10 September 2014

मुनादी - "सवाल भाषा के लोकतन्त्र का"


(संपादकीय 'मुनादी' के माध्यम से आज से सितंबर 2014 अंक की शुरुआत...)

‘संघ लोक सेवा आयोग’ की सिविल सेवा परीक्षा में सीसैट के सवाल पर यदि छात्र एकजुट होकर आन्दोलित नहीं होते तो अँग्रेजी बनाम भारतीय भाषा का प्रश्न पीछे ही रह जाता। यह एक सुखद संयोग है कि इस बार भाषा की बहस हिन्दी बनाम अँग्रेजी के बजाय अँग्रेजी बनाम भारतीय भाषाओं पर है।

सीसैट वाली सिविल सेवा की परीक्षा अब तक तीन बार हो चुकी है, और इन तीन वर्षों में भारतीय भाषाओं के माध्यम से अन्तिम रूप से चुने जाने वाले उम्मीदवारों की संख्या पन्द्रह-बीस प्रतिशत से घटकर पाँच प्रतिशत से भी कम हो गयी है। 2014 के अन्तिम परिणामों में कुल चुने हुए 1122 अधिकारियों में से भारतीय भाषाओं के माध्यम से मात्र 54 चयनित हुए है, इसमें हिन्दी माध्यम से मात्र 26 चुने गये हैं। एक खतरनाक आँकड़ा यह भी है कि जहाँ तीन वर्ष पहले तक चयनित सूची में शीर्ष से सौ तक में भारतीय भाषाओं के माध्यम से चुने जाने वाले अधिकारियों की संख्या बीस से ज्यादा होती थी अब वह शून्य हो गयी है।

यह सब पिछले तीन वर्षों में हुआ जब से सीसैट लागू हुआ है। और इसी दौर में सिविल सेवा की परीक्षा के परिणामों पर अँग्रेजीदां और शहरी पृष्ठभूमि के लोगों का वर्चस्व बढ़ा है। यही नहीं साहित्य, समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, इतिहास आदि विषयों के उन छात्रों के लिए यह परीक्षा लगातार कठिन होती जा रही है जो ग्रामीण पृष्ठभूमि के पिछड़े इलाके से हैं। आजादी के 67 वर्षों के बाद भी भारत जो अब भी गाँवों का देश है जैसे लोकतान्त्रिक देश का शासक वर्ग ग्रामीण भारत की उपेक्षा कर रहा है तो इस उपेक्षा को साजिश के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

2001 की जनगणना के अनुसार 2011 की जनगणना का भाषा सम्बन्धी ब्यौरा अभी तक नहीं आया है। भारत में प्रथम भाषा के रूप में अँग्रेजी का प्रयोग करने वालों की कुल संख्या 226499 है। लगभग 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सवा दो लाख लोगों की जो भाषा है वह अन्य भारतीय भाषाओं पर राज करे, इस वर्चस्व की संस्कृति को समझने की जरूरत है।

यहाँ जब अँग्रेजों का राज था तो अँग्रेजी ही सरकारी भाषा थी। देश जब आजाद हुआ तो लोगों की यह उम्मीद बनी थी कि कोई देशी भाषा सरकार की भाषा होगी। लेकिन पिछले 67 वर्षों का इतिहास इस बात का गवाह है कि देशी शासक वर्ग ने अँग्रेजी के लिए ही मार्ग प्रशस्त किया। जिसका नतीजा यह हुआ कि भारत में अँग्रेजियत की जड़ ज्यादा मजबूत हुई है। इसलिए यह अकारण नहीं कि भारत में अँग्रेजी का प्रभाव सिर्फ भाषा के स्तर तक नहीं रही इसने अपना एक सांस्कृतिक साम्राज्य भी बना लिया है। अँग्रेजी भाषा रुतबे और रुबाब की भाषा और देशी भाषाएँ पिछड़ेपन की प्रतीक बन गयी हैं। अँग्रेजी का यह वर्चस्व भारतीय लोकतन्त्र और भारतीय समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है।

विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू होने के बाद से ढेर सारे ऐसे छात्रों ने उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला पाया जो गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासी परिवारों के हैं। आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक सम्मान के लिए उच्च शिक्षा इनकी जरूरत है। लेकिन विश्वविद्यालयों में जब ये अँग्रेजी का आतंक देखते हैं तो इनके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट जाता है। भाषा का यह आतंक छात्र–छात्राओं में सिर्फ कुण्ठा पैदा नहीं करता बल्कि अपमान और प्रताड़ना कभी–कभी आत्महत्या की वजह बन जाती है। इसलिए भाषायी लोकतन्त्र के बिना सामाजिक न्याय नहीं हो सकता और वह लोकतन्त्र ही क्या जिसमें सामाजिक न्याय नहीं हो।

भारत के अलावा शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जिसकी कोई राष्ट्र भाषा नहीं होगी। पाकिस्तान, श्रीलंका, बंगलादेश, नेपाल सबकी एक राष्ट्र भाषा है, पिर भारत इस मामले में इतना विपन्न क्यों है? वह वक्त था जब टी. टी. कृष्णामाचारी ने ‘सम्पूर्ण भारत’ और ‘हिन्दी भारत ‘ की विभेदक रेखा खींचकर हिन्दी की मुखालपफत की थी। हिन्दी का राजनीतिक विरोध अब भी है। अभी कुछ ही दिन पहले केन्द्र सरकार ने विभिन्न मन्त्रालयों को अपने वेबसाइट पर हिन्दी में पोस्ट करने का निर्देश दिया था। तमिलनाडु से इसका तीव्र विरोध हुआ। लेकिन सच्चाई यह भी है कि हिन्दी का सांस्कृतिक वितान अब काफी व्यापक हुआ है। देश और दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ हिन्दी भाषी नहीं पहुँचे हैं। हिन्दी सिनेमा और हिन्दी धारावाहिक पूरे देश में देखे जाते हैं। हिन्दी का ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ दक्षिण में धूम मचा चुका है। सिर्फ अमिताभ बच्चन के कार्यक्रम में करोड़पति बनने के लिए नहीं बल्कि हिन्दी पट्टी में नौकरी के लिए भी दक्षिण के लोग हिन्दी सीख रहे हैं। दक्षिण की राजनीतिक पार्टियाँ हिन्दी भाषी मतदाताओं को रिझाने के लिए हिन्दी में पर्चा बाँटती हैं और केन्द्र का एक मन्त्रालय अपने वेबसाइट पर हिन्दी में कुछ पोस्ट करता है तो पिर उसका विरोध क्यों? 1963 की राजभाषा अधिनियम को यदि ठीक से लागू किया गया होता तो हिन्दी विरोध की हवा बहुत पहले निकल गयी होती। उस अधिनियम के अनुसार मातृभाषा के अलावा दो और भाषाओं को पढ़ाने का प्रावधान था। उत्तर में दक्षिण और पूरब की भाषाएँ और दक्षिण में उत्तर और पूरब की भाषाएँ। यह होता तो देश भर में भाषा के सन्दर्भ में समरस राष्ट्रीय माहौल होता। यह चूक शासन से हुई है और समाज से भी। अँग्रेजी ने सोच समझकर इस चूक का भरपूर फायदा उठाया।

एक भाषा के रूप में अँग्रेजी के विरोध का कोई अर्थ नहीं है। बल्कि ज्ञान की भाषा के रूप में अँग्रेजी का कद्र होना चाहिए। यहाँ यह सवाल उठाया जा सकता है कि सिर्फ अँग्रेजी का ही कद्र क्यों, फारसी और संस्कृत का क्यों नहीं? राजभाषा अधिनियम के अनुसार अँग्रेजी भी भारतीय भाषाओं में से एक है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत आने के बहुत दिनों बाद लगभग 1835 में अँग्रेजी काम काज की भाषा बनी। उसके पहले सदियों से यहाँ के जन-गण की भाषा फारसी थी। विद्यालयों और मदरसों में फारसी और संस्कृत साथ-साथ पढ़ाई जाती थी। तब के विद्वानों ने वेदों का अनुवाद फारसी में किया था। वह फारसी भारत के संविधान के अनुसार भारतीय भाषा नहीं रही और अँग्रेजी भारतीय भाषा हो गयी यह कैसा विधान है? दरअसल, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बहाने अँग्रेज मुगलों को खदेड़कर अपना शासन स्थापित कर रहे थे, इस प्रक्रिया में वे मुगल शासक की भाषा को भी खत्म करना चाहते थे और एक हद तक उन्होंने किया भी। भाषा और संस्कृति जिसने जीत ली उसने देश जीत लिया। यह बात अँग्रेज अच्छी तरह से समझते थे इसलिए उन्होंने अपने शासन से ज्यादा अपनी भाषा को जमाया, यही कारण है कि आज भी अँग्रेजी उखड़ नहीं रही है। एक बार भगत सिंह ने कहा था कि हमें देश की आजादी और भाषा की आजादी में से एक चुनना पड़ा तो मैं भाषा की आजादी चुनूँगा, क्योंकि भाषा यदि आजाद हो गयी तो देश आजाद होगा ही और भाषा गुलाम ही रहे तो फिर देश के आजाद होने का कोई अर्थ नहीं है। दरअसल, अपनी भाषा गवाँकर हमने एक अर्थहीन आजादी हासिल की है। इस आजादी से हम भगत सिंह की आत्मा को चोट ही पहुँचा रहे हैं।

(पाठकों की मांग के अनुरूप आज से हर दिन 'सितंबर 2014' अंक का एक नया आलेख यहां पोस्ट किया जाएगा.)   

संपादक - किशन कालजयी

No comments:

Post a Comment