30 September 2016

  
कश्मीर पर चिदंबरम

शंकर शरण




अभी वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम ने कहा है कि जिन बड़ी शर्तों (ग्रैंड बार्गेन) पर जम्मू-कश्मीर राज्य भारत में शामिल हुआ था, उन्हें पूरा किया जाए, नहीं तो देश को मँहगी कीमत चुकानी होगी। इंडिया टुडे को दिए साक्षात्कार में चिदम्बरम ने कहा, जिन बड़ी शर्तों पर कश्मीर भारत में शामिल हुआ था, उस की हम ने उपेक्षा की है। मैं सोचता हूँ कि हम ने विश्वास तोड़ा है, हम ने वादे तोड़े हैं, और उस के परिणास्वरूप हम ने बड़ी कीमत चुकायी है।

यह कतई सच नहीं है!  जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय 26 अक्तूबर 1947 को हुआ था। उस में कोई शर्त हो ही नहीं सकती थी, क्योंकि पाकिस्तानी हमला हुआ था, और पाकिस्तानी तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ते आ रहे थे। तब अपनी जान बचाने, आर्त पुकार लगाते हुए वह रजवाड़ा भारत में शामिल हुआ था। जिस दिन विलय पर हस्ताक्षर हुए, उसी दिन भारतीय वायु सेना ने कश्मीर में सैनिक उतारे, और पाकिस्तानियों को पीछे धकेलना शुरू किया।

वैसे भी, जिस इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट, 1947 के अंतर्गत भारत को स्वतंत्रता मिली थी, उस में देसी रजवाडों को भारत या पाकिस्तान में एक चुनना था। उन्हें कोई तीसरा विकल्प दिया ही नहीं गया था। यानी, जम्मू-कश्मीर या किसी भी रजवाड़े के स्वतंत्र देश होने का विकल्प नहीं था।

लेकिन जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और इधर प्रधान मंत्री नेहरू एक दूसरे को नापसंद करते थे। महाराजा हरि सिंह उधेड़-बुन में थे, जब पाकिस्तान ने अधीर होकर हमला कर कश्मीर पर कब्जा करना शुरू किया। पाकिस्तान के प्रथम शासक जिन्ना कश्मीर को पका हुआ सेब कहते थे, जिसे अपने हाथ लेने के लिए उन्होंने हमला कर दिया। तब जान बचाने को महाराजा ने भारत से अपील की। उन्हें उत्तर मिला कि यदि वे भारत का अंग हों, तभी उन्हें बचाने का आधार बनता है। उस स्थिति में, जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ। उस में कोई शर्त नहीं थी।

सारी गड़बड़ी उस के बाद हुई। वह भी, नेहरू जी की वैयक्तिक पसंद-नापसंद और राजनीतिक भोलेपन के कारण। वे महाराजा को उपेक्षित कर नेशनल कांफ्रेस (मूल नाम मुस्लिम कांफ्रेस) के नेता शेख अब्दुल्ला को महत्व देते थे। राजनीतिक और देश हित की दृष्टि से भी यह बहुत बड़ी भूल साबित हुई, क्योंकि शेख के मन में स्वतंत्र कश्मीर का मंसूबा था। इस सूरते-हाल, नेहरू ने दूसरी बड़ी गलती यह की कि उस राज्य का मामला अपने हाथ ले लिया। जब कि तब रजवाड़ों से विलय का पूरा काम गृह मंत्री सरदार पटेल के जिम्मे था। 

लेकिन दिसंबर 1947 से नेहरूजी कश्मीर संबंधित कानूनी, तकनीकी व्यवस्था को शेख अब्दुल्ला के साथ चुपचाप स्वयं तय करने लगे। बिना गृह मंत्री पटेल को बताए कि क्या हो रहा हैनेहरू की ओर से यह कार्य निर्विभागीय मंत्री गोपालस्वामी आयंगर देख रहे थे। जब इन गुप-चुप बातों की अस्पष्ट सूचना पटेल को मिली तो उन्होंने आपत्ति की।

इस पर नेहरू ने तैश में आकर पटेल को एक पत्र (23 दिसंबर 1947) लिखा कि आयंगर नेहरू के आदेश से ही स्वतंत्रतापूर्वक काम कर रहे हैं। इसलिए पटेल की आपत्ति मंत्रिमंडलीय सहयोगी के साथ अनुचित व्यवहार है। ऐसा पत्र पाते ही, पटेल ने तत्क्षण नेहरू को अपना त्याग-पत्र भेज दिया। तब मामला गाँधीजी के पास पहुँचा। उन के आग्रह से पटेल सरकार में तो बने रहे, मगर जम्मू-कश्मीर मामला पूरी तरह नेहरू पर छोड़ दिया गया।

उस के बाद से कश्मीर मामले में नेहरू, अब्दुल्ला और आयंगर ही सब कुछ तय करते रहे। जब अक्तूबर 1949 में जम्मू-कश्मीर से संबंधित धारा 306 (जो अनंतर धारा 370 कहलाई) कांग्रेस समिति के पास पहुँची तो सब ने तीखा विरोध किया। कि जो विधि अन्य राज्यों के लिए अपनाई गई, उस से भिन्न क्यों हो रहा है? उस मीटिंग के समय नेहरू विदेश में थे। आयंगर की पूरी फजीहत हुई। दरअसल नेहरू द्वारा अंतिम प्रारूप तैयार करवा कर विदेश जाने के बाद, अब्दुल्ला ने फिर उस में कुछ जोड़-तोड़ करवाई थी, जो भावी जम्मू-कश्मीर सरकार को कुछ और अधिकार देती थी। इन सब पर कांग्रेस समिति ने आयंगर को खूब खरी-खोटी सुनाई। तब आयंगर सरदार पटेल की शरण पहुँचे, कि किसी तरह उसे पास करवाएं।

यदि 17 अक्तूबर 1949 की उस मीटिंग में नेहरू मौजूद होते, तो क्या होता, अब यह अनुमान का ही विषय है। पर उन की अनुपस्थिति में वरिष्ठतम नेता पटेल ने दायित्व समझा कि उस गड़बड़ धारा से असहमति होते हुए भी पास करवाएं, क्योंकि यह कुछ महीनों के लिए ही रहनी थी।

बाद में, जब पटेल के सचिव एन. शंकर ने पूछा कि उन्होंने उस धारा को क्यों पास करवा दिया? तब पटेल ने कहा कि वह अस्थाई ही है, और अंतर्राष्ट्रीय नजाकतों को देखते हुए किया गया (तब तक नेहरू, तीसरी बड़ी गलती करते हुए, मामला संयुक्त-राष्ट्र भी ले जा चुके थे!)। पटेल ने कहा कि वह धारा कोई बड़ी चीज नहीं। आयंगर, अब्दुल्ला, आदि तो कल नहीं रहेंगे, और सब कुछ भारतीय सत्ता की सामर्थ्य पर निर्भर करेगा। फिर भी उन्होंने जोड़ा कि इन सब ऊट-पटाँग कामों के लिए जवाहरलाल रोयेगा’! इस के एक वर्ष ही बाद पटेल का देहांत हो गया।

इस प्रकार, विलय के बाद राज्य के शासक महाराजा हरि सिंह को उपेक्षित करने से ही गड़बड़ियों का मौका मिला। अपने मंसूबे के मुताबिक, शेख ने शुरू से ही चतुराई बरतते हुए, नेहरू के भोलेपन और अहंकार का उपयोग कर, धारा में गोल-मटोल शब्दावली डलवाई। नेहरू की असावधानी का लाभ उठाकर, धीरे-धीरे उस में और भी बदलाव कराए। ताकि बाद में उन का कुछ का कुछ अर्थ कर अपने लिए अधिकाधिक आजादी रखी जाए या यथासंभव ताकत बढ़ाई जाए। नेहरू पहले ही संकेत दे चुके थे कि राज्य की सत्ता शेख अब्दुल्ला को मिलेगी। लेकिन शेख की नीयत ठीक नहीं थी, यह बाद में पुष्ट हुआ, जब स्वयं नेहरू ने शेख को गिरफ्तार करवाया (8 अगस्त 1953)। स्वतंत्रता की जुगत में शेख अब्दुल्ला पश्चिमी ताकतों से गुप-चुप वार्तालाप भी कर रहे थे।

इस प्रकार, पटेल का अवलोकन जल्द सही साबित हो गया कि जवाहरलाल रोयेगा’! पर जब वह समय आया, जब उस अदूरदर्शिता का कुफल दिखना शुरू हुआ, जो नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के लिए अनावश्यक विशेष प्रावधान बनाकर और अंतर्राष्ट्रीयकरण करके किया तब उन्हीं नेहरू ने सब कुछ पटेल के मत्थे डालने की कोशिश की! नेहरू ने बयान दिया कि सरदार पटेल ही जम्मू-कश्मीर का सब काम देख रहे थे। (लोक सभा, 24 जुलाई 1952)।

पटेल के अवसान के बाद यह कहना कैसा घटियापन था, इसे पूरी पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है। सच यह है कि यदि पटेल न होते तो कश्मीर पहले ही पाकिस्तानी कब्जे में जा चुका होता। पाकिस्तानी हमले के बाद कश्मीर में फौरन सेना भेजकर आक्रमणकारियों को खदेड़ने के निर्णय में पटेल की मुख्य भूमिका थी। जबकि मामला अपनी ओर से संयुक्त राष्ट्र ले जाकर उसे अंतर्राष्ट्रीय विवाद बनाने, भारतीय सेना को रोक कर आधा कश्मीर पाकिस्तानी कब्जे में छोड़ने, तथा महाराजा हरि सिंह और सरदार पटेल को किनारे कर, चुप-चाप अब्दुल्ला के साथ जम्मू-कश्मीर की प्रक्रिया को विशेष मुस्लिम-परस्त दर्जा देने, इस प्रकार सब कुछ चौपट करने, और देश के लिए स्थाई सिरदर्द बनाने में मुख्यतः नेहरू की भूमिका थी।

इस सरल सत्य को सन् 1952 में सभी जानते थे। पर पटेल के निधन के बाद कश्मीर की गड़बड़ी को पटेल के सिर मढ़ने के नेहरू के झूठ को सुन कर भी वरिष्ठ कांग्रेसी चुप रहे। इस से वह कांग्रेस-कल्चर पहचाना जा सकता है, जिस में गाँधी-नेहरू की जय बोलने के सिवा प्रायः निजी स्वार्थ सर्वोपरि रहा है। क्या इस में आज भी कुछ विशेष बदला है? स्वार्थ और अज्ञान।

अतः पी. चिदंबरम गलत कह रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर का विलय बड़ी शर्तों पर हुआ था।  वस्तुतः गड़बड़ियाँ विलय के बाद शुरू हुई, जब जम्मू-कश्मीर के लिए औपचारिकताओं का तरीका दूसरे रजवाड़ों से अलग अपनाया गया। पहला अलग तरीका यही था कि जब सभी रजवाड़ों से गृह मंत्री पटेल सफलतापूर्वक बात कर रहे थे, तो नेहरू ने कश्मीर अपने हाथ ले लिया। यह नेहरू का अहंकार और देश-हित की कीमत पर भी वैयक्तिक पसंद-नापसंद को महत्व देना था, जिस से अलगाववादी शेख अब्दुल्ला को मामले में घुसने की जगह मिली। 

बड़ी शर्तों का तो मामला यह है कि यदि अक्तूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में न हुआ होता, तो कुछ ही दिनों में महाराजा राजा हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला, दोनों को खत्म कर पाकिस्तान उस पर कब्जा कर लेता। इस आसन्न संकट को देखकर ही भारत में उस का विलय हुआ था। उस समय भारत पर कोई शर्त लादने की ताकत किस कश्मीरी में थी?  पी. चिदंबरम या तो भ्रमित हैं, या दलीय स्वार्थ में बोल रहे हैं।                               
                                                                                                                        लेखक राजनीति शास्त्र विभाग,माहाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में प्रोफ़ेसर हैं.
bauraha@gmail.com +919911035650 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.                          






















29 September 2016

  

 धर्म व पूँजीवाद की समकालीन लीलाएँ                        ईश्वर दोस्त
                                                                                                  



सामंतवाद के दौर में धर्म और पूँजीवाद के दौर में विज्ञान का बोलबाला रहा है। पूँजीवाद की शुरुआत से ही विज्ञान, लोकतंत्र, आधुनिकता, इहलौकिकीकरण या सेकुलराइजेशन और धर्मनिरपेक्षता जैसी प्रक्रियाएं उभरीं और मजबूत होने लगीं। औपनिवेशीकरण के जरिए जब ये प्रक्रियाएं यूरोप से बाहर निकलकर दुनिया भर में फैली तो इनका रास्ता उतना आसान नहीं रहा। जब पूँजीवाद का नवउदारवादी दौर और उसका भूमंडलीकृत चेहरा सामने आया तब तक यूरोप सहित दुनिया भर में धर्म की वापसी और धर्मनिरपेक्षता के कमजोर होने का माहौल बनने लगा। भारत में यही दौर प्रगतिशीलों के लिए एक झटके के रूप में सामने आया। अस्सी के दशक से ही धर्म और धर्म की राजनीति अलग-अलग रूपों में हावी है।
ज्ञानशास्त्र के स्तर पर भी आधुनिकता की कई सर्वसम्मतियों को जबरदस्त चुनौती मिली। लोकतंत्र के उदारवादी मॉडल पर सवाल उठे। इक्कीसवीं सदी एक नारा, एक सपना रही है। मगर इसी सदी में भारत में पूँजीवादी शक्तियों ने एक ऐसी पार्टी पर भरोसा जताया जो खुलेआम धर्म की राजनीति करती है। विकास और प्रगति की एक निश्चित सी दिखने वाली दिशा अब धूल के गुबारों और विभ्रम का शिकार है। इसलिए बहुत सी पुरानी निश्चितताओं पर अब नए सिरे से विचार की जरूरत है।
एक आसान सा रास्ता भी है कि प्रगतिशीलता के मानकों के समस्याग्रस्त होने की जाँच मे शामिल होने की जगह प्रतिक्रियावाद के हावी होने का रुदन किया जाए। उसे साजिशों और प्रगति की अवधारणाओं के प्रति प्रतिबद्धता की कमी का नतीजा बताया जाए। धर्म बनाम विज्ञान या तार्किकता के आसान से समीकरण मनोवैज्ञानिक राहत भी देते हैं। मगर चुनौती ज्यादा बड़ी है।
धर्म और विज्ञान जैसी प्रक्रियाएं ऐतिहासिक हैं, और ऐतिहासिक नजरिए से ही देखी जानी चाहिए। ये अंतर्विरोधी हैं, और इनके अंतर्विरोध निगाह से ओझल नहीं होने चाहिए। ये बहुआयामी हैं, और इनके एक आयाम को पकड़कर बैठने से हस्तक्षेप के भौंथरे होने का खतरा पैदा होता है। सामंतवादी और पूँजीवादी दौर में धर्म की अंतर्वस्तु अपरिवर्तित नहीं रही आती।
पूँजीवाद उत्पादन की ही नहीं जीवन की पद्धति भी है। यह अपनी जद में आने वाली हर चीज, हर प्रक्रिया को अपने रंग में रंगती चलती है। हर चीज को प्रभावित करती है, बेशक सामाजिक अंतर्विरोधों की रोशनी में। चाहे संस्कृति हो, कला हो, अच्छाई, बुराई के ख्याल हों, वस्तुएं और उनके साथ इन्सानों के रिश्ते हों, विज्ञान का सामाजिक संगठन और राजनीतिक अर्थ हो, धर्म की पैंतरेबाजियां हों, सभी उत्पादन, श्रम व जीवन के पूँजीवादी तर्क से प्रभावित होते चलते हैं।
पूँजीवाद के उभरने के साथ धर्म की सामाजिक-राजनीतिक जीवन में चली आ रही एकछत्र भूमिका खत्म हो गई। तब धर्म को दूसरी प्रतियोगी विचार-सरणियों के साथ रस्साकशी में उतरना पड़ा। भारत जैसे देश तक में, जहाँ  पूँजीवाद बूढ़ा पैदा हुआ, जहाँ लोकतंत्र के साथ बहुत से अगर-मगर जुड़े रहे, जहां विज्ञान विकास की रेलगाड़ी तो बन गया मगर संस्कृति का तर्क नहीं बन पाया, वहाँ भी ज्ञान, जीवन के अर्थ व मर्म को परिभाषित करने के मामले में धर्म का एकाधिकार पूँजीवादी दौर में खत्म हो गया। मगर भारत में पश्चिम की तुलना में इहलौकिकीकरण या सेकुलराइजेशन की प्रक्रिया कमजोर थी। साथ ही राजकीय धर्मनिरपेक्षता भी राज्य व धर्म के स्पष्ट अलगाव पर आधारित नहीं है।
ऐसी हालत में धर्म की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक— सभी भूमिकाओं में जबरदस्त परिवर्तन हुए। धर्म के दाता बदले, कहार बदले, सिपहसलार बदले। मगर धर्म कमजोर नही पड़ा। पूँजीवाद से जुड़ा वस्तु-पूजावाद या कमोडिटी फेटिशिज्म और धर्म का पूजावाद बगलगीर हो गए। धर्म ने लचक पैदा की, नई भूमिकाओं को समझा। विज्ञान से आई टेक्नोलॉजी के माथे पर तिलक किया,  नींबू और मिर्च लटकाए। विज्ञान के ऐच्छिक-संकलनवादी या ऐक्लेक्टिक पाठ के जरिए धर्म को विज्ञानसम्मत बताने का उपक्रम भी किया। कल्याण मासिक या जाकिर नायक को याद कीजिए! धर्म ने पूँजीवाद व उदारवाद की बिडंबनाओं, कई वादों के कोरेपन और लोभ-लालच का मुआयना किया। जनेऊ के ऊपर टाई चढ़ाई।
हकीकत यह है कि वर्गहितों की शतरंज में धर्म व विज्ञान दोनों प्यादे बना लिए जाते हैं।धर्म वर्गहितों से परे नहीं है सो विज्ञान भी। धर्म राजसत्ता के खेल का पांसा बन सकता है सो विज्ञान भी। बावजूद इस बात के कि धर्म व विज्ञान एक-दूसरे की विरोधी प्रवृतियां हैं। इनके ज्ञानशास्त्र मुख्तलिफ हैं। एक तथ्य व तर्क की दुहाई देने पर आधारित है तो दूसरा आस्था और शरण पर। मगर सामाजिक प्रक्रियाओं के रूप में इनका एक-दूसरे में अंतर्प्रवेश और अंतर्छेदन भी होता है।
इसकी एक वजह है कि धर्म अगर सामंती व्यवस्था व राजसत्ता को वैधता देने वाला सबसे बड़ा तर्क था, तो विज्ञान पूँजीवादी राजसत्ता व व्यवस्था को वैधता देने वाला सबसे बड़ा तर्क है। पूँजीवाद एक शोषणकारी, दमनकारी व्यवस्था ही है। स्वयं पूँजीवाद का एक रहस्यवादी आयाम है, जो वस्तु-पूजावाद के रूप में प्रतिफलित होता है।
समस्या यह है कि बहुत से बुद्धिजीवी आज के पूँजीवाद से वैसी ही उम्मीद पालते हैं जैसी कि उस पूँजीवाद से पाली गई थी, जो खास कर यूरोप में सामंतवाद, रूढ़िवाद से लड़ते हुए धर्मनिरपेक्षता, विज्ञान, प्रगति आदि का पक्ष ले रहा था। अब न वह पूँजीवाद है और न विज्ञान या धर्मनिरपेक्षता आदि के वैसे ही दार्शनिक आधार व सामाजिक रूप व राजनीतिक गतिशीलताएं। इसलिए इन प्रक्रियाओं को किताबी या मूलवादी ढंग से देखने की कोशिशें हास्यास्पद रूप ले लेती हैं। मगर कई प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी समय की किन्हीं खास तसल्लियों या निश्चितताओं के तिलिस्म में फंस कर रह जाते हैं। आज पूँजीवाद की क्या कहें, बीसवीं सदी का समाजवाद भी समस्याग्रस्त है। उसके भी पुनर्नवीकरण का एजेंडा सामने है।
जगह की कमी के चलते सिर्फ धर्म की बदलती भूमिकाओं की बात करें। धर्म को एक बहुआयामी, बहुस्तरीय और अंतर्विरोधी प्रक्रिया के रूप में समझा जाना जरूरी है। पूँजीवादी दौर में धर्म के संचालन के आधुनिक, टेक्नोलॉजी आधारित स्वरूपों को पहचानना होगा। बाजार और लोकतंत्र दोनों के केंद्र में प्रतियोगिता है। धर्म पूँजीवादी दौर में खुद को प्रतियोगी आधार पर पुनर्संगठित करता है। आज धर्म ने टेक्नोलॉजी व बाजार को अगर साधा है तो टेक्नोलॉजी और बाजार खुद धर्म के रहस्यवाद से बहुत कुछ सीख रहे हैं।
धर्म का टर्नओवर बढ़ा है। धर्म ऊंचे और निचले सेगमेंट के मार्केट में अलग-अलग उत्पाद बेच रहा है। मेले-मढ़ई से लेकर मॉल तक के लिए सप्लाई तैयार है। नए बाबा और नए सेल्समैन तैयार हैं। पूँजीवाद मनुष्य व प्रकृति के बीच में, मनुष्य व उसकी श्रमशक्ति के बीच में, मनुष्य व मनुष्य के बीच में एलिनेशन या आत्म-विछिन्नता पैदा करता है। इससे जो खालीपन, अनिश्चितता, असंतोष पैदा होता है, आज धर्म अपने आध्यात्मिक उत्पादों के जरिए उनके नीम-हकीमी शमन का दावा करता है। इसके पास पुरातन व परंपरा की शक्ति भी होती है।
धर्म की इस भूमिका का मुकाबला तभी किया जा सकता है जब प्रगतिशील ताकतें पूँजीवाद से क्षत-विक्षत मनुष्य के आत्म के मरहम, और आशा के लिए नए किस्म की 'आध्यात्मिकता' या आत्मिकता को उतने ही बड़े पैमाने पर पैदा कर पाएं। साहित्य व कलाएं यह भूमिका निभाती हैं, मगर इनके साथ दिक्कत यह है कि आधुनिकतावादी होने के चलते उनकी पंहुच सीमित है। पूँजीवादी प्रक्रियाओं के चलते ही साहित्य व कलाएं लोक से विछिन्न व विमुख हैं, वहीं अगर पापुलर होने की कोशिश करती हैं तो अपनी दृष्टि की आलोचनात्मकता गंवाने का जोखिम होता है। बहुत कम लोग इस तनाव को साध पाते हैं।
धर्म की आधुनिकता का दूसरा रूप राजनीतिक धर्मशास्त्रों या धार्मिक राजनीति के रूप में सामने आता है (यहां आधुनिकतावादी व आधुनिककालीन में फर्क निवेदित है)।राजनीतिक हित धर्मों को प्रतियोगी कार्टेलों के रूप में संगठित कर राजनीति के मैदान में सारे छल-बल के साथ उतारते हैं। कार्पोरेट जगत को हिंदुत्व या राजनीतिक इस्लाम से उतना प्यार नहीं है, मगर जनता को नियंत्रित, भ्रमित रखने में धर्म अगर सहयोगी भूमिका निभाता है तो कार्पोरेट को कोई परेशानी भी नहीं है। नवउदारवाद के नंगे जनविरोध को धार्मिक कट्टरता की पर्देदारी मिल जाए तो क्या बुरा है? वहीं कट्टरता को प्रतियोगी वातावरण में खुद को समकालीन बनाने की सुविधा होती  है। वहीं आईएसआईएस जैसी कट्टरताएं हैं, जो साम्राज्यवादी शतरंजी बिसात से उपजती हैं और धर्म के पुरातन स्रोतों का नया राज्यवादी पाठ तैयार कर कट्टरता का धर्मशास्त्रीय आख्यान रचती हैं।
मगर फिर भी धर्म एकाश्म शै नहीं है। धर्म निश्चित ही एक पक्ष है, मगर विरोधी सामाजिक व राजनीतिक विचारों के संघर्ष का एक अखाड़ा भी। इस अखाड़े से प्रगतिशील शक्तियां अगर बाहर निकल जाएंगी तो सेकुलरिज्म के दरवाजे सिर्फ नास्तिकों के लिए खुलेंगे। जबकि ऐतिहासिक रूप से धर्मनिरपेक्षता धर्म की एक निजी जगह निर्धारित करने तक ही सीमित है। नास्तिकता का 18 वीं सदी का पूँजीवादी-प्रत्यक्षवादी मॉडल भी समस्याग्रस्त है। मानवीयता, आत्मिकता व प्रगतिशीलता को नई कल्पनाशीलता चाहिए।

लेखक दर्शनशास्त्र और सामजिक विज्ञानों के आजीवन विद्यार्थी हैं.
ishwardost@gmail.com  +919657308491 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.

28 September 2016

 
   
  धर्म और कट्टरता
      हितेन्द्र पटेल






धर्म और कट्टरता के बीच का द्वंद्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। धर्म के नाम पर करोड़ों जानें ली गई हैं, जिसे बाद में धार्मिकों का नहीं कट्टरों के खाते में दल दिया जाता रहा है। आधुनिक युग में जमा खर्च का हिसाब अधिक लिया जाता है इसलिए अधिकतर लोगों को लगता है कि अब स्थिति खराब हुई है। यह ध्यान देने वाली बात है कि सबसे अधिक क्रूर कृत्यों के लिए कुख्यात मंगोल बौद्ध धर्म को मानने वाले थे ! पिछली शताब्दी की ही तो बात है जब एक दस साल के अफ्रीकी बच्चे को फांसी पर चढ़ाये जाने का एक चित्र खींचा गया था। उसका अपराध नहीं था, अपराध था उसके किसान पिता का जिसने जमींदार के ज़मीन जोतने के नियमों का पालन नहीं किया था। उस तस्वीर में कई शिक्षित ईसाई खड़े है, एक मुस्कुरा भी रहा है। पर सबसे महत्त्वपूर्ण है एक पादरी का बच्चे के पास खड़े होकर बाइबिल का पाठ करना ॰
जब ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, यह खबर आज के अखबार में मुखपृष्ठ पार हैं कि बारह साल के बच्चे ने तुर्की में एक विवाह उत्सव पर पचास से अधिक लोगों की जान ले ली है।  मुझसे कोई पूछे तो आधुनिक दौर के संदर्भ में पूंजीवाद, आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता पर एक साथ मिलकर विचार किया जाना चाहिए।
धर्म के भीतर से इस तरह के अधर्म के लिए स्वीकृति कैसे मिलती रही है इसपर सोचते हुए एक इतिहासकार बरुण दे ने एक बार कहा था कि धर्म के नाम पर कोई भी हिंसा को हिंसा न मानने की सीख जेसूइट्स से मिली। आप धर्म के लिए किसी भी तरह की हिंसा को सही ठहरा सकते हैं। गीतेश शर्मा की एक पुस्तक धर्म के नाम पर ने धर्म के नाम पर हुई हिंसा के इतिहास का एक संक्षिप्त विवरण पेश किया है। इसे पढ़ना ही पर्याप्त है इसे समझने के लिए कि धर्म के नाम पर कितनी हिंसा हुई है।
यह सच है, लेकिन यह भी सच है कि धर्म किसी भी समाज में सबसे महत्त्वपूर्ण है। कोई भी राज्य-शक्ति अधिक समय तक धर्म की अनदेखी नहीं कर सकती। अब तक नहीं कर पायी है। धर्म जरूरी है। ईश्वर का भय भी जरूरी है। दोस्तोवयेस्की की मानें तो अगर ईश्वर का भाय न हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है।
धर्म रहे और कट्टरता न रहे यह पूरी दुनिया के सभी मानवतावादी की सम्मिलित पुकार है। पूंजीवाद के और अब के पूंजीवाद और आतंकवाद के इस दौर में यही स्वर सब जगह से उठा है और सभी जगहों पर कट्टरता कायम है। पर इस कट्टरता से जितना भय पिछले बीस पच्चीस सालों में बढ़ा है उतना पूरी दुनिया में पहले कभी नहीं रहा। आज तो ऐसा लग रहा है कि एक ओर आधुनिक पूंजीवादी कट्टरता है तो दूसरी ओर इस्लामी आतंकवादी कट्टरता और पूरी दुनिया इस लड़ाई में किसी न किसी रूप में प्रभावित हो रही है।
पूंजीवाद एक बर्बर व्यवस्था है। इसकी आदिम प्रवृत्ति है आंतरिक और बाह्य विस्तार। अगर इसके विस्तार में कोई बाधा आती है तो यह अपने असली रूप- खूंखार रूप में आ जाता है। उदार होने का स्वांग यह छोड देता है। फिर यह उस चीज़ की मदद लेता है जिससे इसको फैलने का मौका मिल सके। यह विश्वयुद्ध करवा सकता है, करोड़ों लोगों की जानें ले सकता है और फिर शीत युद्ध जारी रख सकता है। युद्ध और पूंजीवादी विस्तार का चोली दामन का साथ है। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था लेकिन एक ऐसी चीज़ हो गई जिसने पूंजीवादी बर्बरता के लिए मुसीबत खड़ी कर दी। फैलने के क्रम में पूंजीवाद ने विध्वंस की तकनीक को वैश्विक फैलाव दे दिया। अगर ईरान को ईराक से युद्ध करवाना है तो तकनीक तो देनी ही होगी, या फिर रूस को अफगानिस्तान में शिकस्त देनी हो तो वहाँ के इस्लामी लड़ाकों- जिहादी ओसामा बिन लादेन जैसों को विध्वंस की तकनीकी सहायता भी देनी ही होगी। अब जब यह दे दिया तो फिर तो फिर एक खतरा उभर ही गया। ये भस्मासुर अब अपने बनाने वालों से भिड़ गए। यहीं से सेर को सवा या पौन सेर मिल गया।
आज इस्लामी समाज पूरी दुनिया में निशाने पर है, शायद ही कोई देश हो जहां मुसलमान गैर मुसलमानों के लिए परेशानी का सबब नहीं बना हुआ है। खुद मुसलमान भी इस परेशानी से जूझ रहे हैं। एक दौर था जब अमरीका विरोधी शक्तियाँ इस मुस्लिम उभार को सहानुभूति से देख रहे थे, इस उम्मीद में कि ये अमरीका और अन्य पूंजीवादी शक्तियों को कमजोर करेंगी। पर यह उससे आगे बढ़ गया। भारत जैसे देश में भी धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद के बीच संबंध ढूँढना कठिन नहीं रह गया है।
बहुत सारे विद्वान यह कहते हैं कि सांप्रदायिकता के साथ धर्म का संबंध कम है आधुनिक राजनीति का अधिक। पर यह अधूरा सच है जो खतरनाक है। इससे बात स्पष्ट नहीं होती। दरअसल इस्लामी समाज के बारे में सीधे सीधे बात करते हुए विद्वान लोग संकट में पड़ जाते हैं। भारत जैसे देश में यह संकट बहुत ज़्यादा है। यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस्लाम और अन्य धर्मों को मानने वालों में कुछ अंतर है। मोटे तौर पर यह बात मानी जा सकती है कि मुस्लिम समुदायों में राष्ट्रीयता और आधुनिकता का प्रसार उस तरह से नहीं हुआ है जैसा अन्य धार्मिक समुदायों में हुआ है। इस्लामी समाज का एक अलग रूप बना रहा है। पूरी दुनिया में इस्लाम से जुड़े लोगों को को एक किस्म से जुड़ा हुआ माना जाता रहा है। यह पूरी तरह से सच रहा हो या नहीं आज ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में यह बात इसी रूप में फैल गई है। अफगानिस्तान में अमरीकी सहयोग से जो इस्लामी कट्टरवाद को बढ़ावा मिला उसने एक भारी संकट को पैदा कर दिया। एक तरफ यह अमरीका समेत सभी पूंजीवादी देशों के खिलाफ लड़ने लगा तो दूसरी ओर एक किस्म के इस्लामी भाईचारे के लिए वैश्विक स्तर पर सक्रिय भी हो गया। जो कहानी मध्य पूर्व से शुरू हुई थी उसने पूरी दुनिया के लिए एक संकट पैदा कर दिया। जहां जहां मुसलमान थे सब जगह धीरे धीरे इस्लामी कट्टरतावाद धीरे धीरे पाँव पसारने लगा। इस बात के सबूत मिलने लगे कि दुनिया के तमाम देशों से इस्लामी हुकूमत के लिए शहादत देने के लिए युवा अपनी सेवाएँ और शीष दोनों देने को तैयार हो गए। भारत और बंगला देश जैसे देशों में इस्लामी संगठनों के लिए लोगों की नियुक्ति होने लगी।
एक तरह का कट्टरवाद दूसरे तरह के कट्टरवाद के लिए अवसर पैदा करता है। तमिल आतंकवादियों ने सिंहलों के बीच भी कट्टरवाद को बढ़ावा दिया। भारत में हिन्दू आतंकवादी संगठन और उसकी गतिविधियां लक्षित की गईं। फ्रांस में इस्लामी आतंकवाद ने उदार देश के रूप में प्रतिष्ठित फ़्रांस जैसे देश में भी कट्टरता के बढ्ने के संकेत दिए। आज अमरीका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ट्रम्प जिस भाषा का प्रयोग करके लोगों का समर्थन जुटाने में लगे हैं उसे देखते हुए यह माना जा सकता है कि वहाँ भी धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है या कम से कम बढ़ सकती है।
इन सब कारणों से पूरी दुनिया में एक नए किस्म का संकट गहराया है। बंगला देश जैसे देश में जिस तरह कट्टरवादी संगठन सक्रिय हैं और एक के बाद एक हत्याएँ कर रहे हैं वह किसी को भी डरा देने के लिए काफी हैं। भारत जैसे देश में भी हिन्दू कट्टरवादियों के माथे पर हत्या के आरोप हैं। यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत में हिन्दू कट्टरवादियों का जितना ज़ोर इन दिनों है उतना पहले कभी नहीं रहा।
दो प्रश्न हमारे सामने हैं। पहला- इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? इस स्थिति के लिए पूंजीवाद और धर्म किस हद तक दोषी माने जा सकते हैं?और दूसरा इन परिस्थितियों में उपाय क्या है ? किस तरह इस तरह के क्ट्टरतावाद के फैलाव को रोका जा सकता है?
पूंजीवाद को निश्चित रूप से इस कठिन परिस्थिति के निर्माता के रूप में देखना सही होगा। इसने ही वो सरो सामाँ मुहैया कराया है जिससे यह संकट तैयार हुआ है। रोबर्ट फिस्क की एक महत्त्वपूर्ण किताब है – द ग्रेट वार फॉर सिविलिजेसन: द कोंकुएस्ट ऑफ द मिडिल ईस्ट (2005) जिसने दिखलाया है कि कैसे तीस बरसों में पश्चिमी सभ्य समाजों ने लाखों लोगों को मरवाया ताकि मध्य-पूर्व के देशों पर उनका अधिकार बना रहे । जो लोग कम से कम ईरान-ईराक युद्ध के दौर से उन देशों में चल रहे युद्धों की मामूली खबर भी रखते हैं उन्हें पता है कि कौन लड़ा रहा है और कौन आपस में कट मर रहे हैं। ईरान के इतिहास में आयतुल्लाह खुमैनी के उदय ने अमरीका की मुसीबत बढ़ा दी लेकिन क्या किसी को यह इंकार करना चाहिए कि अमरीका ने इस तरह के कट्टरतावाद के उदय के लिए ज़मीन तैयार की थी ? फिलीस्तीन में कट्टर संगठन सक्रिय हैं लेकिन ब्रिटेन और अमरीका समेत तमाम देशों की 1916 से शुरू हुई साज़िशों का इसमें योगदान नहीं है ? अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बारे में तो कुछ भी कहने की जरूरत ही नहीं है।
आज सीरिया में जो कुछ हो रहा है उसका इतिहास इस बात का गवाह है कि कैसे एक देश को पूंजीवादी देशों ने बरबादी के कगार पर खड़ा कर दिया। यह सब अभी खत्म होंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है। एडवर्ड सईद ने 9/11 के अमरीकी हमले के बाद एक मार्के की बात कही थी कि जैसे कैप्टन वहाब शार्क को मारने के जुनून में अंतत: शार्क के साथ खुद भी मर जाता है वैसे ही आतंकवाद के खात्मे के लिए कहीं अमरीका का हाल भी वहाब जैसा न हो जाए ! पूंजीवादी देश आज इस आतंकवाद के विरुद्ध लड़ते हुए पार पा ही लेंगे अभी भी कहना कठिन है। और देखिए कैसे रूस जैसा देश भी सीरिया जैसे देश के कट्टर –आतंकी संगठनों को खत्म करने के लिए कैसे कट्टर बन गया है ! हाल ही में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ने भी एक के बाद एक भयानक किस्म के संदेश दिए हैं।    
क्या किया जाए ? यह तय है कि इस्लामी कट्टरतावाद पूरी दुनिया के लिए एक खतरा बन चुका है। जो लोग इस भ्रम में थे कि यह सिर्फ अमरीका और उसके समर्थक देशों के लिए खतरा है अब अपनी गलती मान रहे हैं। बांग्लादेश जैसे  देश में आज लोकतन्त्र खतरे में है। इस समय इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए यह बेहद जरूरी हो गया है कि वे अपने धर्म की रक्षा के लिए इस्लामी कट्टरतावाद के खिलाफ मुखर हों। इस्लाम को नई दुनिया के हिसाब से अपने को व्यवस्थित करने का जोखिम उठाना ही होगा। यह भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न तरीकों से ही हो सकता है, लेकिन यह होना ही होगा। इस्लाम का राष्ट्रीयकरण और आधुनिकीकरण अगर नहीं हुआ तो यह संकट और बढ़ेगा। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में इस्लाम के विरुद्ध जो माहौल बन रहा है वह किसी भी तरह से शुभ नहीं है। इस पूरी प्रक्रिया में अगर इस्लाम को मानने वाले अपनी ज़िम्मेदारी से भागेंगे तो उनके विरुद्ध सक्रिय अन्य कट्टरवादी संगठनों को विष वमन करने का मौका मिलेगा। हिन्दी के एक विख्यात लेखक ने आज़ादी के बाद मुसलमानों से भारतीय वेश –भूषा और  नाम आदि को अपनाकर देश की संस्कृति के साथ एकाकार करने की सलाह दी थी, जिसे कट्टर सोच का मानकर उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया था। आज इस बात को याद करना भी कट्टर सोच के एक उदाहरण के रूप में चिन्हित किया जाए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी। पर जो सही लगे उसे कहने और मानने की आज़ादी होनी चाहिए । जो इसे न माने उसे भी कट्टर माना जा सकता है। जॉर्ज बुश और सद्दमान हुसैन में कौन ज़्यादा कट्टर था  


लेखक इतिहास के प्राध्यापक और उपन्यासकार हैं.
hittisaba@gmail,com  +919230511567 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.                                                                                                                                                                       

27 September 2016


धर्म और साम्प्रदायिक कट्टरता

         आनन्द कुमार 




धर्मं की आड़ में कायरों की क्रूरता का विस्तार एक गंभीर सामाजिक बीमारी है. यह सामाजिक-सांस्कृतिक कट्टरता के रूप में सामने आती है. इसे संस्कृति रक्षा और राष्ट्रभक्ति का नाम दिया जाता है. इससे सबसे पहले स्त्री, फिर निर्धन सर्वहारा, तब हाशिये के समुदाय और अंतत: विषमता के शिकार हिस्से समाज के दबंग हिस्से के निशाने पर आते हैं. यह प्राय: पराजित समाजों और समुदायों में पाई जाती है. वैसे कट्टरता के समर्थक किसी भी समाज – समुदाय में घर में छुपे मच्छर-सांप की तरह बराबर होते हैं. लेकिन इनका प्रभाव सामाजिक अवनति के विपरीत अनुपात में घटता – बढ़ता रहता है. जब समाज सशक्त और आत्मविश्वासी होते हैं तो कट्टरता की जगह उदारता, व्यापकता और प्रयोगशीलता की प्रवृति प्रबल होती है. लेकिन पराजय और पतन के दौर में रस्सी भी सांप जैसी दीखती है और हम ‘अन्य’, ‘अनजाने’. और अज्ञात के प्रति आतंकित और हिंसक हो जाते हैं. इस प्रकार कट्टरता को सामाजिक जीवन का एक महादोष माना जाता है. इसे निर्मूल किये बिना आगे का रास्ता नहीं खुलता. बार बार अतीत के पराजय की स्मृतियाँ विजय और विस्तार के अध्यायों को ओझल कर देती हैं. कदम रुक जाते हैं और बाहें आत्मघाती हो जाती हैं. आशाजनक सपने मर जाते हैं. फिर बिना आशावादी सोच और सपने के आजके सवालों को कैसे सुलझाया जायेगा और आजकी उपलब्धियों को कैसे आगे की यात्रा की पूंजी बनाया जायेगा?    
इस चर्चा में आगे बढ़ने से पहले धर्म को परिभाषित करते हुए आस्था आधारित सामूहिकता और आस्था से जुडी भिन्नताओं से पैदा साम्प्रदायिकता को समझना चाहिए. धर्म समाज को धारण करने की प्रक्रियाओं से पैदा एक आचार व्यवस्था को कहा जाता है. नियम निष्ठां धर्म का प्रधान तत्त्व है. इसलिए इसे पश्चिमी विमर्श से १७वीन शताब्दी से प्रचलित  अंग्रेज़ी के ‘रीलिजन’ शब्द से अलग समझना होगा. रिलिजन में आस्था और समर्पण आधारित एकात्मता का आग्रह है. इसी आस्था के आधार पर रीती-रिवाज, कर्मकाण्ड, अंदरुनी विभेद, पुरोहित-जजमान, प्रतीक-भवन-किताब-जीवन् दृष्टी और प्रकृति सृजन का सिद्धांत अपनाया जाता है. अपने से अलग रीती-रिवाज, मान्यताओं और कर्मकांड से सामना होने पर बेहतर-बराबर-बेकार की कसौटी सामने आते है. इससे यह सच भिन्नता की चेतना पैदा करके साम्प्रदायिकता मे बदलने को बेचैन रहता है. साम्प्रदायिकता और कट्टरता में चोली-दामन का सम्बन्ध होता है.  
भारतीय अस्मिता की यह ऐतिहासिक चुनौती रही है कि वह धर्म की आड़ में पैदा होनेवाली  सांप्रदायिक कट्टरता से समाज की रक्षा के उपाय ढूंढे जिससे समाज की प्रगति का रास्ता सुगम हो. अवनति के खतरे से हम बचें. इसमें हमने देशी-विदेशी उपायों को आजमाया है. शासन की व्यवस्था को साम्प्रदायिकता से जोड़कर देखा है. अलग रखकर सर्वधर्म समभाव के रास्ते भी चले हैं. हर रास्ते की अपने सुख-दुःख रहे हैं. इसके लिए १. प्राचीन वैदिक सभ्यता, २. बुद्धमार्ग (अशोक की परम्पराएँ) के अनुभव, ३. शंकराचार्य से जुड़ा हिन्दू पुनरोदय काल, ४. चोला – चालुक्य का शासन प्रबंध, ५. मुस्लिम शासन व्यवस्था की विविधताएँ, ६. विजयनगर राज, मराठा राज, सिख राज, हैदराबाद और कश्मीर की राज प्रणालियाँ, ७. ब्रिटिश राज, और ८. स्वाधीन भारत के सात दशकों की अनुभव पूंजी से बहुत कुछ सीखने-समझने को है.
लेकिन सीखने के लिए उचित परिवेश चाहिए. समझने के लिए इच्छा और आत्मविश्वास चाहिए. अन्य के प्रति अपनत्व चाहिए. नए के प्रति जिज्ञासा चाहिए. दूसरे शब्दों में, वसुधैव कुटुम्बकम का भाव चाहिए. डरे हुए लोग कायरता से पीड़ित होते हैं. डर सबसे पहले आत्मविश्वास का नाश करता है. फिर कट्टरता यानि ‘अपने’ और ‘दुसरे’ के बीच लम्बी दूरियों और गहरी खाइयों को बनाता है. कट्टरता की आड़ में अपने से कमजोर में शत्रु देखते हैं. हमारे बीच के ही कुछ लोग चारो तरफ शत्रुभाव की प्रबलता होने का प्रचार कर रहे है, उनका दावा है कि भारत खतरे में है. पड़ोसियों की हरकते और विश्व राजनीति के सन्दर्भ में भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान की अदूरदृष्टि से इस भय को बल मिलता है. जबकि हम परमाणु बम से लैस हैं. उनको लगता है कि पिछली आधी शताब्दी से ८४% प्रतिशत के आसपास बने होने के बावजूद हिन्दू धर्मं खतरे में है. हिन्दुओं के बीच आत्मा समीक्षा और पुरुष प्रधान जातिव्यवस्था में निहित अन्यायों के प्रति प्रबल असंतोष का शताब्दी पुराना सच उनकी तरफ से सबूत नहीं है. ऐसी किसी भी सचाई से इन्कारते हुए इस्लाम और ईसाइयत की ओर आरोपी उंगलियाँ उठाई जाति हैं. जबकि यह दोनों धर्म विश्वव्यापी प्रतिरोधों और आलोचनाओं और अंदरुनी अंतर्विरोधों से हिन्दू धर्म से जादा आक्रान्त  हैं.  

अद्वैत दर्शन की जननी संस्कृति में सांप्रदायिक कट्टरता सबसे बड़ी विडम्बना है. फिर जनतंत्र में निहित राजनितिक समानता और सामाजिक तथा आर्थिक न्याय के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता का हमारी राष्ट्रीयता को बल मिला है. फिर भी भयभीत होने का सच सामने है. चूँकि वैश्वीकरण में निहित समस्याओं का समाधान इन कट्टरता के हामियों के बस के बाहर है इसलिए अपने से कमजोर को संस्कृति रक्षा और धर्म-पालन के नाम पर आतंकित बनांये रखना और सामाजिक हिंसा को धर्मबोध से जोड़ना इनका कर्तव्यपथ बनाता जा रहा है. इससे आगे जाने के लिए हमें धर्म को नैतिकता की नियमावली और मानवीय कर्तव्यों की संहिता से जोड़ना होगा. यह प्रयास उपनिसदों से शुरू करके बुद्ध-महावीर के जरिये कबीर-रैदास-नानक-निज़ामुद्दीन औलिया- संत फ्रांसिस –टैगोर-गाँधी-आम्बेडकर तक की बनाई धार्मिकता की डगर पर ले जायेगी. धर्मं को कायरों की सम्पदा बनाना बड़ी भूल होगी. क्योंके बिना धर्म के समाज को आधार नहीं मिलेगा. यह अलग बात है कि इसके लिए अंतर-संप्रदाय संवाद और धर्मं के मानवीकरण के दो पहियों वाला वहां चाहिए.
                                                         सबलोग के सितम्बर 2016 में प्रकाशित

  



जेएनयू में प्राध्यापक रह चुके प्रो.आनन्द कुमार  प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैं और इन दिनों स्वराज अभियान में राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं.  anandkumar1@hotmail.com +919650944604 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.

25 September 2016

धर्म  का  इस्तेमाल

                                                      अकबर रिज़वी


कभी लेनिन ने कहा था कि फासीवाद सड़ता हुआ पूँजीवाद है। मैं इसमें थोड़ा संशोधन करना चाहता हूँ। फासीवाद सड़ता हुआ पूँजीवाद नहीं बल्कि अपना क्षेत्र विस्तार करते पूँजीवाद का हरावल दस्ता है। पूँजीवाद सड़ नहीं रहा है। पूँजीवाद फैल रहा है—भिन्न-भिन्न रूपों में। प्रत्येक युग में ख़ुद को बचाने और बढ़ाने के लिए यह एक काल्पनिक शत्रु-वर्ग को चिह्नित करता है और उसकी आड़ में अपने हित बड़ी होशियारी से साध लेता है। पूँजीवादी विकास की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि इसमें उत्पादन की जो संगठित प्रक्रिया है, उससे क्रमशः मजदूर बाहर होते रहते हैं। अर्थात उत्पादन में तो बढ़ोतरी होती है लेकिन रोज़गार के अवसर संकुचित होते जाते हैं और इस तरह निम्न-मध्य-वर्ग तथा श्रमिक-वर्ग, असंतोष और आर्थिक असुरक्षा की गिरफ्त में आ जाता है। ऐसी परिस्थिति में यदि इस आर्थिक असुरक्षा की बुनियाद पर असंतोष संगठित होने में सफल रहता है तो पूँजीवाद का क़िला दरकने का भय घना हो जाता है। इसलिए पूँजीवाद की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि असंतोष को संगठित होने से रोका जाए और इसको रोकने का सबसे सहज तरीक़ा है—असंतुष्ट श्रमिक वर्ग का लम्पटीकरण। लम्पटीकरण का निरापद मार्ग है—फासीवाद। फासीवाद का आज़माया हुआ नुस्खा है—धार्मिक कट्टरता और अंध-राष्ट्रवाद। भले ही यह उक्ति मार्क्स की हो कि धर्म अफ़ीम है, किन्तु इसको व्यवहारिकता के स्तर पर पूँजीवाद ने ही बरता है। दूर देश से तथ्य बटोरने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि पिछले दो-ढाई दशकों से हमारा मुल्क पूँजीवाद की प्रयोगशाला बना हुआ है। योग गुरु और धर्म गुरु अब प्रोडक्ट गुरु हो गए हैं। साधु-महात्मा राजनेता तथा सांस्कृतिक संगठन खुलकर राजनीति कर रहे हैं। कभी स्त्री की जीवनशैली तय की जाती है तो कभी अल्पसंख्यकों की। कभी गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्य की हत्या कर दी जाती है तो कभी व्यक्ति-विशेष का विरोध देशद्रोह करार दे दिया जाता है। देशभक्ति सिद्ध करने के लिए किसी ख़ास ब्रांड का प्रोडक्ट बतौर लिटमस पेपर निश्चित कर दिया जाता है। स्थिति कुछ ऐसी है कि बाज़ार ने पूँजी, धर्म और राष्ट्रवाद का जो शानदार कॉकटेल तैयार किया है, उसकी डिमांड ख़ूब है।

बात छोटी-सी है। इसे कम्पनी की मार्केट स्ट्रेटजी भी कह सकते हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। 70वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर योग गुरु बाबा रामदेव की कम्पनी पतंजलि ने स्वदेशी कैम्पेन शुरु किया था, जिसका टैग लाइन था—पतंजलि अपनाइए, देश को आर्थिक आज़ादी दिलाइए। बड़ी आसानी से यह कहा जा सकता है कि यह कम्पनी विशेष का विज्ञापन है जो अवसर विशेष को ध्यान में रखकर उपभोक्ता को आकर्षित करने की कोशिश से अधिक कुछ भी नहीं है। लेकिन ज़रा-सा ग़ौर फ़र्माएँगे तो यह पूरा मामला अपनी सांकेतिकता में फासीवाद और धार्मिक कट्टरता को पालता-पोसता नज़र आएगा। विज्ञापन का प्रारम्भ श्वेत-स्याम दृश्यों से होता है, जिसके पीछे कमेंट्री चल रही है—सन 1906, पूरे भारत ने एकजुट होकर स्वदेशी से स्वाधीनता का अभियान शुरू किया था। स्वदेशी अपनाओ और विदेशी जलाओ का नारा पूरे देश में गूँज रहा था। आज फिर उसी रास्ते पर चलकर देश को आर्थिक आज़ादी दिलाने की आवश्यकता आन पड़ी है। श्वेत-स्याम दृश्य के बाद टीवी स्क्रीन पर भारत का नक्शा नमूदार होता है। नक्शे के ठीक मध्य में पहले छोटे-छोटे तीन क्रॉस बनते हैं, जो क्रमशः बड़े होते जाते हैं। इन तीनों क्रॉस के बीच में , आई और को. अर्थात ईस्ट इंडिया कम्पनी लिखा है। पीछे बाबा रामदेव का स्वर गूंज रहा है—विदेशी कम्पनियाँ हमारे देश के लिए बहुत ही ख़तरनाक हैं, क्योंकि देश का धन देश के बाहर लेकर जा रही हैं और देश में कोई भी चैरिटी का बड़ा काम नहीं करती हैं। इन सबका विकल्प है पतंजलि का यह सात्विक स्वदेशी अभियान। पतंजलि का यह प्रॉफिट किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है, चैरिटी के लिए है। इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है। देश का प्रत्येक नागरिक चाहता है कि देश का धन देश में रहे, समृद्धि बढ़े। हमें विज्ञापन के इस टैक्स्ट से भी आपत्ति नहीं है, जिसमें कहा गया है कि हमें 70 वर्ष पहले राजनीतिक स्वतंत्रता मिली थी, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता अभी भी एक सपना है। जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमें गुलाम बनाकर लूटा था, मल्टिनेशनल कम्पनियाँ भी साबुन, शैम्पू, टूथपेस्ट, क्रीम, पाउडर और रोजाना के इस्तेमाल वाले आइटम्स महंगे दामों पर बेचकर वही कर रही हैं। हमारा भी यही मानना है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस विज्ञापन में जो कुछ कहा जा रहा है, वह आपत्तिजनक नहीं है। लेकिन दृश्य? तर्क दिया जा सकता है कि विज्ञापन में भारत के नक्शे पर दिखाया क्रॉस का चिह्न दरअसल ईस्ट इंडिया कम्पनी का लोगो है। लेकिन ऐसा है नहीं। ठीक वैसे ही जैसे कि गोरक्षा आंदोलन और इससे जुड़े लोगों का सरोकार गाय से नहीं है। जिस प्रकार गोरक्षा का मतलब है—मुसलमानों और दलितों के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक हिन्दू संवेदना को भड़काना। उसी तरह ईस्ट इंडिया कम्पनी शब्द है और क्रॉस प्रतीक है—इसाइयत का। कहने कि आवश्यकता नहीं कि भारत के नक्शे पर फैलता क्रॉस विदेशी कम्पनियों के बढ़ते बाज़ार का नहीं, इसाई समुदाय के प्रतीक में बदल जाता है और निस्संदेह यह उस समुदाय में भय का संचार करने लगता है। इसाई बहुराष्ट्रीय कम्पनी का नहीं, एक सम्प्रदाय का नाम है और आधुनिक भारत में क्रॉस किसी कम्पनी का लोगो नहीं है। सच तो यह है कि पतंजलि के इस विज्ञापन से कई स्वार्थ सधते हैं—संघ की आनुषांगिक इकाई स्वदेशी जागरण मंच की वैचारिकी का अप्रत्यक्ष प्रक्षेपण होता है, साथ ही अतीत की आड़ में इसाई समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत की बीज-वमन भी। ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के डेटा के अनुसार अगस्त के पहले दो सप्ताह में पतंजलि का यह कैम्पेन तकरीबन 50 हजार बार दिखाया गया। दृश्य-श्रव्य मीडिया का जनमानस पर त्वरित असर होता है, ऐसे में कहा जा सकता है कि स्वदेशी बनाम विदेशी की आड़ में एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों को बिना कुछ कहे ही विदेशी करार दे दिया गया है। इस प्रकार गाय को दलितों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ तो स्वदेशी को इसाइयों के ख़िलाफ़ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। व्यवस्था और कॉरपोरेट के ख़िलाफ जो असंतोष था, उसको धर्म की आड़ में अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ शिफ्ट कर दिया गया है। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने देशभक्ति की नई परिभाषा दी है—जो व्यक्ति देशभक्त है, वह गाय को माता ज़रूर मानेगा। और जो व्यक्ति गाय को माता नहीं मानेगा? उत्तर देने की आवश्यकता क्या शेष रह जाती है?

20वीं सदी के अंतिम दशक में राम बाज़ार के हत्थे चढ़े तो 21वीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते गाय निशाने पर आ गई है। पिछले तीन दशकों में संस्कृति, धर्म आदि की रक्षा के नाम पर सैंकड़ों छोटे-बड़े संगठन खड़े किए गए और निश्चित रूप से इन संगठनों में उसी असंतुष्ट निम्न-मध्य-वर्ग और मजदूर-वर्ग के लोगों को शामिल किया गया, जो पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया से बाहर कर दिए गए या रखे गए हैं। पूँजीवाद को अपना मार्ग निरापद रखना है, इस कार्य में राम सहायक हों तो राम, गाय सहायक हो तो गाय, ईस्ट इंडिया कम्पनी सहायक हो तो पतंजलि। धार्मिकता धीरे-धीरे विलोपित होती गई है, अध्यात्म तिरोहित होता गया है, जो चीज़ तेज़ी से पनपी और फैली है, वह है कट्टरता, अन्य सम्प्रदायों के प्रति घृणा और अविश्वास। अगर कट्टरता नहीं फैलेगी तो समुदायों के बीच हिंसक टकराव भी नहीं होगा। समुदायों के बीच नफ़रत और धर्म की दीवार भी नहीं खड़ी होगी। ऐसी परिस्थिति में बहुसंख्यक जनता का ध्यान देश के संसाधनों पर मुट्ठी-भर पूंजीपतियों के कब्ज़े पर जाएगा, विकास के नाम पर बढ़ते शोषण की तरफ जाएगा और सत्ता-पूँजी का गठजोड़ ख़तरे में पड़ जाएगा। इसलिए ढेर सारे स्पीड ब्रेकर्स का बंदोबस्त किया गया है। पूँजीवाद ने अपनी क़िलेबंदी को बहुस्तरीय बनाया है। अब आप किसी जन-विरोधी नीति के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं तो मुमकिन है कि पहले आप से पूछा जाए कि तुम किस धर्म के हो?’ अगर धर्म से बात नहीं बनती दिखेगी तो आपकी जाति पूछी जाएगी। जाति से भी काम नहीं बनेगा तो आपसे देशभक्ति का प्रमाणपत्र मांगा जा सकता है! यदि इससे भी बात नहीं बने, तो भारत माता की जय बुलवाने का प्रयास होगा। बोल दिया तो गाय को आप माता मानते हैं या नहीं, ये पूछा जाएगा। इससे भी बात नहीं बनेगी तो इतिहास का उल्था किया जाएगा, आपके पुरखों की बखिया उधेड़ी जाएगी। आपके पुरखों का कथित पाप आपके मत्थे मंढ़ा जा सकता है। यह भी काम न आए तो स्वदेशी-विदेशी विचारधारा के नाम पर आपको देशद्रोही क़रार दिया जा सकता है। और तो और आपके टूथपेस्ट के ब्राण्ड से भी आपकी विश्वसनीयता-अविश्वसनीयता का निर्धारण किया जा सकता है। अब कहीं-न-कहीं तो आप फंसेंगे ही, और जैसे ही फंसे की असली मुद्दा गोल हो जाएगा। पूँजी अपनी राह चलेगी, आपका घर जलेगा। मरता व्यक्ति अपनी जान बचाएगा कि पूँजीवाद के ख़िलाफ़ नारा लगाएगा?
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लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं,इनसे akbarizwi@gmail.com 
 +919711102709  पर सम्पर्क किया जा सकता है.

24 September 2016


इस धर्म को कैसे धारण करें?

        प्रियदर्शन 




रियो ओलंपिक में जिस शाम पीवी सिंधु स्वर्ण पदक के लिए स्पेन की कैरोलीना मारिन का मुकाबला करने वाली थीं, उस दिन देश के तमाम शहरों में उनकी कामयाबी के लिए पूजा-अर्चना चलती रही। इस मामले में धार्मिक एकता के राष्ट्रीय प्रदर्शन के साथ मंदिरों और मस्जिदों में कामनाओं और दुआओं का दौर चल पड़ा। मगर भगवान ने किसी की नहीं सुनी। वह कैरोलीना मारिन का दिन था जिसने कड़े मुकाबले के बाद पीवी सिंधु को आखिरकार हरा दिया।
लेकिन हिंदुस्तान अपने ईश्वर से मायूस नहीं हुआ। दो दिन बाद योगेश्वर दत्त के लिए वही प्रार्थनाएं शुरू हो गईं। लेकिन चार साल पहले जब ये प्रार्थनाएं नहीं थीं तब योगेश्वर पदक जीत लाए, लेकिन जब सारा कर्मकांड होता रहा, तब ईश्वर ने धोखा दे दिया। यह कोई नया सिलसिला नहीं है। सदियों से हिंदुस्तान अपनी प्रार्थनाओं के सहारे जीता रहा है। महात्मा गांधी ने तो प्रार्थना को अपने सत्याग्रह का हिस्सा बना लिया था। लेकिन आजादी की लड़ाई प्रार्थनाओं से नहीं संघर्ष से जीती गई थी। उसके पीछे बहुत सारे मामूली लोगों का त्याग और बलिदान था जिन्हें बेशक, महात्मा की प्रार्थनाओं ने भी अभिभूत किया होगा।
लेकिन गांधी की प्रार्थना चल गई और उसने देश को आज़ादी दिला दी, जबकि बाकी देश की प्रार्थना नहीं चल सकी और वह देश को एक सोना नहीं दिला सकी?  इन दोनों प्रार्थनाओं का अंतर क्या हैक्या यह सच्ची धार्मिकता और कर्मकांड के बीच का अंतर है? इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है। सच्ची धार्मिकता की रेखा कहां ख़त्म होती है और कर्मकांड का जाल कहां शुरू होता है, यह बताना आसान नहीं। दुनिया के बहुत सारे लेखकों ने इस गुत्थी को खोजने-खोलने की कोशिश की है और पाया है कि ध्रर्म से जुड़े संस्थान- मंदिर-मस्जिद, मठ, चर्च- सच्ची धार्मिकता का तिरस्कार करते हैं और एक तरह के सांगठनिक धर्म को बढ़ावा देते हैं जिसमें उसकी आध्यात्मिक शक्ति जाती रहती है और उसका राजनीतिक और कारोबारी इस्तेमाल बढ़ता जाता है.
यह कहना कि पूंजीवाद धर्म और कट्टरता को बढ़ावा देता है, एक तरह का सरलीकरण है। धर्म के नाम पर युद्ध पूंजीवादी व्यवस्था से पुराने हैं और सबसे क्रूरतम क़िस्म के झगड़ों में रहे हैं। धार्मिक कर्मकांडों में निहित क्रूरताओं का इतिहास भी बहुत पुराना है। लेकिन यह सच है कि धर्म सभ्य़ता के सबसे पुराने प्रभावों में हैं। बल्कि सभ्यता के उषाकाल में उसकी बड़ी सकारात्मक भूमिका रही है। उसने समाज को संगठित करने का, उसके जीवन के मूल्य निर्धारित करने का काम किया। वह सम्राट की मदद भी करता रहा, उस पर अंकुश भी लगाता रहा। लेकिन सभ्यता के विकास के साथ धीरे-धीरे धर्म की उपयोगिता ख़त्म होती जाती है। उसकी सामाजिक भूमिका को बहुत सारी दूसरी संस्थाएं और विधाएं हस्तगत कर लेती हैं। स्कूल धार्मिक संगठन के दायरे से बाहर चले जाते हैं, कविता धर्म से कहीं ज़्यादा करुणा सिखा देती है। धार्मिक अनुभवों का अतिवाद तंत्र-मंत्र के गलियारे में फंस जाता है, जो बचा रहता है, वह एक आध्यात्मिक अनुभव में ढल जाता है।
धर्म के इस परिसर को विज्ञान और सीमित करता चलता है। वह एक-एक कर धर्म के सारे उपकरण छीनता चलता है। अब देवता पानी नहीं बरसाते, आग पैदा नहीं करते, सूर्य और चंद्रमा और दूसरे ग्रह अपनी ईश्वरीय चमक खो देते हैं, ईश्वर किसी काल्पनिक शक्तिपूंज में जाकर छुप जाता है।
कायदे से यहां धर्म की सत्ता ख़त्म होती जानी चाहिए थी, मगर यहीं राजनीति उसे बचाए रखती है। धर्म बहुत सारे लोगों के दुख के लिए दिलासे का काम करने लगता है। ईश्वर बहुत सारे अन्यायों का कवच हो जाता है। कर्मकांड यह बताने लगता है कि इस जन्म के दुख बीते जन्मों के पाप का नतीजा हैं। जिन धर्मों में पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं है, वहां यह एक अनिश्चित उम्मीद का वाहक बनता है- इस तसल्ली के साथ कि ईश्वर एक दिन सबकुछ ठीक करेंगे। दरअसल यह तसल्ली, यह मलहम ही वह चीज़ है जिसकी वजह से मार्क्स ने धर्म को अफीम का नाम दिया था- एक ऐसे नशे का, जो लोगों को सदियों से सुलाए हुए है।
दरअसल धर्म के भीतर लोगों को झूठी तसल्ली देने की क्षमता वह चीज़ है जो पूंजीवाद को काफी रास आती है। इस व्यवस्था में उत्पादन और मुनाफ़े के बीच खड़ा जो बिचौलिया होता है, वह सबसे ज़्यादा कमाता है। अक्सर वह इसे अपनी व्यवस्थागत बेईमानी की तरह नहीं, ईश्वर की ओर से दी गई कृपा की तरह देखता है। गरीबी इस व्यवस्था में एक उत्पीड़क तंत्र का नतीजा नहीं, बदकिस्मती की बात है। यह भाग्यवाद अमीर और गरीब दोनों को धर्म के खाने में धकेलता है। गरीब को यहां कुछ राहत मिलती है और अमीर को प्रायश्चित के मौके। दूसरी बात यह कि यह भाग्यवाद निजी पुरुषार्थ में अपनी आस्था नहीं रहने देता। जो मिला है, ईश्वर की कृपा से मिला है इसलिए जो कमाया जा रहा है, वह ईश्वर के नाम पर समर्पित किया जाना है। जाहिर है, ईश्वर के साथ लेनदेन की यह प्रवृत्ति अंततः धर्म के ठेकेदारों को ही फायदा पहुंचाती है। यह अनायास नहीं है कि जैसे-जैसे लोगों के पास संपत्ति बढ़ती जाती है, उनकी धर्मभीरुता भी बढ़ती जाती है।
आधुनिक समय में कई मनीषियों ने धर्म के सार्थक इस्तेमाल की कोशिश की। महात्मा गांधी के अलावा दलाई लामा का राजनीतिक आंदोलन मूलतः आध्यात्मिकता की कोख से निकला दिखता है। लेकिन यही इनकी सीमा भी है। दलाई लामा चाहे जितनी बड़ी शख्सियत हों, चीन के राजनीतिक वर्चस्व से वे तिब्बत को बचा नहीं पाए। गांधी अपने धर्म को उसके दुरुपयोग की छाया से इसलिए बचा पाए कि उनके भीतर एक सतत प्रयोगशीलता थी जो कर्मकांड के बाहर जाती थी और अंततः धर्म में निहित नैतिकता की तलाश करती थी। हालांकि यह तलाश भी इस अर्थ में विफल रही कि उसने राजनीतिक बदलाव का एक बड़ा आंदोलन तो पैदा किया, लेकिन सामाजिक ठहराव को तोड़ने में नाकाम रहा। गांधी का आंदोलन न भारतीय समाज के जात-पांत को ख़त्म कर सका, न अछूतों को उनका वास्तविक सम्मान दिला सका और न ही सांप्रदायिकता के राक्षस का सामना कर सका। 
दरअसल धर्म एक संगठन के रूप में सिर्फ राजनीति का साधन रह गया है, इसको शायद गांधी से ज़्यादा जिन्ना ने समझा और ख़ुद बुरी तरह धर्मविमुख होते हुए धार्मिक चेतना को सांप्रदायिक उन्माद में बदलते हुए अपने हिस्से का देश ले लिया। धर्म के इस राजनीतिक इस्तेमाल की मिसालें लगातार बढ़ती गई हैं। बल्कि धर्म के कट्टरता के रसायन को जान बूझ कर बढ़ाया गया है। पश्चिम एशिया के कई देशों में धर्म की इस कट्टरता ने कितने ख़ौफ़नाक नतीजे पैदा किए हैं। ख़तरनाक बात यह है कि हमारे समाज में भी यह कट्टरता लगातार पोसी जा रही है। राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े बहुसंख्यकवाद लगातार आक्रामक हुआ है और भारतीयता का रंग और मिज़ाज बदलने की कोशिश में है। धर्म के साथ राजनीति का यह दुराभिसंधि मौजूदा समाज में नवपूंजीवाद की विडंबनाओं के साथ और मजबूत हुई जाती है। इत्तिफ़ाक से इस  दौर में  जब हमारी सारी सामाजिक-सांस्कृतिक समझ पर एक तरह की कारोबारी प्राथमिकताएं हावी हैं- पढ़ाई-लिखाई का वास्ता साहित्य, इतिहास और समाजशास्त्र से नहीं रह गया है, पैसे कमाने वाली पढ़ाई से रह गया है। देश के ऐसे कमाऊ पूत सांस्कृतिक तौर पर उतने ही विपन्न हैं और बड़ी तेज़ी से धार्मिक कट्टरताओं की गिरफ़्त में आने को तैयार। क्योंकि उनके पास धर्म और राष्ट्र की कोई वास्तविक और रचनात्मक समझ नहीं है और अपने खोखले दर्प के नाम पर कुछ देवताओं और भारत माता की जय के अलावा वे कुछ और नहीं सोच पाते। यह एक सभ्यतागत संकट है जो पूंजीवाद को भी रास आता है और धार्मिक कट्टरता के बीच पलने वाली राजनीति को भी। यह अनायास नहीं है कि भारत में भी इन दिनों वे राजनीतिक ताकतें सत्ता में हैं जो राष्ट्र, धर्म और संस्कृति के बहुत छिछले आशयों को बड़ी आक्रामकता के साथ पेश करने में लगी हैं और उन मूल्यों को लगातार चोट पहुंचा रही हैं  जिनका वास्ता इस देश की बहुलतावादी परंपरा और उदार लोकतांत्रिक चेतना से है।

दरअसल पूंजीवाद ने इस दौर में धर्म और विज्ञान दोनों को महज उपकरण में बदल डाला है। यही वजह है कि विज्ञान ने इस दौर में चाहे जितनी तरक्की की हो, अंततः वह पूंजीवाद का दास सिद्ध हुआ है, उसने वैज्ञानिक चेतना के विकास में योगदान नहीं किया है। इसी तरह धर्म लगातार चोले बदल रहा है, वैज्ञानिक साधनों का इस्तेमाल कर रहा है, कंप्यूटर पर भी कुंडलियां बांच रहा है, और अंततः वह राजनीति कर रहा है जो देश और दुनिया को बंटवारे और बरबादी की ओर ले जाती है। इसका सामना हम कैसे करें, यह बहुत बड़ा सवाल है। 




लेखक कवि,कथाकार और पत्रकार हैं.+919811901398 priyadarshan.parag@gmail.com पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.