26 November 2014

सर्वनाश में सर्वसम्मति - अनुपम मिश्र

तीन नदियाँ, करोड़ों जिंदगियां। मैं इस पंक्ति के साथ मुट्ठी भर राजनेता भी जोड़ना चाहूँगा। जब भी हम इन तीन नदियों और करोड़ों जिंदगियों के बारे में सोचें तो यह भी सोचें कि किस तरह कुछ मुट्ठी भर राजनेता पिछले चार दशकों से उनकी जिंदगी तय या बर्बाद कर रहे हैं। पिछले तीस–चालीस वर्षों से ये तीनों नदियाँ बहुत ही बुरे दौर से गुजर रही हैं। तीनों पर ये संकट के बादल विकास की नई अवधारणाओं के कारण छाए हुए हैं। इन नदियों की उम्र कुछ लाख साल है। इन नदियों को बर्बाद करने का यह खेल करीब सौ साल के दौरान शुरू हुआ है।

सबसे पहले हम नर्मदा नदी को लें, क्योंकि यह गंगा और यमुना से भी पुरानी है। पौराणिक साक्ष्य और भूगर्भ वैज्ञानिकों के साक्ष्य भी यही बताते हैं कि नर्मदा अन्य दोनों नदियों के मुकाबले पुरानी है। यह नदी जिस इलाके से बहती है वहाँ भूगर्भ की एक बड़ी विचित्र घटना का उल्लेख मिलता है। उस जगह का नाम लमेटा है। लमेटा के किनारे एक सुन्दर घाट भी बना हुआ है। कहा जाता है कि जिस तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसके शरीर पर कोई–न–कोई चिद्म होता है जिसे अँग्रेजी में ‘बर्थ मार्क’ कहते हैं। ऐसे ही चिद्म लमेटा में मिलते हैं। इस नदी के साथ आज क्या हो रहा है, इसके बारे में बात करना जरूरी होगा।

विकास की नयी अवधारणा के कारण पिछले दिनों एक वाक्य चल निकला कि नर्मदा इतनी–इतनी जलराशि, पता नहीं उसका कुछ हिसाब बताते हैं कि समुद्र में व्यर्थ गिराती है। इसी तर्क के साथ इस नदी पर बान्ध बनाने का प्रस्ताव सामने आया। यह कहा जाने लगा कि बान्ध बनाकर इसके व्यर्थ पानी को रोक पाएँगे। इस पानी का उपयोग सिंचाई जैसे कामों में किया जा सकेगा। इससे पूरे देश का या एक प्रदेश विशेष का विकास हो सकेगा। यह माना गया कि गुजरात प्रदेश का विकास होगा। मध्य प्रदेश का विकास हो पाएगा, लेकिन कुछ नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। नर्मदा पर बान्ध बनने से मध्य प्रदेश की एक बड़ी आबादी का और घने वनों का हिस्सा डूब जाएगा। इस नदी को लेकर दो राज्यों के बीच छीना–झपटी भी चली। उस समय केन्द्र में इंदिरा जी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार थी। बीच में कुछ सालों के अपवादों को छोड़ दें तो राज्यों में भी काँग्रेस की ही सरकारें रहीं। लेकिन इस विकास के सन्दर्भ में कभी भी यह तय नहीं हो पाया कि बिजली और पानी के वितरण के क्या अनुपात होंगे। यानी किन राज्यों को कितना–कितना पानी मिल पाएगा। बाद के दिनों में यह झगड़ा इतना बढ़ गया कि इसे एक पंचाट को सौंपना पड़ा। पंचाट ने भी इन सारे पहलुओं पर बहुत लम्बे समय तक विचार किया। हजारों पन्नों के साक्ष्य दोनों पक्षों की ओर से सामने आये। बाद में इसमें तीसरा पक्ष राजस्थान का भी आया और यह तय हुआ कि उसकी प्यास बुझाने के लिए उसे भी कुछ पानी दिया जाएगा। इस तरह पंचाट ने इस काम को करने के लिए तीन दशक से भी ज्यादा का समय लिया। नतीजा आया तो लगा कि यह गुजरात के पक्ष में है। मध्य प्रदेश को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। उन्हीं दिनों इस बान्ध के खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन शुरू हुआ।

लेकिन हमारी यह बहस बान्ध के पक्ष और उसके विरोध में बँटकर रह गयी। इसको तटस्थ ढंग से कोई देख नहीं पाया कि विकास की यह अवधारणा हमारे लिए कितने काम की है। इससे पहले हम देखें तो हरेक नदी के पानी का उपयोग समाज अपने ढंग से करता ही रहा है। हमारा यह ताजा कैलेंडर 2014 साल पुराना है। इसके सारे पन्ने पलट दिए जाएँ तो उसके कुछ पीछे लगभग ढाई हजार साल पहले नर्मदा के किनारे मध्य प्रदेश में कुछ छोटे–बड़े खूबसूरत राज्य हुआ करते थे। उनमें से एक राज्य के दौरान जैन तीर्थंकर की एक मूर्ति बनाई गई और उसका नाम बाद में समाज ने ‘बावन गजा’ के तौर पर याद रखा क्योंकि इसमें मुख्य मूर्ति बावन गज ऊँची है। यह मूर्ति पत्थर से काटकर नदी के किनारे बनाई गयी। जो लोग ढाई हजार साल पहले बावन गज ऊँची मूर्ति बना सकते थे, वे पांच गज ऊँचा बाँध तो नदी पर बना ही सकते थे। लेकिन उन्होंने नदी के मुख्य प्रवाह को रोकना ठीक नहीं समझा था। आज ढाई हजार साल बाद भी यहाँ तीर्थ कायम है और हजारों लोग अब भी माथा टेकने पहुँचते हैं।

पुरानी कहानी में जिस तरह द्रौपदी के चीर हरण की बातें थीं उसी तरह आज जल हरण की बातें हो रही हैं। दुर्भाग्य से नदियों से जो जल हरा जा रहा है, उसे पीछे से देने वाला कोई कृष्ण नहीं है। इसलिए बान्ध भरा हुआ दिखता है और मुख्य नदी सूखी। उस बान्ध में जो लोग डूबते हैं, उसकी कीमत कभी नहीं चुकाई जा सकी है। इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो भाखड़ा बांध की वजह से विस्थापित हुए लोगों की आज तीसरी पीढ़ी कहाँ–कहाँ भटक रही है, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है।

नर्मदा की इस विवादग्रस्त योजना में लोगों का ध्यान लाभ पाने वाले राज्य यानी गुजरात की एक बात की ओर बिल्कुल भी नहीं गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि नर्मदा घाटी परियोजना के क्षेत्र वाला गुजरात काली मिट्टी का क्षेत्र है। काली मिट्टी का स्वभाव बड़े पैमाने पर सिंचाई के अनुकूल नहीं है। यह आशंका व्यक्त की जाती रही है कि बड़े पैमाने पर सिंचाई इस क्षेत्र को दलदल में भी धकेल सकती है।

थोड़ा पीछे लौटें तो सन 1974 में नर्मदा की एक सहायक नदी तवा पर बान्ध बनाया गया था। पंचाट विवाद की वजह से फैसला आए बगैर मध्य प्रदेश का सिंचाई विभाग नर्मदा की मूलधारा पर एक ईंट भी नहीं रख सकता था। लेकिन विकास को लेकर एक तड़प थी, इसलिए उसने एक तवा नाम की नदी को चुना और उस पर बान्ध बनाया। इस बान्ध के विस्थापितों को लेकर जो अन्याय हुआ वह तो एक किस्सा है ही लेकिन उसे अभी थोड़ा अलग करके रख भी दें तो जिन लोगों के लाभ के लिए ये बान्ध बनाया गया उनका नुकसान भी बहुत हुआ। तवा पर बनाए गए बान्ध के कमांड एरिया में, खासकर होशंगाबाद इलाकों से दलदल बनने की शिकायतें आने लगीं। इस तरह तवा पर बना बान्ध हमारे लिए ऐसा उदाहरण बन गया जिसका नुकसान डूबने वालों के साथ–साथ लाभ पाने वालों को भी हुआ। बाद में यहाँ उन किसानों ने जिनको पहले लाभ हो रहा था, एक बड़ा आन्दोलन किया। लेकिन वह कोई तेज–तर्रार आन्दोलन नहीं था। थोड़ा विनम्र आन्दोलन था और विपरीत किस्म का आन्दोलन था। उल्टी धारा में बहने वाला आन्दोलन था, इसलिए सरकारों और अखबारों ने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन आन्दोलन करने वाले लोगों ने देश और समाज के सामने यह बात पहली बार रखी कि बान्ध बनाने से लाभ पाने वालों को भी नुकसान हो सकता है। आज करीब 35–36 साल बाद भी यह बान्ध कोई अच्छी हालत में नहीं है। इसी बान्ध के बारे में यह बात दोहरा लें कि इसे नर्मदा का रिहर्सल कहकर बनाया गया था। और यह रिर्हसल बहुत खराब साबित हुई। उसके बाद सरदार सरोवर और इंदिरा सागर बान्ध बनाए गये।

नर्मदा लाखों साल पहले बनी नदी है। तब हम भी नहीं थे और न ही हमारा कोई धर्म अस्तित्व में था। लेकिन बाद में इसके किनारे बसे लोगों ने इसके उपकारों को देखा। अपनी मान्यताओं के हिसाब से इसे अपने मन में देवी की तरह रखा। इसका नाम रखा नर्मदा। नर्म यानी नरम यानी आनन्द। दा यानी देने वाली। आनन्द देने वाली नदी। लोगों को अपने ऊपर बनने वाली योजना की वजह से आज ये थोड़ा कम आनन्द दे रही है। बल्कि परेशानी थोड़ा ज्यादा दे रही है। लेकिन इसमें नदी का दोष कम है और लोगों का ज्यादा है। उन मुट्ठी भर राजनेताओं का दोष ज्यादा है जिन्होंने यह माना कि नर्मदा अपना पानी व्यर्थ ही समुद्र में बहा रही है। नर्मदा के प्रसंग में बात समाप्त करने से पहले व्यर्थ में पानी बहाने वाली बात और अच्छे से समझ लेनी चाहिए। कोई भी नदी समुद्र तक जाते हुए व्यर्थ का पानी नहीं बहाती है। नदी ऐसा करके अपनी बहुत बड़ी योजना का हिस्सा पूरा करती है। वह ऐसा धरती की ओर समुद्र के हमले को रोकने के लिए करती है। आज समुद्र तक पहुँचते–पहुँचते नर्मदा की शक्ति बिल्कुल क्षीण हो जाती है। पिछले 10–12 सालों के दौरान ऐसे बहुत सारे प्रमाण सामने आये हैं कि भरुच और बड़ौदा के इलाके में भूजल खारा हो गया है। समुद्र का पानी आगे बढ़ रहा है और मिट्टी में नमक घुलने लगा है।

दूसरी नदी यमुना को लें तो फिर याद कर लें कि यह कुछ लाख साल पुरानी हिमालय से निकलने वाली एक नदी है। बाद में यह इलाहाबाद पहुँचकर गंगा में मिलती है। इसलिए यह गंगा की सहायक नदी भी कहलाएगी। आजकल जैसे रिश्तेदारों का चलन है कि कौन, किसका रिश्तेदार है। उसकी हैसियत उसके हिसाब से कम या ज्यादा लगाई जाती है। उस हिसाब से देखें तो यमुना के रिश्तेदारों की सूची में उनके भाई का नाम कभी नहीं भूलना चाहिए। ये यम यानी मृत्यु की देवता की बहन हैं। यमुना के साथ छोटी–बड़ी कोई गलती करेंगे तो उसकी शिकायत यम देवता तक जरूर पहुँचेगी और तब हमारा क्या हाल होगा यह भी हमें ध्यान रखना होगा।

यमुना के साथ भी हमने छोटी–बड़ी गलतियाँ की हैं। इन अपराधों की सूची में दिल्ली का नाम सबसे ऊपर आता है। इसके किनारे जब दिल्ली बसी होगी तब इसका पूरा लाभ लिया होगा। आज लाभ लेने की मात्रा इतनी ऊपर पहुँच गयी है कि हम इसे मिटाने पर तुल गये हैं। दिल्ली के अस्तित्व के कारण अब यमुना मिटती जा रही है। इसका पूरा पानी हम अपनी प्यास बुझाने के लिए लेते हैं और शहर की पूरी गन्दगी इसमें मिला देते हैं। दिल्ली में प्रवेश करके यमुना नदी नहीं रहकर नाला बन जाती है। आने वाली पीढ़ियाँ इसको नदी के बजाय नाला कहना शुरू कर दें तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। आज इसके पानी में नहाना तो दूर, हाथ डालना भी खतरनाक माना जाता है। इसके पानी की गंदगी को देखकर सरकार के विभागों ने इस तरह के वर्गीकरण किये हैं। बाद के शहरों में वृन्दावन और मथुरा आते हैं। इन्हें हमारे सबसे बड़े देवता श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और खेलभूमि माना गया। लेकिन दिल्ली से वहाँ तक पहुँचते–पहुँचते साफ पानी खत्म हो जाता है और उसमें सब तरह की गन्दगी मिल चुकी होती है। मुझे तो लगता है कि कृष्ण जी ने यहाँ रहना बन्द कर दिया होगा और निश्चित ही द्वारका चले गये होंगे। एक समय में यमुना के कारण दिल्ली और सम्पन्न होती थी। शहर के एक तरफ यमुना नदी बहती है और दूसरी ओर अरावली पर्वत श्रृंखला है जिससे छोटी–छोटी अठारह नदियाँ वर्षा के दिनों में ताजा पानी लेकर इसमें मिलती थीं। लेकिन 1911 में जब दिल्ली देश की राजधानी बनी तब से हमने इन छोटी–छोटी नदियों को एक–एक करके मारना शुरू कर दिया। नदी हत्या का काम तो दूसरी जगहों पर भी हुआ लेकिन दिल्ली में जितनी तेजी से यह काम हुआ उतना कहीं भी नहीं हुआ। इस दौर में शहर के सात–आठ सौ तालाब नष्ट हुए जिनसे शहर को पानी मिलता था। यमुना के साफ स्त्रोत हमने नष्ट कर दिये। और अब तो इस नदी को भी सुखा डाला। अब इसमें गंगा नदी के मिलने से पहले ही हम इसमें गंगा जल मिला देते हैं। यह साफ गंगा जल नहीं है। भागीरथी से जो नदी हमारी प्यास बुझाने आती है उसमें हम दिल्ली का पूरा मल–मूत्र मिलाकर यमुना में चढ़ा देते हैं। इसलिए यमुना की हालत इलाहाबाद पहुँचते–पहुँचते इतनी खराब हो जाती है कि अगर राजस्थान की ओर से आने वाली चम्बल और कुँवारी जैसी नदियाँ नहीं मिलतीं तो इसमें इतना दम भी नहीं बच पाता कि ये गंगा से कुछ बतिया सकतीं, उनसे संगम कर पातीं।

तीसरी नदी इस समय भारी उथल–पुथल के दौर से गुजर रही है। पिछले दिनों हमने गंगा को सबसे अधिक पवित्रता का दर्जा दिया। वैज्ञानिक शोधों के अनुसार गंगा के पानी में ऐसे तत्त्व हैं जो उसके जल को शुद्ध करते रहते हैं। शायद एक वजह यह हो। लेकिन यह दर्जा भी हमारी समझदारी की कमी का है। हमारे समाज ने किसी एक नदी को सबसे पवित्र होने का दर्जा नहीं दिया। सभी नदियों को पवित्र माना और जितने अच्छे काम माने गए सब उनके किनारे पर किये। और जितने बुरे काम माने गये उन्हें करने से खुद को रोका। गंगा के साथ हमने ऐसा नहीं किया। हमने यह समझा कि पाप करो और गंगा में धो डालो। पुराने समाज में लोग अपने पुण्य को लेकर भी गंगा में जाते थे तो इस नदी के किनारे कुछ अपने अच्छे काम भी छोड़कर आते थे। पाप धोने वाले भी जो जाते थे उन्हें लगता था कि पाप अगर धुल गया तो इसे दोबारा गन्दा नहीं करना है। लेकिन आज वह मानसिकता बची ही नहीं है।

भगीरथ के प्रयास से गंगा इस धरती पर आयी। भगीरथ का परिवार भी वही है जो रामचन्द्र जी का है। सूर्यवंश और रघुवंश। भगीरथ भगवान राम के परदादा थे। उन्हें धरती पर गंगा को लाने की जरूरत क्यों महसूस हुई, उस कारण को भी संक्षेप में देख लें। उनके पुरखों से एक गलती हुई थी। सगर के बेटों ने जगह–जगह खुदाई करके अपने अश्वमेध के घोड़े को ढूंढ़ने की कोशिश की थी। उन्हें लगता था कि उसे किसी ने चुरा लिया था। इसी वजह से उन्हें एक श्राप मिला था जिसे खत्म करने के लिए भगीरथ गंगा को धरती पर लाये। वह किस्सा लम्बा है जिसे यहाँ दोहराना अभी जरूरी नहीं है। लेकिन आज अगर हम भगीरथ को याद करें तो उनसे ज्यादा हमें सगर पुत्रों को याद करना होगा। भगीरथ हमारे आस–पास नहीं हैं लेकिन सगर पुत्र हमारे बीच आज भी मौजूद हैं। वे गंगा में खुदाई भी कर रहे हैं और उनके खिलाफ जगह–जगह आन्दोलन भी चल रहे हैं। सन्तों ने भी आमरण अनशन किये हैं, उनमें से एक ने अपनी बलि भी चढ़ा दी है। यह क्रम जारी है। गंगा पर छोटे और बड़े अनेक बान्ध बनाए जा रहे हैं। समय–समय पर मुट्ठी भर राजनेताओं का ध्यान इस ओर भी जाता है, शायद वोट पाने के लिए। राजीव गाँधी ने 1984 में प्रधानमन्त्री बनने के बाद ऐसी ही एक गैरराजनीतिक योजना शुरू की थी - ‘गंगा एक्शन प्लान’ यह एक बड़ी योजना थी। उस योजना की सारी राशि गंगा में बह चुकी है। पानी एक बूंद भी साफ नहीं हो पाया। विश्व बैंक ने भी अब एक बड़ा प्रस्ताव रखा है जिसके लिए एक बड़ी राशि फिर से गंगा में बहाने की योजना बन रही है। इस बारे में भी जानकारों का मानना है कि कोई ठोस प्रस्ताव नहीं है जिससे गंगा की गन्दगी कम हो सकेगी और उसमें मिलने वाले नालों में कोई रुकावट आएगी।

कुल मिलाकर यह दौर बड़ी नदियों से जल राशि हरण करने का है और उसमें उसी अनुपात से गन्दगी मिलाने का है। छोटी नदियाँ सूखकर मर चुकी हैं। बड़ी नदियाँ मार नहीं सकते, इसलिए उन्हें हम गन्दा कर रहे हैं। आने वाली पीढ़ी को भी बिजली की जरूरत होगी, इसकी चिन्ता नहीं है। हम इन नदियों को अधिकतम निचोड़ कर अपने बल्ब जलाने, अपने कारखाने चलाने, अपने खेतों की सिंचाई करने को ही विकास की योजना मान चुके हैं। इसमें सारी सरकारें एकमत दिखती हैं। और यदि हम कहें कि सर्वनाश में सर्वसम्मति है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ये तीन नदियाँ हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा, करोड़ों जिन्दगियाँ को अपने आँचल में समेटती रही हैं। लेकिन हमने अभी इसके आँचल का, चीर का हरण करना शुरू किया है। और ये सारी बातें तब भी रुकती नहीं दिखती हैं जब सभा में सारे ‘धर्मराज’ बैठे हुए दिखते हैं। 

(यह आलेख 'सबलोग' के नवंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।)




अनुपम मिश्र
लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं 'गांधी मार्ग' के संपादक हैं।
anupam.mishra@gmail.com
+911123235870

18 November 2014

'गंगा यदि मैली है तो नीयत भी साफ कहाँ!' - किशन कालजयी

 
इस सृष्टि की रचना जल से हुई है और मनुष्य ही नहीं, समूची सृष्टि को निर्मित करने वाले क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर नामक पंचभूतों में एक जल भी है। मानव जाति का इतिहास भी जल से जुड़ा हुआ है। आदमी की आदि प्रजाति अमीबा की उत्पत्ति जल के बिना सम्भव ही नहीं थी। अधिकांश सभ्यताओं का विकास भी नदियों के किनारे हुआ है। आज भी महत्त्वपूर्ण नगर किसी न किसी नदी के किनारे ही अवस्थित हैं। गाँवों के भी आस–पास छोटी–बड़ी नदी बहती रही है और पहले तालाबों और बगीचों से तो गाँव घिरा ही रहता था। तब खेती के लिए किसनों को किसी कीटनाशक या रासायनिक खाद का उपयोग करने की कोई जरूरत नहीं होती थी। पेड़–पत्तों और घर के कूड़े से बनी जैविक खाद ही जमीन की उर्वरता को लगातार बढ़ाती जाती थी। तब कल–कारखानों के कचरों ने जमीन और आकाश को प्रदूषित नहीं किया था, औद्योगिक विकास के नाम पर जंगल की अन्धाधुन्ध कटाई नहीं हुई थी। हरियाली जमीन पर बिछी रहती थी, नदी और तालाब जीवन के गीत गाते थे और पेड़–पौधे संगीत सुनाते थे। दरअसल जल, जमीन और जंगल प्रकृति के चेहरे नहीं, प्रकृति की आत्मा के अवयव हैं और इनसे मनुष्य का आत्मिक सम्बन्ध सदियों से रहा है। आज की आधुनिकता ने इसी सम्बन्ध पर हमला किया है। आधुनिक विकास के असन्तुलित ढाँचे ने मनुष्य और प्रकृति के पारस्परिक सम्बन्ध को जिस तरह से एकतरफा और भोगवादी बना दिया है, सिर्फ मनुष्य का नहीं तमाम प्राणियो और वनस्पतियों का जीवन नष्ट हो गया है।

यह दौर ऐसी आधुनिकता का है जिसके मोहक मकड़जाल में मनुष्य लगातार फंसता चला जा रहा है। सोचा गया था कि यह आधुनिकता मनुष्य को अभाव और असुविधा से मुक्ति दिलाएगी और विकास की धारा को जनोन्मुखी बनाएगी। लेकिन बात उल्टी हो गयी। एकांगी विकास के वर्चस्व ने सामाजिक ताने–बाने को तहस–नहस कर दिया है। प्रचंड उपभोक्तावाद और भौतिक वैभव के अशिष्ट प्रदर्शन से सामाजिक संरचना जिस तरह से प्रदूषित हुई है, ऐसे में मनुष्यता का दम घुट रहा है। एक अजीब किस्म के अनगढ़ अँधेरे में डूबा यह समाज रोशनी और रास्ते के लिए बेचैन है।

क्या यह अँधेरा अचानक आ गया? आजादी के बाद हम लगातार गर्त की ओर बढ़ते रहे। विकास का ढाँचा ही हमने ऐसा चुना जिसमें गैर बराबरी बढ़नी थी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलना ही था। कोई यह कैसे यकीन कर सकता है कि गंगा की सफाई के नाम पर अब तक बीस हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और गंगा पहले से ज्यादा मैली हो गयी है। बीस हजार करोड़ रुपये कोई छोटी राशि नहीं है जिसे यूँ ही गंगा में बहा दिया जाए। आखिर इतने बड़े खर्च से हासिल क्या हुआ? इस सवाल का जवाब देश को चाहिए कौन देगा।

गंगा के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि सरकार जिस तरह से काम कर रही है अगले दो सौ वर्षों में भी गंगा की सफाई नहीं हो पाएगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय की कड़ी फटकार के बावजूद सरकार के होश ठिकाने नहीं आये हैं। पिछली कई सरकारों की करतूत से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गंगा यदि गन्दी है तो सरकार की भी नीयत साफ नहीं है। आखिर इसी नीयत की पहचान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की होगी कि अगले दो सौ वर्षों तक भी गंगा साफ नहीं हो पाएगी। ऐसे में सिर्फ सरकारी तन्त्र के भरोसे हम गंगा को नहीं छोड़ सकते।

गंगा सफाई अभियान के लिए उचित और उपयुक्त विकल्प तलाश करने के लिए भटकने और अरबों रुपये खर्च करने से बेहतर है कि हम गंगा को गन्दा नहीं करने का संकल्प लें। गंगा कैसे गन्दा होती है और इसे गन्दा कौन करता है यह जानना कोई मुश्किल काम नहीं है।

उत्तराखण्ड से पश्चिम बंगाल तक पाँच राज्यों में गंगा लगभग पचास नगरों को पार करती हुई हुगली में मिलती है। जिन नगरों से होकर गंगा गुजरती है वहाँ के नगर निगमों और नगरपालिकाओं के प्रधान की जवाबदेही गंगा के मामले में तय कर दी जाए तो स्थिति में तत्काल सुधार आ सकता है। जिन जिलों से होकर गंगा बहती है उन जिलों के जिलाधीशों और आरक्षी अधीक्षकों से यदि पाँचों राज्यों के मुख्यमन्त्री गंगा की गन्दगी और सफाई का हिसाब हर महीने पूछने लगें तो क्या लगता है गंगा की दुर्दशा ऐसी ही रह जाएगी?

दरअसल इस बात में सरकार की दिलचस्पी नहीं है कि गंगा की सफाई हो और यह साफ रहे। उसकी दिलचस्पी इस बात में है कि पिछले तीस वर्षों में यदि गंगा अभियान में बीस हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं तो अगले पाँच वर्षों में पचास हजार करोड़ रुपये खर्च हो जाएँ। इसलिए यह अकारण नहीं कि इस नयी सरकार ने सिर्फ गंगा के लिए एक मन्त्रालय का गठन किया है।

दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा उदाहरण हो कि एक नदी को सम्हालने के लिए एक मन्त्रालय बनाया गया हो। भारत की तमाम छोटी–बड़ी नदियों को सम्हालना हो तो सारे मन्त्रालयों को नदियों के नाम करना होगा फिर भी मन्त्रालय कम पड़ जाएँगे। इस तरह के मन्त्रालय के गठन का जो ‘गुप्त एजेंडा’ है उसे समझने की जरूरत है। जिस दिन जनता ने यह बात समझ ली उसे किसी संस्था या सरकार के सहयोग की जरूरत नहीं होगी। अनुमान लगाएँ यदि गंगा के किनारे रहने वाले तमाम गंगाजीवी यह तय कर लें कि गंगा की निर्मलता बरकरार रखनी है तो कौन ठेकेदार, कौन उद्योगपति और कौन सरकार इस मुहिम को रोक लेगी? गंगा के साथ कदाचार करने वालों से जनता खुद निबट लेगी। गंगा को साफ रखने का अभियान यदि सफल हो गया तो फिर इस देश की तमाम नदियाँ अपनी पवित्रता और अपने जीवन के गीत कलकल ध्वनि से गाएँगी। 

('सबलोग' के नवंबर 2014 अंक 'नदियों की आवाज' से संपादकीय 'मुनादी')



किशन कालजयी
संपादक

01 November 2014

हिन्दी का वर्तमान - वैभव सिंह

हिन्दी की दशा पर विचार करने वाले लोग अभी भी समाज में काफी हैं। हिन्दी को राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा और व्यापार–बाजार के साथ–साथ फिल्म–मनोरंजन की भाषा के रूप में देखकर उसकी स्थिति पर गर्व करने वालों की भी कमी नहीं है। हिन्दी की संवैधानिक स्थिति का ध्यान कराने वाले लेख प्रकाशित होते रहते हैं और भारतेन्दु की ‘निज भाषा उन्नति अहै’ वाली पंक्तियाँ हिन्दी के पक्ष में दोहराई जाती हैं। ऐसे लोग भी बहुत हैं जो हमें याद दिलाते रहते हैं कि हिन्दी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है और इसलिए उसके भविष्य पर नकारात्मक टिप्पणियाँ केवल निराशावादी स्वभाव की उपज हैं। कमी है तो बस ऐसे लोगों की जो देख सकें और बता सकें कि किस तरह से हिन्दी को धीरे–धीरे और सुनियोजित तरीकों से बहुत सारे क्षेत्रों से बाहर किया जा रहा है। हिन्दी जितने प्रायोजित महिमामंडन की शिकार है, उतने ही सुनियोजित निर्वासन की। ज्ञान–विज्ञान, प्रशासन, ऊँची अदालतों, कम्प्यूटर में हिन्दी की हालत वैसी है जैसी वर्णव्यवस्था में निम्न जातियों की होती है। हिन्दी प्रदेशों में फैली हिन्दी की संस्थाएँ व अकादमियाँ केवल अपने कर्मचारियों या अफसरों की सेवा में लगी हैं, जनता से उनका सम्बन्ध टूट चुका है। लगता है कि संविधान सभा की उसी घोषणा पर अभी अनन्त काल तक अमल किया जा रहा है जिसमें कहा गया था कि हिन्दी जिस दिन प्रशासन के लिए तैयार हो जाएगी, उस दिन उसे पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया जाएगा। प्रशासन चलाने वाले नौकरशाहों द्वारा हिन्दी का अपमान और उपेक्षा स्वतन्त्रता के बाद की उस स्थिति की परिचायक है जिसमें जनता की भाषा का अपमान जनता के अपमान का सबसे आसान तरीका रहा है। प्रशासन की किलेबन्दी का आसान तरीका उस भाषा को अपनाना रहा है जिसे देश की अधिकांश जनता समझ नहीं पाती है। इसीलिए नौकरशाहों को कभी भाषा के मामले में राहुल सांकृत्यायान ने ‘हिन्दी के विभीषण’ नाम से पुकारा था।

इस बीच–बीच अँग्रेजी धीरे–धीरे फैलती रही और हिन्दी धीरे–धीरे सिमटती रही। इसी तरह एक ओर हिन्दी के समाचार चैनल हैं जो अकूत मुनाफा कमा रहे हैं तो दूसरी ओर बच्चों को हिन्दी पढ़ाने के लिए हिन्दी पट्टी के ही मध्यवर्ग, खासकर महानगरीय मध्यवर्ग, में ही खास उत्साह नहीं है। वे घर में हिन्दी में बोलते हैं पर समाज में हिन्दी बोलने को लेकर शर्मिंदा होते हैं। उन्हें अपने शहर की दुकानों के साइन बोर्ड अँग्रेजी में चाहिए। फिल्मों के पोस्टर, दवाइयों के नाम और स्कूलों के नाम अँग्रेजी में चाहिए। सब्जियों, आइसक्रीम या अनाज के नाम भी अँग्रेजी में पुकारने का अभ्यास करते दिखते हैं। चावल को जबरन राइस, पालक को स्पीनेच या अखबार को न्यूजपेपर कहने पर उन्हें कौन सा गर्व का भाव महसूस होता है, यह समझ नहीं आता है। बेहद सामान्य शब्दों के अँग्रेजीकरण का विरोध लौहपथगामिनी (ट्रेन) या चलचित्र मन्दिर (टाकीज) जैसे शब्दों के स्मरण कराने के जरिए खामोश कर दिया जाता है। इसी तरह हिन्दी भाषियों ने अभी अपने बच्चों के नाम जान, माइकल, राबिंसन, हिलेरी रखने नहीं शुरू किये हैं पर उनकी भाषा ऐसी जरूर बना रहे हैं ताकि वे जान या हिलेरी की तरह ही लगें। वह दिन दूर नहीं जब वे घरों में हनुमान चालीसा या लक्ष्मी आरती भी अँग्रेजी अनुवादों के जरिए करेंगे या किसी भी हिन्दी भाषी को देखकर वैसे ही उसे पीटने लगेंगे जैसे एक समय अमेरिका में गोरों की बस्ती में अश्वेत लोगों को देखते ही भीड़ उसे पीटने लगती थी। महानगरों में बसे ऐसे हिन्दी भाषी परिवार भी हैं जिनके बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने के बाद हिन्दी में पूरी सौ तक की गिनती भी नहीं सुना पाते हैं और हिन्दी का इस्तेमाल केवल घर में काम करने वाली नौकरानियों से बात करने के लिए करना चाहते हैं। अच्छी हिन्दी बोलने वाले लोग हिन्दी भाषियों की नजर में ही बड़े अनोखे, विचित्र और हास्यास्पद बना दिये गये। उनकी आलोचना इस बात के लिए होने लगी कि क्यों वे कुछ अँग्रेजी शब्द–प्रयोगों के बगैर अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रसिद्ध शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने अच्छी हिन्दी के प्रयोग को मसखरेपन से जोड़ने की मानसिकता की आलोचना की और अपने ही अनुभव को आधार बनाकर एक स्थान पर लिखा है - ‘‘दिल्ली क्या भोपाल और लखनऊ जैसे शहरों में यदि आप साफ–सुथरी हिन्दी बोलते पाए जाएँ तो लोग खासकर युवा लोग, कह उठते हैं – आप हिन्दी बड़ी अच्छी बोल लेते हैं। ऐसी प्रशंसा का पात्र बनने का मौका मिलने पर मेरा दिल ग्लानि से भर जाता है और मैं धृष्टतापूर्वक यह सवाल कर बैठता हूँ – ‘क्या आप किसी फ्रेंचभाषी से कहेंगे कि वह फ्रेंच बहुत अच्छी बोल लेता है?’ पर असली बात मुझे मालूम है कि ‘हिन्दी को लोग अपनी भाषा नहीं मानते। राष्ट्र की, सरकार की भाषा भर मानते हैं।’ इस पर भी ध्यान जाना चाहिए कि किस तरह हिन्दी के भीतर अँग्रेजी लिखी जा रही है। हिन्दी का सम्पर्क लोकभाषा, उर्दू या संस्कृत से काटकर अपनी सारी शब्दावलियों के लिए अँग्रेजी से जोड़ दिया गया है। ज्ञान विज्ञान के महान कार्य के लिए यह हो तो समझ में भी आता है पर सामान्य बातचीत या मनोरंजन के लिए भी होने लगे तो लगता है कि हिन्दी का भविष्य चैपट करने की तैयारी चल रही है। हिन्दी के गानों की पंक्तियाँ होती हैं – ‘सारी नाइट बेशर्मी की हाइट..’ अन्दाजा लगाइए कि आपकी भोली, प्यारी और सुन्दर हिन्दी किस तरह से कुरूप बनाई जा रही है।

इसी तरह अँग्रेजी को भाषा से ऊपर उठाकर सारी मनोकामनाएँ पूरा करने वाली देवभाषा का दर्जा दिया जा रहा है। जो भाषा देश में 70 करोड़ लोग बोलते हैं उसे दस करोड़ अँग्रेजीदां लोगों के आगे बौना साबित कर दिया जाता है और हिन्दी के पक्ष में की गयी बहसें हिन्दी साम्राज्यवाद, हिन्दी की दादागिरी, हिन्दी बैकलैश के आरोपों को सामने लाकर रख देती हैं। ऐसे सिद्धान्तकार सामने आते हैं जो अँग्रेजी पर लट्टू रहते हैं, पर देसी भाषाओं की दरिद्रता पर दया खाते रहते हैं। उन्हें अँग्रेजी में रहकर ही उच्च वर्ग का अहसास होता है, भले ही आर्थिक रूप में उनकी वर्गीय स्थिति उच्च वर्ग में न गिनी जाती हो। यानी अँग्रेजी ‘वर्ग–संक्रमण का भ्रम’ पैदा करने वाली भाषा के रूप में भी सफल भाषा है। वे अँग्रेजी अखबार पढ़ते हैं तो उन्हें अनुभव होता है कि वे किसी दूसरे वर्ग में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि यही अँग्रेजी भाषी सिद्धान्तकार सबसे ज्यादा इस बात का प्रयास करते हैं कि उनकी अँग्रेजी किताबों के हिन्दी अनुवाद हों और हिन्दी के पाठक भी उन्हें पढ़ें। वे हिन्दी भाषियों को ज्ञान देने, उन्हें प्रबुद्ध बनाने के लिए तो क्या पर अपनी किताबों को ज्यादा बिकवाने के लिए उसके अनुवादों के लिए सारी जोड़तोड़ लगा देते हैं। कुछ दलित चिन्तक भी हिन्दी को ब्राह्मणों की भाषा बताते हैं पर अँग्रेजी में न लिखकर ब्राह्मणों की ही कथित भाषा में लिखते रहते हैं। उन्हें वे करोड़ों दलित नहीं दिखते जो हिन्दी या उसकी बोलियों में ही अपना कामकाज करते हैं। कभी अँग्रेजी में दलित चिन्तन से जुड़ी पुस्तक लिख दी तो अनुवादक ढूँढते हैं जो उनकी किताब का हिन्दी अनुवाद कर दे। वास्तविकता यह है कि हिन्दी के बारे में कोई भी कुतर्क दिया जा सकता है और हर कुतर्क को आसानी से खपाया जा सकता है। हिन्दी को मौलिक लेखन से परे अनुवाद की भाषा बनाने की चेष्टा में लोग लगे रहते हैं। वे हिन्दी को जीवन्त, व्यावहारिक और गम्भीर विचारों का वहन करने वाली भाषा के रूप में नहीं देखना चाहते हैं। इसीलिए ‘अँग्रेजी फर्स्ट’ का नारा देते रहते हैं। जो भाषा केवल अनुवाद की भाषा बन जाती है वह भाषा स्वत: ही सम्मान–योग्य नहीं समझी जाती और दूसरे दर्जे के नागरिक की श्रेणी में धकेल दी जाती है।

इसी तरह हिन्दी को आधुनिक चेतना की भाषा न बनने देने की भी पूरी कोशिश की गयी है। आधुनिकीकरण के लिए हिन्दी को अनुपयुक्त साबित इसलिए भी किया गया क्योंकि आधुनिकीकरण के लिए पश्चिम से सम्पर्क ही ज्यादा अहम हो गया। इसमें उन हिन्दी भाषी अशिक्षितों या अर्धशिक्षितों का भी योगदान है जो हिन्दी के जरिए सामन्ती–जातिवादी सोच को बनाए रखना चाहते हैं और अपने मूर्खतापूर्ण अहंकार से साबित करते रहते हैं कि हिन्दी का मतलब केवल धर्म–कर्म, दकियानूसी, पिछड़ापन ही होता है। वे हिन्दी में मौजूद स्त्रीविरोधी तथा दलितविरोधी मुहावरों को बदलना नहीं चाहते। वे भूमण्डलीकरण के युग में हिन्दी के माध्यम से अपनी कूपमंडूकता से लगाव को बरकरार रखना चाहते हैं। हिन्दी उनके लिए भाषा नहीं बल्कि अपने विशेषाधिकारों व पारम्परिक सोच को बचाए रखने का माध्यम होती है। हिन्दी को आधुनिक चेतना से काटने का काम वह लोग भी कर रहे हैं जो अँग्रेजी के माध्यम से अभिजन निर्माण की प्रक्रिया का लाभ उठाने के चक्कर में रहते हैं। उन्हें अँग्रेजी से जुड़े लाभ चाहिए, इसलिए हिन्दी की आलोचना उनके लिए जरूरी हो जाती है। वे किसी भाषा के प्रति वपफादारी को जीवन में सपफल होने की रणनीतियों के विरुद्ध मानते हैं। वे यह देखने से इनकार करते हैं कि 70–80 के दशक तक हिन्दी तेजी से अपना आधुनिकीकरण कर रही थी। हिन्दी की वैज्ञानिक–कानूनी शब्दावली विकसित हो रही थी। विश्वविद्यालयों–कालेजों में हिन्दी माध्यम से विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान पढ़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। हिन्दी पत्रों की प्रसार संख्या लाखों में पहुँच चुकी थी। पर 90 के दशक के विदेशी पूँजी व विदेशी कम्पनियों के आगमन ने हिन्दी के इस स्वाभाविक विकास को रोक दिया और धीरे–धीरे हिन्दी की आधुनिकता को भी विवादास्पद बना दिया। इस तरह हिन्दी की विकासशील आधुनिकता एक विवादास्पद आधुनिकता में तब्दील कर दी गयी। यह तर्क उठाने से लोगों को हतोत्साहित किया जाने लगा कि बिना अँग्रेजी बोले चीन, जापान या रूस आधुनिक हो सकते हैं पर बिना अँग्रेजी बोले भारत क्यों पीछे छूटने लगता है और पिछड़ा रह जाता है? बिना अँग्रेजी बोले या उसका इस्तेमाल किए बगैर फैनन, देरिदा, फूको, थामस पिकेटी अपनी–अपनी भाषा में पुस्तकें लिख सकते हैं और दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं पर भारत के बुदधिजीवी केवल अँग्रेजी में लिखकर कुछ श्रेष्ठ विचार का उत्पादन करने का ढोंग करने में लगे हैं। अपने विचारों को लोहिया या गाँधी की तरह सीधे आम जनों तक नहीं पहुँचाना चाहते हैं बल्कि उन्हीं के जैसी नकली अँग्रेजी भाषा बोलने वालों तक ही पहुँचाना चाहते हैं।

भारतीय भाषाएँ और हिन्दी परस्पर शत्रु नहीं रही हैं पर अँग्रेजी के आगमन ने उन्हें शत्रु के रूप में चित्रित किया है। अँग्रेजी ने भाषाओं के बीच विवाद या तनाव रोकने का तर्क देकर ही अपना विस्तार किया है। ठीक उसी तरह से जैसे अँग्रेज कहते थे कि वे भारत में रहेंगे तभी भारत एकजुट रह पाएगा। इसी तर्क के विरोध में कभी हिन्दी के प्रकांड विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि अगर अँग्रेजी भारतीय एकजुटता का आधार है तो अँग्रेजों को भी वापस भारत बुला लो। देसी दलाल चिन्तक यह समझाने की दिन–रात मेहनत करते हैं कि इस तरह के साम्राज्यवाद से खास नुकसान नहीं है और इसके साथ ‘ऐडजस्ट’ किया जा सकता है। यानी राजनीतिक–आर्थिक साम्राज्यवाद तो बुरा है पर भाषिक–सांस्कृतिक साम्राज्यवाद चलेगा क्योंकि इससे आधुनिकता की प्रक्रिया तेज होती है। ऐसे लोग जनता को बेवकूफ बनाने के लिए काम में लाए जाते हैं जो अभी उस पुरानी मानसिकता से नहीं निकले हैं कि साम्राज्यवाद के अधीन हुए बगैर एशियाई या अमरीकी समाज प्रगति नहीं कर पाते हैं। नये जमाने के साम्राज्यवाद में ऐसे लोगों की जरूरत फिर से बढ़ने लगी है और वे सेवाएँ देने के लिए फिर से उठ खड़े हुए हैं। यह कहना झूठ बोलने जैसा ही है कि हिन्दी का आधुनिकता से नहीं बल्कि अँग्रेजी का ही आधुनिकता से सम्बन्ध है। जब आप जनता को अशिक्षित, सांप्रदायिक और बेहाल छोड़कर चन्द लोगों को आगे बढ़ जाने देते हैं ताकि वे अँग्रेजी सीखें और प्रशासन चलाएँ तो समाज में ऐसा ही असन्तुलन आता है। अशिक्षित–बेहाल जनता एक ओर और अभिजन अँग्रेजी दां नौकरशाह व बुदधिजीवी दूसरी ओर। जनता अपनी भाषा बोलती है तो शक्तिशाली लोग उसे समझना नहीं चाहते और शक्तिशाली वर्ग जो भाषा बोलता है वह जनता को समझ नहीं आता। इसीलिए हिन्दी जैसी भाषा ही चाहिए होती है जो लोगों को अशिक्षा, गरीबी व साम्प्रदायिकता से बाहर लाकर एक देश से जोड़े।

हिन्दी के ऊपर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि हिन्दी भाषी लोग हिन्दी साम्राज्यवाद फैलाना चाहते हैं। इतने साल से हिन्दी बोली जा रही है और उसकी वजह से किसी भाषा पर संकट आया हो, आज तक नहीं दिखा। आजादी के बाद हिन्दी साम्राज्यवाद का जो शब्द गढ़ा गया था, उसने लोगों को काफी भरमाया। यहाँ तक कि हिन्दी क्षेत्र में साम्यवादी दल भी हिन्दी साम्राज्यवाद को तोते की तरह दोहराने लगे और आज विलाप करते हैं कि उन्हें हिन्दी क्षेत्र ने ठीक से अपनाया नहीं। उनकी क्रान्तिकारी बहसें अँग्रेजी में होती रहीं, मार्क्स–लेनिन को अँग्रेजी में समझा और समझाया। अब उन्हें चिन्ता होती है कि हिन्दी वाले क्यों नहीं मार्क्स–लेनिन को समझने को तैयार हैं। किसान–मजदूर की राजनीति करने के लिए उनकी भाषा बोलनी और समझनी पड़ती है। उनकी परंपराओं और स्मृतियों के साथ जुड़ना होता है। पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी हिन्दी के विरोध में ही भाषण देकर देश के संघीय ढाँचे को मजबूत करने के लिए प्रयास करती रहीं। उनके पार्टी काँग्रेस इस बात पर बल देते रहे कि हिन्दी से देश को खतरा है और इसलिए कामरेडों का काम है कि वे हिन्दी क्षेत्र वालों के प्रभुत्वशाली महत्त्वाकांक्षाओं का विरोध करें और दमित राष्ट्रीयताओं का पक्ष लें। इसमें गौरतलब बात यह थी कि हिन्दी के मुकाबले सारी राष्ट्रीयताओं की रक्षा करने की बात कही जा रही थी लेकिन हिन्दी का जो अधिकार था देश में, उसे नकारा जा रहा था।

कुल मिलाकर हिन्दी का वर्तमान कई आशंकाओं को जन्म दे रहा है। स्थितियां बदल रही हैं पर हिन्दी के बारे में पुराने आरोपों जैसे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, हिन्दी साम्राज्यवाद, हिन्दी का विस्तारवाद या हिन्दी का हिन्दुत्व को लोग अभी भी ऐसे दोहराते हैं जैसे कोई शीतयुद्धकालीन शब्दावली के माध्यम से अभी भी काम चलाने की कोशिश कर रहा हो। इस बीच बाजार का डरावना विस्तार हो रहा है जो पूरे देश की सांस्कृतिक बनावट को तार–तार किये जा रहा है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी पब्लिक स्कूलों में आठवीं के बाद से हिन्दी को निकाला जा चुका है और हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएँ बहुत कम दिखने लगी हैं। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में प्रतिभाओं की दरिद्रता खतरनाक स्तर को छू चुकी है। हिन्दी के पक्ष में लोकतान्त्रिक समझे जाने वाले लोग कम हुए हैं और साम्प्रदायिक लोगों ने हिन्दी का सम्बन्ध जनता, जनतन्त्र व सामाजिक क्रान्ति से काटकर अपनी संकीर्ण राजनीति से जोड़ने की मुहिम तेज कर दी है। संकीर्ण राजनीति के अलावा पूँजीवादी विकास नए तरह की भाषा को भी ईजाद कर रहा है। ऐसे में डिजिटल भारत, नालेज सोसायटी, संचार क्रान्ति आदि की भीड़भाड़ में हिन्दी कहीं गुम न हो जाए, इस पर सोचने के लिए हमें वक्त निकालना होगा। 

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।)
                                                                                                                         
                                                                                                                                                  वैभव सिंह
लेखक आलोचक तथा प्राध्यापक हैं।
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