12 September 2014

भाषा, राष्ट्र और बाजार


बिलकुल साफ है कि आज अँग्रेजी की जितनी व्यापक पहुँच है और उसका बौद्धिक दबदबा है, हिन्दी का नहीं है। एक तरफ अँग्रेजी थोपी जा चुकी है, दूसरी तरफ राष्ट्रभाषा–राष्ट्रभाषा की आवाज है। बेहिचक कहना होगा कि ये दोनों ही शक्ति–प्रदर्शन के मामले हैं। हाल में फिर राष्ट्रभाषा की बात उठी, जबकि संविधान में राष्ट्रभाषा जैसी कोई चीज नहीं है। हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह राष्ट्रीय भाषा है। इसलिए जब भी ‘राष्ट्रभाषा’ की माँग उठती है, इसके साथ ‘आर्यवर्त’, ‘हिन्दी साम्राज्यवाद’ और ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ के दैत्य जी उठते हैं फिर दक्षिण के, खासकर तमिलनाडु के विरोध से मामला तुरन्त ठण्डे बस्ते में चला जाता है। यह राजनैतिक ड्रामा अक्सर होता है,’ जबकि भाषा का प्रश्न आम आदमी के लिए अस्मिता का ही नहीं अस्तित्व का भी प्रश्न है। हिन्दी के समावेशी विकास, हिन्दी राज्यों में हिन्दी में राजकाज और केन्द्रीय सरकारी दफ्तरों में अँग्रेजी का दबदबा हटाकर हिन्दी के ज्यादा से ज्यादा प्रयोग की जगह जो सिर्फ ‘राष्ट्रभाषा’ हुँकारते है, उनके सम्बन्ध में पहली चीज यह समझ लेनी चाहिए कि उन्हें हिन्दी से जातीय प्रेम नहीं है।

राधाकृष्णन कमीशन रिपोर्ट (1949) ने सिपफारिश की थी कि हिन्दी के साथ राष्ट्र की क्षेत्रीय भाषाओं का विकास किया जाएगा और 15 साल के भीतर क्षेत्रीय जातीय भाषाओं में पाठ्य पुस्तकें तैयार की जाएँगी, विज्ञान की किताबें बनेंगी, यहाँ तक कि ये भाषाएँ अन्य शिक्षा का माध्यम बनेंगी। इन लक्ष्यों में एक बड़ा लक्ष्य सभी राष्ट्रीय भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाना है। इस पर चर्चा बार–बार होती है, पर यह कार्य कभी किया ना जा सका। 2007 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक फैसले के तहत तय हुआ कि हिन्दी में ज्ञान–विज्ञान के विषयों पर मौलिक पुस्तकें उन हिन्दी विद्वानों से लिखाई जाए, जो अँग्रेजी में लिखते हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक के रूप में मैं इस फैसले की प्रक्रिया से जुड़ा था। मैंने एक आरम्भिक कार्य योजना बनवाकर भेजी। यह सुझाव दिया कि देश के कुछ विश्वविद्यालयों में इसके लिए एक सेल बनाकर कार्य आरम्भ किया जा सकता है और हिन्दी में प्रबन्धन, इंजीनियरिंग, तकनीकी, समाजविज्ञान, चिकित्सा विज्ञान आदि की मौलिक किताबें तैयार की जा सकती हैं। इसमें हिन्दीतर विद्वान भी सुझाव के लिए रखे जाएँ। यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। हिन्दी में मनोरंजन उद्योग की धूम है। देश के कोन–कोने में हिन्दी गाने बज रहे हैं। हिन्दी ‘गंगा आरती’ की भाषा बनी हुई है लेकिन ज्ञान–विज्ञान और तकनीक की भाषा के रूप में हिन्दी गायब है। किसी भाषा की समृदधि का एक लक्षण है, उसमें कोई अच्छा विश्वकोश है या नहीं। इस मामले में भी दरिद्रता नंगी खड़ी है।

राष्ट्रीय भाषाओं की तरक्की के बिना न राष्ट्र की वास्तविक तरक्की हो सकती है और न सच्चा लोकतन्त्र आ सकता है। आज अँग्रेजी पर दखल रखने वालों का ही देश और दुनिया पर दखल है। अँग्रेजी ही सही अर्थ में पावर की भाषा है। अँग्रेजी में लिखा भारतीय साहित्य ही दुनिया में भारतीय साहित्य के रूप में जाना जाता है। अपने हिन्दी लेखक घर में अपने को शब्द–वीर समझते रहें। बिल्कुल साफ है कि हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं का आजादी के 67 साल बाद भी सशक्तीकरण नहीं हुआ है। सिर्फ बौद्धिक आवाजों को दबाए रखने के लिए साहित्य की सरकारी अकादेमियाँ और संस्थान बने हुए हैं। पुरस्कारें लो, शान्त रहो। हिन्दी में आत्मविमुग्धता और कूपमंडूकता ज्यादा है।

हिन्दी का जन्म आजाद, राष्ट्रीय और लोकतान्त्रिक मानसिकता की देन है। हिन्दी मानसिक आजादी की भाषा है। भक्ति आन्दोलन के लम्बे दौर में हिन्दी क्षेत्र के बाहर दूसरे जातीय क्षेत्रों के कवियों ने भी हिन्दी में रचनाएँ कीं। जिस महाराष्ट्र में हिन्दी लोगों के विरूद्ध बीच–बीच में कट्टरवादी नेता घृणा फैलाते रहे हैं, वहीं 60 से ज्यादा भक्त कवियों ने हिन्दी में रचनाए लिखी हैं। दक्षिण से रामानंद उत्तर आए थे। स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में उपनिवेशवाद से लड़ते हुए हिन्दीतर नेाताओं ने राष्ट्रीय होने के लिए हिन्दी का रास्ता चुना था। लेकिन उपनिवेशवाद से लड़ते हुए भी भारतीय बुद्धजीवी और मध्य वर्ग के शिक्षित लोग आमतौर पर औपनिवेशिक आदर्शों को ही अपना रहे थे। वे पश्चिमी जीवन शैली और अँग्रेजी के सामने अपनी परम्पराओं को पिछड़ा मानते थे। औपनिवेशिक शासन ने पिछड़ाबोध के बीज इतने गहरे बैठा दिए कि अब हम वहाँ पहुँच गये हैं कि यदि हम अँग्रेजी में निपुण हैं तो हिन्दी बोलने में ग्लानि का अनुभव करते हैं। यह बोध मिट गया है कि हमें कहीं मानसिक आजादी की भी जरूरत है।

इस समय राष्ट्र अँग्रेजी की मुट्ठी में है, लोकतन्त्र अँग्रेजी की मुट्ठी में है। हिन्दी सिर्फ लाल किले पर 15 अगस्त की भाषा है। यह मान लेने की कोई वजह नहीं है कि राष्ट्र के प्रति बहुलतावादी दृष्टिकोण के बिना और लोकतन्त्र को सच्चे अर्थ में अपनाए बिना कभी हिन्दी और भारतीय भाषाओं का देश में सम्मान बढ़ेगा। इस जमाने में ‘फूड डालो–ग्लोबल बनाओ’ की सोची–समझी रणनीति के तहत ‘राष्ट्रभाषा बनाम दक्षिण भारत’ का बवाल खड़ा किया जाता है। 2014 में कुछ वही दुहराया गया, जो 1965 में घटा था, जब तमिलनाडु में लगभग 200 जानें गयी थीं। बहस की एक फिर वैसी ही लहर आयी है और यह बिना कुछ मूल्यवान दिए कर्मकाण्ड की तरह सम्पन्न हो जानेवाली है। यदि केन्द्रीय सरकार देश में हिन्दी की स्वीकार्यता के लिए सचमुच कुछ करना चाहती है, तो सबसे पहले वह हिन्दी को ज्ञान–विज्ञान और अन्तर्राष्ट्रीय मंच की भाषा बनाए। इसके अलावा हिन्दी क्षेत्र के स्कूलों में हिन्दी और अँग्रेजी के साथ एक दक्षिण भारतीय भाषा या हिन्दीतर राष्ट्रीय भाषा सीखना अनिवार्य कर दे। संस्कृत का जनजीवन पर इस भाषा को जाने बिना ही प्रभाव है। यह कभी नहीं मिटेगा। इसलिए संस्कृत की जगह हिन्दोतर राष्ट्रीय भाषाएँ ज्यादा उपयोगी हैं। नि:संदेह दक्षिण भारतीय स्कूलों में हिन्दी तीसरी भाषा के रूप में बड़े पैमाने पर पढ़ाई जा रही है। वे संस्कृत में अटके हुए नहीं हैं। इस व्यवस्था के बिना कोई देशप्रेम का दाबा करे तो यह एक पाखण्ड है।

आज बंगाली, मराठी, गुजराती, डड़िया या दक्षिण भारतीय अपनी मातृभाषा में बात करते–करते अचानक अँग्रेजी–मिश्रित हिन्दी में बात करने लगते हैं, जैसे हिन्दी के लोग अचानक अँग्रेजी झाड़ने लगते हैं। हिन्दीतर लोगों में हिन्दी के प्रति वितृष्णा या छुआछूत का भाव मिटा है, जो अच्छा लक्षण है। यह भी देखना होगा कि हिन्दी घरों के अँग्रेजी पढ़े–लिखे बच्चे अब हिन्दी अशुद्ध रूप से बोलने को ही माडर्निटी समझते हैं। उन्हें शुद्ध हिन्दी बोलने में शर्म आती है, यदि जानते भी हैं। यह ग्लानि कैसे दूर की जाए? यह तभी दूर होगी, जब हिन्दी को कविता–कहानी या मास्टर जी की भाषा या लाल किले पर झंडोत्तलन की भाषा से मुक्त करके व्यापक ज्ञान–विज्ञान अनुसंधान और अन्तर्राष्ट्रीय मंच की भाषा में प्रतिष्ठित किया जाएगा और बाजार में हिन्दी का चीरहरण घटेगा।

किसी भाषा की ताकत के बोध का सिर्फ एक पैमाना बना दिया गया है, वह बाजार में कितनी दौड़ सकती है। अमेरिका जैसे देश ऐशियाई भाषाओं का कटूनीतिक और व्यापारिक इस्तेमाल करते हैं। हम गोरी चमड़ी में किसी को हिन्दी बोलते हुए सुनते हैं तो बड़ा आनन्द आता है। इस आनन्द की कोई वजह नहीं है, क्योंकि यह सब हिन्दी की स्वीकृति या इसके सम्पन्नता का लक्षण नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि आज हिन्दी का बाजार में, खासकर मीडिया और मनोरंजन उद्योगों में एक दमकता हुआ रूप है। कहा जा सकता है कि हिन्दी बाजार में पैदा हुई, बाजार में पली–बढ़ी और अब बाजार में खूब दौड़–मचल रही है। यह समझना होगा कि जिस तरह वेद–पण्डित जैसी संस्कृतनिक हिन्दी जनता की हिन्दी नहीं है, उसी तरह बाजार की हिन्दी भी जनता की हिन्दी नहीं है।

इधर हिन्दी से हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों को अलग करने के प्रयास हो रहे है, जो राष्ट्र को टुकड़े करने जैसी औपनिवेशिक परियोजना का सांस्कृतिक रूप है। हिन्दी का डर दक्षिण भारत में ही नहीं आज हिन्दी के भीतर भी पैदा किया जा रहा है। हिन्दी जैसे राजस्थानी, मैथिली, अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी आदि का हक मारकर बैठी हुई है। यह पृथकतवाद है, जो ईधर कुछ महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों द्वारा लाई जा रही ‘अस्मिता की राजनीति’ का हिस्सा है। हिन्दी क्षेत्र की बोलियों–भाषाओं में साहित्य आना चाहिए, इन्हंौ सांस्कृतिक प्रोत्साहन ही क्यों, जरूरत पड़ने पर सर्वशिक्षा अभियान के तहत उनकी अपनी लोकभाषा में शिक्षा देनी चाहिए। हिन्दी की माँ संस्कृत नहीं लोकभाषाएँ हैं। पर यदि साम्राज्यवाद से लड़ना हो, अँग्रेजी वर्चस्व को चुनौती देनी हो, केन्द्र के आगे दुखड़ा रखना हो, हम यह हिन्दी में ही कर सकते हैं। दरअसल भाषाओं पर संकट विश्वव्यापी है। अँग्रेजी–वर्चस्व विश्वव्यापी है। यह नियति नहीं एक स्थिति है, जिसे बदलनी होगी। इस हिन्दी को महज राजकाज या बाजार की चुलबुली या सूचनात्मक भाषा के रूप में देखकर सन्तुष्ट नहीं हो सकते। हम इसमें राष्ट्र की विकसित समावेशी अन्तरात्मा को उदित होते देखना चाहते हैं।

(यह आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।) 
 











 


शंभूनाथ 
लेखक केंद्रीय हिंदी संस्थान के पूर्व निदेशक
और हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक हैं।
+919007757887

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