23 September 2014

विरोध अँग्रेजी वर्चस्व का


कुछ वर्ष पूर्व विभाजन केंद्रित उपन्यासों पर लिखते हुए सहसा मेरा ध्यान गया कि अँग्रेजी में भारतीय बुद्धजीवियों एवं इतिहासकारों द्वारा विभाजन पर जो कुछ भी लिखा गया है उसमें विभाजन पर अँग्रेजी में लिखे गये उपन्यासों की तो चर्चा है लेकिन हिन्दी में लिखे गये उपन्यासों की नहीं। यहाँ तक कि निम्नवर्गीय दृष्टि अपनाने वाले ‘सबाल्टर्न’ इतिहासकारों और नारीवादी नजरिए से विभाजन का अध्ययन करने वाली ‘फेमिनिस्टों’ ने भी हिन्दी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं में लिखित विभाजन साहित्य की कमोबेश अनदेखी ही की है। मैंने उसी समय विभाजन की त्रासदी पर केंद्रित यशपाल के कालजयी उपन्यास ‘झूठा सच’ की चर्चा करते हुए लिखा था कि ‘‘मुशीरुल हसन और ज्ञानेंद्र पांडे भी ‘विभाजन को याद करते हुए’ यशपाल को भूल जाते हैं। कारण शायद ‘झूठा सच’ का ‘नैटिव लैंग्वेज’ में लिखा जाना ही है। इस देश के बौद्धिकों की यह विडम्बना ही है कि अभी तक यहाँ ‘सबाल्टर्न रायटिंग’ और ‘नैटिव लैंग्वेज’ का सहमेल नहीं हो पाया है।’’

पिछले वर्षों जब सलमान रुश्दी ने भारतीय लेखन की चर्चा के दौरान भारतीय भाषाओं के लेखन को खारिज करते हुए सिर्फ अँग्रेजी में लिखे गये भारतीय साहित्य को ही श्रेष्ठ करार दिया था तब इसकी पृष्ठभूमि में भी अँग्रेजी का बौद्धिक वर्चस्व ही एक कारण था। दरअसल भारत के बौद्धिक समाज का अभिजन अँग्रेजीदां वर्ग तक सिमट कर रह जाना भारत की देशज ज्ञान सम्पदा और भाषाई समृद्धि पर एक बहुत बड़ा ग्रहण है। यही कारण है कि अँग्रेजी में लिखने के कारण मुल्कराज आनन्द, आर.के. नारायण, राजा राव और सरोजिनी नायडू की वैश्विक पहचान बनी जबकि हिन्दी–उर्दू में लिखने के कारण प्रेमचन्द और फिराक जैसे शीर्ष साहित्यिक व्यक्तित्व वैश्विक तो क्या भारतीय अँग्रेजीदां अभिजन के बीच भी केन्द्रीयता पाने से वंचित रहे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की स्वीकृति के मूल में भी ‘गीतांजलि’ का अँग्रेजी में अनुवाद हो जाने के कारण संयोग से नोबेल पुरस्कार का मिलना ही था। भारत के लोग अँग्रेजी में लिखें, चर्चित और प्रतिष्ठित हों यह तो उचित और स्वागत योग्य है लेकिन अँग्रेजी लेखन को ही भारतीय लेखन का पर्याय मान लिया जाये और भारतीय भाषाओं के लेखन की अवज्ञा और उपेक्षा की जाये यह औपनिवेशिक अनुकूलन का ही परिणाम रहा है। जरूरत इससे मुक्ति की है।

औपनिवेशिकता से मुक्ति का अब तक मुक्कम्मल न हो पाना भाषाई स्वाधीनता के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है, लेकिन अब इसकी जरूरत से भी इंकार करना एक स्वाधीन देश के लिए बड़ी दुर्घटना है। विडम्बना यह कि जो समस्या अँग्रेजी के वर्चस्व के बरक्स अन्य भारतीय भाषाओं के अधिकार की थी उसे अँग्रेजी बनाम हिन्दी का रूप देकर भारतीय भाषाओं की एकता और एकजुटता को लगातार विखंडित किया गया है। दरअसल अँग्रेजी शासन के दौर में अँग्रेजी का जितना वर्चस्व था आजादी के बाद के वर्षों में यह और भी बढ़ा। पहले तो यह शासन और उच्च शिक्षा और भी अभिजन का ही माध्यम थी लेकिन अब इसका विस्तार उस ‘दि ग्रेट इन्डियन मिडिल क्लास’ तक हो गया है जो समाज और जीवन में सम्पन्नता और सफलता का आकांक्षी और दावेदार है। इन सन्दर्भों में अँग्रेजी के वर्चस्व का विरोध उस सत्ता संस्कृति का विरोध है जो अपने निहित वर्गीय स्वार्थों के चलते भाषा का जनतान्त्रिकरण नहीं चाहती और अँग्रेजी की कांच की दीवार बनाये रखना चाहती है। भारत की विशालकाय जनता के लिए अँग्रेजी स्वर्णमृग सरीखी एक ऐसी मरीचिका है जिसके पीछे अब शहर, गाँव की हर गली में लोग हाँफते-हाँफते दौड़ रहे हैं। अँग्रेजी माध्यम के नर्सरी स्कूल, अँग्रेजी बोलने और सीखने की कोचिंग संस्थाएँ नये उद्योग में तब्दील हो गये हैं। सच यह है कि जो प्रतिभा, क्षमता और मानसिक श्रम छात्रों को पाठ्क्रम, विषय और ज्ञान की तलाश में लगाना चाहिए था वह अँग्रेजी सीखने में खर्च हो रहा है। इसके बरक्स सम्पन्न अभिजन परिवारों के बच्चे जो अँग्रेजी के भाषाई संस्कार में स्वाभाविक रूप से पले बढे़ हैं उन्हें न अँग्रेजी सीखने की जद्दोजहद करनी पड़ती है और न कोई अतिरिक्त प्रयास। स्वाभाविक है कि अँग्रेजी के वर्चस्व वाली बेहतर नौकरियों के अवसर संपन्न अभिजन वर्गों के हाथ ही अधिक लगने हैं और गाँव, कस्बों और छोटे शहरों से आने वाले सामान्य परिवारों के बच्चे भाषाई बाधा के चलते इस दौड़ में पीछे रह जाने हैं।

कौन है इस भाषाई भेद के लिए जिम्मेदार? वही उच्च सवर्ण अभिजन समाज की ‘क्रीमी लेयर’ जो अँग्रेजों के समय भी सत्ता की मलाई का लाभार्थी था और आज भी शासन तन्त्र की नकेल जिसके हाथ में है। राजनीति का जनतांत्रिकरण रोकना तो इसके वश में नहीं है लेकिन सामाजिक, आर्थिक और भाषाई जनतन्त्र को धनिक तन्त्र के पक्ष में झुकाना इसका प्रछन्न अजेंडा है। इस समूची प्रक्रिया को इस अंजाम तक पहुँचाने के लिए वे शक्तियाँ कम जिम्मेदार नही रही हैं जिन्होंने अपने निहित संकीर्ण राजनीतिक अभियान के चलते अँग्रेजी वर्चस्व के विरोध को अँग्रेजी विरोध का रूप देकर इसे ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के नारे में तब्दील कर दिया है। इसी के चलते गैरहिन्दी भाषी प्रान्तों में अँग्रेजी वर्चस्व के विरुद्ध कोई आन्दोलन इसलिए विश्वसनीय नही बन पाता क्योंकि इसे हिन्दी आधिपत्य के अभियान के रूप में ग्रहण करने की गुंजाइश बरकरार रहती है। डॉ. रामनोहर लोहिया इसे समझते थे, इसीलिये उनका कहना था कि ‘देशी भाषाओँ में कोई आपसी झगड़ा नहीं। हिन्दी का झगड़ा भारत की अन्य भाषाओं तमिल, तेलगू आदि से नहीं बल्कि अँग्रेजी से है। नकली झगड़े को खत्म करो। बिना खत्म किये सुधार हो ही नहीं सकता। इसको फौरन स्कूल, न्यायालय आदि से हटा देना चाहिए। पुराने लोग, चोटी, जनेऊधारी लोग हिन्दी को नुकसान पहुँचा रहे हैं। हिन्दी का पेट बड़ा होना चाहिए। उसमें तमिल, तेलगू आदि देशी भाषाओं के शब्दों को प्रवेश मिलना चाहिए। ऐसा करने पर हिन्दी देश और लोक की भाषा बनकर रहेगी।’ डॉ. लोहिया भाषा के प्रश्न को सामान्य जन की निगाह से देखते थे इसीलिये वे कह सके कि ‘हिन्दुस्तान के करोड़ों लोगों के मन में हीनता का भाव भर दिया गया है। करोड़ों लोग यही सोचते हैं कि हम तो अँग्रेजी नही जानते, राज कैसे चलाएँगें। इस तरह इस ‘लोकराज’ में करोड़ों लोग हीनभावग्रस्त हो गये हैं। सामन्ती–राज्य केवल गोली पर नही चलता। छोटी सी तादाद के शासक बड़ी तादाद के शासकों पर अपना राज, जितना गोली से चलाते हैं, उससे ज्यादा बोली से कायम रखते हैं। सामन्ती शासक शासित से अपने को अलग करता है। कुछ भूषा से, ज्यादा भाषा से। भूषा और भाषा का यह अलगाव शासितों के मन में हीन–भावना पैदा करता है य उनको लगता है कि शासक उनसे बहुत ऊँचा है, और वे खुद इतना नीचे हैं कि राजकाज उनके बस की चीज नहीं। किसी सामन्ती राज को खत्म करने के लिए और जनता में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए यह जरूरी है कि सामन्तों की भाषा और भूषा से जनता नपफरत करना सीखे य कम से कम उसका तिरस्कार तो जरूर ही करे।’

अँग्रेजी भाषा के प्रति डॉ. लोहिया की इस नफरत और तिरस्कार के मूल में अँग्रेजी का जो सामन्ती और शासकीय स्वरुप था वही अँग्रेजी प्रभुत्व वाली भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा को लेकर इन दिनों चल रहे आन्दोलन के मूल में है। अफसोस यह कि हाशिये के समाज के जिस बेजुबान व्यक्ति को दृष्टिगत रखकर लोहिया ने अपना भाषा विमर्श सृजित किया था, आज उसी जमीन पर पले बढे़ कुछ बुद्धिजीवी लार्ड मैकाले की आरती उतारते हुए अँग्रेजी देवी की आराधना कर रहे हैं। दलित बुद्धिजीवी चंद्रभान प्रसाद का कहना है कि वर्तमान सन्दर्भों में वंचित समाज के लिए अँग्रेजी भाषा की भूमिका मुक्तिकामी है। प्रख्यात चिन्तक काँचा इल्लैया भी इस मुद्दे पर यही सोच रखते हैं। लगता है जिन्हें अपनी बोली के गुम होने की पीड़ा थी वे उसे बोलता हुआ न देखकर शासकों की उस बोली में सुर मिलाने लगे जहाँ से उन्हें सत्ता और अवसरों के स्वर्णमृग मरीचिका दीख रही है। लेकिन यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए की जब आजाद भारत में अँग्रेजी के वर्चस्व से मुक्त होने की राजनीतिक इच्छा शक्ति और संकल्प लुप्तप्राय हो तो हाशिये के समाज के प्रवक्ता कब तक हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के प्रभुत्व और अँग्रेजी के अवसान की प्रतीक्षा करें? यह सचमुच विडम्बनात्मक है कि जिन्हें अँग्रेजी के सत्ता दुर्ग को ढहाना था वे इसे ढहता न देख इस पर कब्जे की लड़ाई में शामिल हो गये हैं! किसी भी स्वतन्त्र देश के लिए भाषा का यह सत्ता विमर्श सचमुच त्रासद और प्रहसनात्मक है।

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है.)


 
वीरेन्द्र यादव
लेखक हिंदी के वरिष्ठ आलोचक हैं।
virendralitt@gmail.com
+919415371872

No comments:

Post a Comment