01 November 2014

हिन्दी का वर्तमान - वैभव सिंह

हिन्दी की दशा पर विचार करने वाले लोग अभी भी समाज में काफी हैं। हिन्दी को राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा और व्यापार–बाजार के साथ–साथ फिल्म–मनोरंजन की भाषा के रूप में देखकर उसकी स्थिति पर गर्व करने वालों की भी कमी नहीं है। हिन्दी की संवैधानिक स्थिति का ध्यान कराने वाले लेख प्रकाशित होते रहते हैं और भारतेन्दु की ‘निज भाषा उन्नति अहै’ वाली पंक्तियाँ हिन्दी के पक्ष में दोहराई जाती हैं। ऐसे लोग भी बहुत हैं जो हमें याद दिलाते रहते हैं कि हिन्दी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है और इसलिए उसके भविष्य पर नकारात्मक टिप्पणियाँ केवल निराशावादी स्वभाव की उपज हैं। कमी है तो बस ऐसे लोगों की जो देख सकें और बता सकें कि किस तरह से हिन्दी को धीरे–धीरे और सुनियोजित तरीकों से बहुत सारे क्षेत्रों से बाहर किया जा रहा है। हिन्दी जितने प्रायोजित महिमामंडन की शिकार है, उतने ही सुनियोजित निर्वासन की। ज्ञान–विज्ञान, प्रशासन, ऊँची अदालतों, कम्प्यूटर में हिन्दी की हालत वैसी है जैसी वर्णव्यवस्था में निम्न जातियों की होती है। हिन्दी प्रदेशों में फैली हिन्दी की संस्थाएँ व अकादमियाँ केवल अपने कर्मचारियों या अफसरों की सेवा में लगी हैं, जनता से उनका सम्बन्ध टूट चुका है। लगता है कि संविधान सभा की उसी घोषणा पर अभी अनन्त काल तक अमल किया जा रहा है जिसमें कहा गया था कि हिन्दी जिस दिन प्रशासन के लिए तैयार हो जाएगी, उस दिन उसे पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया जाएगा। प्रशासन चलाने वाले नौकरशाहों द्वारा हिन्दी का अपमान और उपेक्षा स्वतन्त्रता के बाद की उस स्थिति की परिचायक है जिसमें जनता की भाषा का अपमान जनता के अपमान का सबसे आसान तरीका रहा है। प्रशासन की किलेबन्दी का आसान तरीका उस भाषा को अपनाना रहा है जिसे देश की अधिकांश जनता समझ नहीं पाती है। इसीलिए नौकरशाहों को कभी भाषा के मामले में राहुल सांकृत्यायान ने ‘हिन्दी के विभीषण’ नाम से पुकारा था।

इस बीच–बीच अँग्रेजी धीरे–धीरे फैलती रही और हिन्दी धीरे–धीरे सिमटती रही। इसी तरह एक ओर हिन्दी के समाचार चैनल हैं जो अकूत मुनाफा कमा रहे हैं तो दूसरी ओर बच्चों को हिन्दी पढ़ाने के लिए हिन्दी पट्टी के ही मध्यवर्ग, खासकर महानगरीय मध्यवर्ग, में ही खास उत्साह नहीं है। वे घर में हिन्दी में बोलते हैं पर समाज में हिन्दी बोलने को लेकर शर्मिंदा होते हैं। उन्हें अपने शहर की दुकानों के साइन बोर्ड अँग्रेजी में चाहिए। फिल्मों के पोस्टर, दवाइयों के नाम और स्कूलों के नाम अँग्रेजी में चाहिए। सब्जियों, आइसक्रीम या अनाज के नाम भी अँग्रेजी में पुकारने का अभ्यास करते दिखते हैं। चावल को जबरन राइस, पालक को स्पीनेच या अखबार को न्यूजपेपर कहने पर उन्हें कौन सा गर्व का भाव महसूस होता है, यह समझ नहीं आता है। बेहद सामान्य शब्दों के अँग्रेजीकरण का विरोध लौहपथगामिनी (ट्रेन) या चलचित्र मन्दिर (टाकीज) जैसे शब्दों के स्मरण कराने के जरिए खामोश कर दिया जाता है। इसी तरह हिन्दी भाषियों ने अभी अपने बच्चों के नाम जान, माइकल, राबिंसन, हिलेरी रखने नहीं शुरू किये हैं पर उनकी भाषा ऐसी जरूर बना रहे हैं ताकि वे जान या हिलेरी की तरह ही लगें। वह दिन दूर नहीं जब वे घरों में हनुमान चालीसा या लक्ष्मी आरती भी अँग्रेजी अनुवादों के जरिए करेंगे या किसी भी हिन्दी भाषी को देखकर वैसे ही उसे पीटने लगेंगे जैसे एक समय अमेरिका में गोरों की बस्ती में अश्वेत लोगों को देखते ही भीड़ उसे पीटने लगती थी। महानगरों में बसे ऐसे हिन्दी भाषी परिवार भी हैं जिनके बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने के बाद हिन्दी में पूरी सौ तक की गिनती भी नहीं सुना पाते हैं और हिन्दी का इस्तेमाल केवल घर में काम करने वाली नौकरानियों से बात करने के लिए करना चाहते हैं। अच्छी हिन्दी बोलने वाले लोग हिन्दी भाषियों की नजर में ही बड़े अनोखे, विचित्र और हास्यास्पद बना दिये गये। उनकी आलोचना इस बात के लिए होने लगी कि क्यों वे कुछ अँग्रेजी शब्द–प्रयोगों के बगैर अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रसिद्ध शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने अच्छी हिन्दी के प्रयोग को मसखरेपन से जोड़ने की मानसिकता की आलोचना की और अपने ही अनुभव को आधार बनाकर एक स्थान पर लिखा है - ‘‘दिल्ली क्या भोपाल और लखनऊ जैसे शहरों में यदि आप साफ–सुथरी हिन्दी बोलते पाए जाएँ तो लोग खासकर युवा लोग, कह उठते हैं – आप हिन्दी बड़ी अच्छी बोल लेते हैं। ऐसी प्रशंसा का पात्र बनने का मौका मिलने पर मेरा दिल ग्लानि से भर जाता है और मैं धृष्टतापूर्वक यह सवाल कर बैठता हूँ – ‘क्या आप किसी फ्रेंचभाषी से कहेंगे कि वह फ्रेंच बहुत अच्छी बोल लेता है?’ पर असली बात मुझे मालूम है कि ‘हिन्दी को लोग अपनी भाषा नहीं मानते। राष्ट्र की, सरकार की भाषा भर मानते हैं।’ इस पर भी ध्यान जाना चाहिए कि किस तरह हिन्दी के भीतर अँग्रेजी लिखी जा रही है। हिन्दी का सम्पर्क लोकभाषा, उर्दू या संस्कृत से काटकर अपनी सारी शब्दावलियों के लिए अँग्रेजी से जोड़ दिया गया है। ज्ञान विज्ञान के महान कार्य के लिए यह हो तो समझ में भी आता है पर सामान्य बातचीत या मनोरंजन के लिए भी होने लगे तो लगता है कि हिन्दी का भविष्य चैपट करने की तैयारी चल रही है। हिन्दी के गानों की पंक्तियाँ होती हैं – ‘सारी नाइट बेशर्मी की हाइट..’ अन्दाजा लगाइए कि आपकी भोली, प्यारी और सुन्दर हिन्दी किस तरह से कुरूप बनाई जा रही है।

इसी तरह अँग्रेजी को भाषा से ऊपर उठाकर सारी मनोकामनाएँ पूरा करने वाली देवभाषा का दर्जा दिया जा रहा है। जो भाषा देश में 70 करोड़ लोग बोलते हैं उसे दस करोड़ अँग्रेजीदां लोगों के आगे बौना साबित कर दिया जाता है और हिन्दी के पक्ष में की गयी बहसें हिन्दी साम्राज्यवाद, हिन्दी की दादागिरी, हिन्दी बैकलैश के आरोपों को सामने लाकर रख देती हैं। ऐसे सिद्धान्तकार सामने आते हैं जो अँग्रेजी पर लट्टू रहते हैं, पर देसी भाषाओं की दरिद्रता पर दया खाते रहते हैं। उन्हें अँग्रेजी में रहकर ही उच्च वर्ग का अहसास होता है, भले ही आर्थिक रूप में उनकी वर्गीय स्थिति उच्च वर्ग में न गिनी जाती हो। यानी अँग्रेजी ‘वर्ग–संक्रमण का भ्रम’ पैदा करने वाली भाषा के रूप में भी सफल भाषा है। वे अँग्रेजी अखबार पढ़ते हैं तो उन्हें अनुभव होता है कि वे किसी दूसरे वर्ग में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि यही अँग्रेजी भाषी सिद्धान्तकार सबसे ज्यादा इस बात का प्रयास करते हैं कि उनकी अँग्रेजी किताबों के हिन्दी अनुवाद हों और हिन्दी के पाठक भी उन्हें पढ़ें। वे हिन्दी भाषियों को ज्ञान देने, उन्हें प्रबुद्ध बनाने के लिए तो क्या पर अपनी किताबों को ज्यादा बिकवाने के लिए उसके अनुवादों के लिए सारी जोड़तोड़ लगा देते हैं। कुछ दलित चिन्तक भी हिन्दी को ब्राह्मणों की भाषा बताते हैं पर अँग्रेजी में न लिखकर ब्राह्मणों की ही कथित भाषा में लिखते रहते हैं। उन्हें वे करोड़ों दलित नहीं दिखते जो हिन्दी या उसकी बोलियों में ही अपना कामकाज करते हैं। कभी अँग्रेजी में दलित चिन्तन से जुड़ी पुस्तक लिख दी तो अनुवादक ढूँढते हैं जो उनकी किताब का हिन्दी अनुवाद कर दे। वास्तविकता यह है कि हिन्दी के बारे में कोई भी कुतर्क दिया जा सकता है और हर कुतर्क को आसानी से खपाया जा सकता है। हिन्दी को मौलिक लेखन से परे अनुवाद की भाषा बनाने की चेष्टा में लोग लगे रहते हैं। वे हिन्दी को जीवन्त, व्यावहारिक और गम्भीर विचारों का वहन करने वाली भाषा के रूप में नहीं देखना चाहते हैं। इसीलिए ‘अँग्रेजी फर्स्ट’ का नारा देते रहते हैं। जो भाषा केवल अनुवाद की भाषा बन जाती है वह भाषा स्वत: ही सम्मान–योग्य नहीं समझी जाती और दूसरे दर्जे के नागरिक की श्रेणी में धकेल दी जाती है।

इसी तरह हिन्दी को आधुनिक चेतना की भाषा न बनने देने की भी पूरी कोशिश की गयी है। आधुनिकीकरण के लिए हिन्दी को अनुपयुक्त साबित इसलिए भी किया गया क्योंकि आधुनिकीकरण के लिए पश्चिम से सम्पर्क ही ज्यादा अहम हो गया। इसमें उन हिन्दी भाषी अशिक्षितों या अर्धशिक्षितों का भी योगदान है जो हिन्दी के जरिए सामन्ती–जातिवादी सोच को बनाए रखना चाहते हैं और अपने मूर्खतापूर्ण अहंकार से साबित करते रहते हैं कि हिन्दी का मतलब केवल धर्म–कर्म, दकियानूसी, पिछड़ापन ही होता है। वे हिन्दी में मौजूद स्त्रीविरोधी तथा दलितविरोधी मुहावरों को बदलना नहीं चाहते। वे भूमण्डलीकरण के युग में हिन्दी के माध्यम से अपनी कूपमंडूकता से लगाव को बरकरार रखना चाहते हैं। हिन्दी उनके लिए भाषा नहीं बल्कि अपने विशेषाधिकारों व पारम्परिक सोच को बचाए रखने का माध्यम होती है। हिन्दी को आधुनिक चेतना से काटने का काम वह लोग भी कर रहे हैं जो अँग्रेजी के माध्यम से अभिजन निर्माण की प्रक्रिया का लाभ उठाने के चक्कर में रहते हैं। उन्हें अँग्रेजी से जुड़े लाभ चाहिए, इसलिए हिन्दी की आलोचना उनके लिए जरूरी हो जाती है। वे किसी भाषा के प्रति वपफादारी को जीवन में सपफल होने की रणनीतियों के विरुद्ध मानते हैं। वे यह देखने से इनकार करते हैं कि 70–80 के दशक तक हिन्दी तेजी से अपना आधुनिकीकरण कर रही थी। हिन्दी की वैज्ञानिक–कानूनी शब्दावली विकसित हो रही थी। विश्वविद्यालयों–कालेजों में हिन्दी माध्यम से विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान पढ़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। हिन्दी पत्रों की प्रसार संख्या लाखों में पहुँच चुकी थी। पर 90 के दशक के विदेशी पूँजी व विदेशी कम्पनियों के आगमन ने हिन्दी के इस स्वाभाविक विकास को रोक दिया और धीरे–धीरे हिन्दी की आधुनिकता को भी विवादास्पद बना दिया। इस तरह हिन्दी की विकासशील आधुनिकता एक विवादास्पद आधुनिकता में तब्दील कर दी गयी। यह तर्क उठाने से लोगों को हतोत्साहित किया जाने लगा कि बिना अँग्रेजी बोले चीन, जापान या रूस आधुनिक हो सकते हैं पर बिना अँग्रेजी बोले भारत क्यों पीछे छूटने लगता है और पिछड़ा रह जाता है? बिना अँग्रेजी बोले या उसका इस्तेमाल किए बगैर फैनन, देरिदा, फूको, थामस पिकेटी अपनी–अपनी भाषा में पुस्तकें लिख सकते हैं और दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं पर भारत के बुदधिजीवी केवल अँग्रेजी में लिखकर कुछ श्रेष्ठ विचार का उत्पादन करने का ढोंग करने में लगे हैं। अपने विचारों को लोहिया या गाँधी की तरह सीधे आम जनों तक नहीं पहुँचाना चाहते हैं बल्कि उन्हीं के जैसी नकली अँग्रेजी भाषा बोलने वालों तक ही पहुँचाना चाहते हैं।

भारतीय भाषाएँ और हिन्दी परस्पर शत्रु नहीं रही हैं पर अँग्रेजी के आगमन ने उन्हें शत्रु के रूप में चित्रित किया है। अँग्रेजी ने भाषाओं के बीच विवाद या तनाव रोकने का तर्क देकर ही अपना विस्तार किया है। ठीक उसी तरह से जैसे अँग्रेज कहते थे कि वे भारत में रहेंगे तभी भारत एकजुट रह पाएगा। इसी तर्क के विरोध में कभी हिन्दी के प्रकांड विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि अगर अँग्रेजी भारतीय एकजुटता का आधार है तो अँग्रेजों को भी वापस भारत बुला लो। देसी दलाल चिन्तक यह समझाने की दिन–रात मेहनत करते हैं कि इस तरह के साम्राज्यवाद से खास नुकसान नहीं है और इसके साथ ‘ऐडजस्ट’ किया जा सकता है। यानी राजनीतिक–आर्थिक साम्राज्यवाद तो बुरा है पर भाषिक–सांस्कृतिक साम्राज्यवाद चलेगा क्योंकि इससे आधुनिकता की प्रक्रिया तेज होती है। ऐसे लोग जनता को बेवकूफ बनाने के लिए काम में लाए जाते हैं जो अभी उस पुरानी मानसिकता से नहीं निकले हैं कि साम्राज्यवाद के अधीन हुए बगैर एशियाई या अमरीकी समाज प्रगति नहीं कर पाते हैं। नये जमाने के साम्राज्यवाद में ऐसे लोगों की जरूरत फिर से बढ़ने लगी है और वे सेवाएँ देने के लिए फिर से उठ खड़े हुए हैं। यह कहना झूठ बोलने जैसा ही है कि हिन्दी का आधुनिकता से नहीं बल्कि अँग्रेजी का ही आधुनिकता से सम्बन्ध है। जब आप जनता को अशिक्षित, सांप्रदायिक और बेहाल छोड़कर चन्द लोगों को आगे बढ़ जाने देते हैं ताकि वे अँग्रेजी सीखें और प्रशासन चलाएँ तो समाज में ऐसा ही असन्तुलन आता है। अशिक्षित–बेहाल जनता एक ओर और अभिजन अँग्रेजी दां नौकरशाह व बुदधिजीवी दूसरी ओर। जनता अपनी भाषा बोलती है तो शक्तिशाली लोग उसे समझना नहीं चाहते और शक्तिशाली वर्ग जो भाषा बोलता है वह जनता को समझ नहीं आता। इसीलिए हिन्दी जैसी भाषा ही चाहिए होती है जो लोगों को अशिक्षा, गरीबी व साम्प्रदायिकता से बाहर लाकर एक देश से जोड़े।

हिन्दी के ऊपर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि हिन्दी भाषी लोग हिन्दी साम्राज्यवाद फैलाना चाहते हैं। इतने साल से हिन्दी बोली जा रही है और उसकी वजह से किसी भाषा पर संकट आया हो, आज तक नहीं दिखा। आजादी के बाद हिन्दी साम्राज्यवाद का जो शब्द गढ़ा गया था, उसने लोगों को काफी भरमाया। यहाँ तक कि हिन्दी क्षेत्र में साम्यवादी दल भी हिन्दी साम्राज्यवाद को तोते की तरह दोहराने लगे और आज विलाप करते हैं कि उन्हें हिन्दी क्षेत्र ने ठीक से अपनाया नहीं। उनकी क्रान्तिकारी बहसें अँग्रेजी में होती रहीं, मार्क्स–लेनिन को अँग्रेजी में समझा और समझाया। अब उन्हें चिन्ता होती है कि हिन्दी वाले क्यों नहीं मार्क्स–लेनिन को समझने को तैयार हैं। किसान–मजदूर की राजनीति करने के लिए उनकी भाषा बोलनी और समझनी पड़ती है। उनकी परंपराओं और स्मृतियों के साथ जुड़ना होता है। पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी हिन्दी के विरोध में ही भाषण देकर देश के संघीय ढाँचे को मजबूत करने के लिए प्रयास करती रहीं। उनके पार्टी काँग्रेस इस बात पर बल देते रहे कि हिन्दी से देश को खतरा है और इसलिए कामरेडों का काम है कि वे हिन्दी क्षेत्र वालों के प्रभुत्वशाली महत्त्वाकांक्षाओं का विरोध करें और दमित राष्ट्रीयताओं का पक्ष लें। इसमें गौरतलब बात यह थी कि हिन्दी के मुकाबले सारी राष्ट्रीयताओं की रक्षा करने की बात कही जा रही थी लेकिन हिन्दी का जो अधिकार था देश में, उसे नकारा जा रहा था।

कुल मिलाकर हिन्दी का वर्तमान कई आशंकाओं को जन्म दे रहा है। स्थितियां बदल रही हैं पर हिन्दी के बारे में पुराने आरोपों जैसे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, हिन्दी साम्राज्यवाद, हिन्दी का विस्तारवाद या हिन्दी का हिन्दुत्व को लोग अभी भी ऐसे दोहराते हैं जैसे कोई शीतयुद्धकालीन शब्दावली के माध्यम से अभी भी काम चलाने की कोशिश कर रहा हो। इस बीच बाजार का डरावना विस्तार हो रहा है जो पूरे देश की सांस्कृतिक बनावट को तार–तार किये जा रहा है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी पब्लिक स्कूलों में आठवीं के बाद से हिन्दी को निकाला जा चुका है और हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएँ बहुत कम दिखने लगी हैं। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में प्रतिभाओं की दरिद्रता खतरनाक स्तर को छू चुकी है। हिन्दी के पक्ष में लोकतान्त्रिक समझे जाने वाले लोग कम हुए हैं और साम्प्रदायिक लोगों ने हिन्दी का सम्बन्ध जनता, जनतन्त्र व सामाजिक क्रान्ति से काटकर अपनी संकीर्ण राजनीति से जोड़ने की मुहिम तेज कर दी है। संकीर्ण राजनीति के अलावा पूँजीवादी विकास नए तरह की भाषा को भी ईजाद कर रहा है। ऐसे में डिजिटल भारत, नालेज सोसायटी, संचार क्रान्ति आदि की भीड़भाड़ में हिन्दी कहीं गुम न हो जाए, इस पर सोचने के लिए हमें वक्त निकालना होगा। 

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।)
                                                                                                                         
                                                                                                                                                  वैभव सिंह
लेखक आलोचक तथा प्राध्यापक हैं।
vaibhavjnu@gmail.com
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