20 October 2014

ज्ञान की भाषा से भय - विनोद शाही

हिन्दी अपनी जातीय स्मृतियों के कारण एक जीवन्त भाषा है, इतिहास में उसका प्राण है: अगर हम भारत के किसी सामूहिक–यानी जातीय चित्त–की परिकल्पना करते हैं और उसके स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं - तो वह जिस भाषा से ओत–प्रोत मिलेगा - वह हिन्दी होगी चूँकि हिन्दी, इस रूप में, हमारे जातीय–चित्त की भाषा–देह है, इसलिए इस व्यापक बात के स्थान पर जब इसे, ‘हिन्दी जाति’ के तौर पर समझने की कोशिश होती है – तो वह ‘सीमित व अधूरी’ बात होकर रह जाती है, इस बात को समझने से बचने की कोशिश करने में होता यह है कि हम हिन्दी के मौजूद रूप के सामने दरपेश युगगत संकट का सम्यक मूल्यांकन करने से चूकते रहते हैं, हमारा ध्यान लगातार इस बात पर टिका रहता है कि कौन लोग ‘हिन्दी–भाषी’ हैं या ‘हिन्दी माध्यम की शिक्षा का सामाजिक उत्पाद’ हैं? इससे हिन्द के व्यापक जातीय–चित्त–गत रूप को नुक्सान पहुँचाता है; उसकी अन्य भारतीय भाषाओं से श्रोतगत एकता खण्डित होने लगती है ओर ‘इतिहास’ विभाजित होकर राजनीतिक व साम्प्रदायिक तौर पर ही बोध का हिस्सा होने लायक रह जाता है इससे हिन्दी के पास ‘अपना’ कहने को जो कुछ भी है, वह ‘अपर्याप्त’ से ‘अपंग’ की कोटि तक पहुँच जाता है एक इतिहास होता है उसके पास; और उसका भी विभाजन हो जाता है – तो हिन्दी के साथ समाज के विकास करने और ‘मनुष्य’ के ‘ज्ञान को उपलब्ध होने’ की बड़ी सम्भावनाएं, खुलने से पहले ही, स्थागित दशा में डाल दी जाती है: सवाल बड़े हैं; परन्तु हम उनका तात्कालिक समाधान पाते ही हड़बड़ी में नजर आते हैं।

यहाँ पूछने लायक बुनियादी सवाल यह है कि क्या हिन्दी को भारत की सम्पर्क–भाषा मान लेने से; उसे राज–भाषा के रूप में मजबूती से लागू करने से और अब योग्यता–चयन की आधार–भाषा बनाने की माँग करने से (यूपीएससी प्रसंग) हम इस भाषा के विकास के लिए वाकई अगली सीढ़ी पर पाँव टिकाने लायक हो जाते हैं? शरद जोशी ने भाषा पर लिखे अपने एक व्यंग्य में कहा था कि हमारे लिए भाषा के बड़े होने का सबूत यह हो गया है कि उसे कितने ज्यादा लोग बोलते हैं? वे ‘इतने ज्यादा लोग’ भाषा के जरिये क्या बोलते हैं? इसकी फिक्र किसी को नहीं। यहाँ मेरा अपना मानना यह है कि हमारी दिलचस्पी इस बात में तो है कि कैसे हिन्दी विश्व–भाषा के तौर पर, बहुसंख्य–भाषी होने के नये कीर्तिमान स्थापित करती रहे; परन्तु वह कैसे एक ऐसी भाषा के रूप में विकास करे–जिसे हम ‘ज्ञान की अपनी भाषा’ के रूप में हासिल कर तेजस्वी और आत्मवान होने के लायक हो सकें, इस पर अब ज्यादा बात नहीं होती है। ज्यादा क्या? भाषा के इस पक्ष को तो जैसे पूछे जाने लायक सवालों की सूची से ही अक्सर बाहर करने में हमारे बुद्धिजीवी फख्र–तक महसूस करते हैं – उनके पास तब बड़े विचित्र तर्क होते हैं वे ‘चिन्तकों’ की भाषा पर नाक–भौ सिकोड़ कर कहते हैं - ‘वह भाषा ही क्या जो किसी की समझ में ही नहीं आए?’ बात तो यों वे भी ठीक ही कहते हैं, क्योंकि हर ‘नयी मौलिक’ बात, कुछ अर्से तक ‘सामान्य समझ’ के लिए जरूर एक जुगती बनी रहती है – परन्तु इससे खतरा यह पैदा होता है, जिसे श्रीकान्त वर्मा ने ‘कोसल में विचारों की कमी है’ के रूप में देखा था – इस ‘कोसल–भारत’ में विचारों की कमी इसलिए आ गयी है क्योंकि मौलिक सोचने–लिखने वालों से हमारे हिन्दी के बुद्धिजीवी उपहार में अक्सर यह कहते हैं, जो ‘हिन्दी’ आप लिखते हैं, उसका जरा ‘हिन्दी’ में ही अनुवाद भी कर दीजिए।

तो क्या अब थोड़ी गम्भीर चर्चा करने की अनुमति दे सकेंगे आप–अपनी इस ‘हिन्दी ज़बान’ की वावत?

‘जुबान’ शब्द ‘भाषा’ से बेहतर है; क्योंकि वह ‘भाषा–देह की वाणी’ का पर्याय है – तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि हिन्दी को एक ‘जुबान’ से ‘एक भाषा’ बनाने तक का जो सफर हमने तय किया है, उसमें हमारी ‘अपनी वाणी’ हमसे कहीं खो गयी है? दर असल ‘हिन्दी’ हमारी ‘जबान’ बनने लायक तब हुई जब उसे गोरखपन्थियों की अपभ्रंश–भाषाओं के साथ, फरीद से लेकर खुसरो तक लगातार ‘हिन्दोस्तान’ में आते सूफियों ने अपनी अरबी-फारसी से तालमेल बिठाते हुए, उसे एक ‘नयी भाषा’ के रूप में रचना गढ़ना आरम्भ कर दिया था। इससे पहले हिन्दी का एक खास तरह का ‘सम्पर्क–भाषा’ वाला रूप, भारत से मध्य एशिया तक आने–जाने वाले व्यापारियों के द्वारा अनगढ़ रूप में निर्मित किया जा चुका था उसे नाथजोगियों और सूफियों के आपसी संवाद के लिए खुले माकूल माहौल ने, ‘सांस्कृतिक भाषा’ का रूप दे दिया था।

यों हिन्दी का वह जो ‘सम्पर्क–भाषा’ से लेकर ‘सांस्कृतिक–भाषा’ बनने का सफर तय हुआ था, और जिसे निरमुनियों व सूफी कवियों द्वारा एक तरह का ‘अखिल भारतीय रूप’ भी मिल साका था, उसे अब विकास की अगली मंजिल की तरह ‘ज्ञान–भाषा’ के रूप में प्रकट व विकसित होना था। परन्तु इससे पहले कि वह हो पाता, इस सफर में बड़े गतिरोध पैदा हो गये: ऐसे गतिरोध, जिनके ऊपर से होकर पार निकल पाने में हमारी यह हिन्दी अभी तक समर्थ हुई नजर नहीं आती परन्तु इन गतिरोधों पर विचार करने में पहले, हिन्दी के मध्यकाल में जन्म ले सके अखिल भारतीय किस्म के सांस्कृतिक–भाषा वाले रूप को, एहतियात के साथ समझना–पकड़ना जरूरी है।

हिन्दी में ‘ज्ञानधारा’ के काव्य की लगभग पूरे भारत में मौजूदगी के प्रमाण ‘गुरू ग्रन्थ साहित्य’ के संकलन में देखे जा सकते है: इस ग्रन्थ में संकलित ‘वाणियों’ को गुरु नानक देव ने अपनी ‘उदासियों’ के दौरान भारत–भ्रमण करते हुए इकट्ठा किया था इसका अर्थ यह है कि वह खास तरह की हिन्दी गुरुनानक देव से भी काफी पहले से, पूरे भारत में प्रचलित हो चुकी थी और उसमें ‘वाणियों’ की रचना की जा रही थी। वाणी का क्या अर्थ है? जुबान हिन्दी उस दौर में हमरी वाणी या ”ज़ुबान होने की प्रक्रिया में थी - कई भाषा वाणी तब हो पाता है, जब वह हमारी सांस्कृतिक–चित्त का प्रतिनिधित्व करने लायक हो जाती है।

और यहाँ समझने व रेखांकित करने की बात यह है कि हिन्दी हमारी ‘सांस्कृतिक चित्त की वाणी’ बनती है, उस भाषा में, जिसे ‘सधुक्कड़ी’ या ‘अनगढ़’ कहा गया और यह दरअसल वह भाषा है, जिसे बाद में, आधुनिक काल में महात्मा गाँधी ‘हिन्दोस्तानी’ कहना पसन्द करते थे और इसीलिए यह यकीनन, परिष्कृत किस्म की ब्रज या अवधी नहीं थी और न यह वह भाषा थी जिसे अँग्रेजों के इशारों पर नाचते हुए फोर्टविलियम कॉलेज के हिन्दी के विद्वान नमूने की तरह पेश कर रहे थे, यह कहते हुए कि वे इस हिन्दी के रूप में ‘भाषा में दिखाई देने वाले इतिहास–तिमिर’ का हटाकर समय के ‘उदित मार्तंड को प्रकट करने’ का कार्य कर रहे थे। कहने की जरूरत नहीं कि उनकी किताबों के नाम तक, उनकी इस सोच के आईने की तरह हमारे सामने है: और फिर द्विवेदी काल में हिन्दी का जिस तरह का ‘परिमार्जित’ ओर ‘मानक रूप’ गढ़ा गया, उसके गर्भ से वह ‘छायावादी’ साहित्य निकला जो गुणवत्ता में अंग्रेजी रोमेंटिसिज्म से भी भले ही एक कदम आगे नजर आता हो, पर जो भारतीय जनसमाज के ‘सांस्कृतिक चित्त की वाणी’ तो एकदम नहीं बन पाता।

बेशक हिन्दी के विकास का ‘इतिहास’ यहाँ जिस तरह से ‘पढ़ा’ जा रहा है, वह हमारे दौर के ज्यादातर हिन्दी–बुद्धिजीवियों के ‘अकादमिक–चित्त’ के लिए एक परेशानी का वायस तो होगा ही; परन्तु क्या कभी हम ‘अपनी हिन्दी’ के सन्दर्भ में, पूछे जाने लायक भी इसलिए नहीं पूछेंगे, कि वे अब तक पूछे नहीं गये हैं, यह एक विचित्र दलील है, जिसका सहारा लेकर मौलिक सवालों को खारिज करने की प्रथा हमारी यहाँ औपनिवेशिक गुलामी के दौर से लेकर अब तक बदस्तूर जारी है।

खैर, उपयुक्त रूप में देखने पर यह समझ पाना कठिन नहीं है कि आधुनिक काल में ‘सधुक्कड़ी–हिन्दोस्तानी’ का जो विभाजन ‘खड़ी बोली’ और ‘उर्दू’ के रूप में हुआ, उसने खड़ी बोली के सामने ‘सम्प्रेष्ण की समस्या’ को इतना नुमाया बना दिया कि उसकी तह जो ‘ज्ञानमूलक अन्तर्वस्तु’ थी–वह उपेक्षित होने लग पड़ी। यह खड़ी बोली और उर्दू–दोनों आधुनिक काल में अपने मौजूदा रूप से उपलब्ध हुई है: दोनों में वह जो अलग दिखने से जुड़ी आत्म–परिमार्जन और मानकीकरण की प्रतृतियाँ हैं, उन्होंने इन दोनों को ‘जनभाषा’ होने से हमेशा एक ‘कमतर’ स्थिति में रखा है। और खुद को ‘साहित्यिक’ व ‘सम्प्रेषणीय’ - दोनों कसौटियों पर खरा उतारने का जो नतीजा हुआ है, वह इन दोनों की ही ‘ज्ञानमूलक अन्तर्वस्तु’ के लिए घातक साबित हुआ है। घातक इसलिए क्योंकि इससे भाषा के विकास के लिए, ज्ञान के मौलिक विकास की ज़मीन को छोड़कर, इन दोनों भाषाओं ने खुद को ‘रसवादी’, या ‘कलावादी’ रूप में पेश किया है – लोगों को ‘मावविभोर’ तो खूब किया है, कला की ‘चुस्ती’ से प्रभावित करके चैंकाया भी बहुत है, परन्तु उस, ‘भाव–बोध’ के साथ जो कभी तय नहीं कर पाता कि उसके ‘आधुनिक होने–दिखने’ का ‘अर्थ’ और ‘प्रयोजन’ क्या है? नतीजतन हम बहुत ‘सुन्दर’ और ‘अच्छा’ कहने लायक तो हो जाते हैं; परन्तु अपनी रचनाशीलता की जमीन और उसके आकाश की ‘सम्यक समझ’ के बगैर ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जमीन के नाम पर हमारे पास या तो संस्कृत होती है और या अरबी–फारसी; और आकाश के नाम पर होती है, केवल और केवल अँग्रेजी। यह संस्कृत, अरबी–फारसी, तब हमारी रचनाशीलता के अन्तर्विकास में मदद कर सकते हैं; जब इनकी ज्ञानमूलक अन्तर्तस्तु को हम हिन्दी की देह के मुताबिक ढाल कर, उसकी आत्मा को नितान्त अपने ‘भीतर’ से, ‘अपने तौर पर’ खोजने के लिए फिक्रमन्द होते हैं और खोज करने के लिए जोखिम उठाने को तैयार मिलते।

अब कुछ सामान्य टिप्पणियाँ:

भाषा माध्यम के रूप में हिन्दी को ऐच्छिक ही नहीं; अँग्रेजी के साथ या उसकी बदल के रूप में ‘अनिवार्य’ तक बनाने में ऐतराज के लायक कोई बात नहीं है। परन्तु ऐसा तभी हो सकता है, जब समाज उसकी जरूरत महसूस करता है – समाज को जरूरत तब होगी, जब हिन्दी के पास ‘अपनी मौलिकज्ञान ज्ञानसम्पदा’ होगी, जो इतनी मूलयवान होगी कि उसे हिन्दी पढ़े–सीखे–लिखे बगैर जानना कठिन लगने लगा जैसे अँग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन के ग्रन्थों का मूलरूप में न पढ़कर, जब हम उनके अनुवाद पढ़ते हैं, तो बहुत कुछ बोद्यगम्य होने से रह जाता है – यह ‘भाषा’ के लिए एक आन्तरिक गुणवत्ता वाली जरूरत पैदा करने का मामला है। इसके बिना किसी भाषा के समृद्ध होने की परिकल्पना तक नहीं की जा सकती।

हिन्दी में हमें ऐसे मौलिक कार्य करने होंगे जिनकी ज्ञानधर्मी जरूरत पूरे समाज व मानवजाति के लिए ‘जानने योग्य’ कोटि वाली हो – जैसे पश्चिम के लोग मूल संस्कृत सीरत कर हमारे ग्रन्थ खुद पढ़ने–समझने का प्रयास करते हैं; वही स्थिति हिन्दी की होनी चाहिए औपनिवेशिक समय से चली आयी परानुभागिता से उबरने का दूसरा उपाय नहीं है। हिन्दी धर्मी साव में साम्प्रदायिकता के लक्ष्य दो कारणों से पैदा होते हैं। एक, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है यानी सधुक्कड़ी–हिन्दोस्तानी का ‘अवैज्ञानिक’ और ‘गैर जरूरी अंतर्तिभाजन - जो हिन्दोस्तान–पाकिस्तान के राजनीतिक–भौगोलिक विभाजन की तरह ‘इतिहास की जारज सन्तान मात्र’ है। भारत–पाक का भौगोलिक पुन: ऐकीकरण अब शायद मुनकिन नहीं, परन्तु भाषा के तल पर, अपने–अपने शुद्धतावादी–परिमार्जनों की मानसिकता को त्याग कर, हम भारत में एक आपागत सांस्कृतिक समन्वय व साझेपन का माहौल जरूर पैदा कर सकते हैं। इससे हमारी संस्कृत व अरबी–फारसी की ओर देखने की मोहवादी प्रवृत्ति का अन्त होगा और हम भाषा में मूलवादी पुनरुत्थानों की बजाये, वहाँ से यहाँ तक आते हुए, भाविष्य में अन्तर्विकास के लिए तैयार हो सकेंगे फिलहाल, इसके उलट हम, यहाँ से वहाँ तक जाने में ज्यादा ताकत जाया करते दिखाई देते हैं, थोड़ी कोशिश करेंगे तो दिशा उलट जाएगी और हम अतीतवादी न रह कर, भविष्योन्मुख होने लायक हो सकेंगे।

दूसरी बात राजनीतिक है। हिन्दी को वर्चस्ववादी प्रवृत्ति से युक्त बना कर या जान कर, उसके प्रति अन्य भारतीय भारतीय भाषाओं मैं सन्देह पैदा किया जाता है। दरअसल यह भी उसी उपर्युक्त मूलवादी मानसिकता का दूसरा रोगजन्य है। मूलवाद सदा अलहदा करता है और भविष्य की ओर उन्मुखता, आपसदारी की जरूरत को गहराती है। प्रश्न भारत की रचनाधार्मिता के ज्ञानमूलक मौलिक विकास का है। उसके भविष्योन्मुख होते ही सभी भारतीय भाषाएँ हिन्दी के साथ एक तरह के गठबन्धन में आकर काम करने लगेंगी। तब वर्चस्ववाद की राजनीति इस आंतरिक गठबन्धन को गुमराह करने की ताकत खो देगी बात जब ‘ज्ञान’ के वर्चस्वी होने की होता है, तब भाषा के वर्चस्वी होने या ना होने की बात खुद-ब-खुद हाशिये पर धकेल दी जाती है।

वे लोग जो हिन्दी में मौलिक चिन्तन करने वालों के काम को कठिन और दुर्वोध्य बताकर कहते हैं कि इस ‘हिन्दी’ का, हिन्दी में अनुवाद किया जाना चाहिए - वे दरअसल उस खिसियाये बल्लेबाज की तरह हैं जो आउट होने पर, गेन्दबाज से कहता है कि उसकी डाली हुई गेन्द ‘समझ’ में नहीं आती और उसे बताना चाहिए कि किताब में गेन्द डालने के जो तरीके लिखे हुए हैं, उनमें से किस तरीके की गेन्द वह डालता है – जाहिर है कि हिन्दी से अब ऐसे छद्म बुदधिजीवियों के विदा होने का समय आ गया है

(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।)

 
लेखक चिंतक और आलोचक हैं।
drvinodshahi@gmail.com
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