18 September 2014

भाषा–भय की राजनीति


दुनिया भर में एक भी ऐसा देश नहीं होगा जिसकी अपनी राष्ट्रभाषा, जनभाषा और राजभाषा तीनों का एक रूप न हो। भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसने स्वतन्त्रता के साथ अपनी राष्ट्रभाषा ही तय नहीं की। संविधान में अनेक भाषाओं को सूचीबद्ध करके सबको राष्ट्रभाषा कह दिया या राष्ट्रीय भाषा का दरजा दे दिया गया। एक राष्ट्र की 22–23 राष्ट्र–भाषाएँ कैसे हो सकती हैं? राष्ट्र का भाषाई प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा तो एक ही होगी, वह राष्ट्र की वाणी होगी, वह राज्य की सरकारी भाषा होगी।

क्या हम हिन्दी को एक अनाथ भाषा बना देना चाहते हैं? यदि हिन्दी अनाथ हुई तो धीरे–धीरे अन्य भाषाएँ भी मरने लगेंगीं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है लेटिन अमेरिका जहाँ स्पेनिश भाषा ने एकाधिकार करके अपनी मूल भाषाओं को खो दिया। अफ्रीका के पास भी हौज़ा, इबो, इगवो, योरूबा, स्वाहिली, बांटू आदि बड़ी जनभाषाओं के साथ सैकड़ों बोलियाँ हैं। वहाँ जो भी अँग्रेज़ी, स्पेनी, डच, फ्रेंच, जर्मन आदि का साम्राज्यवाद गया और अमेरिका का अर्थशास्त्र गया तो न केवल वहाँ उन देशों की भाषाओं ने उनकी अपनी राष्ट्रीय पहचानों पर कब्जा कर लिया, बल्कि उन्हें उनकी संस्कृति से काटकर उनके नृत्य, संगीत और लोक–आचरण पर कब्जा कर उसे भी यूरोपीकृत या यूरोपीय भाषाओं का गैर–अफ्रीकी रूप दे दिया। जब यूरो–अमरीकी बाजारवाद सारी दुनिया पर छा रहा है तो वह हमेशा यही चाहेगा कि बाजार में सामान ही नहीं बेचा जाए बल्कि भाषा भी बेची जाए और उसे विश्वभाषा, रोज़गार की भाषा, व्यापार की भाषा और भविष्य की भाषा कहकर स्थानीयता को ललचा-ललचाकर वहाँ की भाषाओं की हत्या कर दी जाए या आत्महत्या के लिए उकसाया जाए।

हिन्दी के विरुद्ध लोकभाषाओं की स्थापना के पीछे हिन्दी को एक अल्पसंख्यक भाषा बनाने का छद्म प्रयास कहा जा सकता है। लोकभाषाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। उनसे मुख्यधारा की भाषाओं को अनेक नए शब्द, लोकोक्तियॉं, कहावतें और लोकाचार की भाषा भी मिलती है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि हिन्दी जैसी मुख्य भाषा को अपदस्थ करके लोकभाषाओं की समान्तर स्थापना की जाए। हिन्दी ही क्या, विश्व की अनेक भाषाएँ अपने आसपास की लोकभाषाओं या बोलियों से प्रचलित भाषा में गठरीबन्द होकर मानक भाषा की रचना में शामिल हो गयी हैं। अँग्रेज़ी स्वयं सेक्सन, लेटिन, ग्रीक, वेल्श, स्काटिश, आयरिश और लेबर समुदाय की भाषाओं का एक समुच्चय है अर्थात् समस्त लोकभाषाएँ अँग्रेजी में गठरीबन्द होकर पीजिन या क्रियाल की स्थिति से मानक अँग्रेजी बन गयी हैं। हिन्दी में भी ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, बुन्देली, मालवी, निमाड़ी, उर्दू, राजस्थान की मेवाड़ी–मारवाड़ी, यहाँ तक कि गुजराती का बड़ा अंश है और ये सब गठरीबन्द हुई हैं। अर्थात् लोकभाषाओं को हिन्दी ने सम्मान–सहित सामुदायिक स्वीकृति या स्पीच–कम्युनिटी की मान्यता से अपने में समाहित कर लिया है। यही कारण है कि हिन्दी एक भाषा का स्वरूप ग्रहण कर अपनी लिपि सहित बहुसंख्यक अर्थात् लगभग सत्तर करोड़ भारतीयों की ऐसी भाषा बन गयी है जिसे आमजन बोल, पढ़, लिख और समझ सकते हैं, औपचारिक–अनौपचारिक संवाद और पत्र–लेखन कर सकते हैं और उसमें अनेक विषयों का लेखन करने के साथ–साथ साहित्य सृजन कर सकते हैं।

जब संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दरजा दिया गया, तो महात्मा गॉंधी ने वर्धा में 1935–36 में जिस हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहा था, उसे स्वीकार क्यों नहीं किया गया? इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे -
  1. अँग्रेज़ी का वर्चस्व बना रहे।
  2. अँग्रेज़ी पढ़ा–लिखा शासक–प्रशासक वर्ग जनता पर अपना प्रभुत्व कायम रख सके।
  3. अँग्रेज़-सरकार के प्रति आजादी के बदले, संविधान और जनता आभारी बनी रहे।
  4. अँग्रेज़ी कूटनीति का भाषाई परिणाम भारत भोगने को बाध्य बना रहे।
  5. भारत की अधिकांश जनता को उच्च शिक्षा से वंचित रखकर केवल वोट बैंक की भीड़ बनाई जा सके।
  6. अँग्रेज़ों की विरासत और शासन प्रणाली उनके कायदे कानून सहित जारी रखी जा सके।
  7. जनता स्वाभाविक न्याय से वंचित रखी जा सके और न्यायालय, दफ्तर, विभाग, अफसर जनता को उसकी भाषा से पृथक रख, अँग्रेज़ी राज को भारतीय कहकर जारी रख सकें।
  8. अँग्रेज़ चूँकि एक बनिया कौम रही है जिसे नेपोलियन ने कहा था ‘इंग्लैण्ड इज़ ए नेशन ऑफ शॉपकीपर्स’ वह भविष्य का व्यापार, व्यवसाय अँग्रेज़ी के माध्यम से शताब्दियों तक जारी रख सके और जब बाजारवाद आए तो अंग्रेज़ी विश्वभाषा बनकर भारत पर भी रोज़गार, उद्योग आदि के नाम पर छा सके।
  9. भारत के अधिकांश बड़े घरानों के राजनीतिज्ञों ने उच्च शिक्षा इंग्लैण्ड में ग्रहण की थी इसलिए उन्हें अँग्रेज़ी में राज चलाने से यह लगा होगा कि मूल–अँग्रेज़ों को हटाकर अब भारतीय अँग्रेज़ सत्ता में आ गये हैं।
  10. हिन्दी या भारतीय भाषाओं में काम करने में हीनता का अनुभव कराना और हीनता में धकेलकर हिन्दी या भारतीय भाषाओं या राष्ट्रभाषा से पैदा होने वाले राष्ट्रीय स्वाभिमान का अपहरण कर लिया जाए। 
  11. हिन्दी में मौलिक भारतीय नियम–कानून न होना और न उनका प्रारम्भ से सरल हिन्दी–हिन्दुस्तानी में अनुवाद की पहल करना।
इन कारणों के अतिरिक्त कई अन्य कारण भी हो सकते हैं लेकिन अँग्रेज़ों की व्यापारिक दूरदर्शिता का लोहा तो मानना ही पड़ेगा कि आजादी के मात्र 50–60 वर्षों में ही उन्होंने भारतीयों की पूरी मानसिकता बदल डाली और अँग्रेज़ी को पुन: भूमण्डली बाजार के नाम पर भारत की समर्थ, सार्थक और अर्थशास्त्रीय भाषा बनाकर यूरो–अमरीका रोजगार का लालच दे दिया। अँग्रेज़ी के पक्ष और हिन्दी के विरुद्ध कितने भी तर्क दिए जाएँ किन्तु देश के लोग जिस भाषा को जानते, बोलते, लिखते, पढ़ते हैं वही भाषा दफ्तरों, न्यायालयों, परीक्षा संगठनों, सीसैट, लोकसेवा आयोगों, अस्पतालों, टेक्स विभागों, बैंकों आदि की भाषा होनी चाहिए। राष्ट्रभाषा के स्वरूप की कल्पना हिन्दी को लेकर हमारे स्वतन्त्रता संघर्ष के नेताओं ने की थी। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जो स्वयं अहिन्दीभाषी और गुजराती मातृभाषी थे, ने कहा था, ‘‘राष्ट्रभाषा की जगह एक हिन्दी ही ले सकती है, कोई दूसरी भाषा नहीं।’’ राष्ट्रभाषा का प्रश्न ही खड़ा क्यों किया गया? क्या यह एक ब्रिटिश सत्ता के वफादारों का षड़यंत्र नहीं कहा जा सकता? अनेक अहिन्दीभाषियों ने राष्ट्रभाषा के पक्ष में कहा था - 
  • "राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी हमारे देश की एकता में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होगी, इसमें दोराय नहीं।" (जवाहरलाल नेहरू, जिनके लिए अंग्रेज़ी मातृभाषा जैसी थी और जो स्वयं कश्मीरी थे।)
  • "हिन्दी को भारत की एक भाषा स्वीकार कर लिया जाए तो सहज में ही एकता सम्पन्न हो सकती है।" (केशवचंद्र सेन, बंगलाभाषी)
  • "राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं। मेरे विचार में हिन्दी ही ऐसी भाषा है।" (लोकमान्य तिलक, मराठी मातृभाषा)
  • "हिन्दी में अखिल भारतीय भाषा बनने की क्षमता है।" (राजा राममोहन राय, बंगला भाषी)
  • ‘‘हिन्दी ही एक भाषा है जो भारत में सर्वत्र बोली और समझी जाती है। (डॉ. गियर्सन, भाषा वैज्ञानिक)
  • ‘‘हिन्दी का श्रृंगार राष्ट्र के सभी भागों के लोगों ने किया है, वह हमारी राष्ट्रभाषा है।” (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, तमिलभाषी)
यदि हमारे महान नेतागण हिन्दी को आज़ादी के पहले ही राष्ट्रभाषा मान चुके थे तो आजादी के बाद हिन्दी को संविधान ने राजभाषा का दरजा देकर क्या उसको राष्ट्रीय स्वरूप से वंचित नहीं किया है? हिन्दी यदि राष्ट्रभाषा होती तो अन्य भाषाओं को भी फलने–फूलने का स्वाभाविक मौका मिलता। आज तो हर क्षेत्रीय भाषा अपने मरने के आतंक से डरी-डरी है और यह डर अँग्रेज़ी ने पैदा किया है। क्या हम एक राष्ट्र की भाषाई अस्मिता को बाजार के आगे अपमानित या आत्म समर्पित होते देखना चाहते हैं? छोटा–सा देश नेपाल भी नेपाली को राष्ट्रभाषा मानता है, पाकिस्तान ने आजादी के बाद उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जबकि वहाँ भी अनेक क्षेत्रीय भाषाएँ हैं, बांग्लादेश, बांग्ला को राष्ट्रभाषा बनाकर अलग हो गया। भाषा का स्वाभिमान यदि इतना प्रबल है तो हम हिन्दी के नाम पर हीन या निर्बल क्यों? क्या परीक्षाओं, न्यायालयों और सम्पर्क की भाषा अँग्रेज़ी को मानकर हम हिन्दी की हत्या तो नहीं कर रहे हैं? हिन्दी मरेगी तो न केवल राष्ट्रीय स्वाभिमान मरेगा, बल्कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, लोकाचार यहाँ तक कि लोकभाषाओं को भी मौत की नींद सुला दिया जाएगा। विवेक हार जाएगा, व्यापार जीत जाएगा। राष्ट्र सात दशक बाद अँग्रेज़ नहीं तो अंग्रेज़ी और भारतीय–अँग्रेज़ों का पुन: गुलाम हो जाएगा। हिन्दी को हर जगह बचाना होगा ताकि हम हिन्दुस्तानी होने और कहलाने में गर्व महसूस कर सकें और भारत भाषा से जुड़कर और अधिक भव्य लोकतन्त्र बन सके।

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है)

 




रमेश दवे
लेखक हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
rameshdave12@rediffmail.com
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