयों का एकमात्र स्रोत या कारण मानते रहेंगे तो क्या ऐसे मुल्क से दोस्ती या बेहतर रिश्तों की जमीन तैयार हो सकती है? हम पूरे पाकिस्तान को आईएसआई या पाकिस्तानी  सेना का पर्याय क्यों मान लेते हैं? हाफिज सईद का लश्कर-ए-तैय्यबा हो या सलाहुद्दीन का हिज्बुल मुजाहिद्दीन या मसूद अजहर का जैशे-मोहम्मद हो, ये आतंकी या उग्रवादी तंजीमें पाकिस्तान नहीं कही जा सकतीं। पाकिस्तान की बड़ी आबादी स्वयं भी आतंकी हमलों से सहमी-सहमी है। हमने अभी पेशावर में दहशतगर्दी का खूंखार चेहरा देखा, जिसे आम पाकिस्तानी खत्म होता देखना चाहता है। वह किसी भी कीमत पर आतंक से मुक्ति चाहता है। पाकिस्तान की आबादी का बड़ा हिस्सा आज भारत से दोस्ती की वकालत कर रहा है। ऐसे में हमारे देश के हिन्दुत्ववादी-दक्षिणपंथी संगठनों का रवैया क्या दोनों देशों के रिश्तों को सहज करने के प्रयासों में बाधक नहीं होगा, खासतौर पर ऐसे दौर में जब उसी विचारधारा का समर्थक एक नेता देश का सबसे शीर्ष कार्यकारी यानी प्रधानमंत्री हो ? यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी अपने सांगठनिक विचार-दर्शन के साथ खड़े रहते हैं या अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार या अवाम की राय के साथ? दुनिया के बड़े मुल्कों से लेकर दोनों देशों के अपने-अपने बाजार की बड़ी ताकतें भी रिश्तों को सुधारने का मोदी सरकार पर दबाव डाल रही हैं।
आरएसएस और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों की विघ्न-भावना के अलावा इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी की एक और समस्या है। वह हमेशा अपनी छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। हर बार वह या उनके समर्थक कहते मिलते हैं-भारत में ऐसा पहली बार हो रहा है। लेकिन भारत-पाक रिश्तों की कूटनीति के मामले में ऐसा नहीं है। मोदी जी को अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों, खासकर एनडीए-1 के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी और यूपीए के दस बरसों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री रह चुके डा.मनमोहन सिंह की पहलकदियों और उनकी सफलताओं-विफलताओं से सीखना होगा। वाजपेयी काल में लाहौर यात्रा के कुछ ही समय बाद करगिल में घुसपैठ को लेकर दोनों देशों के बीच युद्ध छिड़ गया। उस वक्त भी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की ही सरकार थी। लेकिन आमतौर पर माना गया कि करगिल में पाक-घुसपैठ और फिर युद्ध छेड़ने का फैसला तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुर्शरफ का था। कुछ ही दिनों बाद पाकिस्तान में नवाज शरीफ को सत्ता से हटाकर मुशर्रफ ने सत्ता अपने हाथ में कर ली। उनके कार्यकाल की शुरुआत अच्छी नहीं थी। लेकिन सन 2004 के भारतीय चुनावों में भाजपा की हार के साथ केंद्र की वाजपेयी सरकार का पतन हुआ और डा. मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार बनी। सत्ता मे आने के बाद डा. सिंह ने दोनों देशों के रिश्तों को पटरी पर लाने की कोशिश तेज कर दी। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि न्यूक्लियर ताकत से लैस दो पड़ोसियों के बीच टकराव के रिश्ते दोनों के हित में नहीं हैं। अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिये भी इनके रिश्तों का पटरी पर आना जरूरी है। उसी दौर में डा. सिंह ने वह सुप्रसिद्ध वाक्य अपने किसी संबोधन में प्रयोग किया-हम चाहते हैं कि पड़ोसियों से ऐसे रिश्तें हों कि अमृतसर में नाश्ता, लाहौर में दिन का भोजन और काबुल में रात के खाने के बाद फिर कोई दिल्ली लौट आये। जब प्रधानमंत्री मोदी अपनी रूस-यात्रा से काबुल होते हुए स्वदेश लौट रहे थे तो शायद उनके दिमाग में डा. मनमोहन सिंह की यही पंक्तियां उमड़-घुमड़ रही होंगी। हालांकि वह भला किसी कांग्रेसी प्रधानमंत्री को इस तरह के उदात्त और सद्भाव भरे चिंतन का श्रेय क्यों देते! उस दिन उन्होंने काबुल में नाश्ता, लाहौर में दोपहर बाद का भोजन और दिल्ली में रात का भोजन लिया। लेकिन यह सौभाग्य तो सिर्फ प्रधानमंत्री का था। आम भारतीय-आम पाकिस्तानी को यह सौभाग्य कहां मयस्सर!
प्रधानमंत्री मोदी और उऩके सलाहकारों को ड़ा. मनमोहन सिंह और परवेज मुर्शरफ के बीच बनी कई ऐतिहासिक सहमतियों का ठीक से अध्ययन करना होगा। डा. सिंह ने पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय शिखर संवाद की शुरूआत सन 2006 मे हवाना से की। वहां उन्होंने परवेज मुर्शरफ से लंबी बातचीत के बाद सहमति के कुछ बिन्दुओं को अमलीजामा पहनाने पर जोर दिया। फिर मुर्शरफ ने अपना 4-सूत्री फार्मूला पेश किया, जिसके जरिये कश्मीर मसले के शांतिपूर्ण समाधान की कोशिश हुई थी। डा. सिंह की उस फार्मूले पर व्यापक सहमति थी। लेकिन सन 2008 आते-आते दोनों देशों के बीच माहौल बदलने लगा था। पाकिस्तान में लाल मस्जिद हंगामे और बढ़ते आतंकी हमलों के चलते मुर्शरफ की स्थिति कुछ कमजोर हुई। अंततः कुछ समय बाद उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा। इधर, दिल्ली में सत्तारूढ़ कांग्रेस के अंदर डा. मनमोहन सिंह की पाकिस्तान-नीति को लेकर अंदर ही अंदर मुखालफत का सिलसिला जारी रहा। शरम-अल-शेख के साझा बयान के बाद उनकी जमकर आलोचना हुई। यहां तक कि उनकी अपनी पार्टी में भी उन पर प्रहार होने लगे। वह कोई बड़ी पहल करने की स्थिति में नहीं रह गये। ले-देकर उनकी पहले की कई शानदार पहलकदमियां बड़े फैसले के इंतजार में व्यर्थ होती नजर आईं। दरअसल, डा. सिंह के पहले कार्यकाल में सियाचिन, सर क्रीक और कश्मीर से लगी दोनों देशों के बीच की नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय रेखा मानने जैसे कुछ बड़े मसलों पर व्यापक सहमति उभरी। दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व में ऐसी व्यापक सहमति पहले शायद ही कभी उभरी हो। दोनों देशों के बीच आमतौर पर माहौल ठीक-ठाक रहा। सरहदी इलाकों में गोलाबारी लगभग खत्म सी हो गयी। बाद के दिनों में कुछेक इलाकों में फिर से कुछ खुराफात और छिटफुट गोलाबारी जरूर हुई पर उसे पहले की तरह रूटीन नहीं कहा जा सकता।

प्रधानमंत्री मोदी डा. सिंह के कार्यकाल के दौरान कई जटिल मसलों पर दोनों देशों के बीच बनी सहमतियों को फैसले की मंजिल तक ले जाने का साहस दिखा सकेंगे?  क्या इसके लिये वह समग्र वार्ता (कंपोजिट डायलाग) को सही परिप्रेक्ष्य और दिशा के साथ फिर से पटरी पर लायेंगे? क्य़ा वह कश्मीर पर खुले मन और दिमाग से बात करने को राजी होंगे, जिसमें उनके संघ-परिवारी सोच का दबाव न हो और क्या वह भारत-पाक रिश्तों को हिन्दू-मुसलमान दायरे के बजाय उसकी पूरी जटिल ऐतिहासिकता में देखने की व्यापकता दिखा सकेंगे? फिलहाल तो इन सवालों के जवाब में ही छुपा है दोनों देशों के रिश्तों का भविष्य

 
 
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
+919899867717
urmilesh218@gmail.com   

17 February 2016

विश्वविद्यालय के अस्मिता का सवाल



जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को लेकर भारत के तथाकथित राष्ट्रभक्त समुदाय बहुत चिन्तित हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इस विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र नक्सलवादी हैं। उनकी चिन्ता है कि इनकी राजनैतिक समझ राष्ट्र विरोधी है। इस तरह के चिन्तन के मूल में जाना जरूरी है। यह समझना जरूरी है कि उनका राष्ट्रवाद क्या है, विश्वविद्यालय का दायित्व क्या है, यदि शिक्षक और छात्र नक्सलवाद के प्रति इतने सम्मोहित होते हैं तो क्यों। यह मान लेना अनुचित नहीं होगा कि इन महानुभावों को भी इन सवालों को समझने में कोई रूचि होगी।
    सबसे पहले इस बात पर बहस करना जरूरी है कि विश्वविद्यालय का दायित्व क्या है। इन्हें ‘विश्वविद्यालय’ क्यों कहा जाता है। वि. वि. ज्ञान सृजन का केन्द्र है। यहाँ प्रकृति के नियमों और समाज के नीतियों के बारे में मौलिक ज्ञान के सृजन का प्रयास होता है। भले ही राज्य विश्वविद्यालय को धन मुहैया कराता हो, इसकी स्वतन्त्रता सृजनात्मकता के लिए जरुरी है। यह राज्य का मानवता के प्रति दायित्व है कि ज्ञान सृजन की संस्था को सुविधाएँ प्रदान करे और उससे संवाद करे। प्राध्यापकों को सोचने की स्वतन्त्रता की रक्षा करे। प्राध्यापक और चारण में अन्तर समझना राजनीतिज्ञों के लिए आवश्यक है। शिक्षक और छात्र चारणों की तरह सत्ता का जयघोष नहीं करते हैं। स्थान और समय की सीमाओं से परे जाकर उनके सोचने समझने की जो क्षमता है उसका लाभ राज्य को ही मिलता है । राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनके शोधों से आखिरकार समाज और राज्य को ही फायदा होता है। इसलिए हर राज्य विश्वविद्यालयों को धन और स्वतन्त्रता मुहैया करवाता है। इन दोनों के बीच संवाद बेहतर समाज का लक्षण है। लेकिन जब राज्य या सरकार विश्वविद्यालय को अपना विरोधी समझने लगे और ‘सोचने पर पहरा’ लगाने लगे तो समाज को सचेत हो जाना चाहिए।
    जनता को सचेत होना चाहिए क्योंकि चुनी हुई सरकार भी कभी–कभी जनहित के खिलाफ काम कर सकती है। दलीय व्यवस्था में विपक्ष भी अपनी नीतियों को जनहित के आधार पर तय नहीं कर केवल जीत–हार और वोट बैंक के आधार पर तय करता है। ऐसे में सत्य के लिए आग्रह का दायित्व खास तौर पर विश्वविद्यालय के जिम्मे आता है। क्योंकि विश्वविद्यालय समुदाय सत्य के ङ्क्तति आस्था रखता है और हार जीत की समस्या से परे है। जनहित के प्रति यही दायित्व विश्वविद्यालय को सरकार और राज्य से अलग करता है। भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था रखनेवाले महान राजनैतिक हस्तियों को इतना तो पता होना चाहिए कि इस संस्कृति में गुरुकुलों में जाने के पहले राजा भी अपने वाहनों से नीचे उतर जाया करते थे। गुरुकुल केवल एक राजा नहीं बल्कि मानवता के कल्याण का चिंतन किया करते थे। तक्षशिला के गुरुकुल ने राजसत्ता को तब चुनौती दी जब उन्हें लगने लगा कि राजा आततायी हो गया है और जनहित के बदले स्वार्थी और सत्तालोलुप हो गया है।
    क्या जनहित के प्रति अपनी जिम्मेदारी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बखूबी निभा पा रहा है? इस विश्वविद्यालय की खासियत है यहाँ की छात्र राजनीति। दुनियाँ में शायद ही कोई ऐसा विश्विद्यालय होगा जहाँ के छात्रों ने मजदूरों को उचित मजदूरी दिए जाने के लिए आन्दोलन किया हो। ज्ञातव्य है कि इस आन्दोलन के बाद अब विश्वविद्यालय ने यह तय किया है ठेकेदारों के लिए मजदूरों को उचित मजदूरी देना अनिवार्य होगा। छात्रों द्वारा इस तरह का आन्दोलन इस बात का द्योतक है कि छात्रों की राजनीति उनके स्वार्थ परक तत्वों पर आधारित नहीं है। इसी तरह दुनिया भर के लोगों ने देखा कि निर्भया कांड में इन्हीं छात्रों ने एक बड़ा सा आन्दोलन खड़ा कर दिया। दुर्भाग्य से राजनैतिक दलों के लिए ये मुद्दे महत्वपूर्ण नहीं थे। इन छात्रों से बात कर यह लगता है कि समाज को निराश होने की जरूरत नहीं है। इस तरह के विश्वविद्यालय अभी हैं और उनमें ऐसे छात्र भी हैं जिन्हें सत्ता और स्वार्थ से ज्यादा जनहित की चिन्ता है। अब समस्या यह है कि बहुत से लोगों के लिए जनहित की बात करना नक्सलवाद हो गया है। जनहित की बात करना सरकार पर सवाल उठाना हो गया है और सरकार पर सवाल उठाना राष्ट्र पर सवाल उठाने जैसा हो गया है। यह इस समाज का दुर्भाग्य होगा यदि जनहित पर बात करने वालों को आतंकवादी कहा जाने लगा। ऐसे ही लोग गाँधी से भी आतंकित हो जाते थे।
    इन राष्ट्रप्रेमियों को जवाहरलाल नेहरु वि. वि. की संरचना को समझने का प्रयास करना चाहिए। इस वि. वि. के नामांकन की पद्धति कुछ ऐसी है कि बड़े पैमाने पर ऐसे छात्र भी यहाँ आते हैं जिनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब रहती है। सैकड़ों ऐसे छात्र यहाँ हैं जिनके माता–पिता खेत मजदूर हैं, छोटी-मोटी दुकान चलाते हैं, लोगों के घरों में काम करते हैं। यह तो दुनियां के लिए एक उदाहरण है कि मनुष्य की प्रतिभा उसके वर्ग और जाति पर निर्भर नहीं करती है। यदि उन्हें उचित खाद–पानी दिया जाये तो साधारण परिवार से आने वाले बच्चे भी ‘तारे जमीं पर’ हैं। अब इन छात्रों को यदि सरकार की आर्थिक नीतियों से सहमति नहीं है तो क्या वे नक्सलवादी हैं? यदि छात्रों को सामाजिक–आर्थिक असमानता के प्रति गुस्सा है तो क्या वे गलत हैं? इतिहास गवाह है कि युवाओं में न्याय के प्रति आग्रह होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। इस देश में भी प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए छात्रों ने कई बार जोखिम उठाया है। दुर्भाग्य यह है देश के अन्य हिस्सों में विश्वविद्यालय को इतना पंगु बना दिया गया है कि उनसे विरोध की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है।
    सवाल उठाने वाले महान राष्ट्र भक्तों का यह मानना है कि विश्वविद्यालय में नक्सलवाद के प्रति सहानुभूति है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ छात्रों के मन को नक्सलवाद का तर्क जंचता है। इन राष्ट्रवादी विभूतियों को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है। क्यों ये नौजवान नक्सलियों को सही और सरकार को गलत मानते हैं। यह तो तय है नक्सलवाद का इलाका देश के सबसे अविकसित इलाके हैं, यहाँ पुलिस और दबंगों का आतंक है। उन्हें न तो विकास का सुख है और न ही जनतन्त्र का। चुनाव के खर्चे ने जनतन्त्र को धोखा बना दिया है। ऐसे में उन्हें अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का क्या उपाय है। इन नौजवानों को इस इलाके की जनता के दुख–दर्द को समझने का मौका मिलता है। न्याय के जिन सिद्धांतों और प्रजातन्त्र के जिन गुणों की व्याख्या उनके शिक्षक उन्हें अध्यापन के दौरान बताते हैं उसे आधार मान कर यदि नक्सलवादियों का तर्क उन्हें सही लगता है तो क्या करें। भारत का मध्यम वर्ग में भले ही बड़े पैमाने पर नक्सलवाद को समर्थन न हो लेकिन उनके प्रति सहानुभूति जरूर है। उन्हें पता है कि नक्सलवादी संघर्ष का तरीका भले ही गलत हो, उनकी मांगे सही हैं। शायद ही कोई यह कहता हो कि गरीबों को अपने हक के लिए संघर्ष करना ही नहीं चाहिए। उन्हें यथास्थितवादी होना चाहिए। अब इस लड़ाई में यदि कुछ नौजवानों की रूचि है तो उसे राष्ट्रविरोधी कह देना, इन राष्ट्रप्रेमियों के बारे में ही शक पैदा करता है।
    इन महानुभावों को इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों पर भी शक है। लाजिमी है शक का होना क्योंकि कि ज्यादातर शिक्षक पुरस्कार लेने के बदले सच की खोज को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते हैं। ऐसे बहुत से शिक्षक इस विश्वविद्यालय में अभी भी हैं जिनके लिए जनहित और छात्रहित सर्वोपरि है, छात्रों से उनका सीधा संवाद है। अब हिन्दुस्तान में कितने विश्वविद्यालय बच गये हैं जहाँ शिक्षक छात्रों के साथ अपनी कक्षा के बाहर भी संपर्क में रहते हैं, जहाँ शिक्षक छात्रों के निजी जिंदगी की समस्याओं से भी वाकिफ होते हैं और यथासम्भव सहायता करने की कोशिश करते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों की सफलता के पीछे इन शिक्षकों की मेहनत है। कई बार ऐसा भी देखा गया ही कि शिक्षक अपने हितों को त्याग कर छात्रों के हित में काम करते रहते हैं। अब यही यदि उन्हें नक्सलवादी और राष्ट्रविरोधी कहने का कारण है तो अलग बात है। शायद ये राष्ट्रवादी उन्हें ‘स्वार्थ रंजित वेतनभोक्ता’ के रूप में देखना चाहते हैं।
    तीसरी दुनिया का विश्वविद्यालय यदि जनहित के प्रति जागरूक नहीं हो तो यहाँ तानाशाही पनप सकती है। बहुमत का आतंक हो सकता है, भ्रष्टाचार का राज हो सकता है । यहाँ वि. वि. को ज्ञान सृजन के अतिरिक्त भी कई दायित्व हैं, जैसे सरकार, राज्य, पक्ष और विपक्ष की आलोचना का दायित्व, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय जन विरोधी ताकतों के बारे में जनता को सचेत करना और उनके खिलाफ लामबन्द करना आदि। इसलिए सरकारों को विश्वविद्यालय से नाराज होने के बदले उनकी प्रतिक्रियाओं को ध्यान से देखना चाहिए ताकि उन्हें यह पता चले कि लोग उन्हें कैसे देख रहे हैं। यह सरकार और पार्टी के फायदे में है। खासकर तब जब अखबारों में अब सरकार के द्वारा दिए गये विज्ञापनों से यह तय होने लगा है कि उसमें क्या छपेगा और यह जग जाहिर है कि समाचार चैनलों में या तो राजनीतिज्ञों के पैसे लगे हैं या फिर उनसे समर्थित उद्योगपतियों के। ऐसे में सच जनता को या सरकार को कौन बताएगा? कौन उन्हें समझाएगा कि उनकी नीतियाँ जनहित में हैं या नहीं।
    सच तो यह है कि सरकार को इन छात्रों से ‘निंदक नियरे राखिये’ के तर्ज पर संवाद करना चाहिए । इस देश के बौद्धिक युवाओं की बात सुननी चाहिए। कुछ अनपढ़ और दम्भी राजनीतिज्ञ यदि जवाहरलाल नेहरु वि. वि. को नक्सलवाद का अड्डा कह कर खारिज करे तो आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है जब पढ़े लिखे लोग भी इसकी आलोचना करते हैं। उन्हें अपने गिरेबान में झांक कर देखने की जरुरत है कि क्या यहाँ के आम छात्रों और शिक्षकों की तुलना में उनका जनहित के प्रति आग्रह ज्यादा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके विश्वविद्यालय आलोचकों की जनस्वीकृति बहुत कम है और यही उनके लिए परेशानी का कारण है। आज की तारीख में भी उनकी तुलना में आम आदमी इस वि. वि. के प्रति ज्यादा सम्मान रखता है। अब यदि यही कारण है वि. वि. के राष्ट्रविरोधी कहने का तो शायद यह सोचना सही होगा कि उनके हिसाब से जनहित और राष्ट्रहित में अन्तर हो गया है। सत्तासीन राजनैतिक दल और उसके समर्थकों को इस दम्भी प्रवृति से बाहर निकलना चाहिए अन्यथा भारतीय जनता लोकतन्त्र के पक्ष में खड़ा होने की समझ भी रखती है और हिम्मत भी।

मणीन्द्रनाथ ठाकुर

लेखक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैं।
Mob- +91 99684 06430

नोट-यह लेख ‘सबलोग’ के जनवरी अंक में छपा है।