धर्म व पूँजीवाद की समकालीन लीलाएँ ईश्वर दोस्त
सामंतवाद के दौर में धर्म और
पूँजीवाद के दौर में विज्ञान का बोलबाला रहा है। पूँजीवाद की शुरुआत से ही
विज्ञान, लोकतंत्र, आधुनिकता, इहलौकिकीकरण या सेकुलराइजेशन और धर्मनिरपेक्षता जैसी प्रक्रियाएं उभरीं और मजबूत होने लगीं। औपनिवेशीकरण के
जरिए जब ये प्रक्रियाएं यूरोप से बाहर निकलकर दुनिया भर में फैली तो इनका रास्ता
उतना आसान नहीं रहा। जब पूँजीवाद का नवउदारवादी दौर और उसका भूमंडलीकृत चेहरा
सामने आया तब तक यूरोप सहित दुनिया भर में धर्म की वापसी और धर्मनिरपेक्षता के
कमजोर होने का माहौल बनने लगा। भारत में यही दौर प्रगतिशीलों के लिए एक झटके के
रूप में सामने आया। अस्सी के दशक से ही धर्म और धर्म की राजनीति अलग-अलग रूपों में
हावी है।
ज्ञानशास्त्र के स्तर पर भी आधुनिकता
की कई सर्वसम्मतियों को जबरदस्त चुनौती मिली। लोकतंत्र के उदारवादी मॉडल पर सवाल
उठे। इक्कीसवीं सदी एक नारा, एक सपना रही है। मगर इसी सदी में भारत में पूँजीवादी
शक्तियों ने एक ऐसी पार्टी पर भरोसा जताया जो खुलेआम धर्म की राजनीति करती है। विकास
और प्रगति की एक निश्चित सी दिखने वाली दिशा अब धूल के गुबारों और विभ्रम का शिकार
है। इसलिए बहुत सी पुरानी निश्चितताओं पर अब नए सिरे से विचार की जरूरत है।
एक आसान सा रास्ता भी है कि
प्रगतिशीलता के मानकों के समस्याग्रस्त होने की जाँच मे शामिल होने की जगह
प्रतिक्रियावाद के हावी होने का रुदन किया जाए। उसे साजिशों और प्रगति की
अवधारणाओं के प्रति प्रतिबद्धता की कमी का नतीजा बताया जाए। धर्म बनाम विज्ञान या
तार्किकता के आसान से समीकरण मनोवैज्ञानिक राहत भी देते हैं। मगर चुनौती ज्यादा
बड़ी है।
धर्म और विज्ञान जैसी प्रक्रियाएं
ऐतिहासिक हैं, और ऐतिहासिक नजरिए से ही देखी जानी चाहिए। ये अंतर्विरोधी हैं, और
इनके अंतर्विरोध निगाह से ओझल नहीं होने चाहिए। ये बहुआयामी हैं, और इनके एक आयाम
को पकड़कर बैठने से हस्तक्षेप के भौंथरे होने का खतरा पैदा होता है। सामंतवादी और पूँजीवादी
दौर में धर्म की अंतर्वस्तु अपरिवर्तित नहीं रही आती।
पूँजीवाद उत्पादन की ही नहीं जीवन की
पद्धति भी है। यह अपनी जद में आने वाली हर चीज, हर प्रक्रिया को अपने रंग में
रंगती चलती है। हर चीज को प्रभावित करती है, बेशक सामाजिक अंतर्विरोधों की रोशनी
में। चाहे संस्कृति हो, कला हो, अच्छाई, बुराई के ख्याल हों, वस्तुएं और उनके साथ
इन्सानों के रिश्ते हों, विज्ञान का सामाजिक संगठन और राजनीतिक अर्थ हो, धर्म की
पैंतरेबाजियां हों, सभी उत्पादन, श्रम व जीवन के पूँजीवादी तर्क से प्रभावित होते
चलते हैं।
पूँजीवाद के उभरने के साथ धर्म की
सामाजिक-राजनीतिक जीवन में चली आ रही एकछत्र भूमिका खत्म हो गई। तब धर्म को दूसरी
प्रतियोगी विचार-सरणियों के साथ रस्साकशी में उतरना पड़ा। भारत जैसे देश तक में,
जहाँ पूँजीवाद बूढ़ा पैदा हुआ, जहाँ
लोकतंत्र के साथ बहुत से अगर-मगर जुड़े रहे, जहां विज्ञान विकास की रेलगाड़ी तो बन
गया मगर संस्कृति का तर्क नहीं बन पाया, वहाँ भी ज्ञान, जीवन के अर्थ व मर्म को
परिभाषित करने के मामले में धर्म का एकाधिकार पूँजीवादी दौर में खत्म हो गया। मगर भारत
में पश्चिम की तुलना में इहलौकिकीकरण या सेकुलराइजेशन की प्रक्रिया कमजोर थी। साथ
ही राजकीय धर्मनिरपेक्षता भी राज्य व धर्म के स्पष्ट अलगाव पर आधारित नहीं है।
ऐसी हालत में धर्म की आर्थिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक— सभी भूमिकाओं में जबरदस्त परिवर्तन हुए। धर्म के
दाता बदले, कहार बदले, सिपहसलार बदले। मगर धर्म कमजोर नही पड़ा। पूँजीवाद से जुड़ा
वस्तु-पूजावाद या कमोडिटी फेटिशिज्म और धर्म का पूजावाद बगलगीर हो गए। धर्म ने लचक
पैदा की, नई भूमिकाओं को समझा। विज्ञान से आई टेक्नोलॉजी के माथे पर तिलक किया, नींबू और मिर्च लटकाए। विज्ञान के ऐच्छिक-संकलनवादी
या ऐक्लेक्टिक पाठ के जरिए धर्म को विज्ञानसम्मत बताने का उपक्रम भी किया। कल्याण मासिक
या जाकिर नायक को याद कीजिए! धर्म ने पूँजीवाद व उदारवाद की बिडंबनाओं, कई वादों के
कोरेपन और लोभ-लालच का मुआयना किया। जनेऊ के ऊपर टाई चढ़ाई।
हकीकत यह है कि वर्गहितों की शतरंज में
धर्म व विज्ञान दोनों प्यादे बना लिए जाते हैं।धर्म वर्गहितों से परे नहीं है सो
विज्ञान भी। धर्म राजसत्ता के खेल का पांसा बन सकता है सो विज्ञान भी। बावजूद इस
बात के कि धर्म व विज्ञान एक-दूसरे की विरोधी प्रवृतियां हैं। इनके ज्ञानशास्त्र
मुख्तलिफ हैं। एक तथ्य व तर्क की दुहाई देने पर आधारित है तो दूसरा आस्था और शरण
पर। मगर सामाजिक प्रक्रियाओं के रूप में इनका एक-दूसरे में अंतर्प्रवेश और
अंतर्छेदन भी होता है।
इसकी एक वजह है कि धर्म अगर सामंती
व्यवस्था व राजसत्ता को वैधता देने वाला सबसे बड़ा तर्क था, तो विज्ञान पूँजीवादी
राजसत्ता व व्यवस्था को वैधता देने वाला सबसे बड़ा तर्क है। पूँजीवाद एक शोषणकारी,
दमनकारी व्यवस्था ही है। स्वयं पूँजीवाद का एक रहस्यवादी आयाम है, जो
वस्तु-पूजावाद के रूप में प्रतिफलित होता है।
समस्या यह है कि बहुत से बुद्धिजीवी
आज के पूँजीवाद से वैसी ही उम्मीद पालते हैं जैसी कि उस पूँजीवाद से पाली गई थी,
जो खास कर यूरोप में सामंतवाद, रूढ़िवाद से लड़ते हुए धर्मनिरपेक्षता, विज्ञान,
प्रगति आदि का पक्ष ले रहा था। अब न वह पूँजीवाद है और न विज्ञान या
धर्मनिरपेक्षता आदि के वैसे ही दार्शनिक आधार व सामाजिक रूप व राजनीतिक गतिशीलताएं।
इसलिए इन प्रक्रियाओं को किताबी या मूलवादी ढंग से देखने की कोशिशें हास्यास्पद
रूप ले लेती हैं। मगर कई प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी समय की किन्हीं खास तसल्लियों या
निश्चितताओं के तिलिस्म में फंस कर रह जाते हैं। आज पूँजीवाद की क्या कहें, बीसवीं
सदी का समाजवाद भी समस्याग्रस्त है। उसके भी पुनर्नवीकरण का एजेंडा सामने है।
जगह की कमी के चलते सिर्फ धर्म की
बदलती भूमिकाओं की बात करें। धर्म को एक बहुआयामी, बहुस्तरीय और अंतर्विरोधी
प्रक्रिया के रूप में समझा जाना जरूरी है। पूँजीवादी दौर में धर्म के संचालन के
आधुनिक, टेक्नोलॉजी आधारित स्वरूपों को पहचानना होगा। बाजार और लोकतंत्र दोनों के
केंद्र में प्रतियोगिता है। धर्म पूँजीवादी दौर में खुद को प्रतियोगी आधार पर
पुनर्संगठित करता है। आज धर्म ने टेक्नोलॉजी व बाजार को अगर साधा है तो टेक्नोलॉजी
और बाजार खुद धर्म के रहस्यवाद से बहुत कुछ सीख रहे हैं।
धर्म का टर्नओवर बढ़ा है। धर्म ऊंचे
और निचले सेगमेंट के मार्केट में अलग-अलग उत्पाद बेच रहा है। मेले-मढ़ई से लेकर
मॉल तक के लिए सप्लाई तैयार है। नए बाबा और नए सेल्समैन तैयार हैं। पूँजीवाद
मनुष्य व प्रकृति के बीच में, मनुष्य व उसकी श्रमशक्ति के बीच में, मनुष्य व
मनुष्य के बीच में एलिनेशन या आत्म-विछिन्नता पैदा करता है। इससे जो खालीपन,
अनिश्चितता, असंतोष पैदा होता है, आज धर्म अपने आध्यात्मिक उत्पादों के जरिए उनके नीम-हकीमी
शमन का दावा करता है। इसके पास पुरातन व परंपरा की शक्ति भी होती है।
धर्म की इस भूमिका का मुकाबला तभी
किया जा सकता है जब प्रगतिशील ताकतें पूँजीवाद से क्षत-विक्षत मनुष्य के आत्म के
मरहम, और आशा के लिए नए किस्म की 'आध्यात्मिकता' या
आत्मिकता को उतने ही बड़े पैमाने पर पैदा कर पाएं। साहित्य व कलाएं यह भूमिका
निभाती हैं, मगर इनके साथ दिक्कत यह है कि आधुनिकतावादी होने के चलते उनकी पंहुच
सीमित है। पूँजीवादी प्रक्रियाओं के चलते ही साहित्य व कलाएं लोक से विछिन्न व
विमुख हैं, वहीं अगर पापुलर होने की कोशिश करती हैं तो अपनी दृष्टि की
आलोचनात्मकता गंवाने का जोखिम होता है। बहुत कम लोग इस तनाव को साध पाते हैं।
धर्म की आधुनिकता का दूसरा रूप
राजनीतिक धर्मशास्त्रों या धार्मिक राजनीति के रूप में सामने आता है (यहां
आधुनिकतावादी व आधुनिककालीन में फर्क निवेदित है)।राजनीतिक हित धर्मों को
प्रतियोगी कार्टेलों के रूप में संगठित कर राजनीति के मैदान में सारे छल-बल के साथ
उतारते हैं। कार्पोरेट जगत को हिंदुत्व या राजनीतिक इस्लाम से उतना प्यार नहीं है,
मगर जनता को नियंत्रित, भ्रमित रखने में धर्म अगर सहयोगी भूमिका निभाता है तो
कार्पोरेट को कोई परेशानी भी नहीं है। नवउदारवाद के नंगे जनविरोध को धार्मिक
कट्टरता की पर्देदारी मिल जाए तो क्या बुरा है? वहीं कट्टरता को प्रतियोगी वातावरण में
खुद को समकालीन बनाने की सुविधा होती है।
वहीं आईएसआईएस जैसी कट्टरताएं हैं, जो साम्राज्यवादी शतरंजी बिसात से उपजती हैं और
धर्म के पुरातन स्रोतों का नया राज्यवादी पाठ तैयार कर कट्टरता का धर्मशास्त्रीय
आख्यान रचती हैं।
मगर फिर भी धर्म एकाश्म शै नहीं है।
धर्म निश्चित ही एक पक्ष है, मगर विरोधी सामाजिक व राजनीतिक विचारों के संघर्ष का
एक अखाड़ा भी। इस अखाड़े से प्रगतिशील शक्तियां अगर बाहर निकल जाएंगी तो
सेकुलरिज्म के दरवाजे सिर्फ नास्तिकों के लिए खुलेंगे। जबकि ऐतिहासिक रूप से
धर्मनिरपेक्षता धर्म की एक निजी जगह निर्धारित करने तक ही सीमित है। नास्तिकता का
18 वीं सदी का पूँजीवादी-प्रत्यक्षवादी मॉडल भी समस्याग्रस्त है। मानवीयता,
आत्मिकता व प्रगतिशीलता को नई कल्पनाशीलता चाहिए।
लेखक दर्शनशास्त्र और सामजिक विज्ञानों के आजीवन विद्यार्थी हैं.
ishwardost@gmail.com +919657308491 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.
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