किशन कालजयी
इतिहास की कोई भी घटना हो उसके सौ साल होते
हैं,लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो मील के पत्थर की तरह होती हैं| भारत के इतिहास में
चम्पारण सत्याग्रह वह आन्दोलन है जिसने अंग्रेजी शासन को घुटने के बल ला दिया था| बेहतर
कहना यह होगा कि भारत की आजादी की लड़ाई तो वर्षों से लड़ी जा रही थी लेकिन चम्पारण सत्याग्रह के माध्यम से ऐसी जीत पहली बार हुई थी
जिससे अंग्रेजी हुकूमत घबरा गयी थी|
चम्पारण आने के पहले मोहनदास करमचन्द गाँधी
सत्याग्रह का प्रयोग कर चुके थे| दक्षिण अफ्रीका में गोरों के खिलाफ सत्याग्रह को राजनीतिक हथियार बनाकर वह
एक कारगर लड़ाई जीत चुके थे और विश्व प्रसिद्ध पुस्तक (आकार में छोटी लेकिन विचार
में बड़ी) ‘हिन्द स्वराज’ की रचना कर चुके थे|
इसलिए एक किसान राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर
जब गाँधी चम्पारण आये तो उनके पास भले चम्पारण के चप्पे चप्पे की जानकारी नहीं थी
लेकिन गोरों से लड़ने की रणनीति वह दक्षिण
अफ्रीका में आजमा कर आये थे| इसलिए चम्पारण के किसानों की समस्या को समझने में
उनको जो समय लगा हो,उसके बाद तो वह अंग्रेज़ों के लिए स्थाई सिर दर्द बने रहे|अंग्रेजों
की इस सिरदर्दी में गाँधी के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक हथियार ‘सत्याग्रह’ की सबसे बड़ी भूमिका थी| गाँधी की खासियत यह थी कि वह अपने किसी भी विचार
को तब तक व्यक्त नहीं करते थे जब तक कि उसे अपने आचार की कसौटी पर कसकर जांच-परख
नहीं लेते थे| इसलिए यह अकारण नहीं कि गाँधी की बातों का व्यापक असर होता था और उनके साथ सिर्फ कुछ लोग नहीं बल्कि पूरा देश
होता था|
चम्पारण की लड़ाई में गाँधी सिर्फ चम्पारण के
किसानों की दुर्दशा को नहीं बल्कि देश की गुलामी को देख रहे थे| इसलिए चम्पारण के
बहाने वह देशवासियों के मानस में व्याप्त ‘गुलामी की मानसिकता’ पर चोट कर रहे थे| यह उनकी
रणनीति का हिस्सा था,और अपनी रणनीति में वे सफल हुए इसका सबूत यह है कि चम्पारण से विरोध
की जो चिनगारी निकली वह पूरे देश में दहकने लगी| और अन्ततः अंग्रेजों को भारत
छोड़कर जाना पड़ा.
आज जब चम्पारण सत्याग्रह के सौ वर्ष और हमारे
देश की आजादी को सत्तर वर्ष हो रहे हैं तब गाँधी के सत्य को राजनीतिक नेताओं ने
दफना रखा है, गाँधी की अहिंसा नक्सलियों,आतंकवादियों,अपराधियों,सुरक्षा बलों और
सेनाओं की भेंट चढ़ गयी है, गाँधी की सादगी को धन और वैभव के अश्लील प्रदर्शन ने
ढँक लिया है;ऐसे में हमारे सामने प्रमुख सवाल यह है कि इस सत्याग्रह की शताब्दी हम
कैसे मनाएं? क्या उस राजकुमार शुक्ल को भी हम मूर्ति बना कर पूजें जिन्होंने गाँधी को
चम्पारण बुलाया था? या गाँधी जो सौ वर्षों से इस राष्ट्र का पिता है उससे याचना
करें- बापू कोई रास्ता बताओ?
क्योंकि 1917 की तुलना में 2017 का अँधेरा
ज्यादा मारक है| तब हमारे गाँव में राजकुमार शुक्ल जैसे किसान होते थे जो अपनी
खेती जानते थे और किसानी के दुश्मनों को भी पहचानते थे. अंग्रेजों ने यह तय कर रखा
था कि हर बीस कट्ठे में से तीन कट्ठे में किसानों को नील की खेती करनी होगी| देश
जब गुलाम था तब अंग्रेजों ने हमें यह आजादी दी थी कि हम अपनी जमीन के पचासी
प्रतिशत हिस्से पर अपनी मर्जी की खेती कर सकते थे| आज जब देश आजाद है तो हम अपनी
एक इंच की जमीन पर भी अपने मन की खेती नहीं कर सकते| आज किसानों को यह आजादी नहीं है कि वह अपने बीज से
अपनी खेती कर सकें| उन्हें हर बार बीज बाजार से ही खरीदना पड़ता है|और यह बाजार
हमारे देसी दुकानदारों और बनियों का नहीं बल्कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का होता
है|इस बीज से सिर्फ अनाज ही नहीं पुआल भी संक्रमित होता है| जिनके फूस के घर हैं
उन्हें यह बेहतर मालूम है कि पहले जब पुआल की छौनी (छत) होती थी तो वह चार-पाँच
वर्षों तक दुरुस्त रहती थी; अब जो पुवाल खेतों से आता है वह एक बरसात को भी ढंग से
बर्दाश्त नहीं कर सकता है| इस पुआल के सेवन से पशुओं में भी कई तरह की बीमारियाँ
हो रही हैं,और उनके दूध के सेवन से मनुष्यों के नस्ल पर भी खतरा है| इस बीज से कभी-कभी ज्यादा उपज होने का
हमें भ्रम होता है, लेकिन इन अनाजों के
सेवन से हमें नयी-नयी बीमारियाँ भी हो रही हैं,और हमारी कमाई डॉक्टरों और दवाइयों
में चली जाती है|ये दवाइयाँ भी लुटेरी कंपनियों की ही हैं| डॉक्टरों,मेडिकल
इंश्योरेंस कम्पनियों और पूंजीपतियों की त्रयी ने लूट का ऐसा तन्त्र खड़ा किया जिसे
भेदना या जनोन्मुखी बनाना लगभग असम्भव हो गया है| इस तन्त्र से जो किसान किसी तरह
बच जाता है,वह आत्महत्या का शिकार हो जाता है|
आखिर क्या वजह है कि इस देश में सबसे अधिक
आत्महत्या करने वाला किसान ही होता है? हजारों करोड़ रुपये का कर्जखोर विजय माल्या
और अरबों रूपये का भ्रष्टाचार करने वाला ललित मोदी देश से फरार होने में सफल हो जाता है और पांच-दस
हजार रुपये का कर्ज लेने वाला किसान अपराध-बोध की कुण्ठा या पुलिस की प्रताड़ना के
डर से जान क्यों दे देता है? गाँवों और
किसानों के देश के प्रधानमन्त्री को इन सवालों
ने कभी परेशान किया है क्या? मन की बात वह
कहते जा रहे हैं और देश स्वच्छ होता जा
रहा है|
रास्ता बापू ने बताया था,हम ही भटक गए हैं| चम्पारण
सत्याग्रह को याद करने का तात्पर्य अपने देश के किसानों की समस्या को समझना है और
अपने भीतर के गाँधी को जगाना है|
लेखक 'सबलोग' पत्रिका के सम्पादक हैं.
kishankaljayee@gmail.com
+919868184228
१९१७ में किसानों के आंदोलन से शुरू हुआ संघर्ष १९४७ तक आते-आते आज़ादी के मुक़ाम तक पहुँच गया था। मुझे लगता है कि गाँवों के उन्हीं भूखे, नंगे और बेहाल लोगों के द्वारा आज़ादी का दूसरा आंदोलन खड़ा होगा। स्वतंत्रता की सौग़ातों का अहसास कराने के लिए शुक्रिया!
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