19 May 2017

 गाँव की स्त्री चेतना 
            गिरीश पंकज 


भारत आज भी गाँवों  का देश है। 
यह और बात है कि हमारे अनेक गाँवों को शहरी-डायनासोर धीरे-धीरे निगल रहा है। बड़ी चालाकी के साथ.गाँव तेजी के साथ शहरी सभ्यता की चपेट में आते जा रहे हैं.  फिर भी ये सच है कि आज भी गाँव का जन-जीवन अपनी लोक-अस्मिता के साथ धड़कता है। तथकथित आधुनिकता और उससे उपजी अनेक विकृतियों ने किंचित दस्तक तो दे दी है, फिर भी गाँवों में 'ददरिया' गाने वाले मिल जाते हैं। 'नाचा-गम्मत' के कलाकारों की रंजक प्रस्तुतियाँ मन मोहक होती हैं।  बांसुरी बजाने वाला और खुल कर लोकगीत गाने वाला कोई -न -कोई कंठ अब भी मिल जाता है.  लेकिन गाँव की नई पीढ़ी को अब शहर आकर्षित करने लगे हैं। वे उच्च शिक्षा हेतु,बड़े शहरों में आ कर रहना पसंद करते हैं और नतीजा यह होता है कि शहरी-जीवन उन्हें इतना रास आ जाता है कि फिर वे गाँव में जा कर काम ही नहीं करना चाहते। न खेती-बाड़ी, न कोई लघु उद्योग। उन्हें सबसे सुविधाजनक काम लगता है सरकारी नौकरी। लेकिन इन सबसे अलहदा है गाँव का स्त्री-मन। वह गाँव में रमी रहती है और अपनी दिनचर्या में गाँव की आबोहवा के साथ ही मगन रहती है। बेशक वह बहुत अधिक पढ़ी-लिखी नहीं है , लेकिन उसकी अंतस-चेतना पढ़े-लिखे लोगों से अधिक मुखरित है। इसका प्रमाण यह है कि गाँवों में शराबबंदी के विरुद्ध जितने भी आंदोलन हो रहे हैं, वे सब महिलाओं के द्वारा ही संचालित होते हैं। 
देश के अनेक गाँवों में शराबखोरी एक बड़ी समस्या है। सरकारों को सर्वाधिक राजस्व शराब से प्राप्त होता है इसलिए सरकार खुद शराब बेचने पर आमादा है। अनेक गाँव ऐसे मिल जाएँगे जहाँ विद्यालय नहीं होंगे लेकिन मदिरालय जरूर होंगे। गाँव में घुसते साथ ही अगर किसी कोने में बहुत-सी भीड़ नजऱ आए, साइकिलों की भरमार दिखे, तो समझ जाइए, वहाँ शराब की दुकान है। सर्वाधिक भीड़ शराब दुकानों पर नजऱ आती है। शराब का ऐसा अजीब-सा नशा अनेक ग्रामीणों में समाया हुआ है कि माय पूछिए।  वे चेतना-शून्य हो कर शराब पीते हैं। फिर भले ही घर लौटते वक्त वे सड़क पर ही गिर जाएँ, किसी नाली में समा जाए, श्वान उनके चेहरे को चाटता दिखे, लेकिन वे शराबखोरी नहीं छोड़ पाते। अगर लडखड़ाते हुए ठीक-ठाक अवस्था में घर पहुँच गए तो वहाँ पत्नी से गाली-गलौज और मारपीट की स्थिति बनती-ही-बनती है। ऐसी स्थिति से अक्सर गाँव की औरतें दो-चार होती रहती हैं। इसलिए बिना किसी अभियान के बिना किसी 'एनजीओ' की मदद के महिलाएँ शराब के विरुद्ध झंडा उठा लेती हैं और सड़कों पर निकल जाती है। छत्तीसगढ़ के अनेक गाँवों में शराब-विरोधी आंदोलन होते रहे हैं। फिर चाहे वह 'भानसोज' हो, 'कुम्हारी' हो, 'बागबाहरा' हो या रायपुर के सीमांत इलाके हों, जो गाँव से लगे हुए हैं। वहाँ महिलाएँ खुल कर सामने आती हैं और धरना-प्रदर्शन करके शराब दुकानों को उग्र विरोध करती हैं। न केवल शराब दुकानों को विरोध करती हैं, वरन समय-समय उद्योग-धंधों के नाम पर गाँवों की जमीनों को हथियाने के पूँजीवादी प्रयासों का भी विरोध करने में महिलाएँ अग्रिम पंक्ति में नजऱ आती हैं।   तो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में भी स्त्रियों ने शराब के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है।  आए दिन शारब की दुकानों में तोड़फोड़ की घटनाएं सामने आती रहती हैं। महिलाओं का यह स्वतः स्फूर्त आंदोलन गाँव की स्त्री-चेतना गवाह है।   
मुझे शराब के विरुद्ध औरतों द्वारा चलाए जा रहे अनेक आंदोलनों को निकट से देखने का अवसर मिला है। 
मेरा मानना है कि एक लेखक को 'एक्टिविस्ट' भी होना चाहिए इसलिए कई बार जन सरोकारों वाले मुद्दों पर अपनी उपस्थिति के लिए जरूर जाता हूँ। जब गाँवों में जाता हूँ तो महिलाओं की चेतना देख कर धन्य हो जाता हूँ। मातृ-शक्ति की जागरूकता बेहद प्रेरणा देती हैं। ये महिलाएँ शराब दुकानों को तोड़ देती हैं। ठेकेदारों को झाड़ूृ-डंडा दिखा कर भागने पर विवश कर देती हैं। यु और बात है कि हमारी पुलिस आंदोलनकारी महिलाओं के खिलाफ ही अपराध दर्ज कर लेती है। ये कैसा समाज हम विकसित कर रहे हैं कि शराब विरोधी आंदोलनकारियों के विरुद्ध जुर्म दर्ज कर लिया जाए और जो शराब  बेच रहे हैं, उन दुकानों को संरक्षण मिले ? ये कैसा 'न्यू इण्डिया' है?
एक गाँव में यह देख कर दंग रह गया कि शराब दुकान के बाहर अनेक पुलिस वाले डटे हुए हैं ताकि शराब-विरोधी महिलाएँ यहाँ पहुँच कर हंगामा न करें। कुम्हारी गांव के एक आंदोलन में शामिल होने गया तो मेंने देखा कि सैकड़ों महिलाएँ मानव-श्रृंखला बना कर तपती दोपहरी में सड़क पर खड़ी हैं और पुलिस वाले उन सबको घेरे हुए हैं। वे इसलिए नहीं खड़े हैं कि उन्हें महिलाओं का संरक्षण करना है वरन् इसलिए खड़े हैं कि ये महिलाएँ आगे बढ़ कर शराब दुकानों तक जा कर तोड-फ़ोड़ न करें। महिलाएँ अक्सर शांतिपूर्ण प्रदर्शन ही करती हैं क्योंकि वे जानती हैं कि पुलिस तिल-का-ताड़ बना कर उन्हें परेशान कर सकती है। महिलाओं ने मुझेे बताया कि शराबबंदी का विरोध करने के कारण पुलिस वाले उनके घर तक धमक जाते हैं और कभी उनके पति को, कभी उनके बच्चे को पकड़ कर थाने में बिठा देते हैं। फिर भी महिलाएँ हिम्मत नहीं हारती । आज भी गाँवों में शराब विरोधी आंदोलन हो रहे हैं। जबसे सरकार खुद शराब बेचने लगी है, तब से स्थिति और भयावह हो गई है। 
एक महिला कलक्टर ने आंदोलनकारियों का दमन करने पर दो टूक कहा कि ''मैं सरकार का काम कर रही हूँ। सरकारी काम में अड़ंगा डालने वाले पर सख्ती करना मेरा काम है'' 
वो ठीक कह रही थी। सरकार शराब बेचे या दूध, नौकरशाह अथवा प्रशासन का दायित्व है कि वह इस काम को संरक्षण दे, और जो विरोध कर रहे हैं, उन्हें सबक सिखाए। लेकिन इन सबके बावजूद अभी भी गाँवों में शराब-विरोधी आंदोलन हो रहे हैं। भानसोज की बुधिया और उसकी बहू चैती गर्व से कहती है कि ''हम मरते दम तक विरोध करेंगे। भले ही हम पर पुलिस वाले अत्याचार करें।''





यह है हमारी गाँव की स्त्री-चेतना। ये गाँव की सीधी-सादी औरतें हैं, जिन्हें शहरी लोग अनपढ़-गँवार भी कह देते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि गाँव की औरतें शहरों की उन महिलाओं से लाख दर्जे बेहतर हैं जो पिज्जा-बर्गर, चाउमीन खा कर अपना जीवन निकाल देती हैं। जो समाज-सेवा के नाम पर केवल फोटो खिंचवाती हैं और सक्रियता के नाम पर किटी-पार्टियाँ ही अधिक करती रहती हैं। कभी-कभार स्त्री-दिवस किस्म के अवसरों पर गोष्ठियाँ भी कर लेती हैं और उनकी तस्वीरें अखबारों में भी छप जाती है। ऐसा करने से  उनकी आत्मा तृप्त हो कर महानता के अहसास से भर जाती हैं। लेकिन गाँव की औरतें दिखावे के लिए कोई काम नहीं करतीं। वे सच में बदलाव चाहती हैं। अनेक गाँवों में जागरूक महिलाएँ स्व-सहायता समूह बना कर महिलाओं के जीवन में स्वाभिमान का रंग भर रही हैं. महिलाओं का स्वशासी उद्यम समूह बनाने वाली पद्मश्री प्राप्त फुलबासन भी अब किसी परिचय की मोहताज नहीं रही। छत्तीसगढ़ की पंडवानी गायिका तीजन बाई और ऋतु वर्मा को कौन नहीं जानता
लेकिन वे इस बात को लेकर दुखी रहती हैं कि सिरदर्द बन चुके उनके 'मर्द' नशा बहुत करते हैं. गाँव  की औरते  चाहती हैं कि उनके घरवाले शराबखारी से बाज आएँ और खेती-किसानी पर ध्यान दें अथवा पारम्परिक कुटीर उद्योग-धंधे में लगे रहें। शराब के कारण गाँव के अनेक किसान खेती पर ध्यान नहीं देते। गौ-पालन कभी छत्तीसगढ़ का एक महत्वपूर्ण कर्म हुआ करता था, उसकी ओर अब सब का ध्यान हटता जा रहा है। जिनके पास कुछ गायें हैं, वे कमजोर हो चुकी हैं इसलिए उन्हें बेच दिया जाता है। ये गायें कसाइयों के हाथों पड़ कर कट जाती हैं। गौ तस्करी के मामले में अनेक प्रांत आगे रहते हैं। यहाँ किस-किस का नाम लें?
गाँवों में कुटीर उद्योग खत्म हो रहे हैं। खेती का रकबा भी घटा है और खेती के प्रति रुचि भी समाप्त होती जा रही है। अनेक ग्रामीण और किसान शराब के ठेके पर पहुँच जाते हैं और शराब पी कर अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं। सरकार की कमाई तो हो जाती है, लेकिन गाँव का भोलाभाला आदमी अपने पैसे और सेहत को बर्बाद कर बैठता है। गाँव विकृत होते जा रहे हैं। इनको बचाने के लिए अगर गाँव की महिलाएँ आगे आ रही हैं, तो उनका वंदन होना चाहिए, न कि उन पर मामले-मुकदमे ठोंके जाने चाहिए। खैर, जो भी हो, भारतीय गाँवों की जागरुक महिलाओं ने अपनी आंदोलनकारिता के कारण छत्तीसगढ़ ने अपनी एक विशेष पहचान बनाई है कि यहाँ की महिलाएँ पुरुषों से काफी आगे हैं और निर्भीक हो कर अन्याय का प्रतिकार करती हैं। अब तो राजस्थान और उत्तरप्रदेश की ग्रामीण महिलाएँ भी खुल कर सामने आ रही हैं। 
अगर हमारे गाँव बचे रहे, वहां की हरियाली सलामत रहे, वहाँ की सांस्कृतिक परम्पराओं का उन्नयन हो तो देश का ही भला होगा।  आज भी गाँव की औरतों को अपने लोकगीत याद हैं. गाँवों में बनने वाले नाना प्रकार के व्यंजन आज भी शहरों में दुर्लभ हैं. कभी आप किसी गाँव में जाएं और वहां की देसी स्त्री से व्यंजनों के नाम तो पूछें, वो आपको बता देगी कि वह अनरसा, खाजा, गुलगुला, पीडिया, तिलगुजा, पपची, खुरमी (सारे मिष्ठान) और चीला, चौसेला, फरा, चनौली, आरकण, पपड़ी, चाकोली, बफौरी, बरा (नमकीन) अवसर विशेष पर बनाती रहती है. चटपटे व्यंजन भी बनाने की कला भी गाँव की औरतें जानती हैं.पना, फुलुवा, बोईर पाग, काकेपानी और न जाने क्या क्या.. लेकिन कब तक ये सब बचे रहेंगे?  कई बार डर लगता है कि हम बहुत जल्दी गाँवों।  गाँव बचे रहें तो गाँव की स्त्री भी अपने अतीत को बचा कर रखेगी।  शहरी चमक-दमक गाँवों का विनाश कर रही है।  फिर भी लोक का अलोक बहुत हद तक बचा हुआ है।  बची हुई हैं गाँव की स्त्री, उस स्त्री का पवित्र मन. और उसकी वो प्रखर चेतना  जो आज भी अन्याय का प्रतिकार करने निकल पड़ती है।  फिर चाहे शराब विरोधी आंदोलन हो, या फिर  जमीन हथियाने की कारपोरेट-साजिश। इन सबके विरोध में गाँव की स्त्री -शक्ति मुखर हो कर सामने आती है। 
गाँवों की ऐसी चेतनावान स्त्री-मन को भला कौन है जो नमन न करेगा

                                                                                           सबलोग के मई 2017 अंक में प्रकाशित 




लेखक प्रतिष्ठित रचनाकार और सद्भावना दर्पण के सम्पादक हैं|


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