16 September 2014

सीसैट हिन्दी वालों का ‘मेट’

मैं पहले भी इस घटना का उल्लेख कर चुका हूँ। यह घटना मुझे पूर्व जनता पार्टी के एक वरिष्ठ सांसद ने बतायी थी। संघ लोक सेवा आयोग में सिविल सेवा की परीक्षा का माध्यम केवल अँग्रेजी ही था। मोरारजी देसाई जब प्रधानमन्त्री बने तो उन्होंने कमीशन को लिखा कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को परीक्षा का माध्यम क्यों नहीं बनाया जा सकता? कमीशन ने उस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। एक लम्बा नोट बनाकर पीएमओ. को भेज दिया गया। पीएमओ. ने पुनर्विचार करने को लिखा। फिर वही नकारात्मक उत्तर। सांसद महोदय ने बताया कि एक दिन प्रधानमन्त्री स्वयं धौलपुर हाउस पहुँच गये। उस रोज ज्यादा साक्षात्कार नहीं थे। मोरारजी सीधे चेयरमेन के कमरे में जाकर बोले मैं माफी चाहता हूँ बिना पूर्व सूचना के आ गया। आयोग में अफरा-तफरी मच गयी थी।

उन्होंने कहा मैं चाहता हूँ कि एक घण्टे के लिए अपने सब सदस्यों को बुला लें, मैं मिलना चाहता हूँ। सब सदस्य जो उपस्थित थे, आ गये। प्रधानमन्त्री ने कहा आपके काम में हस्तक्षेप करने का मुझे दु:ख है। लेकिन मैं भी कमीशन का काम करने ही आया हूँ। हिन्दी और भारतीय भाषाओं को सिविल परीक्षाओं का माध्यम बनाने के बारे में कमीशन का नोट और चेयरमैन से हुआ पत्र-व्यवहार मेरे पास है। अगर उसके अलावा किसी को कुछ और कहना हो तो खुलकर कहें। कहें संक्षिप्त में, क्योंकि मेरे पास एक घंटे का समय है। सदस्यों ने एक-एक करके बोलना शुरू किया। बोल चुके तो चेयरमेन ने कहा कि सदस्य अनुभव करते हैं कि हिन्दी माध्यम बना देने से प्रशासन प्रभावनहीन हो जाएगा। उन्होंने केवल हिन्दी का ही नाम लिया।

प्रधानमन्त्री ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा, ‘मैंने आप सब की राय सुनी, लेकिन मैं और मेरी सरकार सहमत नहीं है। हमने निर्णय लिया है कि देश के युवा वर्ग के हित में यही है कि तात्कालिक प्रभाव से सिविल सर्विसेज में हिन्दी माध्यम से परीक्षा लेने की तैयारी शुरू कर दें। भाषा के नाम पर हम अपने युवा वर्ग को नहीं बाँट सकते। देश की आजादी की लड़ाई के जमाने से हम देश की भाषाओं को बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। अगले साल से भारतीय भाषाओं में परीक्षा लें। औपचारिक आदेश और धन के आवंटन की सूचना आपको प्राप्त हो जाएगी।’ प्रधानमन्त्री ठीक एक घंटे के बाद कमरे से बाहर आ गये। यह सब विवरण मेरा सुना हुआ है।

उसके बाद हिन्दी और भारतीय भाषाओं में परीक्षा होने लगी, नतीजा हुआ कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लड़कों के प्रवेश की प्रतिशतता बढ़ने लगी। लेकिन इन भाषाओं को माध्यम के रूप में स्थायित्व नहीं मिला। वक्त-ब-वक्त नौकरशाही या अँग्रेजीपसन्द मन्त्रियों के कारण बदलाव होता रहता है। इस परिवर्तन के कारण प्रवेश परीक्षा में बैठने वाले बच्चों का असमंजस बढ़ता जाता है। बहुत से बच्चे तो हिम्मत हार बैठते हैं। जो परीक्षा में बैठते भी हैं उनका आत्मविश्वास डगमग-डगमग रहता है। पहली सरकार ने विकल्प हटा कर 30 नम्बर का अँग्रेजी का प्रश्न अनिवार्य कर दिया था जिसे लेकर व्यापक विरोध हुआ था। संघ लोक सेवा आयोग के पूर्व सदस्य प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल और हिन्दी के निष्णात विद्वान ने, जनसत्ता में गुणवत्ता जरूरी है लेख लिखा है कि संघ लोक सेवा आयोग ने सीसैट का प्रस्ताव सरकार को भेजा था। तब अँग्रेजी बोध–क्षमता के अंक पूरे पर्चे के 10 प्रतिशत ही रखने की सिफारिश की थी। इन्हें तत्कालीन सरकार के अफसरों ने बढ़ाकर 33 प्रतिशत कर दिया था।

यह स्थिति मुझे विरोधाभास पूर्ण लगी। एक तरफ तो स्वायत्तता की दुहाई दूसरी तरफ अपने प्रश्न पत्रों की अंक योजना भी सरकार के अनुमोदन के लिए भेजना। अनुमोदन ही नहीं बल्कि स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाना तो स्वायत्तता की गर्दन सरकार के अफसरों के हाथ में दे देना है। अगर सरकार को संस्तुति भेजी भी थी तो हर स्वायत्त संस्था इस अधिकार को तो अपने पास रखती है कि वह उसे माने या न माने। यह ठीक है कि आज परिभाषित अधिकारों को भी संस्थाएँ सरकार को खुश करने के लिए सरेंडर करती जा रही हैं। मुझे ताज्जुब हुआ जब स्पीकर ने प्रधानमन्त्री के निर्देश को ध्यान में रखकर अपने सचिव की नियुक्ति की सूचना प्रधानमन्त्री कार्यालय को भेजी। संसद में स्पीकर सर्वोपरि है। प्रधानमन्त्री को बात करने के लिए स्पीकर के कमरे में स्वयं जाना पड़ता है। हालाँकि यह बात विषय से असम्बद्ध है। खैर, इतना तो किया जा सकता था कि आयोग अपने मत के साथ मन्त्रालय को उस संशोधन को वापिस भेज देता। जब आयोग स्वायत्तता और प्रत्याशियों के हित के प्रति जागरूक नहीं है तो मन्त्री को दोष देने का क्या लाभ कि उन्होंने संसद में आयोग की संस्तुति को स्पष्ट करने की जरूरत नहीं समझी। मैं स्वायत्त संस्था में काम कर चुका हूँ। वहाँ इन दोनों स्थितियों से गुजरना पड़ा। हिन्दी का मसला तो वहाँ एक तरह जान लेवा था। क्योंकि उस समय आईआईटीज निखालिस आयातित और अँग्रेजी पोषित संस्थाएँ थीं। हिन्दी बहिष्कृत थी। उस समय वहाँ हिन्दी को लाना रोजी रोटी को ठोकर मारना था। आन्तरिक विरोध को भी झेलना पड़ा और कचहरी के चक्कर भी काटने पड़े। दूसरी ओर सरकार से बहुत से निर्देश आते थे जिनके कारण स्वायत्तता पर संकट मंडराने लगता था। परंतु वहाँ फैकल्टी जमकर विरोध करती थी। तब सरकार भी उतनी कट्टर नहीं थी। सरकार के निर्णयों के खिलाफ प्रशासन ने एक से ज्यादा बार लिखित असहमति व्यक्त की और वह मानी गयी। दिल्ली विश्वविद्यालय में जो स्थिति हुई कि हर मुद्दे पर रोलबैक करना पड़ा वह स्वयत्तता के लिए अच्छा नहीं। स्वायत्त संस्थाएँ यदि सोच समझकर निर्णय लेती हैं तो उनके सामने यह स्थिति नहीं आती। स्वायत्तता का यह भी मतलब नहीं कि संस्था अपने को खुदमुख्तार समझने लगे। लेकिन प्रतिवाद का अधिकार सबको है।

जहाँ तक गुणवत्ता का सवाल है वह किसी एक भाषा की बपौती नहीं है। मैं डॉ. अग्रवाल की दो बातों से सहमत हूँ कि इस तरह की संस्थाओं में खुली चर्चा होनी चाहिए। गुपचुप चर्चा संस्था तो संस्था सरकार के गले की हड्डी बन जाती है जैसे सीसैट में अंको का विभाजन। किसी भी उच्च स्तरीय प्रतियोगिता में एक ही प्रश्न को 33 प्रतिशत अंको का वेटेज मेधावी से मेधावी बच्चों के कैरियर को बर्बाद करने के लिए पर्याप्त हो सकता है। कहाँ 117 बच्चे सफल होते थे और कहाँ वह प्रतिशतता 3 प्रतिशत पर आ गयी। यह बच्चों की सामर्थ्य को कुचलने से कम नहीं। जब अँग्रेजी के पक्ष में यह अहितकारी निर्णय लिया गया था तब मैंने पुरुषोत्तम जी से फोन पर कहा भी था। उनका जवाब उनके इस लेख में मिला कि जिस रूप में सीसैट आज है उसके एक-एक ब्यौरे से आयोग का हर सदस्य सहमत रहा हो, ऐसा नहीं है। दूसरी बात जानकर मुझे दु:ख हुआ कि सीसैट का हिन्दी अनुवाद मशीनी होता है। उसे समझना खुदा के बस का भी नहीं। इस बात से मुझे सहमत होने में दिक्कत है कि सीसैट के विरोध के कारण यह समझना कि हिन्दी माध्यम के छात्र कड़ी मेहनत से कतराते हैं ठीक नहीं। सीसैट का विरोध इतना नहीं जितना अँग्रेजी लादने का। उनको मालूम है कि हिन्दी माध्यम के छात्र सिविल सर्विसेज की प्रतियोगिता में उच्चतर स्थान पाते रहे हैं। पहले पाँच स्थान तक पा चुके हैं। सीसैट की जरूरत पहले नहीं थी। अँग्रेजी माध्यम से पढ़े बच्चे गुणवत्ता का भण्डार समझा जाते थे। जबसे हिन्दी और भारतीय भाषा का सवाल सामने आया तब से सीसैट को गुणवत्ता से जोड़ दिया गया। मैं यह नहीं कहना चाहता कि सीसैट जमीनी भाषा से जुड़े लोगों को छांटने का माध्यम है। यदि उसी भाषा में सीसैट तैयार हों जो माध्यम प्रत्याशी लेता है तो गुणवत्ता बढ़ेगी। जहाँ विज्ञान के विषयों का सवाल है वह तो सबके लिए समान है पर भाषा में या समाज शास्त्रीय विषयों में भाषा का महत्त्व बढ़ जाता है। वैसे तर्क यह भी हो सकता है कि अगर अँग्रेजी का 33 प्रतिशत हो सकता है तो दूसरी भाषाओं का क्यों नहीं? अँग्रेजी कितने प्रतिशत जानते हैं? चूँकि आजादी के बाद सरकारों के प्रयत्नों से अँग्रेजी का ही वर्चस्व हो गया है इसलिए दूसरी भाषाओं की स्थिति गड़बड़ा गयी। सीसैट का विरोध नहीं पर भाषा का प्रयोग छंटाई करने का आभास दे तो विरोध होना स्वाभाविक है। बेहतर होता सीसैट में सब प्रश्नों की अंक योजना समान होती।

सरकार संशय में है वह क्या करे। संघ लोक सेवा आयोग ने परीक्षा की तारीख बढ़ाने से मना कर दिया। वर्मा कमेटी रिपोर्ट आ गयी है। पहले गवर्नेन्स की बात की जाती थी अब गवर्नेन्स का नारा खतरे में है। पहले भी हिन्दी के मसले पर सरकार ने रोलबैक किया था। हमारी तरफ कहावत है एक बुढ़िया थी, बरसात होते ही उसका घर टपकने लगता था। वह हमेशा यही कहती थी कि मुझे सी का डर न साँप का, टपके का डर। टपका है अम्मा की चिट्ठी। दरअसल गुणवत्ता का सवाल इतना बड़ा नहीं जितना बड़ा हीनता का है। कभी रेल में चढ़ें और पैर फिसल जाए। आदमी सोचने लगे इस नाकिस सवारी से बेहतर है माओमाओ चलना। 
 (यह आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है) 
              
गिरीराज किशोर
लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं
grajkishore11@gmail.com
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