23 September 2014

विरोध अँग्रेजी वर्चस्व का


कुछ वर्ष पूर्व विभाजन केंद्रित उपन्यासों पर लिखते हुए सहसा मेरा ध्यान गया कि अँग्रेजी में भारतीय बुद्धजीवियों एवं इतिहासकारों द्वारा विभाजन पर जो कुछ भी लिखा गया है उसमें विभाजन पर अँग्रेजी में लिखे गये उपन्यासों की तो चर्चा है लेकिन हिन्दी में लिखे गये उपन्यासों की नहीं। यहाँ तक कि निम्नवर्गीय दृष्टि अपनाने वाले ‘सबाल्टर्न’ इतिहासकारों और नारीवादी नजरिए से विभाजन का अध्ययन करने वाली ‘फेमिनिस्टों’ ने भी हिन्दी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं में लिखित विभाजन साहित्य की कमोबेश अनदेखी ही की है। मैंने उसी समय विभाजन की त्रासदी पर केंद्रित यशपाल के कालजयी उपन्यास ‘झूठा सच’ की चर्चा करते हुए लिखा था कि ‘‘मुशीरुल हसन और ज्ञानेंद्र पांडे भी ‘विभाजन को याद करते हुए’ यशपाल को भूल जाते हैं। कारण शायद ‘झूठा सच’ का ‘नैटिव लैंग्वेज’ में लिखा जाना ही है। इस देश के बौद्धिकों की यह विडम्बना ही है कि अभी तक यहाँ ‘सबाल्टर्न रायटिंग’ और ‘नैटिव लैंग्वेज’ का सहमेल नहीं हो पाया है।’’

पिछले वर्षों जब सलमान रुश्दी ने भारतीय लेखन की चर्चा के दौरान भारतीय भाषाओं के लेखन को खारिज करते हुए सिर्फ अँग्रेजी में लिखे गये भारतीय साहित्य को ही श्रेष्ठ करार दिया था तब इसकी पृष्ठभूमि में भी अँग्रेजी का बौद्धिक वर्चस्व ही एक कारण था। दरअसल भारत के बौद्धिक समाज का अभिजन अँग्रेजीदां वर्ग तक सिमट कर रह जाना भारत की देशज ज्ञान सम्पदा और भाषाई समृद्धि पर एक बहुत बड़ा ग्रहण है। यही कारण है कि अँग्रेजी में लिखने के कारण मुल्कराज आनन्द, आर.के. नारायण, राजा राव और सरोजिनी नायडू की वैश्विक पहचान बनी जबकि हिन्दी–उर्दू में लिखने के कारण प्रेमचन्द और फिराक जैसे शीर्ष साहित्यिक व्यक्तित्व वैश्विक तो क्या भारतीय अँग्रेजीदां अभिजन के बीच भी केन्द्रीयता पाने से वंचित रहे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की स्वीकृति के मूल में भी ‘गीतांजलि’ का अँग्रेजी में अनुवाद हो जाने के कारण संयोग से नोबेल पुरस्कार का मिलना ही था। भारत के लोग अँग्रेजी में लिखें, चर्चित और प्रतिष्ठित हों यह तो उचित और स्वागत योग्य है लेकिन अँग्रेजी लेखन को ही भारतीय लेखन का पर्याय मान लिया जाये और भारतीय भाषाओं के लेखन की अवज्ञा और उपेक्षा की जाये यह औपनिवेशिक अनुकूलन का ही परिणाम रहा है। जरूरत इससे मुक्ति की है।

औपनिवेशिकता से मुक्ति का अब तक मुक्कम्मल न हो पाना भाषाई स्वाधीनता के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है, लेकिन अब इसकी जरूरत से भी इंकार करना एक स्वाधीन देश के लिए बड़ी दुर्घटना है। विडम्बना यह कि जो समस्या अँग्रेजी के वर्चस्व के बरक्स अन्य भारतीय भाषाओं के अधिकार की थी उसे अँग्रेजी बनाम हिन्दी का रूप देकर भारतीय भाषाओं की एकता और एकजुटता को लगातार विखंडित किया गया है। दरअसल अँग्रेजी शासन के दौर में अँग्रेजी का जितना वर्चस्व था आजादी के बाद के वर्षों में यह और भी बढ़ा। पहले तो यह शासन और उच्च शिक्षा और भी अभिजन का ही माध्यम थी लेकिन अब इसका विस्तार उस ‘दि ग्रेट इन्डियन मिडिल क्लास’ तक हो गया है जो समाज और जीवन में सम्पन्नता और सफलता का आकांक्षी और दावेदार है। इन सन्दर्भों में अँग्रेजी के वर्चस्व का विरोध उस सत्ता संस्कृति का विरोध है जो अपने निहित वर्गीय स्वार्थों के चलते भाषा का जनतान्त्रिकरण नहीं चाहती और अँग्रेजी की कांच की दीवार बनाये रखना चाहती है। भारत की विशालकाय जनता के लिए अँग्रेजी स्वर्णमृग सरीखी एक ऐसी मरीचिका है जिसके पीछे अब शहर, गाँव की हर गली में लोग हाँफते-हाँफते दौड़ रहे हैं। अँग्रेजी माध्यम के नर्सरी स्कूल, अँग्रेजी बोलने और सीखने की कोचिंग संस्थाएँ नये उद्योग में तब्दील हो गये हैं। सच यह है कि जो प्रतिभा, क्षमता और मानसिक श्रम छात्रों को पाठ्क्रम, विषय और ज्ञान की तलाश में लगाना चाहिए था वह अँग्रेजी सीखने में खर्च हो रहा है। इसके बरक्स सम्पन्न अभिजन परिवारों के बच्चे जो अँग्रेजी के भाषाई संस्कार में स्वाभाविक रूप से पले बढे़ हैं उन्हें न अँग्रेजी सीखने की जद्दोजहद करनी पड़ती है और न कोई अतिरिक्त प्रयास। स्वाभाविक है कि अँग्रेजी के वर्चस्व वाली बेहतर नौकरियों के अवसर संपन्न अभिजन वर्गों के हाथ ही अधिक लगने हैं और गाँव, कस्बों और छोटे शहरों से आने वाले सामान्य परिवारों के बच्चे भाषाई बाधा के चलते इस दौड़ में पीछे रह जाने हैं।

कौन है इस भाषाई भेद के लिए जिम्मेदार? वही उच्च सवर्ण अभिजन समाज की ‘क्रीमी लेयर’ जो अँग्रेजों के समय भी सत्ता की मलाई का लाभार्थी था और आज भी शासन तन्त्र की नकेल जिसके हाथ में है। राजनीति का जनतांत्रिकरण रोकना तो इसके वश में नहीं है लेकिन सामाजिक, आर्थिक और भाषाई जनतन्त्र को धनिक तन्त्र के पक्ष में झुकाना इसका प्रछन्न अजेंडा है। इस समूची प्रक्रिया को इस अंजाम तक पहुँचाने के लिए वे शक्तियाँ कम जिम्मेदार नही रही हैं जिन्होंने अपने निहित संकीर्ण राजनीतिक अभियान के चलते अँग्रेजी वर्चस्व के विरोध को अँग्रेजी विरोध का रूप देकर इसे ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के नारे में तब्दील कर दिया है। इसी के चलते गैरहिन्दी भाषी प्रान्तों में अँग्रेजी वर्चस्व के विरुद्ध कोई आन्दोलन इसलिए विश्वसनीय नही बन पाता क्योंकि इसे हिन्दी आधिपत्य के अभियान के रूप में ग्रहण करने की गुंजाइश बरकरार रहती है। डॉ. रामनोहर लोहिया इसे समझते थे, इसीलिये उनका कहना था कि ‘देशी भाषाओँ में कोई आपसी झगड़ा नहीं। हिन्दी का झगड़ा भारत की अन्य भाषाओं तमिल, तेलगू आदि से नहीं बल्कि अँग्रेजी से है। नकली झगड़े को खत्म करो। बिना खत्म किये सुधार हो ही नहीं सकता। इसको फौरन स्कूल, न्यायालय आदि से हटा देना चाहिए। पुराने लोग, चोटी, जनेऊधारी लोग हिन्दी को नुकसान पहुँचा रहे हैं। हिन्दी का पेट बड़ा होना चाहिए। उसमें तमिल, तेलगू आदि देशी भाषाओं के शब्दों को प्रवेश मिलना चाहिए। ऐसा करने पर हिन्दी देश और लोक की भाषा बनकर रहेगी।’ डॉ. लोहिया भाषा के प्रश्न को सामान्य जन की निगाह से देखते थे इसीलिये वे कह सके कि ‘हिन्दुस्तान के करोड़ों लोगों के मन में हीनता का भाव भर दिया गया है। करोड़ों लोग यही सोचते हैं कि हम तो अँग्रेजी नही जानते, राज कैसे चलाएँगें। इस तरह इस ‘लोकराज’ में करोड़ों लोग हीनभावग्रस्त हो गये हैं। सामन्ती–राज्य केवल गोली पर नही चलता। छोटी सी तादाद के शासक बड़ी तादाद के शासकों पर अपना राज, जितना गोली से चलाते हैं, उससे ज्यादा बोली से कायम रखते हैं। सामन्ती शासक शासित से अपने को अलग करता है। कुछ भूषा से, ज्यादा भाषा से। भूषा और भाषा का यह अलगाव शासितों के मन में हीन–भावना पैदा करता है य उनको लगता है कि शासक उनसे बहुत ऊँचा है, और वे खुद इतना नीचे हैं कि राजकाज उनके बस की चीज नहीं। किसी सामन्ती राज को खत्म करने के लिए और जनता में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए यह जरूरी है कि सामन्तों की भाषा और भूषा से जनता नपफरत करना सीखे य कम से कम उसका तिरस्कार तो जरूर ही करे।’

अँग्रेजी भाषा के प्रति डॉ. लोहिया की इस नफरत और तिरस्कार के मूल में अँग्रेजी का जो सामन्ती और शासकीय स्वरुप था वही अँग्रेजी प्रभुत्व वाली भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा को लेकर इन दिनों चल रहे आन्दोलन के मूल में है। अफसोस यह कि हाशिये के समाज के जिस बेजुबान व्यक्ति को दृष्टिगत रखकर लोहिया ने अपना भाषा विमर्श सृजित किया था, आज उसी जमीन पर पले बढे़ कुछ बुद्धिजीवी लार्ड मैकाले की आरती उतारते हुए अँग्रेजी देवी की आराधना कर रहे हैं। दलित बुद्धिजीवी चंद्रभान प्रसाद का कहना है कि वर्तमान सन्दर्भों में वंचित समाज के लिए अँग्रेजी भाषा की भूमिका मुक्तिकामी है। प्रख्यात चिन्तक काँचा इल्लैया भी इस मुद्दे पर यही सोच रखते हैं। लगता है जिन्हें अपनी बोली के गुम होने की पीड़ा थी वे उसे बोलता हुआ न देखकर शासकों की उस बोली में सुर मिलाने लगे जहाँ से उन्हें सत्ता और अवसरों के स्वर्णमृग मरीचिका दीख रही है। लेकिन यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए की जब आजाद भारत में अँग्रेजी के वर्चस्व से मुक्त होने की राजनीतिक इच्छा शक्ति और संकल्प लुप्तप्राय हो तो हाशिये के समाज के प्रवक्ता कब तक हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के प्रभुत्व और अँग्रेजी के अवसान की प्रतीक्षा करें? यह सचमुच विडम्बनात्मक है कि जिन्हें अँग्रेजी के सत्ता दुर्ग को ढहाना था वे इसे ढहता न देख इस पर कब्जे की लड़ाई में शामिल हो गये हैं! किसी भी स्वतन्त्र देश के लिए भाषा का यह सत्ता विमर्श सचमुच त्रासद और प्रहसनात्मक है।

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है.)


 
वीरेन्द्र यादव
लेखक हिंदी के वरिष्ठ आलोचक हैं।
virendralitt@gmail.com
+919415371872

18 September 2014

भाषा–भय की राजनीति


दुनिया भर में एक भी ऐसा देश नहीं होगा जिसकी अपनी राष्ट्रभाषा, जनभाषा और राजभाषा तीनों का एक रूप न हो। भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसने स्वतन्त्रता के साथ अपनी राष्ट्रभाषा ही तय नहीं की। संविधान में अनेक भाषाओं को सूचीबद्ध करके सबको राष्ट्रभाषा कह दिया या राष्ट्रीय भाषा का दरजा दे दिया गया। एक राष्ट्र की 22–23 राष्ट्र–भाषाएँ कैसे हो सकती हैं? राष्ट्र का भाषाई प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा तो एक ही होगी, वह राष्ट्र की वाणी होगी, वह राज्य की सरकारी भाषा होगी।

क्या हम हिन्दी को एक अनाथ भाषा बना देना चाहते हैं? यदि हिन्दी अनाथ हुई तो धीरे–धीरे अन्य भाषाएँ भी मरने लगेंगीं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है लेटिन अमेरिका जहाँ स्पेनिश भाषा ने एकाधिकार करके अपनी मूल भाषाओं को खो दिया। अफ्रीका के पास भी हौज़ा, इबो, इगवो, योरूबा, स्वाहिली, बांटू आदि बड़ी जनभाषाओं के साथ सैकड़ों बोलियाँ हैं। वहाँ जो भी अँग्रेज़ी, स्पेनी, डच, फ्रेंच, जर्मन आदि का साम्राज्यवाद गया और अमेरिका का अर्थशास्त्र गया तो न केवल वहाँ उन देशों की भाषाओं ने उनकी अपनी राष्ट्रीय पहचानों पर कब्जा कर लिया, बल्कि उन्हें उनकी संस्कृति से काटकर उनके नृत्य, संगीत और लोक–आचरण पर कब्जा कर उसे भी यूरोपीकृत या यूरोपीय भाषाओं का गैर–अफ्रीकी रूप दे दिया। जब यूरो–अमरीकी बाजारवाद सारी दुनिया पर छा रहा है तो वह हमेशा यही चाहेगा कि बाजार में सामान ही नहीं बेचा जाए बल्कि भाषा भी बेची जाए और उसे विश्वभाषा, रोज़गार की भाषा, व्यापार की भाषा और भविष्य की भाषा कहकर स्थानीयता को ललचा-ललचाकर वहाँ की भाषाओं की हत्या कर दी जाए या आत्महत्या के लिए उकसाया जाए।

हिन्दी के विरुद्ध लोकभाषाओं की स्थापना के पीछे हिन्दी को एक अल्पसंख्यक भाषा बनाने का छद्म प्रयास कहा जा सकता है। लोकभाषाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। उनसे मुख्यधारा की भाषाओं को अनेक नए शब्द, लोकोक्तियॉं, कहावतें और लोकाचार की भाषा भी मिलती है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि हिन्दी जैसी मुख्य भाषा को अपदस्थ करके लोकभाषाओं की समान्तर स्थापना की जाए। हिन्दी ही क्या, विश्व की अनेक भाषाएँ अपने आसपास की लोकभाषाओं या बोलियों से प्रचलित भाषा में गठरीबन्द होकर मानक भाषा की रचना में शामिल हो गयी हैं। अँग्रेज़ी स्वयं सेक्सन, लेटिन, ग्रीक, वेल्श, स्काटिश, आयरिश और लेबर समुदाय की भाषाओं का एक समुच्चय है अर्थात् समस्त लोकभाषाएँ अँग्रेजी में गठरीबन्द होकर पीजिन या क्रियाल की स्थिति से मानक अँग्रेजी बन गयी हैं। हिन्दी में भी ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, बुन्देली, मालवी, निमाड़ी, उर्दू, राजस्थान की मेवाड़ी–मारवाड़ी, यहाँ तक कि गुजराती का बड़ा अंश है और ये सब गठरीबन्द हुई हैं। अर्थात् लोकभाषाओं को हिन्दी ने सम्मान–सहित सामुदायिक स्वीकृति या स्पीच–कम्युनिटी की मान्यता से अपने में समाहित कर लिया है। यही कारण है कि हिन्दी एक भाषा का स्वरूप ग्रहण कर अपनी लिपि सहित बहुसंख्यक अर्थात् लगभग सत्तर करोड़ भारतीयों की ऐसी भाषा बन गयी है जिसे आमजन बोल, पढ़, लिख और समझ सकते हैं, औपचारिक–अनौपचारिक संवाद और पत्र–लेखन कर सकते हैं और उसमें अनेक विषयों का लेखन करने के साथ–साथ साहित्य सृजन कर सकते हैं।

जब संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दरजा दिया गया, तो महात्मा गॉंधी ने वर्धा में 1935–36 में जिस हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहा था, उसे स्वीकार क्यों नहीं किया गया? इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे -
  1. अँग्रेज़ी का वर्चस्व बना रहे।
  2. अँग्रेज़ी पढ़ा–लिखा शासक–प्रशासक वर्ग जनता पर अपना प्रभुत्व कायम रख सके।
  3. अँग्रेज़-सरकार के प्रति आजादी के बदले, संविधान और जनता आभारी बनी रहे।
  4. अँग्रेज़ी कूटनीति का भाषाई परिणाम भारत भोगने को बाध्य बना रहे।
  5. भारत की अधिकांश जनता को उच्च शिक्षा से वंचित रखकर केवल वोट बैंक की भीड़ बनाई जा सके।
  6. अँग्रेज़ों की विरासत और शासन प्रणाली उनके कायदे कानून सहित जारी रखी जा सके।
  7. जनता स्वाभाविक न्याय से वंचित रखी जा सके और न्यायालय, दफ्तर, विभाग, अफसर जनता को उसकी भाषा से पृथक रख, अँग्रेज़ी राज को भारतीय कहकर जारी रख सकें।
  8. अँग्रेज़ चूँकि एक बनिया कौम रही है जिसे नेपोलियन ने कहा था ‘इंग्लैण्ड इज़ ए नेशन ऑफ शॉपकीपर्स’ वह भविष्य का व्यापार, व्यवसाय अँग्रेज़ी के माध्यम से शताब्दियों तक जारी रख सके और जब बाजारवाद आए तो अंग्रेज़ी विश्वभाषा बनकर भारत पर भी रोज़गार, उद्योग आदि के नाम पर छा सके।
  9. भारत के अधिकांश बड़े घरानों के राजनीतिज्ञों ने उच्च शिक्षा इंग्लैण्ड में ग्रहण की थी इसलिए उन्हें अँग्रेज़ी में राज चलाने से यह लगा होगा कि मूल–अँग्रेज़ों को हटाकर अब भारतीय अँग्रेज़ सत्ता में आ गये हैं।
  10. हिन्दी या भारतीय भाषाओं में काम करने में हीनता का अनुभव कराना और हीनता में धकेलकर हिन्दी या भारतीय भाषाओं या राष्ट्रभाषा से पैदा होने वाले राष्ट्रीय स्वाभिमान का अपहरण कर लिया जाए। 
  11. हिन्दी में मौलिक भारतीय नियम–कानून न होना और न उनका प्रारम्भ से सरल हिन्दी–हिन्दुस्तानी में अनुवाद की पहल करना।
इन कारणों के अतिरिक्त कई अन्य कारण भी हो सकते हैं लेकिन अँग्रेज़ों की व्यापारिक दूरदर्शिता का लोहा तो मानना ही पड़ेगा कि आजादी के मात्र 50–60 वर्षों में ही उन्होंने भारतीयों की पूरी मानसिकता बदल डाली और अँग्रेज़ी को पुन: भूमण्डली बाजार के नाम पर भारत की समर्थ, सार्थक और अर्थशास्त्रीय भाषा बनाकर यूरो–अमरीका रोजगार का लालच दे दिया। अँग्रेज़ी के पक्ष और हिन्दी के विरुद्ध कितने भी तर्क दिए जाएँ किन्तु देश के लोग जिस भाषा को जानते, बोलते, लिखते, पढ़ते हैं वही भाषा दफ्तरों, न्यायालयों, परीक्षा संगठनों, सीसैट, लोकसेवा आयोगों, अस्पतालों, टेक्स विभागों, बैंकों आदि की भाषा होनी चाहिए। राष्ट्रभाषा के स्वरूप की कल्पना हिन्दी को लेकर हमारे स्वतन्त्रता संघर्ष के नेताओं ने की थी। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जो स्वयं अहिन्दीभाषी और गुजराती मातृभाषी थे, ने कहा था, ‘‘राष्ट्रभाषा की जगह एक हिन्दी ही ले सकती है, कोई दूसरी भाषा नहीं।’’ राष्ट्रभाषा का प्रश्न ही खड़ा क्यों किया गया? क्या यह एक ब्रिटिश सत्ता के वफादारों का षड़यंत्र नहीं कहा जा सकता? अनेक अहिन्दीभाषियों ने राष्ट्रभाषा के पक्ष में कहा था - 
  • "राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी हमारे देश की एकता में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होगी, इसमें दोराय नहीं।" (जवाहरलाल नेहरू, जिनके लिए अंग्रेज़ी मातृभाषा जैसी थी और जो स्वयं कश्मीरी थे।)
  • "हिन्दी को भारत की एक भाषा स्वीकार कर लिया जाए तो सहज में ही एकता सम्पन्न हो सकती है।" (केशवचंद्र सेन, बंगलाभाषी)
  • "राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं। मेरे विचार में हिन्दी ही ऐसी भाषा है।" (लोकमान्य तिलक, मराठी मातृभाषा)
  • "हिन्दी में अखिल भारतीय भाषा बनने की क्षमता है।" (राजा राममोहन राय, बंगला भाषी)
  • ‘‘हिन्दी ही एक भाषा है जो भारत में सर्वत्र बोली और समझी जाती है। (डॉ. गियर्सन, भाषा वैज्ञानिक)
  • ‘‘हिन्दी का श्रृंगार राष्ट्र के सभी भागों के लोगों ने किया है, वह हमारी राष्ट्रभाषा है।” (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, तमिलभाषी)
यदि हमारे महान नेतागण हिन्दी को आज़ादी के पहले ही राष्ट्रभाषा मान चुके थे तो आजादी के बाद हिन्दी को संविधान ने राजभाषा का दरजा देकर क्या उसको राष्ट्रीय स्वरूप से वंचित नहीं किया है? हिन्दी यदि राष्ट्रभाषा होती तो अन्य भाषाओं को भी फलने–फूलने का स्वाभाविक मौका मिलता। आज तो हर क्षेत्रीय भाषा अपने मरने के आतंक से डरी-डरी है और यह डर अँग्रेज़ी ने पैदा किया है। क्या हम एक राष्ट्र की भाषाई अस्मिता को बाजार के आगे अपमानित या आत्म समर्पित होते देखना चाहते हैं? छोटा–सा देश नेपाल भी नेपाली को राष्ट्रभाषा मानता है, पाकिस्तान ने आजादी के बाद उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जबकि वहाँ भी अनेक क्षेत्रीय भाषाएँ हैं, बांग्लादेश, बांग्ला को राष्ट्रभाषा बनाकर अलग हो गया। भाषा का स्वाभिमान यदि इतना प्रबल है तो हम हिन्दी के नाम पर हीन या निर्बल क्यों? क्या परीक्षाओं, न्यायालयों और सम्पर्क की भाषा अँग्रेज़ी को मानकर हम हिन्दी की हत्या तो नहीं कर रहे हैं? हिन्दी मरेगी तो न केवल राष्ट्रीय स्वाभिमान मरेगा, बल्कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, लोकाचार यहाँ तक कि लोकभाषाओं को भी मौत की नींद सुला दिया जाएगा। विवेक हार जाएगा, व्यापार जीत जाएगा। राष्ट्र सात दशक बाद अँग्रेज़ नहीं तो अंग्रेज़ी और भारतीय–अँग्रेज़ों का पुन: गुलाम हो जाएगा। हिन्दी को हर जगह बचाना होगा ताकि हम हिन्दुस्तानी होने और कहलाने में गर्व महसूस कर सकें और भारत भाषा से जुड़कर और अधिक भव्य लोकतन्त्र बन सके।

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है)

 




रमेश दवे
लेखक हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
rameshdave12@rediffmail.com
+919406523071

16 September 2014

सीसैट हिन्दी वालों का ‘मेट’

मैं पहले भी इस घटना का उल्लेख कर चुका हूँ। यह घटना मुझे पूर्व जनता पार्टी के एक वरिष्ठ सांसद ने बतायी थी। संघ लोक सेवा आयोग में सिविल सेवा की परीक्षा का माध्यम केवल अँग्रेजी ही था। मोरारजी देसाई जब प्रधानमन्त्री बने तो उन्होंने कमीशन को लिखा कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को परीक्षा का माध्यम क्यों नहीं बनाया जा सकता? कमीशन ने उस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। एक लम्बा नोट बनाकर पीएमओ. को भेज दिया गया। पीएमओ. ने पुनर्विचार करने को लिखा। फिर वही नकारात्मक उत्तर। सांसद महोदय ने बताया कि एक दिन प्रधानमन्त्री स्वयं धौलपुर हाउस पहुँच गये। उस रोज ज्यादा साक्षात्कार नहीं थे। मोरारजी सीधे चेयरमेन के कमरे में जाकर बोले मैं माफी चाहता हूँ बिना पूर्व सूचना के आ गया। आयोग में अफरा-तफरी मच गयी थी।

उन्होंने कहा मैं चाहता हूँ कि एक घण्टे के लिए अपने सब सदस्यों को बुला लें, मैं मिलना चाहता हूँ। सब सदस्य जो उपस्थित थे, आ गये। प्रधानमन्त्री ने कहा आपके काम में हस्तक्षेप करने का मुझे दु:ख है। लेकिन मैं भी कमीशन का काम करने ही आया हूँ। हिन्दी और भारतीय भाषाओं को सिविल परीक्षाओं का माध्यम बनाने के बारे में कमीशन का नोट और चेयरमैन से हुआ पत्र-व्यवहार मेरे पास है। अगर उसके अलावा किसी को कुछ और कहना हो तो खुलकर कहें। कहें संक्षिप्त में, क्योंकि मेरे पास एक घंटे का समय है। सदस्यों ने एक-एक करके बोलना शुरू किया। बोल चुके तो चेयरमेन ने कहा कि सदस्य अनुभव करते हैं कि हिन्दी माध्यम बना देने से प्रशासन प्रभावनहीन हो जाएगा। उन्होंने केवल हिन्दी का ही नाम लिया।

प्रधानमन्त्री ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा, ‘मैंने आप सब की राय सुनी, लेकिन मैं और मेरी सरकार सहमत नहीं है। हमने निर्णय लिया है कि देश के युवा वर्ग के हित में यही है कि तात्कालिक प्रभाव से सिविल सर्विसेज में हिन्दी माध्यम से परीक्षा लेने की तैयारी शुरू कर दें। भाषा के नाम पर हम अपने युवा वर्ग को नहीं बाँट सकते। देश की आजादी की लड़ाई के जमाने से हम देश की भाषाओं को बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। अगले साल से भारतीय भाषाओं में परीक्षा लें। औपचारिक आदेश और धन के आवंटन की सूचना आपको प्राप्त हो जाएगी।’ प्रधानमन्त्री ठीक एक घंटे के बाद कमरे से बाहर आ गये। यह सब विवरण मेरा सुना हुआ है।

उसके बाद हिन्दी और भारतीय भाषाओं में परीक्षा होने लगी, नतीजा हुआ कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लड़कों के प्रवेश की प्रतिशतता बढ़ने लगी। लेकिन इन भाषाओं को माध्यम के रूप में स्थायित्व नहीं मिला। वक्त-ब-वक्त नौकरशाही या अँग्रेजीपसन्द मन्त्रियों के कारण बदलाव होता रहता है। इस परिवर्तन के कारण प्रवेश परीक्षा में बैठने वाले बच्चों का असमंजस बढ़ता जाता है। बहुत से बच्चे तो हिम्मत हार बैठते हैं। जो परीक्षा में बैठते भी हैं उनका आत्मविश्वास डगमग-डगमग रहता है। पहली सरकार ने विकल्प हटा कर 30 नम्बर का अँग्रेजी का प्रश्न अनिवार्य कर दिया था जिसे लेकर व्यापक विरोध हुआ था। संघ लोक सेवा आयोग के पूर्व सदस्य प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल और हिन्दी के निष्णात विद्वान ने, जनसत्ता में गुणवत्ता जरूरी है लेख लिखा है कि संघ लोक सेवा आयोग ने सीसैट का प्रस्ताव सरकार को भेजा था। तब अँग्रेजी बोध–क्षमता के अंक पूरे पर्चे के 10 प्रतिशत ही रखने की सिफारिश की थी। इन्हें तत्कालीन सरकार के अफसरों ने बढ़ाकर 33 प्रतिशत कर दिया था।

यह स्थिति मुझे विरोधाभास पूर्ण लगी। एक तरफ तो स्वायत्तता की दुहाई दूसरी तरफ अपने प्रश्न पत्रों की अंक योजना भी सरकार के अनुमोदन के लिए भेजना। अनुमोदन ही नहीं बल्कि स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाना तो स्वायत्तता की गर्दन सरकार के अफसरों के हाथ में दे देना है। अगर सरकार को संस्तुति भेजी भी थी तो हर स्वायत्त संस्था इस अधिकार को तो अपने पास रखती है कि वह उसे माने या न माने। यह ठीक है कि आज परिभाषित अधिकारों को भी संस्थाएँ सरकार को खुश करने के लिए सरेंडर करती जा रही हैं। मुझे ताज्जुब हुआ जब स्पीकर ने प्रधानमन्त्री के निर्देश को ध्यान में रखकर अपने सचिव की नियुक्ति की सूचना प्रधानमन्त्री कार्यालय को भेजी। संसद में स्पीकर सर्वोपरि है। प्रधानमन्त्री को बात करने के लिए स्पीकर के कमरे में स्वयं जाना पड़ता है। हालाँकि यह बात विषय से असम्बद्ध है। खैर, इतना तो किया जा सकता था कि आयोग अपने मत के साथ मन्त्रालय को उस संशोधन को वापिस भेज देता। जब आयोग स्वायत्तता और प्रत्याशियों के हित के प्रति जागरूक नहीं है तो मन्त्री को दोष देने का क्या लाभ कि उन्होंने संसद में आयोग की संस्तुति को स्पष्ट करने की जरूरत नहीं समझी। मैं स्वायत्त संस्था में काम कर चुका हूँ। वहाँ इन दोनों स्थितियों से गुजरना पड़ा। हिन्दी का मसला तो वहाँ एक तरह जान लेवा था। क्योंकि उस समय आईआईटीज निखालिस आयातित और अँग्रेजी पोषित संस्थाएँ थीं। हिन्दी बहिष्कृत थी। उस समय वहाँ हिन्दी को लाना रोजी रोटी को ठोकर मारना था। आन्तरिक विरोध को भी झेलना पड़ा और कचहरी के चक्कर भी काटने पड़े। दूसरी ओर सरकार से बहुत से निर्देश आते थे जिनके कारण स्वायत्तता पर संकट मंडराने लगता था। परंतु वहाँ फैकल्टी जमकर विरोध करती थी। तब सरकार भी उतनी कट्टर नहीं थी। सरकार के निर्णयों के खिलाफ प्रशासन ने एक से ज्यादा बार लिखित असहमति व्यक्त की और वह मानी गयी। दिल्ली विश्वविद्यालय में जो स्थिति हुई कि हर मुद्दे पर रोलबैक करना पड़ा वह स्वयत्तता के लिए अच्छा नहीं। स्वायत्त संस्थाएँ यदि सोच समझकर निर्णय लेती हैं तो उनके सामने यह स्थिति नहीं आती। स्वायत्तता का यह भी मतलब नहीं कि संस्था अपने को खुदमुख्तार समझने लगे। लेकिन प्रतिवाद का अधिकार सबको है।

जहाँ तक गुणवत्ता का सवाल है वह किसी एक भाषा की बपौती नहीं है। मैं डॉ. अग्रवाल की दो बातों से सहमत हूँ कि इस तरह की संस्थाओं में खुली चर्चा होनी चाहिए। गुपचुप चर्चा संस्था तो संस्था सरकार के गले की हड्डी बन जाती है जैसे सीसैट में अंको का विभाजन। किसी भी उच्च स्तरीय प्रतियोगिता में एक ही प्रश्न को 33 प्रतिशत अंको का वेटेज मेधावी से मेधावी बच्चों के कैरियर को बर्बाद करने के लिए पर्याप्त हो सकता है। कहाँ 117 बच्चे सफल होते थे और कहाँ वह प्रतिशतता 3 प्रतिशत पर आ गयी। यह बच्चों की सामर्थ्य को कुचलने से कम नहीं। जब अँग्रेजी के पक्ष में यह अहितकारी निर्णय लिया गया था तब मैंने पुरुषोत्तम जी से फोन पर कहा भी था। उनका जवाब उनके इस लेख में मिला कि जिस रूप में सीसैट आज है उसके एक-एक ब्यौरे से आयोग का हर सदस्य सहमत रहा हो, ऐसा नहीं है। दूसरी बात जानकर मुझे दु:ख हुआ कि सीसैट का हिन्दी अनुवाद मशीनी होता है। उसे समझना खुदा के बस का भी नहीं। इस बात से मुझे सहमत होने में दिक्कत है कि सीसैट के विरोध के कारण यह समझना कि हिन्दी माध्यम के छात्र कड़ी मेहनत से कतराते हैं ठीक नहीं। सीसैट का विरोध इतना नहीं जितना अँग्रेजी लादने का। उनको मालूम है कि हिन्दी माध्यम के छात्र सिविल सर्विसेज की प्रतियोगिता में उच्चतर स्थान पाते रहे हैं। पहले पाँच स्थान तक पा चुके हैं। सीसैट की जरूरत पहले नहीं थी। अँग्रेजी माध्यम से पढ़े बच्चे गुणवत्ता का भण्डार समझा जाते थे। जबसे हिन्दी और भारतीय भाषा का सवाल सामने आया तब से सीसैट को गुणवत्ता से जोड़ दिया गया। मैं यह नहीं कहना चाहता कि सीसैट जमीनी भाषा से जुड़े लोगों को छांटने का माध्यम है। यदि उसी भाषा में सीसैट तैयार हों जो माध्यम प्रत्याशी लेता है तो गुणवत्ता बढ़ेगी। जहाँ विज्ञान के विषयों का सवाल है वह तो सबके लिए समान है पर भाषा में या समाज शास्त्रीय विषयों में भाषा का महत्त्व बढ़ जाता है। वैसे तर्क यह भी हो सकता है कि अगर अँग्रेजी का 33 प्रतिशत हो सकता है तो दूसरी भाषाओं का क्यों नहीं? अँग्रेजी कितने प्रतिशत जानते हैं? चूँकि आजादी के बाद सरकारों के प्रयत्नों से अँग्रेजी का ही वर्चस्व हो गया है इसलिए दूसरी भाषाओं की स्थिति गड़बड़ा गयी। सीसैट का विरोध नहीं पर भाषा का प्रयोग छंटाई करने का आभास दे तो विरोध होना स्वाभाविक है। बेहतर होता सीसैट में सब प्रश्नों की अंक योजना समान होती।

सरकार संशय में है वह क्या करे। संघ लोक सेवा आयोग ने परीक्षा की तारीख बढ़ाने से मना कर दिया। वर्मा कमेटी रिपोर्ट आ गयी है। पहले गवर्नेन्स की बात की जाती थी अब गवर्नेन्स का नारा खतरे में है। पहले भी हिन्दी के मसले पर सरकार ने रोलबैक किया था। हमारी तरफ कहावत है एक बुढ़िया थी, बरसात होते ही उसका घर टपकने लगता था। वह हमेशा यही कहती थी कि मुझे सी का डर न साँप का, टपके का डर। टपका है अम्मा की चिट्ठी। दरअसल गुणवत्ता का सवाल इतना बड़ा नहीं जितना बड़ा हीनता का है। कभी रेल में चढ़ें और पैर फिसल जाए। आदमी सोचने लगे इस नाकिस सवारी से बेहतर है माओमाओ चलना। 
 (यह आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है) 
              
गिरीराज किशोर
लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं
grajkishore11@gmail.com
+919839214906

12 September 2014

भाषा, राष्ट्र और बाजार


बिलकुल साफ है कि आज अँग्रेजी की जितनी व्यापक पहुँच है और उसका बौद्धिक दबदबा है, हिन्दी का नहीं है। एक तरफ अँग्रेजी थोपी जा चुकी है, दूसरी तरफ राष्ट्रभाषा–राष्ट्रभाषा की आवाज है। बेहिचक कहना होगा कि ये दोनों ही शक्ति–प्रदर्शन के मामले हैं। हाल में फिर राष्ट्रभाषा की बात उठी, जबकि संविधान में राष्ट्रभाषा जैसी कोई चीज नहीं है। हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह राष्ट्रीय भाषा है। इसलिए जब भी ‘राष्ट्रभाषा’ की माँग उठती है, इसके साथ ‘आर्यवर्त’, ‘हिन्दी साम्राज्यवाद’ और ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ के दैत्य जी उठते हैं फिर दक्षिण के, खासकर तमिलनाडु के विरोध से मामला तुरन्त ठण्डे बस्ते में चला जाता है। यह राजनैतिक ड्रामा अक्सर होता है,’ जबकि भाषा का प्रश्न आम आदमी के लिए अस्मिता का ही नहीं अस्तित्व का भी प्रश्न है। हिन्दी के समावेशी विकास, हिन्दी राज्यों में हिन्दी में राजकाज और केन्द्रीय सरकारी दफ्तरों में अँग्रेजी का दबदबा हटाकर हिन्दी के ज्यादा से ज्यादा प्रयोग की जगह जो सिर्फ ‘राष्ट्रभाषा’ हुँकारते है, उनके सम्बन्ध में पहली चीज यह समझ लेनी चाहिए कि उन्हें हिन्दी से जातीय प्रेम नहीं है।

राधाकृष्णन कमीशन रिपोर्ट (1949) ने सिपफारिश की थी कि हिन्दी के साथ राष्ट्र की क्षेत्रीय भाषाओं का विकास किया जाएगा और 15 साल के भीतर क्षेत्रीय जातीय भाषाओं में पाठ्य पुस्तकें तैयार की जाएँगी, विज्ञान की किताबें बनेंगी, यहाँ तक कि ये भाषाएँ अन्य शिक्षा का माध्यम बनेंगी। इन लक्ष्यों में एक बड़ा लक्ष्य सभी राष्ट्रीय भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाना है। इस पर चर्चा बार–बार होती है, पर यह कार्य कभी किया ना जा सका। 2007 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक फैसले के तहत तय हुआ कि हिन्दी में ज्ञान–विज्ञान के विषयों पर मौलिक पुस्तकें उन हिन्दी विद्वानों से लिखाई जाए, जो अँग्रेजी में लिखते हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक के रूप में मैं इस फैसले की प्रक्रिया से जुड़ा था। मैंने एक आरम्भिक कार्य योजना बनवाकर भेजी। यह सुझाव दिया कि देश के कुछ विश्वविद्यालयों में इसके लिए एक सेल बनाकर कार्य आरम्भ किया जा सकता है और हिन्दी में प्रबन्धन, इंजीनियरिंग, तकनीकी, समाजविज्ञान, चिकित्सा विज्ञान आदि की मौलिक किताबें तैयार की जा सकती हैं। इसमें हिन्दीतर विद्वान भी सुझाव के लिए रखे जाएँ। यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। हिन्दी में मनोरंजन उद्योग की धूम है। देश के कोन–कोने में हिन्दी गाने बज रहे हैं। हिन्दी ‘गंगा आरती’ की भाषा बनी हुई है लेकिन ज्ञान–विज्ञान और तकनीक की भाषा के रूप में हिन्दी गायब है। किसी भाषा की समृदधि का एक लक्षण है, उसमें कोई अच्छा विश्वकोश है या नहीं। इस मामले में भी दरिद्रता नंगी खड़ी है।

राष्ट्रीय भाषाओं की तरक्की के बिना न राष्ट्र की वास्तविक तरक्की हो सकती है और न सच्चा लोकतन्त्र आ सकता है। आज अँग्रेजी पर दखल रखने वालों का ही देश और दुनिया पर दखल है। अँग्रेजी ही सही अर्थ में पावर की भाषा है। अँग्रेजी में लिखा भारतीय साहित्य ही दुनिया में भारतीय साहित्य के रूप में जाना जाता है। अपने हिन्दी लेखक घर में अपने को शब्द–वीर समझते रहें। बिल्कुल साफ है कि हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं का आजादी के 67 साल बाद भी सशक्तीकरण नहीं हुआ है। सिर्फ बौद्धिक आवाजों को दबाए रखने के लिए साहित्य की सरकारी अकादेमियाँ और संस्थान बने हुए हैं। पुरस्कारें लो, शान्त रहो। हिन्दी में आत्मविमुग्धता और कूपमंडूकता ज्यादा है।

हिन्दी का जन्म आजाद, राष्ट्रीय और लोकतान्त्रिक मानसिकता की देन है। हिन्दी मानसिक आजादी की भाषा है। भक्ति आन्दोलन के लम्बे दौर में हिन्दी क्षेत्र के बाहर दूसरे जातीय क्षेत्रों के कवियों ने भी हिन्दी में रचनाएँ कीं। जिस महाराष्ट्र में हिन्दी लोगों के विरूद्ध बीच–बीच में कट्टरवादी नेता घृणा फैलाते रहे हैं, वहीं 60 से ज्यादा भक्त कवियों ने हिन्दी में रचनाए लिखी हैं। दक्षिण से रामानंद उत्तर आए थे। स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में उपनिवेशवाद से लड़ते हुए हिन्दीतर नेाताओं ने राष्ट्रीय होने के लिए हिन्दी का रास्ता चुना था। लेकिन उपनिवेशवाद से लड़ते हुए भी भारतीय बुद्धजीवी और मध्य वर्ग के शिक्षित लोग आमतौर पर औपनिवेशिक आदर्शों को ही अपना रहे थे। वे पश्चिमी जीवन शैली और अँग्रेजी के सामने अपनी परम्पराओं को पिछड़ा मानते थे। औपनिवेशिक शासन ने पिछड़ाबोध के बीज इतने गहरे बैठा दिए कि अब हम वहाँ पहुँच गये हैं कि यदि हम अँग्रेजी में निपुण हैं तो हिन्दी बोलने में ग्लानि का अनुभव करते हैं। यह बोध मिट गया है कि हमें कहीं मानसिक आजादी की भी जरूरत है।

इस समय राष्ट्र अँग्रेजी की मुट्ठी में है, लोकतन्त्र अँग्रेजी की मुट्ठी में है। हिन्दी सिर्फ लाल किले पर 15 अगस्त की भाषा है। यह मान लेने की कोई वजह नहीं है कि राष्ट्र के प्रति बहुलतावादी दृष्टिकोण के बिना और लोकतन्त्र को सच्चे अर्थ में अपनाए बिना कभी हिन्दी और भारतीय भाषाओं का देश में सम्मान बढ़ेगा। इस जमाने में ‘फूड डालो–ग्लोबल बनाओ’ की सोची–समझी रणनीति के तहत ‘राष्ट्रभाषा बनाम दक्षिण भारत’ का बवाल खड़ा किया जाता है। 2014 में कुछ वही दुहराया गया, जो 1965 में घटा था, जब तमिलनाडु में लगभग 200 जानें गयी थीं। बहस की एक फिर वैसी ही लहर आयी है और यह बिना कुछ मूल्यवान दिए कर्मकाण्ड की तरह सम्पन्न हो जानेवाली है। यदि केन्द्रीय सरकार देश में हिन्दी की स्वीकार्यता के लिए सचमुच कुछ करना चाहती है, तो सबसे पहले वह हिन्दी को ज्ञान–विज्ञान और अन्तर्राष्ट्रीय मंच की भाषा बनाए। इसके अलावा हिन्दी क्षेत्र के स्कूलों में हिन्दी और अँग्रेजी के साथ एक दक्षिण भारतीय भाषा या हिन्दीतर राष्ट्रीय भाषा सीखना अनिवार्य कर दे। संस्कृत का जनजीवन पर इस भाषा को जाने बिना ही प्रभाव है। यह कभी नहीं मिटेगा। इसलिए संस्कृत की जगह हिन्दोतर राष्ट्रीय भाषाएँ ज्यादा उपयोगी हैं। नि:संदेह दक्षिण भारतीय स्कूलों में हिन्दी तीसरी भाषा के रूप में बड़े पैमाने पर पढ़ाई जा रही है। वे संस्कृत में अटके हुए नहीं हैं। इस व्यवस्था के बिना कोई देशप्रेम का दाबा करे तो यह एक पाखण्ड है।

आज बंगाली, मराठी, गुजराती, डड़िया या दक्षिण भारतीय अपनी मातृभाषा में बात करते–करते अचानक अँग्रेजी–मिश्रित हिन्दी में बात करने लगते हैं, जैसे हिन्दी के लोग अचानक अँग्रेजी झाड़ने लगते हैं। हिन्दीतर लोगों में हिन्दी के प्रति वितृष्णा या छुआछूत का भाव मिटा है, जो अच्छा लक्षण है। यह भी देखना होगा कि हिन्दी घरों के अँग्रेजी पढ़े–लिखे बच्चे अब हिन्दी अशुद्ध रूप से बोलने को ही माडर्निटी समझते हैं। उन्हें शुद्ध हिन्दी बोलने में शर्म आती है, यदि जानते भी हैं। यह ग्लानि कैसे दूर की जाए? यह तभी दूर होगी, जब हिन्दी को कविता–कहानी या मास्टर जी की भाषा या लाल किले पर झंडोत्तलन की भाषा से मुक्त करके व्यापक ज्ञान–विज्ञान अनुसंधान और अन्तर्राष्ट्रीय मंच की भाषा में प्रतिष्ठित किया जाएगा और बाजार में हिन्दी का चीरहरण घटेगा।

किसी भाषा की ताकत के बोध का सिर्फ एक पैमाना बना दिया गया है, वह बाजार में कितनी दौड़ सकती है। अमेरिका जैसे देश ऐशियाई भाषाओं का कटूनीतिक और व्यापारिक इस्तेमाल करते हैं। हम गोरी चमड़ी में किसी को हिन्दी बोलते हुए सुनते हैं तो बड़ा आनन्द आता है। इस आनन्द की कोई वजह नहीं है, क्योंकि यह सब हिन्दी की स्वीकृति या इसके सम्पन्नता का लक्षण नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि आज हिन्दी का बाजार में, खासकर मीडिया और मनोरंजन उद्योगों में एक दमकता हुआ रूप है। कहा जा सकता है कि हिन्दी बाजार में पैदा हुई, बाजार में पली–बढ़ी और अब बाजार में खूब दौड़–मचल रही है। यह समझना होगा कि जिस तरह वेद–पण्डित जैसी संस्कृतनिक हिन्दी जनता की हिन्दी नहीं है, उसी तरह बाजार की हिन्दी भी जनता की हिन्दी नहीं है।

इधर हिन्दी से हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों को अलग करने के प्रयास हो रहे है, जो राष्ट्र को टुकड़े करने जैसी औपनिवेशिक परियोजना का सांस्कृतिक रूप है। हिन्दी का डर दक्षिण भारत में ही नहीं आज हिन्दी के भीतर भी पैदा किया जा रहा है। हिन्दी जैसे राजस्थानी, मैथिली, अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी आदि का हक मारकर बैठी हुई है। यह पृथकतवाद है, जो ईधर कुछ महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों द्वारा लाई जा रही ‘अस्मिता की राजनीति’ का हिस्सा है। हिन्दी क्षेत्र की बोलियों–भाषाओं में साहित्य आना चाहिए, इन्हंौ सांस्कृतिक प्रोत्साहन ही क्यों, जरूरत पड़ने पर सर्वशिक्षा अभियान के तहत उनकी अपनी लोकभाषा में शिक्षा देनी चाहिए। हिन्दी की माँ संस्कृत नहीं लोकभाषाएँ हैं। पर यदि साम्राज्यवाद से लड़ना हो, अँग्रेजी वर्चस्व को चुनौती देनी हो, केन्द्र के आगे दुखड़ा रखना हो, हम यह हिन्दी में ही कर सकते हैं। दरअसल भाषाओं पर संकट विश्वव्यापी है। अँग्रेजी–वर्चस्व विश्वव्यापी है। यह नियति नहीं एक स्थिति है, जिसे बदलनी होगी। इस हिन्दी को महज राजकाज या बाजार की चुलबुली या सूचनात्मक भाषा के रूप में देखकर सन्तुष्ट नहीं हो सकते। हम इसमें राष्ट्र की विकसित समावेशी अन्तरात्मा को उदित होते देखना चाहते हैं।

(यह आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।) 
 











 


शंभूनाथ 
लेखक केंद्रीय हिंदी संस्थान के पूर्व निदेशक
और हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक हैं।
+919007757887

10 September 2014

मुनादी - "सवाल भाषा के लोकतन्त्र का"


(संपादकीय 'मुनादी' के माध्यम से आज से सितंबर 2014 अंक की शुरुआत...)

‘संघ लोक सेवा आयोग’ की सिविल सेवा परीक्षा में सीसैट के सवाल पर यदि छात्र एकजुट होकर आन्दोलित नहीं होते तो अँग्रेजी बनाम भारतीय भाषा का प्रश्न पीछे ही रह जाता। यह एक सुखद संयोग है कि इस बार भाषा की बहस हिन्दी बनाम अँग्रेजी के बजाय अँग्रेजी बनाम भारतीय भाषाओं पर है।

सीसैट वाली सिविल सेवा की परीक्षा अब तक तीन बार हो चुकी है, और इन तीन वर्षों में भारतीय भाषाओं के माध्यम से अन्तिम रूप से चुने जाने वाले उम्मीदवारों की संख्या पन्द्रह-बीस प्रतिशत से घटकर पाँच प्रतिशत से भी कम हो गयी है। 2014 के अन्तिम परिणामों में कुल चुने हुए 1122 अधिकारियों में से भारतीय भाषाओं के माध्यम से मात्र 54 चयनित हुए है, इसमें हिन्दी माध्यम से मात्र 26 चुने गये हैं। एक खतरनाक आँकड़ा यह भी है कि जहाँ तीन वर्ष पहले तक चयनित सूची में शीर्ष से सौ तक में भारतीय भाषाओं के माध्यम से चुने जाने वाले अधिकारियों की संख्या बीस से ज्यादा होती थी अब वह शून्य हो गयी है।

यह सब पिछले तीन वर्षों में हुआ जब से सीसैट लागू हुआ है। और इसी दौर में सिविल सेवा की परीक्षा के परिणामों पर अँग्रेजीदां और शहरी पृष्ठभूमि के लोगों का वर्चस्व बढ़ा है। यही नहीं साहित्य, समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, इतिहास आदि विषयों के उन छात्रों के लिए यह परीक्षा लगातार कठिन होती जा रही है जो ग्रामीण पृष्ठभूमि के पिछड़े इलाके से हैं। आजादी के 67 वर्षों के बाद भी भारत जो अब भी गाँवों का देश है जैसे लोकतान्त्रिक देश का शासक वर्ग ग्रामीण भारत की उपेक्षा कर रहा है तो इस उपेक्षा को साजिश के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

2001 की जनगणना के अनुसार 2011 की जनगणना का भाषा सम्बन्धी ब्यौरा अभी तक नहीं आया है। भारत में प्रथम भाषा के रूप में अँग्रेजी का प्रयोग करने वालों की कुल संख्या 226499 है। लगभग 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सवा दो लाख लोगों की जो भाषा है वह अन्य भारतीय भाषाओं पर राज करे, इस वर्चस्व की संस्कृति को समझने की जरूरत है।

यहाँ जब अँग्रेजों का राज था तो अँग्रेजी ही सरकारी भाषा थी। देश जब आजाद हुआ तो लोगों की यह उम्मीद बनी थी कि कोई देशी भाषा सरकार की भाषा होगी। लेकिन पिछले 67 वर्षों का इतिहास इस बात का गवाह है कि देशी शासक वर्ग ने अँग्रेजी के लिए ही मार्ग प्रशस्त किया। जिसका नतीजा यह हुआ कि भारत में अँग्रेजियत की जड़ ज्यादा मजबूत हुई है। इसलिए यह अकारण नहीं कि भारत में अँग्रेजी का प्रभाव सिर्फ भाषा के स्तर तक नहीं रही इसने अपना एक सांस्कृतिक साम्राज्य भी बना लिया है। अँग्रेजी भाषा रुतबे और रुबाब की भाषा और देशी भाषाएँ पिछड़ेपन की प्रतीक बन गयी हैं। अँग्रेजी का यह वर्चस्व भारतीय लोकतन्त्र और भारतीय समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है।

विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू होने के बाद से ढेर सारे ऐसे छात्रों ने उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला पाया जो गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासी परिवारों के हैं। आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक सम्मान के लिए उच्च शिक्षा इनकी जरूरत है। लेकिन विश्वविद्यालयों में जब ये अँग्रेजी का आतंक देखते हैं तो इनके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट जाता है। भाषा का यह आतंक छात्र–छात्राओं में सिर्फ कुण्ठा पैदा नहीं करता बल्कि अपमान और प्रताड़ना कभी–कभी आत्महत्या की वजह बन जाती है। इसलिए भाषायी लोकतन्त्र के बिना सामाजिक न्याय नहीं हो सकता और वह लोकतन्त्र ही क्या जिसमें सामाजिक न्याय नहीं हो।

भारत के अलावा शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जिसकी कोई राष्ट्र भाषा नहीं होगी। पाकिस्तान, श्रीलंका, बंगलादेश, नेपाल सबकी एक राष्ट्र भाषा है, पिर भारत इस मामले में इतना विपन्न क्यों है? वह वक्त था जब टी. टी. कृष्णामाचारी ने ‘सम्पूर्ण भारत’ और ‘हिन्दी भारत ‘ की विभेदक रेखा खींचकर हिन्दी की मुखालपफत की थी। हिन्दी का राजनीतिक विरोध अब भी है। अभी कुछ ही दिन पहले केन्द्र सरकार ने विभिन्न मन्त्रालयों को अपने वेबसाइट पर हिन्दी में पोस्ट करने का निर्देश दिया था। तमिलनाडु से इसका तीव्र विरोध हुआ। लेकिन सच्चाई यह भी है कि हिन्दी का सांस्कृतिक वितान अब काफी व्यापक हुआ है। देश और दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ हिन्दी भाषी नहीं पहुँचे हैं। हिन्दी सिनेमा और हिन्दी धारावाहिक पूरे देश में देखे जाते हैं। हिन्दी का ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ दक्षिण में धूम मचा चुका है। सिर्फ अमिताभ बच्चन के कार्यक्रम में करोड़पति बनने के लिए नहीं बल्कि हिन्दी पट्टी में नौकरी के लिए भी दक्षिण के लोग हिन्दी सीख रहे हैं। दक्षिण की राजनीतिक पार्टियाँ हिन्दी भाषी मतदाताओं को रिझाने के लिए हिन्दी में पर्चा बाँटती हैं और केन्द्र का एक मन्त्रालय अपने वेबसाइट पर हिन्दी में कुछ पोस्ट करता है तो पिर उसका विरोध क्यों? 1963 की राजभाषा अधिनियम को यदि ठीक से लागू किया गया होता तो हिन्दी विरोध की हवा बहुत पहले निकल गयी होती। उस अधिनियम के अनुसार मातृभाषा के अलावा दो और भाषाओं को पढ़ाने का प्रावधान था। उत्तर में दक्षिण और पूरब की भाषाएँ और दक्षिण में उत्तर और पूरब की भाषाएँ। यह होता तो देश भर में भाषा के सन्दर्भ में समरस राष्ट्रीय माहौल होता। यह चूक शासन से हुई है और समाज से भी। अँग्रेजी ने सोच समझकर इस चूक का भरपूर फायदा उठाया।

एक भाषा के रूप में अँग्रेजी के विरोध का कोई अर्थ नहीं है। बल्कि ज्ञान की भाषा के रूप में अँग्रेजी का कद्र होना चाहिए। यहाँ यह सवाल उठाया जा सकता है कि सिर्फ अँग्रेजी का ही कद्र क्यों, फारसी और संस्कृत का क्यों नहीं? राजभाषा अधिनियम के अनुसार अँग्रेजी भी भारतीय भाषाओं में से एक है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत आने के बहुत दिनों बाद लगभग 1835 में अँग्रेजी काम काज की भाषा बनी। उसके पहले सदियों से यहाँ के जन-गण की भाषा फारसी थी। विद्यालयों और मदरसों में फारसी और संस्कृत साथ-साथ पढ़ाई जाती थी। तब के विद्वानों ने वेदों का अनुवाद फारसी में किया था। वह फारसी भारत के संविधान के अनुसार भारतीय भाषा नहीं रही और अँग्रेजी भारतीय भाषा हो गयी यह कैसा विधान है? दरअसल, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बहाने अँग्रेज मुगलों को खदेड़कर अपना शासन स्थापित कर रहे थे, इस प्रक्रिया में वे मुगल शासक की भाषा को भी खत्म करना चाहते थे और एक हद तक उन्होंने किया भी। भाषा और संस्कृति जिसने जीत ली उसने देश जीत लिया। यह बात अँग्रेज अच्छी तरह से समझते थे इसलिए उन्होंने अपने शासन से ज्यादा अपनी भाषा को जमाया, यही कारण है कि आज भी अँग्रेजी उखड़ नहीं रही है। एक बार भगत सिंह ने कहा था कि हमें देश की आजादी और भाषा की आजादी में से एक चुनना पड़ा तो मैं भाषा की आजादी चुनूँगा, क्योंकि भाषा यदि आजाद हो गयी तो देश आजाद होगा ही और भाषा गुलाम ही रहे तो फिर देश के आजाद होने का कोई अर्थ नहीं है। दरअसल, अपनी भाषा गवाँकर हमने एक अर्थहीन आजादी हासिल की है। इस आजादी से हम भगत सिंह की आत्मा को चोट ही पहुँचा रहे हैं।

(पाठकों की मांग के अनुरूप आज से हर दिन 'सितंबर 2014' अंक का एक नया आलेख यहां पोस्ट किया जाएगा.)   

संपादक - किशन कालजयी

07 September 2014

तुम्हारा साहित्यकरवा सब फ्रॉड है!

‘जयहिन्द! जयभारत!’

फ़ोन रिसीव करते ही रामपदारथ भाई की आवाज़ ठन्न–से कान के पर्दे पर टकरायी। एकदम करंट–सा लगा। अपन ने प्यार से झिड़की दी, ‘हाय–हैलो की जगह जयहिन्द– जयभारत! पदारथ भाई, ये क्या हाल बना रखा है? कुछ लेते क्यों नहीं?’

‘अच्छा बेट्टा! अब तुम भी ‘कुछ’ कहने लगे! देख रहे हैं कि मोदिया के आने के बाद से सबका जुबान शाकाहारी हो गया है।’

‘मतलब?’

‘मतलब उतलब छोड़ो। तुम अ–नारी हो, अनाड़ी थोड़े ही हो कि मतलब समझाएँ?’ पदारथ भाई मानो शब्दों का खेल खेलने पर ही आमादा थे।

ऐसे खिलाड़ी बकैत से कौन उलझे! हार मानते हुए हमने आग्रह किया कि ‘कुछ’ विषयक अपनी आपत्ति का न सही, कम–से–कम अपने अभिवादन में आए हल्लाबोल बदलाव का मतलब तो समझा दें।

पदारथ भाई उवाच, ‘देखो ऐसा है, जिस कारण से तुम्हारा जुबान विशुद्ध शाकाहारी हो गया है, उसी कारण से हमारा जुबान भी विशुद्ध भारतीय हो गया है। मोदिया के आने के बाद से हम देख रहे हैं, बौद्धिक जगत में भारतीयता अइसा उछाल मार रहा है कि खुद मोदी उसके आगे विदेशी लगने लगा है। हमारे बात पर विश्वास न हो तो कुछ दिन के लिए ‘जनसत्ता’ लगवा लो।’

‘मैं ‘जनसत्ता’ का नियमित पाठक हूँ और इस जागरूकता के लिए आपके मशवरे का मोहताज नहीं। काम की बात पर आइये।’ मैंने चिढ़ कर कहा।

‘चिढ़ो मत बेटा! आराधन का दृढ़आराधन से दो उत्तर!’ शक्तिपूजा विशेषज्ञ जामवंत की भूमिका में पदारथ भाई बोले, ‘अगर तुम नियमित और जागरूक पाठक हो तो मेरे बात पर तुमको सीधा उदयनवाजपेइयों और रमेशचंद्रशाहों का नाम याद आना चाहिए था। पवन कुमार गुप्ताओं को तो मान लो छोड़ भी सकते हैं।’

‘समझ गया, समझ गया’, मैंने अपनी जागरूकता पर आती आंच को आनन–फानन रोका, ‘पिछले दिनों मोदी सरकार के प्रति उम्मीद ज़ाहिर करने वाले जो लेख छपे हैं, उनकी बात कर रहे हैं आप।’

‘वही वही वही! - थोड़ा मन्द ही सही, बुद्धि है तुम्हारे पास! ई लेखकवा लोग वाला हाल नहीं है।’, जनाब ने सर्टिफिकेट इश्शू करते हुए फ़रमाया, ‘पर नहीं, हम गलत कह रहे हैं। इन सबको बुद्धिहीन मानना ठीक नहीं होगा। सचाई तो यह है कि ये बड़े बुद्धिमान लोग हैं। कभी भाजपा में नहीं रहे, खुल कर उसका समर्थन भी नहीं किया, पर अब जब दिल्ली की कुर्सी पर उसका कब्जा हो गया है तो घुमा फिराके बता रहे हैं कि अजी हम तो आपके ही हैं, ऊ का कहते हैं, परकारांतर से। कहीं अशोक वाजपेयी के साथ हमारे सम्बन्धों को देखते हुए ई मत समझ लीजिएगा कि हम भी उन्हीं की तरह इस जीत को हत्यारों की जीत मानते हैं।’

‘नहीं पदारथ भाई, यह बात तो गलत है। अरे, सीधा सा मामला है। मुलायम टाइप लोगों के हाथों सेक्युलरवाद का जो हश्र हुआ है, ये उससे चिढ़े हुए लोग हैं और उसी की प्रतिक्रिया में प्रतिक्रियावादी हुए जा रहे हैं। बस, इतनी सी बात है। एक क़िस्म की ईमानदारी इनके कहने में भी है, यह तो मानना पड़ेगा।’

‘ए विद्वान पाठक जी, हमको एक भी वाक्य इनके लेख का निकाल के दिखा दीजिए जो मुलायम टाइप लोगों या पार्टियों को ध्यान में रखके लिखा गया हो। सारा गुस्सा तो नेहरू टाइप सेक्युलरवाद पर, अँग्रेज़ीदां विद्वानों पर और कम्युनिस्टों पर उतर रहा है। एक जनाब उदयन वाजपेयी हैं जिनको सोवियत भूमंडलीकरण का भूत सता रहा है और हजूर बम–बम हैं कि मोदी सरकार आ गयी है तो इसे मार भगाएगी। उनको लग रहा है कि अब भारत के राजनीतिक विमर्श में ज्यादा खुलापन आ पाएगा। वाह रे मरदे! सबसे कट्टर टाइप लोग, जो वैचारिक मतभेद को लात–जूता और तोड़–फोड़ से हल करते हैं, वही खुलापन लाएँगे। और जो लोग बहस मुबाहिसा करते हैं, उनके बारे में उनका मानना है कि ऊ अदृश्य सेंसर लगाने वाले लोग हैं। ऐसा विद्वान तुम्हारा साहित्य वाला सब हो सकता है बर्खुरदार! और तुम कह रहे हो कि उनके कहने में भी ईमानदारी है!’

‘देखिए, ईमानदारी का मतलब – मतलब ये है कि’, पदारथ भाई के हमले से मेरी वाक्यरचना व्यूहरचना की तरह बिखरने लगी थी, ‘माने मैं कहना चाहता हूँ कि ऐसा उनको सचमुच लगता है तो कह रहे हैं, इसमें बेइमानी वाली तो कोई बात नहीं है।’

‘बेइमानी वाली बात है। जो सीधे-सीधे कुतर्क करे, उसका इरादा ठीक कैसे हो सकता है? ससुरे, गुजरात का 
मियांमारी भूल जाओगे और खुलापन का उम्मीद जाहिर करने लगोगे, ई साफ-साफ बेइमानी नहीं त और का है? तुम्हारे दूसरे साहित्यकार रमेशचंद्र शाह जी का वाक्य पढ़के तुमको सुनाते हैं, ‘‘तात्कालिक आवश्यकता इस समाज में अन्तर्निहित, लेकिन दबी–घुटी मूल्यचेतना और आत्मज्ञान को उभारने–जगाने की है। फिलहाल लक्षण कुछ ऐसे ही प्रतीत हो रहे हैं कि नया राजनीतिक नेतृत्व अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में इस मानी में ज्यादा संवेदनशील और जनोन्मुखी होगा।’’ सुन रहे हो ना! इनको मोदी और उनकी सरकार मूल्यचेतना और आत्मज्ञान उभारने–जगाने वाली लग रही है। ऐसा बात कोई बिना बेइमान हुए कैसे सोच सकता है? आपको प्रेरणा मिलता है गाँधी के ‘हिन्द स्वराज’ से, और उम्मीद किससे रखते हैं? कॉरपोरेट के पैसा का नंगा नाच करवानेवाला, अपना बेरहमी का मिसाल कायम करनेवाला नेतृत्व से। वाह रे शाह जी! शक्ति की मौलिक कल्पना करते–करते एतना मौलिक हो जाएँगे, ई कौन सोचा था? मामला साफ़ है। देख लिये कि भाजपा लम्बा पारी खेलने वाला है, त अब घुमा फिराके बताना है कि हम आपसे अलग नहीं हैं, अशोक को देखके हमारे बारे में अन्दाजा मत लगाइए।’

‘पर पदारथ भाई, घुमा पिफराके बताने की उन्हें ज़रूरत क्या थी? कोई लिखते समय हाथ थोड़े ही थामे ले रहा था?’

‘यही तो हम कह रहे हैं। कोई हाथ नहीं थाम रहा था, फिर भी ये...’

मैंने बीच में ही पकड़ा, ‘मेरा मतलब यह है कि यही इनके विचारों की ईमानदारी का सबूत है, उनसे आप सहमत हों या न हों।’

‘ई ईमानदारी का कौन सा डेफनीशन ले आए हो भइवा? भारत का अन्त:करण, भारत की अन्त:चेतना, मूल्यचेतना, आत्मचिन्तन – ई सब ईमानदार आदमी का बोली है? गोल–गोल बात करो, जिसमें बेरहम जातिप्रथा और ब्राह्मणवाद से ले के आज का नवउदारवाद, कॉरपोरेट हमला, एपफडीआई, सब लुकछिप जाए – ई बेईमानी नहीं तो और का है? अरे, ईमानदारी तो ई है कि तवलीन सिंह की तरह खुलके नवउदारवाद का समर्थन करो या ऊ जो आईसीएचआर का चेयरमैन बना है, कौन तो राव, उसके तरह जातिप्रथा का गुणगान करो। पर नहीं, यहाँ तो उनके जैसा कहलाने से भी बचना है और सरकार के गुडबुक में अपना नाम भी दर्ज करवाना है। यहीं भारत का अन्त:करण और आत्मचिन्तन जैसा मुहावरा काम आता है। तवलीन सिंह फ्रॉड नहीं है, तुम्हारा साहित्यकरवा सब फ्रॉड है।’

पदारथ भाई की तल्ख़ी बढ़ते–बढ़ते इस हद तक चली जाएगी, मैंने कल्पना न की थी। इस कल्पनातीत बदतमीज़ी पर अपना गुस्सा फट पड़ा, ‘पदारथ भाई, किसी भी चीज़ की हद होती है। हम साहित्यवाले अगर फ्रॉड हैं तो आप अपनी ईमानदारी का घंटा वहाँ पटना में बैठ कर बजाते रहिए और हमें बख़्श दीजिए।’ कह कर मैंने फ़ोन पटकने जैसा कुछ करना चाहा, पर पाया कि कमबख़्त मोबाइल को तो पटका भी नहीं जा सकता।

काश, लैंडलाइन पर बात हो रही होती! फिर तो हम पूरा–पूरा दिखा ही देते कि पवित्र भारतीय अन्त:करण से निकला पवित्र भारतीय गुस्सा कैसा होता है!
                     
                        (यह आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित है.)

                                                                                   संजीव कुमार

04 September 2014

यह भी कोई वक्त था जाने का...


(कवि रविशंकर उपाध्याय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लोकप्रिय शोध छात्र थे। 19 जून 2014 को बनारस में उनकी आसामयिक मृत्यू हो गयी। साहित्य और संस्कृतिकर्म में रविशंकर जितना सक्रिय थे, आचरण में उतना ही विनम्र और उदार। रविशंकर का जाना ऐसे संस्कृतिकर्मी का जाना है, जिसकी क्षतिपूर्ती साधारणतया असंभव है)

यही मौसम रहा होगा, हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हर वर्ष की तरह तुलसी जयन्ती का आयोजन था, बलराज सर लड़कों को बटोर रहे थे, दरअसल उस समय विभाग में नवागन्तुक छात्रों की भीड़ रहती है, जो अभी-अभी स्नातक पास करके आये रहते हैं अगर इसी विश्वविद्यालय के छात्र हो तो गोष्ठी-संगोष्ठी का अभ्यास रहता है मगर मेरे जैसे बाहरी के लिए तो इन सब से पहला सामना था। उस वर्ष बाहरी छात्रों की आमद ज्यादा हुई थी इसलिए बलराज सर को प्रयास ज्यादा करना पड़ा ये समझाने के लिए कि तुलसी बाबा को जन्मदिन के दिन जरुर याद करना चाहिए। फिलहाल सभा शुरू हुई कुछ गुरुजन, कुछ अग्रज सबने अपनी बात रखी। फिर नवागंतुको से भी आग्रह किया गया, अधिकतर लोग संकोच में अगल-बगल की तरफ देखने लगे और सीट के अन्तिम दोनों तरफ के छात्र दीवारों की तरफ। फिर एक छात्र खड़ा हुआ, और तुलसी बाबा पर बोलना शुरू किया ढेर सारी चैपाई, ढेर सारे प्रसंग सुनाते हुए उसने अपनी बात खत्म की। उसने क्या-क्या कहा यह तो नहीं याद मगर वह आवाज और वह शैली बहुत प्रभावशाली थी, उस प्रभाव की एक छोटी सी बानगी मैं उस व्याख्यान के बाद अपनी अज्ञानता पर इतना हीनता बोध से ग्रषित हो गया कि शाम को ही संकट मोचन से तुलसी बाबा की सारी किताबें खरीद लाया कि अब पढना होगा। वह पहली मुलाकात थी हमारी आचार्य के आचार्यत्व से, और वह आजीवन हमारे जीवन में तारी हो गयी। रविशंकर जी को हम लोग आचार्य कहते थे, कभी भी नाम नहीं लिया और अब ये आदत में शुमार है तो शायद ही मैं कहीं उनका नाम लिख पाऊँ।

मैंने वर्ष 2006 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवेश के लिए आवेदन किया, प्रवेश परीक्षा में बहुत अच्छा नम्बर न होने पर विभाग द्वारा प्रवेश की गुंजाइश खत्म कर दी गयी थी। मैं हर तरफ से हताश–निराश होकर लौटने लगा था कि अचानक रास्ते में आचार्य मिले, अपने अन्दाज में पूछा, बालक क्या हुआ? मैंने अपनी सारी व्यथा–कथा उनको सुना दी। तब आचार्य ने ढांढस बधाया और कहा लगे रहो जरुर हो जाएगा। उसके बाद जब तक मेरा प्रवेश नहीं हुआ मैं जब भी विभाग जाता मेरी नजरें सिर्फ आचार्य को खोजती, मेरे लिए आशा की किरण सिर्फ एक आचार्य ही थे, और अन्तत: प्रवेश के बाद उन्होंने मेरा साहित्य से परिचय करवाया, पत्र–पत्रिकाओं के बारे में बताया। उसके बाद से मेरी सुबह भी उन्हीं के साथ और शाम भी, अब?

आचार्य के जाने के बाद उनके साथ बिताए तमाम पल जेहन में आवा जाही कर रहे हैं, जो इस बात को मानने ही नहीं दे रहे कि अब आचार्य हमारे बीच नहीं। आचार्य के विषय में अब कुछ लिखना कितना कठिन कार्य है ये मैं ही जान रहा हूँ, वरना सब जानते हैं कि मेरा सबसे प्रिय कार्य आचार्य पर लिखना ही था। आचार्य ने साहित्य का जो पाठ हम लोगों को पढ़ाया था वही आज हमारी आधारभूमि है। न जाने कितने छात्र आज इस बात के लिए उनके ऋणी हैं कि उनकी जिन्दगी में आचार्य के होने का क्या मतलब था। मुझे नहीं पता कि आज के 10 साल बाद आने वाली पीढ़ी हमारे बैच के किसी छात्र को जानेगी कि नहीं, मगर मुझे 100 फीसदी पता है कि आचार्य को उस पीढ़ी और उस पीढ़ी के बाद के बच्चे भी जानेंगे। जहाँ तक मुझे याद है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग भारत के सर्वश्रेष्ठ विभाग होने के बावजूद साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय नहीं था, 2005 के बाद से हमारे अग्रजों ने साहित्यिक कार्यक्रमों को करवाने की पहल की और आगाज के बाद इसे परवान चढ़ाया आचार्य ने, युवा कवि संगम का होना आचार्य की ही देन थी। यहाँ मैं उसमें शामिल किसी शख्स की भूमिका को कमतर नहीं कहता मगर इस कार्यक्रम के संयोजन से लेकर सम्पूर्णता में आचार्य ही थे। साहित्यिक कार्यक्रमों का सयोंजन वह बड़े मन से करते थे, विभाग का कोई कार्यक्रम उनके बिना पूर्ण नहीं हो सकता था। इसके पीछे सिर्फ-सिर्फ एक ही कारण था उनका साहित्य के प्रति लगाव। एमए में आने के बाद कौन सा वर्ष ऐसा गुजरा होगा जिसमें आचार्य ने कोई गोष्ठी-संगोष्ठी न करायी हो। साथ ही बनारस में कोई साहित्यिक गोष्ठी हो रही हो और उसमें आचार्य न जाएं ऐसा कदापि सम्भव नहीं, अगर कहीं घर गये हों तो हर हाल में सुबह लौटना और शामिल होना। कहीं न कहीं अपने स्वास्थ्य के ऊपर ध्यान न दे पाने की वजह भी यह भागदौड़ ही थी जो आज उनके हमारे बीच से चले जाने का कारण बनी।

आचार्य का पठन–पाठन के साथ-साथ किताबों को खरीदने और सहेजने का जो तरीका था, वो उनसे रश्क करने का कारण बन सकता था। साहित्य की अधिकतर पठनीय और महत्त्वपूर्ण किताबें उनके पास थीं। समकालीन लेखकों में कौन नहीं था जिसे आचार्य ने पढ़ा न हो या उनकी किताब उनके पास न हो। पुस्तक मेला लगने पर दिल्ली जरुर जाना होता और किसी कारणवश न जा पाए तो जो जाए उसे सूची बना कर सौंपते थे कि क्या-क्या आपको लाना है। खुद कवि होने के कारण कविता में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी, मगर कथा साहित्य में अगर कोई नाम चर्चा में आ रहा तो फिर वह रात उस लेखक के नाम कुर्बान। मैं जब कभी आचार्य से कहता था कि आप लिखते क्यूँ नहीं? आचार्य हमेशा समझाते कि पहले खूब पढ़ लिया जाए फिर लिखा जाएगा। इस बात का आचार्य पालन भी करते थे। मैंने हमेशा देखा कि लिखने से पहले सम्बन्धित बिषय खूब पढ़ते थे। यही एक कारण भी था कि थीसिस लिखने में जो देर हुई। हम सभी दोस्त जानते थे कि अगर किसी लेखक या किताब के बारे में जानना हो तो आचार्य से सम्पर्क किया जाए। बस समस्या बता कर फोन काट दीजिये वे खुद फोन करके सब बता देते थे।

आचार्य समकालीन साहित्य से न सिर्फ अपने बावस्ता होते थे अपितु हम लोगों को भी पढने पर जोर देते थे, पत्रिकाओं में कौन छप रहा है, कहाँ कौन लिख रहा है, कौन सी पत्रिका में क्या आया है इन सबका इन्सैक्लोपिडिया थे आचार्य। जब हम लोगों के बीच सम्भावना पत्रिका निकालने की सहमति बनी तो सबने सम्पादक के लिए आचार्य के नाम की ही सहमति दी। संवेद पत्रिका का जब विश्वविद्यालय पर अंक निकल रहा था तो हमारे विश्विद्यालय के अंक का सम्पादन आचार्य ने ही किया था।

आचार्य जितना मिलनसार व्यक्तित्व बहुत मुश्किल है, हो सकता है लोगों को लगे कि मैं उनका दोस्त हूँ तो ऐसी बात कर रहा मगर आप उनसे परिचित किसी से मिल कर पूछिये। उनके साथ स्नातक में पढने वाला कौन छात्र ऐसा होगा जो आचार्य को न जानता हो (यहाँ स्नातक कहने का मतलब कम से कम 100 छात्र से ऊपर है) और किसका नाम आचार्य को ना याद हो, मैं सुकेश तिवारी से बात कर रहा था जो स्नातक के दौरान उनके अनन्य मित्र थे, उन्होंने बताया कि हम लोगों के बीच आचार्य का जो सम्मान था वैसा कम ही देखने को मिलता था। आचार्य जैसा सम्मान देते थे वह भी अपने में अनूठा है। वे हर छात्र चाहे वह स्नातक का हो या परास्नातक का सबको मित्र का ही सम्बोधन करते और सबसे हाथ मिलाते। जबकि मैंने देखा है कैसे लोग सीनियर-जूनियर करते रहते हैं। मुझे लगता है कि पूरे विश्वविद्यालय में अगर कोई छात्र अन्तर-अनुशासनिक विषय में रूचि रखता होगा तो वह आचार्य को जरुर जानता होगा, हर विभाग से उनका सम्पर्क था, हर विषय के बड़े विद्वानों के व्याख्यान वे जरूर सुनते थे।

आचार्य हमेशा मदद को तत्पर रहते थे, पिछले 8 साल के दौरान कोई छात्र अगर बीमार पड़ा तो आचार्य उसका हाल-चाल जरुर लेते थे। कभी-कभी हम झल्ला जाते थे कि अरे डाक्टर है न वह ठीक कर देगा आपके जाने से होगा, वे बिना गुस्साए, मुस्कुरा के कहते अरे तुम चलो, मैं आता हूँ देखकर। सबके लिए आचार्य थे हर समय, हर परिस्थिति में। एक बार मेरे गाँव से एक मरीज आये, गम्भीर बीमार इमरजेंसी में भर्ती घर वालों ने मेरा नम्बर भी दे दिया कि ये बीएचयू में पढ़ते हैं मदद करेंगे। मैं अस्पताल जाने से उतना ही बचता था। परेशान होने पर आचार्य से सम्पर्क किया। आचार्य तो बने ही मदद करने के लिए थे। तब से नियमित उस मरीज के डिस्चार्ज होने तक आचार्य मुझे लिवा कर जाते और मरीज के देखभाल कर रहे लोगों को समझाते, मैं चुपचाप खड़ा ये सब देखता रहता। जब कभी आचार्य पूछते अस्पताल चलोगे तो मैं समझ जाता कि कोई छात्र बीमार है, क्योंकि अपने तो कभी दिखाने के लिए साथ चलने को नहीं कहते, अपना हर काम अकेले कर आते थे।

मेरे लिए बनारस और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हमेशा महत्त्वपूर्ण रहा, कहीं आऊँ-जाऊँ लौट कर जब पहुँचता तो बड़ा सुकून मिलता, अगर आचार्य को पता रहता कि मैं आ रहा, और कभी ऐसा हुआ नहीं कि उन्हें बिना बताये मैं आऊँ बनारस, तो बनारस में मेरी ट्रेन पहुँची नहीं कि आचार्य का फोन आ जाता कि आओ मैं इन्तजार कर रहा, अब जाने पर कौन इन्तजार करेगा। और बनारस का जो आकर्षण था वो भी खत्म, आखिर बनारस को मैं जाना भी तो आचार्य के कारण ही। वो घाटों पर एक किनारे से दूसरे किनारे तक सब कुछ बतलाते हुए ले जाना। गोदौलिया की गलियों में घुमाना। मैंने बनारस को जितना जाना आचार्य के मार्फत से जाना। संगीत का कौन सा समारोह था जिसे आचार्य सुनने नहीं जाते थे, ध्रुपद समारोह हो या संकट मोचन समारोह, रात-रात भर संगीत सुनते। एक प्रसंग याद आ रहा है, आचार्य मैं और विशाल गंगा महोत्सव में राजन साजन मिश्र को सुनने गये थे, सुन कर जब लौटने को हुआ तो तय हुआ कहीं खाना खा लिया जाए। एक ही दूकान खुली थी जोकि शायद पराठा खिला रहा था। खाने के बाद तीनों लोग एक रिक्शे पर सवार हुए। दुर्गाकुंड चैराहे पर एक बड़ा-सा होर्डिंग लगा हुआ था उसी गंगा महोत्सव का, उसमें एक जगह लिखा था अर्ध-शास्त्रीय गायक। आचार्य ने पूछा ये अर्ध-शास्त्रीय क्या होता है, विशाल ने छूटते ही उत्तर दिया सेमी क्लासिकल... आचार्य ने जिस अन्दाज से ‘हूँ’ कहा कि मुझे हंसी आ गयी। विशाल के पूछने पर आचार्य ने बताया कि आपके तरह ही एक विद्वान् थे उनसे किसी ने पूछा था पानी क्या होता है तो उन्होंने बताया ‘वाटर’।

आचार्य का जीवन बड़ा नियम सयंम से चलता था, छात्र जीवन की आदतानुसार हम घर से आये पैसे तुरन्त खत्म कर देते फिर महीने भर उधार से काम चलाते, मगर आचार्य कभी भी ऐसा नहीं करते हर काम बिल्कूल फिट। जब भी हम कहते कि आचार्य पैसा दे दीजिये या आचार्य ये खिला दीजिये तो आचार्य का सुप्रसिद्ध कथन था कि यही 100 रुपया है पर्स में और इसी में महीना चलाना है चाहे आप महीने के पहले दिन कहे या अन्तिम दिन, आचार्य यही बात कहते थे तो हम लोग धीरे-धीरे कहने लगे थे कि जीवन न चल जाएगा आपका इसमें। हालाँकि जो कह दो आचार्य खिलाते थे और जब पैसा मांगो दे देते थे। उनके होने से मुझे अपने होने का एहसास था।

आचार्य जल्दी किसी बात पर नाराज नहीं होते थे, होते भी थे तो केवल अतार्किक बहसों से, लेकिन लाख नाराज हो जाएँ मगर वह बात उस प्रसंग के साथ ही खत्म, दूसरे दिन जब आप मिलेंगे तो आपको लगेगा ही नहीं कि इसी शख्स से रात में बहसा–बहसी हो रही थी, सुबह उसी तरह का व्यवहार जैसे हमेशा से था। मुझे याद है युवा कवि संगम के दूसरे आयोजन के अन्तिम दिन मेरी उनसे किसी बात पर बहस हो गयी, जिसमें मैंने उनसे खराब तरीके से बात कर दी। बात तो कर दी आचार्य वहाँ से चले गये, मगर मेरे अन्दर एक डर बैठ गया आचार्य के नाराज होने का, किसी तरह खुद को मना कर मैं यूनिवर्सिटी छोड़कर दिल्ली के लिए निकल पड़ा, अभी लंका पहुँचा नहीं था कि आचार्य मोबाइल स्क्रीन पर चमक उठे, फोन उठाने पर उधर से आवाज आई डॉ. कब जा रहे हो... बस मुझे वापस प्राण मिल गये। मैंने कहा आचार्य अभी, बस आचार्य इतना सुनते ही वहाँ प्रकट हो गये और मेरे साथ मुगलसराय तक आये और जब तक ट्रेन नहीं चल दी तब तक रुके रहे, ये थे आचार्य, अगर उस दिन वे हमारे साथ न होते तो इस बात को लेकर मैं अपराध बोध महसूस करता कि मैंने आचार्य से ऐसी बातें कर दी, मगर आचार्य का बड़प्पन हमेशा हमें उबार लेता था।

ऐसी तमाम बातें जिनमें आचार्य हैं वे आजीवन हमारे साथ जुड़ी रहेंगी। अगर आप आचार्य को कुछ लिख-पढ़ कर दिखाया कि आचार्य देखिये ठीक लिखा है तो पहले अपना सिग्नेचर करते और कहते अब ठीक। आप कोई भरा हुआ फार्म दिखाएँ कि आचार्य देखिये कोई गलती तो नहीं तो कहते बिना मेरे साइन के मान्य नहीं होगा और हमें डराते कि कर रहा हूँ। उनके हस्ताक्षर किये हुए तमाम कागजात आज मेरे मेज और अलमारी में हैं। जिन दिनों मैं अपना एमफिल लिख रहा था, और बाद में पीएचडी की थीसिस लिखने के दौरान उनको दिखाए हर पेज पर उनका दस्तखत मौजूद होगा।

आचार्य से आप कोई बात बताइये अगर बात सही है तब तो मान लेंगे कि सही कह रहे हो डॉ., और किंचित मात्र सहीं नहीं है तो फिर कहेंगे - अच्छा (फिर किसी बड़े विद्वान् का नाम लेकर) एक वे हुए थे और एक आप विद्वान्। आचार्य लोक की कहावतों और मुहावरों का खूब प्रयोग करते थे, अपनों के बीच ठेठ भदेस भी चलता और समाज में सामजिक। लोकगीतों के बड़े जानकार थे और ऐसा नहीं था कि ये जानकारी गाँव में रहने के कारण हुई, वे तो हाईस्कूल से ही बनारस जैसे बड़े शहर में रहते थे मगर लोक के प्रति जो उनका जुड़ाव था, वे उन्हें उस तरफ खीच ले जाता था, आप उनकी कविताओं में लोक के प्रति विशेष आग्रह देखेंगे। जब कभी आप उन्हें कहीं राह चलते देखकर पूछ दीजिये यहाँ कहाँ आचार्य? तो जवाब हाजिर है, ‘सड़क का आदमी हूँ सड़क पर ही मिलूँगा’। और यात्रा मंर रुकने के प्रबन्ध पर जवाब था कि, ‘दिन बागों में बीता / रात पटरी पे सोया’। ये सब बातें हम किससे सुनेंगे! जिन्दगी में तमाम लोग आपको मिलेगे जो आपका भला करेंगे, और जब भला करेंगे तो आपको अच्छे भी लगेंगे। मगर अच्छे तो तब है कि किसी का बुरा न करते हों। आचार्य ऐसे ही थे, आजतक किसी का बुरा नहीं किया जहाँ तक हो सका सबका भला करने की ही कोशिश की। कितनी बार मैंने देखा कि यह जानते हुए कि सामने वाला आचार्य के खिलाफ है, आचार्य कभी उसके खिलाफ नहीं हुए।

आचार्य किस तरह हमारे बीच से चले गये इस पर मुझे कभी भरोसा नहीं हुआ, जितने नियम सयंम से वे रहते थे शायद ही छात्र जीवन में लोग पालन कर पाए। मुझे न लगा है न लगेगा, बस यही बात दु:ख देती है कि वे अब फोन नहीं करते नहीं तो एमए के बाद से बहुत गम्भीर परिस्थिति में ही कोई दिन हो जिस दिन हमारी बात न हुई हो, अन्यथा मैं कहीं रहूँ बिना आचार्य से बात किये दिन नहीं गुजरता था। अब गुजार रहा हूँ इससे बड़ा दु:ख और क्या देखना था इस जीवन में अभी। अन्दर से एक ललक थी जो कुछ जानता आचार्य से बता देता, ऐसी सारी बातें जमा हो रही हैं कि जब आचार्य मिलेंगे तो उनसे बताने के लिए। मुझे आजीवन इस बात पर गर्व रहेगा कि मैंने आचार्य के साथ पढ़ाई की है उनके संरक्षण में जीवन व्यतीत किया है। होने और न होने की कोई बात नहीं आचार्य जैसे पहले थे वैसे आज भी है मेरे साथ...।
 (यह संस्मरणात्मक आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित है) 
आदित्य विक्रम सिंह

 

03 September 2014

अँगिका मुस्लिम समाज की बदहाली

(यह आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित है।)  

नेपाल के बार्डर से सटा बिहार का कटिहार, किशनगँज, अररिया, पूणियाँ, सुपोल, मधेपुरा और सहरसा जिला सीमाँचल क्षेत्र के नाम से ज्यादा जाना जाता है। पूरे देश में सीमाँचल का यह क्षेत्र मुस्लिम आबादी के हिसाब से देश के बाकी हिस्सों से प्रतिशत में कहीं ज्यादा है। सीमाँचल के इस क्षेत्र में मुस्लिम जनसंख्या 30 से 35% है। यही कारण है कि गत लोकसभा चुनाव में बिहार में जहाँ 40 सीटों में 31 सीटें भाजपा गठबन्धन ने जीती, वहीं इस क्षेत्र की आठ की आठ सीटें भाजपा बुरी तरह हारी।

लेकिन सच यह भी है कि पूरे देश में मुसलमानों की सबसे खस्ता ओर बदहाल स्थिति इसी क्षेत्र में है। इस बदहाली में बहु–संख्यक समाज के कई वर्ग भी बराबर के भागीदार हैं। दरअसल यह पूरा क्षेत्र सिर्फ कृषि पर ही निर्भर है। लेकिन नेपाल से सटे और हिमालय की तराई में होने के कारण ऐसा कोई साल नहीं बीतता, जब यह क्षेत्र बाढ़ की विभिषका झेलने को मजबूर न रहा हो। हर साल गंगा, कोशी और महानन्दा जैसी नदियों में आयी बाढ़ से इस क्षेत्र के हजारों एकड़ फसल ही नहीं, बल्कि गाँव के गाँव बर्बाद होते रहते हैं। अगर कहीं पाँच–सात साल में 2008 जैसा प्रलय आ जाता है तो फसल और गाँव के साथ हजारों जीवन भी काल के गाल में समा जाते हैं।

लेकिन आजादी के बाद से आज तक काँग्रेस या अन्य क्षेत्रीय दलों के किसी सरकार ने इस क्षेत्र की बाढ़ की विभिषका से बचाने के लिये कभी कोई सार्थक प्रयास नहीं किया। राज्य की सरकारें इसे भारत और नेपाल के बीच का अन्तर्राष्ट्रीय मामला बताकर अपना दामन बचाती रही और केन्द्र सरकार बाढ़ के नाम पर इस क्षेत्र के लिये कुछ राशि आवँटित कर अपना पीठ ठोकती रही। सीमाँचल के लोग बाढ़ को अपने भाग्य के साथ जोड़कर इसको अपना नियति मानते रहे और इसी का दँश झेलते रहे।
 दूसरी ओर इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करने के लिये भी किसी सरकार ने कभी कोई प्रयास नहीं किया। न ही इस क्षेत्र में औद्योगिक विकास के लिये कोई कदम उठाया गया और ना ही माईक्रो या लघु उद्योग को बढ़ावा देने के लिये कोई प्रयास किया गया। परिणामत: गरीबी, भूखमरी और बेरोजगारी का इस क्षेत्र में ऐसा ताण्डव चला कि लाखों युवक पलायन कर दूसरे प्रदेशों में जाने को विवश हो गये। आज की तारीख में इस क्षेत्र के 50% से ज्यादा युवक दूसरे प्रदेशों में मजदूरी कर रहे हैं। बिहार से मजदूरों के पलायन की जो बात जोर–शोर से उठाई जाती है, उसमें दो मुख्य सच्चाई को गौण कर दिया जाता है। पहला, बिहार से पलायन कर बाहर मजदूरी करने वाले लोगों में सबसे ज्यादा संख्या सीमाँचल क्षेत्र के नौजवानों की होती है और दूसरा, बाहर जाकर मजदूरी करने वाले ये नौजवान दैनिक मजदूर नहीं, बल्कि सम्भ्रान्त परिवार के वे पढ़े–लिखे युवक हैं जो हालात से मजबूर होकर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा या मुम्बई मजदूरी करने निकल पड़ते हैं।

और सीमाँचल क्षेत्र से पलायन कर बाहर मजदूरी के लिये जाने वाले युवकों में सबसे ज्यादा संख्या इस क्षेत्र के जिस समाज की है, उसे यहाँ अंगिका मुस्लिम समाज कहा जाता है। दरअसल, सीमाँचल क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा महाभारत काल में अँग क्षेत्र कहलता था और आज भी यहाँ जो भाषा गाँव देहातों में बोली जाती है, उसे अँगिका भाषा कहा जाता है जो वहाँ के मूल निवासीयों की भाषा है। आज सीमाँचल क्षेत्र के जो मुसलमान अँगिका भाषा बोलते है, ये यहाँ के मूल निवासीयों के वँशज है जिनके पूर्वजों ने कभी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और अंगिका भाषी होने के कारण इन्हें अंगिका मुस्लिम कहा जाता है।

वैसे तो सीमाँचल क्षेत्र में अंगिका मुस्लिम के अलावा भी कुलहैया, सुरजा पुरी, भाटिया दरभंगिया मुस्लिम समाज की भी अलग–अलग क्षेत्रों में अच्छी आबादी है और इनके आलावा शिया, सैयद, पठान, अँसारी, मँसूरी, राइन, भाँट, सब्जीफरोश बिरादरीयाँ भी कुछ जगहों पर निवास करती है, लेकिन सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद आज अंगिका मुस्लिम समाज इस क्षेत्र का सबसे पिछड़ा समाज है और शैक्षणिक, आर्थिक राजनीतिक क्षेत्र में यह समाज दलितों और महादलितों से भी काफी पीछे है। आर्थिक तौर पर यह समाज इतना जर्जर है कि आज इस समाज के 50% से ज्यादा युवक दिल्ली, मुम्बई, पंजाब, हरियाणा, हिमांचल, बंगाल, राजस्थान यहाँ तक कि गोवा तक में मजदूरी या प्राइवेट दुकानों, फैक्ट्रियों में नौकरी कर रहे हैं। स्थानीय स्तर पर भी पूर्णियाँ, कटिहार जैसे शहरों मे और छोटे कस्बों में इस समाज के लोग साईकिल रिपेयरिंग, मोटर साईकिल रिपेयरिंग, सेल्फ–डायनेमो रिपेयरिंग, वेल्डिंग, पेन्टिंग एवं फल, सब्जी और छोटे किराना दुकानों तक ही सीमित हैं और बड़े कारोबार में इस समाज की उपस्थिति नगण्य है।
 शैक्षणिक स्तर पर भी यह समाज सीमाँचल के बाकी समाज से काफी पीछे है। अधिकाँश बच्चे मदरसा में थोड़ी तालीम हासिल कर आर्थिक तँगी के कारण कहीं न कहीं काम में लग जाते है। बहुत कम ही बच्चे स्कूल और कॉलेजों का मुँह देख पाते हैं। यही कारण है कि छ: जिलों में काफी बड़ी आबादी होने के बावजूद इस समाज में एक भी आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर या कोई बड़ा गजेटेड अफसर नहीं है। मिला–जुला कर कुछ सौ लोग शिक्षक या किरानी की नौकरी में हैं।

कृषि–आधारित क्षेत्र होने के बावजूद अंगिका मुस्लिम समाज के लोगों की उपस्थिति इस क्षेत्र में भी बहुत अच्छी नहीं है। चूँकि अँग्रेजों ने इस पूरे क्षेत्र में बाहर से जमीनदारों को लाकर यहाँ के मूल निवासियों को उनका रैयत बना दिया था। इसलिये अँग्रेजों के जमाने में भी अंगिका मुस्लिम जमीनदारों के रैयत बने रहे और जमीनदारी-प्रथा समाप्त होने के बाद भी इनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। ज्यादतर तो खेतिहर मजदूर ही बने रहे और जिन के पास पाँच–दस बीघा खेती की जमीन भी थी, कालान्तर में परिवार में बँटवारे के बाद वे भी उसी स्थिति को पहुँच गये। अस्सी के दशक के बाद एक समय ऐसा भी आया जब पलायन ही इस समाज के युवकों का एक मात्र सहारा बन कर रह गया।

राजनीतिक तौर पर इस समाज की हालत यह है कि आजादी के 67 साल गुजर जाने के बाद भी इस समाज से कोई व्यक्ति सांसद या विधायक नहीं बन पाया और न ही इस समाज में ऐसा कोई राजनीतिक नेतृत्व ही उभर पाया जो इस समाज की आवाज उठा सके। परिणाम स्वरूप साल–दर–साल इस समाज की स्थिति यह है कि यह समाज राजनीतिक दलों के लिये सिर्फ वोट बैंक बन कर रह गया है। हर चुनाव में राजनीतिक दलों के बीच इस समाज का वोट पाने के लिये पैसे लुटाने की होड़-सी मच जाती है। लेकिन टिकट बँटवारे के समय सभी पार्टियों द्वारा इस समाज के लोगों को सिर्फ इसलिये अनदेखा कर दिया जाता है कि इस समाज के लोग आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं। और वर्तमान समय में चुनाव सिर्फ धन-बल वालों की जागीर बन कर रह गयी है।
 कुल मिला कर सीमाँचल में अंगिका मुस्लिम समाज आज एक ऐसा अति–पिछड़ा समाज है जिसके शैक्षणिक और आर्थिक विकास की बहुत सख्त जरूरत है लेकिन सरकार बीपीएल का 15 किलो गेहूँ और 10 किलो चावल देकर और इनके गाँवों में आँगनबाड़ी केन्द्र खोलकर आज भी इस समाज को उसी स्थान पर रखना चाहती है, जहाँ ये सिर्फ वोट बैंक ही बन कर रहें, बीपीएल का राशन पाकर सरकार का एहसानमन्द बने रहे और इतने जागरुक न हो जाएं कि यहाँ की राजनीति पर बर्चस्व जमाए कुछ नेताओं के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो जाए, क्योंकि सीमाँचल का यह क्षेत्र प्रारम्भ से ही यहाँ के कुछ अन्य मुस्लिम समाज के जिन में कुलहैया मुस्लिम समाज और सुरजा पुरी मुस्लिम समाज प्रमुख हैं, उनके नेताओं की जागीर बन कर रह गयी है। आजादी के बाद से अब तक जहाँ कुलहैया मुस्लिम समाज से स्व. मो. ताहीर, स्व. जमीलु रेहमान, स्व. हलीम उद्दीन और श्री तसलीमुद्दीन आज भी अररिया से लोकसभा सदस्य हैं। बिहार विधानसभा में भी कुलहैया मुस्लिम समाज से प्रारम्भ से लेकर अब तक कोई दो दर्जन लोग विधायक और मन्त्री रह चुके है जिनमें श्री तसलीमुद्दीन, स्व. अजीमुद्दीन, स्व. मोईदुर्रहमान, स्व. मुजफ्फर हुसेन, सरफराज आलम, मन्जर आलम, सबा जफर आदि प्रमुख हैं। बिहार की राजनीति पर कुलहैया समाज के नेताओं का इतना गहरा असर है कि सीमाँचल का एक सम्पन्न समाज होने के बावजूद इन्हें एनेक्सर–1 का दर्जा मिल गया है और यह मुसलमानों के अति–पिछड़ी जाति में शामिल होकर आरक्षण का लाभ प्राप्त करने में सफल हो गये हैं।

सीमाँचल का दूसरा राजनीतिक तौर पर सम्पन्न मुस्लिम समाज सुरजापुरी मुस्लिम समाज है। किशनगँज से लोकसभा सांसद मौलाना असरारुल हक इसी समाज से हैं। आजादी के बाद से अब तक इस समाज से भी लगभग दो दर्जन लोग विधायक और मन्त्री रह चुके हैं जिनमें स्व. नईम चान्द, स्व. माँजन इंसान, स्व. मो. हुसेन आजाद, स्व. रफीक आलम, श्री महबूब आलम, हाजी अब्दुल सुभान, तौसीफ आलम, जलील मस्तान, जाहिपुरहमान, अख्तरुल ईमान, नौशाद आलम आदि प्रमुख है। आज भी बिहार विधानसभा में हाजी अब्दुल सुभान, तौसीफ आलम, नौशाद आलम आदि सीमाँचल क्षेत्र से विधायक है। शैक्षणिक रूप से भी यह समाज काफी आगे है और इस समाज के कई लोग सरकारी नौकरी में बड़े पदों पर है। पूर्णियाँ, कटिहार, अररिया, किशनगँज जैसे शहरों में इस समाज के सौ से भी ज्यादा डॉक्टर हैं जो सरकारी अस्पतालों में पदास्थापित हैं या अपना प्राईवेट क्लिनिक चला रहे हैं। राजनीतिक वर्चस्व के कारण इस समाज को भी आरक्षण का लाभ मिला हुआ है।

सीमाँचल क्षेत्र का एक और मुस्लिम समाज जिसे भाटिया या शेर शाहवादी मुस्लिम समाज कहा जाता है, मूल रूप से बंगला भाषी समाज है और आजादी के बाद पश्चिम बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद जिला से पलायन कर इस क्षेत्र में आकर बसा है। लेकिन बहुत कम समय में इस समाज ने आर्थिक रूप से काफी तरक्की की है। और राजनीति में भी अपनी अलग हैसियत बनाने में सफलता पाई है। अब तक इस समाज से स्व. मुबारक हुसेन, अब्दुल शकूर और मन्सूर आलम बिहार विधानसभा में विधायक और मन्त्री रह चुके हैं और अपनी राजनीतिक हैसियत के बल पर अपने समाज को अति–पिछड़ी जाति में शामिल करा कर आरक्षण का लाभ दिलाने में सफल रहे हैं।
 पाँचवा मुस्लिम समाज जो सीमाँचल क्षेत्र का सबसे सम्पन्न मुस्लिम समाज कहलाता है, उसे दरभंगिया मुस्लिम समाज कहते हैं। सीमाँचल के मुसलमानों में यह समाज शिक्षा के क्षेत्र में सबसे आगे है। ये लोग दरअसल दरभंगा से आकर यहाँ बसे हैं और सीमाँचल के 20–22 गाँवों में ही इनकी आबादी है। लेकिन इस समाज में सबसे ज्यादा डॉक्टर, इंजीनियर, गजेटेड अफसर और सरकारी विभाग में नौकरी करने वाले लोग हैं। विदेशों में भी इस समाज के सैकड़ों युवक अच्छी नौकरी कर रहे हैं। राजनीतिक तौर पर भी इस समाज के लोगों ने सीमाँचल की राजनीति पर मजबूत पकड़ बना रखा है। स्व. मो. यासीन, स्व. अजीमुद्दीन और श्री आफाक आलम बिहार विधानसभा में इस समाज से प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और श्री आफाक आलम वर्तमान में कसबा विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। इस समाज के भी अधिकाँश लोगों ने अपने को शेखरा दर्शाकर आरक्षण का लाभ लिया है।

सीमाँचल में अन्य मुस्लिम बिरादरी में शिया, सैयद, पठान, अंसारी, मँसूरी, राईन, भाँट, सब्जीफरोश आदि की भी छिट–फुट आबादी हैं। इनमें जहाँ शिया, सैयद, पठान आर्थिक और राजनीतिक तौर पर काफी मजबूत स्थिति में हैं, वहीं अंसारी, मन्सूरी और अन्य की गिनती आज भी समाज को दबे–कुचले तबक में होती है और इनकी स्थिति अंगिका मुस्लिम की स्थिति से भिन्न नहीं है। फिर भी राजनीति के क्षेत्र में इस समाज से मुन्ना मुस्ताक और जाकोर अनवर बैराग विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके है।

जहाँ तक सैयद बिरादरी का सवाल है, नगण्य जनसंख्या होने के बावजूद सीमाँचल की राजनीति पर इनका दबदबा बना हुआ है। अब तक इस समाज से सैयद शहाबुद्दीन और सैयद शाहनवाज हुसेन किशनगँज का लोकसभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और शाह तारिक अनवर कटिहार से पूर्व में कई बार सासंद रह चुके हैं और वर्तमान में भी कटिहार से लोकसभा सांसद है। बिहार विधानसभा में भी सैयद रुकनुद्दीन वायसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। वर्तमान में सैयद महमूद अशरफ का भी सीमाँचल की राजनीति में गहरा असर है। और वह इस क्षेत्र में जदयू के एक कद्दावर नेता माने जाते हैं। शिया बिरादरी से भी सैयत गुलाम हुसेन कसबा विधानसभा क्षेत्र से पूर्व में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
हर लिहाज से कमजोर होने के कारण जहाँ समाज आरक्षण का सबसे बड़ा हकदार था, इससे वंचित रखा गया और सरकार बनाने, बचाने या गिराने में जिस समाज को राजनीतिक हैसियत थी, उसे आरक्षण का लाभ दिया गया। जहाँ तक अंगिका मुस्लिम की जाति शेख होने का सवाल है तो यहाँ जमीन के खतियान (केबाला) में कुलहैया, सुरजापुरी, भाटिया, दरभंगिया सभी मुसलमानों की जाति शेख ही दर्शाई जाती रही है। फिर भी अगर अवहेलना अंगिका मुस्लिम समाज की ही हो रही है तो इस का सीधा कारण यही है कि अति-पिछड़ा एवं कमजोर समाज होने के कारण न तो इस समाज में सशक्त नेतृत्व है, न ही कभी इस समाज ने अपने हक के लिए आवाज बुलन्द की है।

पिछले कुछ महीनों से अति–पिछड़ा समाज और अंगिका मुस्लिम समाज के कुछ बुद्धजीवी और समाजिक कार्यकर्ताओं ने आपस में मिल बैठकर अपने हक की लड़ाई के लिये एक नयी शुरुआत का फैसला किया है। इस सम्बन्ध में पूणियाँ के पूर्व लोक अभियोजक मो. युनुस, अति–पिछड़ा समाज के ही लालबाबू साहनी, दिलिप मेहता, प्रो. सुरेन्द्र शोषण, प्रो. निरंजन मण्डल, जनार्दन मिस्त्री, स्वरूप लाल ठाकुर एवं अंगिका मुस्लिम मण्डल, जनार्दन मिस्त्री, स्वरूप लाल ठाकुर एवं अंगिका मुस्लिम समाज के मो. जुबेर आलम, हाजी अब्दुल सत्तर, जावेद तुफेल, मुमताज दानिश, हैदर अली, कारी शमीम आदि ने एक बैठककर अपने हक की लड़ाई के लिये एक संयुक्त आन्दोलन शुरू करने का फैसला किया है। अति–पिछड़ा समाज के प्रमण्डलीय संयोजक श्री दिव्य प्रकाश का कहना है कि अंगिका मुस्लिम समाज सीमाँचल में अति–पिछड़े समाज का ही एक हिस्सा है, दोनों की समस्याएँ समान हैं, स्थिति समान हैं इसलिए हक की लड़ाई भी साथ मिल कर ही लड़ेंगे। अगर दोनों समाज ने मिलकर अपनी हक की लड़ाई शुरू कर दी तो निश्चित रूप से यह सीमाँचल की राजनीति में एक बड़े बदलाव को जन्म देगी। 
- एम. आलम ‘रहबर’