शंकर शरण
अभी वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम ने
कहा है कि जिन ‘बड़ी शर्तों’ (ग्रैंड बार्गेन) पर जम्मू-कश्मीर राज्य
भारत में शामिल हुआ था, उन्हें पूरा किया जाए, नहीं तो देश को ‘मँहगी कीमत’ चुकानी होगी। इंडिया टुडे को दिए साक्षात्कार में चिदम्बरम ने कहा,
‘जिन बड़ी शर्तों पर कश्मीर भारत में शामिल हुआ था, उस की हम ने उपेक्षा की
है। मैं सोचता हूँ कि हम ने विश्वास तोड़ा है, हम ने वादे तोड़े हैं, और उस के
परिणास्वरूप हम ने बड़ी कीमत चुकायी है।’
यह कतई सच नहीं है!
जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय 26 अक्तूबर 1947 को
हुआ था। उस में कोई शर्त हो ही नहीं सकती थी, क्योंकि पाकिस्तानी हमला हुआ था, और
पाकिस्तानी तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ते आ रहे थे। तब अपनी जान बचाने, आर्त पुकार
लगाते हुए वह रजवाड़ा भारत में शामिल हुआ था। जिस दिन विलय पर हस्ताक्षर हुए, उसी
दिन भारतीय वायु सेना ने कश्मीर में सैनिक उतारे, और पाकिस्तानियों को पीछे धकेलना
शुरू किया।
वैसे
भी, जिस ‘इंडिया इंडिपेंडेंस
एक्ट, 1947’ के अंतर्गत भारत को स्वतंत्रता
मिली थी, उस में देसी रजवाडों को भारत या पाकिस्तान में एक चुनना था। उन्हें कोई
तीसरा विकल्प दिया ही नहीं गया था। यानी, जम्मू-कश्मीर या किसी भी रजवाड़े के
स्वतंत्र देश होने का विकल्प नहीं था।
लेकिन
जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और इधर प्रधान मंत्री नेहरू एक दूसरे को नापसंद
करते थे। महाराजा हरि सिंह उधेड़-बुन में थे, जब पाकिस्तान ने अधीर होकर हमला कर
कश्मीर पर कब्जा करना शुरू किया। पाकिस्तान के प्रथम शासक जिन्ना कश्मीर को ‘पका हुआ सेब’ कहते थे, जिसे अपने हाथ लेने के लिए
उन्होंने हमला कर दिया। तब जान बचाने को महाराजा ने भारत से अपील की। उन्हें उत्तर
मिला कि यदि वे भारत का अंग हों, तभी उन्हें बचाने का आधार बनता है। उस स्थिति
में, जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ। उस में कोई शर्त नहीं थी।
सारी
गड़बड़ी उस के बाद हुई। वह भी, नेहरू जी की वैयक्तिक पसंद-नापसंद और राजनीतिक भोलेपन
के कारण। वे महाराजा को उपेक्षित कर नेशनल कांफ्रेस (मूल नाम ‘मुस्लिम कांफ्रेस’) के नेता शेख अब्दुल्ला को महत्व देते
थे। राजनीतिक और देश हित की दृष्टि से भी यह बहुत बड़ी भूल साबित हुई, क्योंकि शेख
के मन में स्वतंत्र कश्मीर का मंसूबा था। इस सूरते-हाल, नेहरू ने दूसरी बड़ी गलती
यह की कि उस राज्य का मामला अपने हाथ ले लिया। जब कि तब रजवाड़ों से विलय का पूरा काम
गृह मंत्री सरदार पटेल के जिम्मे था।
लेकिन
दिसंबर 1947 से नेहरूजी कश्मीर संबंधित कानूनी, तकनीकी व्यवस्था को शेख अब्दुल्ला
के साथ चुपचाप स्वयं तय करने लगे। बिना गृह मंत्री पटेल को बताए कि क्या हो रहा है। नेहरू
की ओर से यह कार्य निर्विभागीय मंत्री गोपालस्वामी आयंगर देख रहे थे। जब इन गुप-चुप
बातों की अस्पष्ट सूचना पटेल को मिली तो उन्होंने आपत्ति की।
इस
पर नेहरू ने तैश में आकर पटेल को एक पत्र (23 दिसंबर 1947) लिखा कि आयंगर नेहरू के
आदेश से ही स्वतंत्रतापूर्वक काम कर रहे हैं। इसलिए पटेल की आपत्ति मंत्रिमंडलीय
सहयोगी के साथ ‘अनुचित
व्यवहार’ है। ऐसा पत्र पाते
ही, पटेल ने तत्क्षण नेहरू को अपना त्याग-पत्र भेज दिया। तब मामला गाँधीजी के पास
पहुँचा। उन के आग्रह से पटेल सरकार में तो बने रहे, मगर जम्मू-कश्मीर मामला पूरी
तरह नेहरू पर छोड़ दिया गया।
उस
के बाद से कश्मीर मामले में नेहरू, अब्दुल्ला और आयंगर ही सब कुछ तय करते रहे। जब अक्तूबर
1949 में जम्मू-कश्मीर से संबंधित धारा 306 ‘ए’ (जो अनंतर धारा 370 कहलाई) कांग्रेस समिति के पास पहुँची तो सब ने
तीखा विरोध किया। कि जो विधि अन्य राज्यों के लिए अपनाई गई, उस से भिन्न क्यों हो रहा
है? उस मीटिंग के समय नेहरू विदेश में थे।
आयंगर की पूरी फजीहत हुई। दरअसल नेहरू द्वारा अंतिम प्रारूप तैयार करवा कर विदेश
जाने के बाद, अब्दुल्ला ने फिर उस में कुछ जोड़-तोड़ करवाई थी, जो भावी जम्मू-कश्मीर
सरकार को कुछ और अधिकार देती थी। इन सब पर कांग्रेस समिति ने आयंगर को खूब
खरी-खोटी सुनाई। तब आयंगर सरदार पटेल की शरण पहुँचे, कि किसी तरह उसे पास करवाएं।
यदि
17 अक्तूबर 1949 की उस मीटिंग में नेहरू मौजूद होते, तो क्या होता, अब यह अनुमान का
ही विषय है। पर उन की अनुपस्थिति में वरिष्ठतम नेता पटेल ने दायित्व समझा कि उस
गड़बड़ धारा से असहमति होते हुए भी पास करवाएं, क्योंकि यह कुछ महीनों के लिए ही
रहनी थी।
बाद
में, जब पटेल के सचिव एन. शंकर ने पूछा कि उन्होंने उस धारा को क्यों पास करवा
दिया? तब पटेल ने कहा कि
वह अस्थाई ही है, और अंतर्राष्ट्रीय नजाकतों को देखते हुए किया गया (तब तक नेहरू, तीसरी
बड़ी गलती करते हुए, मामला संयुक्त-राष्ट्र भी ले जा चुके थे!)। पटेल ने कहा कि वह
धारा कोई बड़ी चीज नहीं। आयंगर, अब्दुल्ला, आदि तो कल नहीं रहेंगे, और सब कुछ भारतीय
सत्ता की सामर्थ्य पर निर्भर करेगा। फिर भी उन्होंने जोड़ा कि इन सब ऊट-पटाँग
कामों के लिए ‘जवाहरलाल रोयेगा’! इस के एक वर्ष ही बाद पटेल का देहांत
हो गया।
इस
प्रकार, विलय के बाद राज्य के शासक महाराजा हरि सिंह को उपेक्षित करने से ही गड़बड़ियों
का मौका मिला। अपने मंसूबे के मुताबिक, शेख ने शुरू से ही चतुराई बरतते हुए, नेहरू
के भोलेपन और अहंकार का उपयोग कर, धारा में गोल-मटोल शब्दावली डलवाई। नेहरू की असावधानी
का लाभ उठाकर, धीरे-धीरे उस में और भी बदलाव कराए। ताकि बाद में उन का कुछ का कुछ
अर्थ कर अपने लिए अधिकाधिक आजादी रखी जाए या यथासंभव ताकत बढ़ाई जाए। नेहरू पहले
ही संकेत दे चुके थे कि राज्य की सत्ता शेख अब्दुल्ला को मिलेगी। लेकिन शेख की
नीयत ठीक नहीं थी, यह बाद में पुष्ट हुआ, जब स्वयं नेहरू ने शेख को गिरफ्तार
करवाया (8 अगस्त 1953)। स्वतंत्रता की जुगत में शेख अब्दुल्ला पश्चिमी ताकतों से
गुप-चुप वार्तालाप भी कर रहे थे।
इस
प्रकार, पटेल का अवलोकन जल्द सही साबित हो गया कि ‘जवाहरलाल
रोयेगा’! पर जब वह समय आया,
जब उस अदूरदर्शिता का कुफल दिखना शुरू हुआ, जो नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के लिए
अनावश्यक विशेष प्रावधान बनाकर और अंतर्राष्ट्रीयकरण करके किया – तब उन्हीं नेहरू ने सब कुछ पटेल के
मत्थे डालने की कोशिश की! नेहरू ने बयान दिया कि ‘सरदार पटेल ही जम्मू-कश्मीर का सब काम
देख रहे थे।’ (लोक सभा, 24 जुलाई
1952)।
पटेल
के अवसान के बाद यह कहना कैसा घटियापन था, इसे पूरी पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता
है। सच यह है कि यदि पटेल न होते तो कश्मीर पहले ही पाकिस्तानी कब्जे में जा चुका
होता। पाकिस्तानी हमले के बाद कश्मीर में फौरन सेना भेजकर आक्रमणकारियों को
खदेड़ने के निर्णय में पटेल की मुख्य भूमिका थी। जबकि मामला अपनी ओर से संयुक्त
राष्ट्र ले जाकर उसे ‘अंतर्राष्ट्रीय विवाद’
बनाने, भारतीय सेना को रोक कर आधा कश्मीर
पाकिस्तानी कब्जे में छोड़ने, तथा महाराजा हरि सिंह और सरदार पटेल को किनारे कर,
चुप-चाप अब्दुल्ला के साथ जम्मू-कश्मीर की प्रक्रिया को ‘विशेष’ मुस्लिम-परस्त दर्जा देने, इस प्रकार
सब कुछ चौपट करने, और देश के लिए स्थाई सिरदर्द बनाने में मुख्यतः नेहरू की भूमिका
थी।
इस
सरल सत्य को सन् 1952 में सभी जानते थे। पर पटेल के निधन के बाद कश्मीर की गड़बड़ी
को पटेल के सिर मढ़ने के नेहरू के झूठ को सुन कर भी वरिष्ठ कांग्रेसी चुप रहे। इस
से वह कांग्रेस-कल्चर पहचाना जा सकता है, जिस में गाँधी-नेहरू की जय बोलने के सिवा
प्रायः निजी स्वार्थ सर्वोपरि रहा है। क्या इस में आज भी कुछ विशेष बदला है? स्वार्थ और अज्ञान।
अतः
पी. चिदंबरम गलत कह रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर का विलय ‘बड़ी शर्तों’ पर हुआ था। वस्तुतः गड़बड़ियाँ विलय के बाद शुरू हुई, जब जम्मू-कश्मीर के लिए
औपचारिकताओं का तरीका दूसरे रजवाड़ों से अलग अपनाया गया। पहला अलग तरीका यही था कि
जब सभी रजवाड़ों से गृह मंत्री पटेल सफलतापूर्वक बात कर रहे थे, तो नेहरू ने कश्मीर
अपने हाथ ले लिया। यह नेहरू का अहंकार और देश-हित की कीमत
पर भी वैयक्तिक पसंद-नापसंद को महत्व देना था, जिस से अलगाववादी शेख अब्दुल्ला को
मामले में घुसने की जगह मिली।
‘बड़ी शर्तों’ का तो मामला यह है कि यदि अक्तूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में
न हुआ होता, तो कुछ ही दिनों में महाराजा राजा हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला, दोनों को
खत्म कर पाकिस्तान उस पर कब्जा कर लेता। इस आसन्न संकट को देखकर ही भारत में उस का
विलय हुआ था। उस समय भारत पर कोई शर्त लादने की ताकत किस कश्मीरी में थी? पी. चिदंबरम या तो भ्रमित हैं, या दलीय स्वार्थ में बोल रहे हैं।
bauraha@gmail.com +919911035650 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.