29 April 2015

पार्टी, विचारधारा और संगठन





   पार्टी, विचारधारा और संगठन  

                              शंकर शरण 
                   



विचारधारा के नाम पर आम आदमी पार्टी या अरविन्द केजरीवाल की छीछालेदर दो कारणों से ठीक नहीं लगती। एक तो इसलिए क्योंकि आम आदमी पार्टी किसी विचारधारा के नाम पर नहीं बनी थी। वह नये प्रकार की शैली और जमीनी एक्टिविज्म के नाम पर बनी थी। उस में शुरू से ही कई तरह के विचारों वालेलोग रहे हैं। हाँ, यह जरूर है कि उस में ऐसे लोग  प्रमुख रहे हैं जो विचारधारा वाले हैं। जैसे, योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, एडमिरल रामदास, आदि। इन लोगों की विचारधारा को आम आदमी की विचारधारा मान कर चलना ठीक नहीं, क्योंकि इस पार्टी ने ऐसी कोई घोषणाएँ नहीं की हैं। किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण कुछ और है,

जिस पर अधिक गम्भीरता से विचार करना चाहिए। वह यह कि विचारधारा केंद्रित राजनीति अपने आप में कोई अच्छी चीज नहीं। उलटे, पूरी दुनिया का अनुभव है कि ऐसी राजनीति आम तौर पर हानिकारक, संकीर्ण, जिद्दी,
अन्यायी और तानाशाही होती रही है। अभी ताजा उदाहरण आईसिस  ( इस्लामिक स्टेट आॅपफ सीरिया एंड ईराक  )  है। जिन्हें भ्रम है कि सीरिया, ईराक या नाइजीरिया में कहर बरपाने वाला आईसिस या
बोको हराम किन्हीं पागलों, सिरफिरों का कारनामा है,  वे हाल में प्रकाशित येल विश्वविद्यालय के प्रो । ग्रेइम वुड का विस्तृत शोध-पत्र ‘ह्वाट आईसिस रियली वान्ट्स’ ( द आटलांटिक, मार्च 2015 )  अवश्य पढ़ लें। वे
जानकर चकित होंगे कि सैकडों निरीह लोगों का सिर कलम करने वाले आईसिस नेता बड़े संजीदे, आदर्शवादी और इस्लाम के गम्भीर जानकार हैं। वे वस्तुतः एक विचारधारा की राजनीति ही निष्ठापूर्वक कर रहे हैं।
विचारधारा का मोल दो कौड़ी-  इसलिए, यह बहुत बड़ा भ्रम है कि विचारधारा कोई अच्छी चीज है। सच तो यह है कि विचारधारा अपनी परिभाषा से ही एक बँधी हुई चीज है। जो अपनी कुछ मान्यताओं को ऐसी पवित्र  बुनियाद मान बैठती है कि  फिर  इस के प्रतिकूल पड़ने वाली हर सचाई को ठुकराना उसकी लाचारी बन जाती है। शब्दसचाई पर ध्यान दें। सचाई और विचारधारा दो प्रवर्ग हैं। दोनों पर्यायवाची नहीं है। अर्थात, किन्ही बिन्दुओं पर सचाई और विचारधारा विपरीत हो सकती है। उसी प्रकार, नैतिकता और विचारधारा भी पर्याय नहीं हैं। इसीलिए कोई भी विचारधारा सचाई और नैतिकता की समय-समय पर उपेक्षा करती रह सकती है। विचारधारा-ग्रस्त आदमी सचाई या नैतिकता को छोटी चीज मानकर अपनी विचारधारा पकड़े रहता है। यही सारी आफत की जड़ हो जाती है। आईसिस मूलतः वैसी ही मानसिकता से ग्रस्त है जिससे माओ और स्तालिन भीग्रस्त थे। सचाई और नैतिकता के बदले अपनी विचारधारा को सर्वोच्च मार्गदर्शक मानना। आईसिस इस्लाम को मानता है, स्तालिन लेनिनवाद को मानता था। इस प्रकार, विचारधारा एक बेड़ी है। विचार स्वतन्त्रा हो सकते हैं, उन्मुक्त हो सकते हैं। किन्तु जैसे ही कुछ विशिष्ट विचारों को जोड़कर एक विचारधारा बना ली जाए, वैसे ही यह स्वतः बँध जाती है। यही विचारधारा-ग्रस्त लोगों को संकीर्ण, कट्टर, मतिहीन, यहाँ तक कि हिंसक भी बनाने लगती है। ऐसे लोगों में महात्मा गाँधी को भी गिना जा सकता है।
जिन्होंने अहिंसा को अपनी विचारधारा बनाकर भयंकर नरसंहारों को चुप-चाप स्वीकार कर लिया, और पीडि़तों को उपदेश दिया कि वे ‘अहिंसा के पुजारी’ बनकर मारे जाएँ। इसे समझने की कोशिश करें, कि यह विचारधारा
की कैद के कारण हुआ। विचारधारा की बेड़ी से मुक्त नेता यही कहता कि अपनी रक्षा के
लिए हथियार उठाओ, और आक्रमणकारियों को मार डालो। मगर गाँधीजी ऐसा कह ही नहीं सकते थे। क्योंकि वे अपनी अहिंसा  विचारधारा के बन्दी हो गये थे। बात यह है कि विचारधारा-ग्रस्त लोगों की दृष्टि  संकीर्ण हो जाती है। आम आदमी पार्टी में भी यादव, भूषण और रामदास ऐसे ही लोग है। वे सारी तिकड़में सदैव किसी
स्वार्थवश नहीं करते। बल्कि इसलिए भी करते हैं कि उन्हें लगता है कि उनकी विचारधारा
की यह माँग है। उदाहरणार्थ, यादव और भूषण कश्मीर में भारतीय सेना को ‘ओक्कूपेश आर्मी’
( विदेशी अतिक्रमणकारीद्ध ) मानते हैं। यह विचारधारा-ग्रस्त है, जो सचाई नहीं झेल सकती। क्योंकि उस तर्क से हैदराबाद, पटियाला, जूनागढ़, त्रावणकोर, भोपाल, ग्वालियर, आदि जगहों पर भी भारतीय सेना विदेशी कहलाएगी। क्योंकि जिस नियम, पद्धति दित  से जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ में सम्मिलित हुआ था, ठीक उसी
से सभी भारतीय राज्य-रजवाड़े हुए थे। अतः यदि यादव, भूषण के लिए कश्मीर में भारतीय
सेना ‘बाहरी कब्जावर’ है, तो वह लगभग सभी प्रान्तों में भी वही है।
पिफर दूसरी समस्या उठती है। इस ‘भारतीय’सेना के सैनिक, संचालक और आदेशकर्ता
किस देश के हैं? तब ‘भारत’ का ही कोई अर्थ समझ में नहीं आएगा। सभी प्रान्तों के
लोग भारतीय सेना के संचालक, कमांडर और राज्य-नीति तय करते रहे हैं। भारतीय राज्यतन्त्रा
में कश्मीरी भी गृह मन्त्राी, विदेश मन्त्राी, आदि महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। लेकिन विचारधारा 
ग्रस्त, विशेषकर वामपन्थी लोगों को यह सब सोचने-विचारने की जरूरत नहीं होती। उन्हें
अपनी झक का ऐसा अहंकार रहता है कि वे उसे रटते रहने में ही सन्तुष्ट रहते हैं।
इसीलिए किसी पार्टी में विचारधारा का होना उसकी दुर्बलता है, योग्यता नहीं। लोकतन्त्रा
में अधिक अच्छी पार्टी वह है जो सचाई, नैतिकता और देश-हित को आधार बनाए। तदनुरूप योग्य लोगों और नीतियों को बढ़ावा  दे। तभी उस में लचीलापन, खुलापन और उदारता रहती है। विचारधारा आधारित पार्टियाँ
इसके उलट प्रायः अनम्य, जिद्दी और संकीर्ण होती जाती हैं। वामपन्थी पार्टियाँ और बुद्धिजीवी इस के
प्रतिनिधि उदाहरण हैं। स्वभाव से ही सचाई और नैतिकता को पीछे, और अपने बने-बनाए
निष्कर्षों को आगे रखते हैं। ‘वर्गीय’ राजनीति उनकी बुनियादी मानसिकता है। उन में ‘हम’
और ‘वे’, ‘जनवादी’ और ‘प्रतिक्रियावादी’, ‘सेक्यूलर’ और ‘साम्प्रदायिक’, आदि प्रवर्गों में कुछ भी देखने की आदत होती है। इसीलिए कोई सत्यनिष्ठ, परिश्रमी, न्यायपूर्ण नेता भी उनके लिए घृणित है, यदि वह भाजपा या शिवसेना में है। उसी तरह, अय्याश  भ्रष्ट, निकम्मा भी उनका मित्रा या सहयोगी हो सकता है यदि वह गैर-भाजपा, गैर-काँग्रेसी है। मित्र और शत्रा का ऐसा चयन विचारधारा की बीमारी है, जो किसी मामले को ठोस
तथ्यों और न्याय पर नहीं, बल्कि किसी विचारधारा पर तोलती है। इस तरह, विचारशीलता और विचारधारा प्रायः एक-दूसरे के विरुद्ध  जा पड़ती है। योगेन्द्र यादव द्वारा तैयार करवाई गयी स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में भी विचारधारा के कारण हुई घोर हानि देखी जा सकती है। अपने कारनामे पर वे दम्भपूर्वक लिखते हैं, ‘हमने
तय किया कि हमें इससे कोई मतलब नहीं है कि राजनीति विज्ञान क्या है, अर्थशास्त्रा क्या
है और समाजशास्त्र क्या है। हमें लगता है कि बच्चा अपने इर्द-गिर्द परिवेश के बारे में जानना चाहता है और उसे जानने दिया जाए।’ इन शब्दों का भोलापन या मूढ़ता देखने लायक है। आखिर, किसी बच्चे को ‘अपना इर्द-गिर्द परिवेश’ जानने के लिए पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता ही क्या है! अपने मुहल्ले, गाँव, कस्बे को तो हर बच्चा चप्पा-चप्पा, राई-रत्ती स्वयं जानता है। फिर , मुम्बई की चाल, शिलांग के पहाड़, भुवनेश्वर के समुद्र-तट और ल्यूटन की दिल्ली, आदि विभिन्न ‘परिवेश’ को जानने के लिए एक नहीं, पचास किस्म की
अलग-अलग पुस्तकें देनी होंगी। कैसा विचित्रा अहंकार है कि अनगिन विभिन्न परिवेशों के
बच्चों को एक ही किताब देकर समझ लिया जाए कि उन्हें अपना ‘इर्द-गिर्द’ जानने में मदद
की जा रही है. मगर विचारधारा-ग्रस्त लोगों की यही सिपफत होती है। वे अपने अनुमान, घोषणाओं,
आदि को निरन्तर दुहराते हुए स्वयं अपना अन्धविश्वास सच मानने लगते हैं। सोवियत संघ का सम्पूर्ण अकादमिक, राजनीतिक वर्ग तीन पीढि़यों तक इसी रोग से ग्रस्त रहा। हमारे देश के मतवादी कुछ यही दिखाते हैं। उनकी किसी मान्यता पर प्रश्न उठाते ही उन के माथे पर बल पड़ जाते हैं, कि पूछने वाला जरूर
साम्प्रदायिक या किसी का एजेंट है. मानो किसी बड़े पदधारी लेखक-प्रचारक से किसी
मान्यता का प्रमाण माँगना उस की तौहीन करना है। विचारधारा की मारी हुई सबसे आभागी
पार्टियाँ भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ हैं। वे समय-समय पर वैचारिक मंथन करती हैं। इस
पर नहीं कि क्यों उसका नाम-लोपत  होता जा रहा है, बल्कि इस बात पर कि शत्राुओं को हराने
के लिए क्या किया जाए? यानी, अपनी विचारधारा में वे सही थीं और हैं, समस्या
केवल उन्हें लागू करने की है। विचारधारा किस तरह विचारहीनता थोप देती है, यह उसी का उदाहरण है। रूस और चीन द्वारा दशकों माक्र्सवाद-लेनिनवाद को अपना पर, व्यवहार में उसे निष्पफल, हानिकारक पाकर तौबा करने के बाद भी भारतीय कम्युनिस्ट उसी से चिपटे हैं। यही है विचारधारा-ग्रस्तता, जो सचाई को
कोई महत्त्व नहीं देती। सभी कम्युनिस्टों, वामपंथियों के विमर्श में यही समस्या है। विचारधारा या सचाई?
क्या विचारधारा सचाई से ऊँची चीज है? या कि वामपन्थी बन्धु सचाई का सामना करने की
ताब नहीं रखते? सभी वामपंथियों को अपना हृदय टटोल कर देखना चाहिए। उत्तर
अलग-अलग कामरेडों, प्रगतिशीलों, सेक्यूलरों के लिए अलग-अलग होंगे, किन्तु यह तय  है कि जब तक इस बुनियादी प्रश्न का बेलाग सामना नहीं किया जाता, यहाँ के सारे वामपन्थी मतवादी नेता, बुद्धिजीवी  उसी तरह
भटकते-भटकते लुप्त हो जाएँगे, जैसे कई देशों में हो चुके।
हैरत कि दशकों तक रूस और चीन से ‘सीखने’ की आदत रखने वाले कम्युनिस्ट अब
उन से सीखने से कतराते हैं. रूसी गोर्बाचेव येल्तसिन हों या चीनी देंग-पफेंग, सब ने झक मारकर यही पाया कि सचाई की ताकत  विचारधारा से बहुत अधिक है। जैसा महान लेखक सोल्झेनित्सिन ने अपने अनुभवों से
लिखा था, ‘सचाई का एक शब्द पूरी दुनिया पर भारी पड़ता है।’ हरेक बिन्दु पर वामपंथियों का मूल
दिग्भ्रम विचारधारा बनाम सचाई का है। दशकों के और विश्वव्यापी अनुभव से यह स्पष्ट हो
जाना चाहिए था कि स्थितियों, समस्याओं को केवल अच्छे, बुरे नए नाम दे देने से कुछ नहीं
बदलता। हम स्वयं को ही छलते हैं। मनीषियों ने समझाया है कि दुनिया आज भी उन्हीं पुराने अज्ञान, लोभ, ईष्या, कामना, अहंकार, आदि से विभाजित विखण्डित हो रही है। उसे वर्ग-संघर्ष, नस्लवाद, आत्मनिर्णय,
मानवाधिकार, जैसी पफैशनेबल संज्ञाएँ ओढ़ा देने से कुछ उपलब्ध नहीं हुआ। सचाई से इंकार की प्रवृत्ति को विचारधारा की जिद में बदल कर सिद्धांत - निष्ठा सा महिमंडित कर लिया गया। पर यह अन्तहीन छल-प्रपंच में बदलता जाता है। केवल प्रचार, दुहराव से बुद्धि को अवसन्न कर ठोक-पीट कर सही को गलत
और गलत को सही दिखाने की कोशिश करता है। कोई भोला-भाला अनुयायी या अन्धविश्वासी
कार्यकर्ता बरस-दर-बरस उसे मानता चलता है। पर सचाई की दुर्निवार शक्ति उसे समय के साथ
वस्तुस्थिति से अवगत करा देती है। तब वह उदासीन या मुक्त हो जाता है। सारी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों के अवसान की यही संक्षिप्त कथा है। लेनिन-स्तालिन-माओ की जड़-भक्ति से यह
सच ओझल नहीं हो सकता कि अच्छाई, न्याय और उपलब्धि की धारणाएँ विचारधाराओं पर
निर्भर नहीं। इसलिए लाख दलीलें दें, यह शीशे की तरह साफ हो चुका कि माक्र्सवादी तजवीजों
में रूस, चीन या बंगाल को खुशहाल बनाने की  सामथ्र्य नहीं थी। उनमें अत्यधिक नकारवाद
और असहिष्णुता है। रचनात्मकता का घोर अभाव भी। अन्यथा तीन दशक के सुदृढ़ शासन और बहुमूल्य संसाधनों के साथ पश्चिम बंगाल को अग्रणी राज्य बनाया ही जा सकता था. उसमें विफलता, किसी नेता या इस, उस गुट की नहीं, बल्कि उस विचारधारा की है जिसने माकपाइयों में घृणा, हिंसा, नकार, मिथ्याचार
और अहंकार भर दिया। उसी ने माकपा कार्यकर्ताओं को सिखाया कि जन-हित से पार्टी-हित ऊपर है। उस
विचारधारा ने यह विचित्रा बात भी सिखायी कि उद्योगपतियों से घृणा करो, उन्हें सताओ, मिटाओ।
उन्हें खत्म करके ही नया, प्रगतिशील समाज बनना आरम्भ होगा। मनमानी तोड़-पफोड़ और
हिंसा के पक्ष में यही तर्क कभी युवा ज्योति बसु ने बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर को दिया था। अब चार-पाँच दशक के अनुभव के बाद तो यह देख सकना चाहिए कि वह विचारधारात्मक अन्धविश्वास था जिसने बंगाल की दुर्गति की। वही दुर्गति पूरे देश की नहीं हुई, इस के लिए उस जनता को ही श्रेय है जिस ने काँग्रेस और
भाजपा को अधिक ठीक समझा। यहाँ अनपढ़ जनता की तुलना में वामपन्थी बुद्धिजीवी 
अधिक मूढ़ साबित हुए हैं। दरअसल, यह सब कोई अंतदृष्टि  पाने की समस्या नहीं जिससे उन्हें कठिनाई हो रही है। बल्कि जानने की इच्छा की कमी है। अन्यथा वे बखूबी समझ सकते हैं कि टाटा, बिरला , अम्बानी या अमेरिका को दिन-रात कोसने से लोग कायल क्यों नहीं होते? बात वही, सचाई की कसौटी पर आती है। इसी पर
लोग देर-सवेर वास्तविक लाभ-हानि पहचानते हैं। अथवा कभी-कभी किसी अधिक बुरे की तुलना में कम अच्छे को अवसर देते हैं। यह लोकतान्त्रिाक राजनीति की सहज प्रक्रिया है, जिसमें भाग लेते हुए भी कम्युनिस्ट इसे स्वीकार नहीं कर पाये। उनकी विचारधारा उन्हें इस लोकतन्त्रा को ही बुरा-भला कहना और पार्टी-तानाशाही को उपयुक्त समझना सिखाती रही है। वे देख कर भी नहीं देखना चाहते कि युग पलट चुका है। तानाशाहियाँ एक-एक कर धराशायी हो चुकीं। कौन जाने, हर कहीं इस्लामी संगठनों, नेताओं की अतिशय हिंसा,
उग्रता भी बुझने से पहले भभकने जैसा संकेत ही हो. कवि अज्ञेय ने लिखा था: ‘हठ-लक्ष्य से चिपटने की, या कि रास्ते से? कोई भी मार्ग छोड़ा जा सकता है, बदला जा सकता है: पथ-भ्रष्ट होना कुछ नहीं होता अगर लक्ष्य-भ्रष्ट न हुए।’ अभी समय है कि भारतीय कम्युनिस्ट अपने को देश और समाज के लिए उपयोगी बना सकें। सचाई की कीमत पर विचारधारा का हठ छोड़ कर ही यह सम्भव है। पार्टी संगठन कैसा हो जहाँ तक पार्टी संगठनों के आन्तरिक लोकतन्त्र का मुद्दा है, उस में लोकतन्त्रा के अर्थ के प्रति भ्रम झलकता है। लोकतन्त्रा केवल यही नहीं कि हर चीज किसी समिति या किसी बहुमत से तय की जाए। नहीं तो क्या अमेरिकी राष्ट्रपति
कोई तानाशाह है? वह तो सारे निर्णय स्वयं लेता  है। किसी से पूछने की उसे अनिवार्यता नहीं।
अपने सलाहकार वह स्वयं तय करता है या हटाता है। लेकिन उसे पूर्ण अधिकार देते हुए
भी देश के संविधान, न्यायपालिका, प्रेस स्वतन्त्रता पर कोई आँच नहीं आती। फिर  उसे निश्चित
अवधि का कार्यकाल मिलता है। यह भी लोकतन्त्रा है। इसीलिए अरविन्द केजरीवाल की आलोचना
सही नहीं है। उन्होंने लोगों का विश्वास जीता है, किसी और ने नहीं। अतः उन्हें अपने सहयोगी को रखने, हटाने का पूरा अधिकार अपने हाथ रखने में कोई तानाशाही या गलती नहीं मानी जा सकती। योगेन्द्र यादव या प्रशान्त भूषण को कुछ कर के दिखाना अभी शेष है। समस्या यह भी है कि अधिकांश राजनीतिक दलों के सांगठनिक नियम प्रायः पाखंडी हैं। इनके लिखित संविधान, तदनुरूप ‘पार्टी समिति’
के कार्य-अधिकार एक चीज हैं, वास्तविकता कुछ अलग। सभी पार्टियाँ वस्तुतः अध्यक्षीय
रूप से चलती हैं। किन्तु कागज पर अधिकांश ने तरह-तरह की सामूहिक व्यवस्था बना रखी
है। सब जानते हैं कि पार्टी के गम्भीर निर्णय सोनिया जी या अमित जी, मुलायम जी, लालू जी, अरविन्द जी, आदि करेंगे। लेकिन दिखावा रहता है कि पार्टी के ‘संसदीय बोर्ड’ या ‘कार्यकारिणी’, ‘चुनाव समिति’ आदि ने वह किया।
यह पाखंड उस समस्या की जड़ में है, जिस से आम आदमी पार्टी अभी जूझ रही है। हर चीज समिति से तय होना जरूरी नहीं। एक बार समिति द्वारा किसी को चार साल या पाँच साल के लिए सर्वोच्च पद पर नियुक्त करना,
फिर  उसे निर्बाध अधिकार देना भी लोकतान्त्रिक ही है। बल्कि उस से कई लाभ भी होते हैं। प्रथम, निर्णय लेने वाले को उत्तरदायी होना पड़ता है। वह हानिकारक निर्णय लेकर भी जबावदेही से बच नहीं सकता। दूसरे, इस
पध्दित  से निर्णय में समुचित सोच-विचार जरूरी हो जाता है। क्योंकि किसी की जिम्मेदारी तय रहती है। तीसरे, नेतृत्व-चयन का मान्य पैमाना रहता है। लेकिन ऐसे खुले, व्यक्ति-केन्द्रित, उत्तरदायी संगठन व्यवस्था के बदले नकली समिति व्यवस्था पाखण्ड, भ्रम और उत्तरदायित्वहीनता को बढ़ावा देती है। आखिर दिल्ली विधान सभा चुनाव में भाजपा का मुखियेमंत्री  उम्मीदवार  किस ने तय किया? दिल्ली प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष की नियुक्ति किस आधार पर हुई? इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। क्योंकि सागंठनिक नियम हाथी के दाँत की तरह खाने के और, दिखाने के और हैं। यही हमारे राजनीतिक दलों की सांगठनिक समस्या की जड़ है। पार्टी में प्रतिद्वन्दी नेताओं के दिल जलते रहते हैं। वे आपस में तने रहते हैं। क्योंकि कोई कसौटी नहीं जिस से तय हो
कि कौन किस पद का अधिकारी है अथवा नहीं है। इनमें ऐसे भी हैं जो वास्तव में पार्टी या देश के लिए कुछ करना चाहते हैं किन्तु दोषपूर्ण सांगठनिक  उन्हें सही स्थान नहीं लेने देती। इसके विपरीत, कई चुके हुए नेता जिनमें उतनी योग्यता या हौसला नहीं, इस या उस पद को घेरे रहते हैं। क्योंकि उन पर अदृश्य
वरदहस्त है। सामूहिकतावादी पाखण्ड से सबसे बड़ी हानि यह होती है कि पार्टी में नये, योग्य और
आदर्शवादी व्यक्तियों के आगे आने की गुंजाइश घट जाती है जो कोई सही योजना बना और
लागू कर देश की कुछ सेवा कर सकते थे। क्योंकि जिन स्थानों पर किसी कर्मठ को होना चाहिए, वहाँ अयोग्य या चापलूस जमे रहते हैं। अथवा वैसे जरदगव जिनका सक्रिय काल बीत चुका। पर उन्हें ‘पिछले’ कामों के ईनाम स्वरूप जीवनपर्यंत किसी पद, राज्य-सभा या राज-भवन में रखा जाता है।
दर्जनों ऐसे सासंद रहे हैं, जो चल-पिफर या सोच-विचार तक करने की स्थिति में नहीं थे। टीवी पर उन्हें देख कर करुणा उपजती थी।  पिफर भी वे रिटायर नहीं होते! यह देश के संसाधनों की बर्बादी ही नहीं, योग्य लोगों को
राष्ट्रीय काम से बाहर रख कर अधिक बड़ी हानि करना है। क्या देश की सर्वोच्च संस्थाओं-संसद, विधान सभा-का काम इतना उपेक्षणीय है कि वहाँ जिस किसी बीमार या चापलूस को भेज दिया जाए? यह बन्द होना
चाहिए। जहाँ पहुँच कर कोई मेधावी, लगनशील और सक्रिय व्यक्ति देश का भला कर सकता है, वहाँ व्यर्थ, लाचार या मतलबियों को नियुक्त करना पाप है। चुके लोगों को पिछली सेवाओं का ईनाम किसी और तरह दिया जाना चाहिए। जिम्मेदारी के पदों को पुरस्कार मात्रा समझने की प्रथा अविलम्ब समाप्त होनी चाहिए।
इसी से हर तरह की राजनीतिक बीमारियाँ  फैली हैं। हर तरह के अयोग्य, गन्दे लोग संसद से लेकर सरकार के सबसे महत्वपूर्ण  पदों की ओर आँख लगाए बैठे रहते हैं। क्योंकि गाँधी-नेहरू परम्परा ने पदों के अधिकारी होने का आधार योग्यता नहीं, वपफादारी या  चापलूसी मात्रा बना दिया है। यह रोग सभी राजनीतिक दलों में घर
कर गया है। सभी दलों के बड़े नेता ऐसे ‘वपफादारों’ को ही प्रश्रय देते हैं, जो सदैव योग्य नहीं होते। मगर इसकी व्यवस्था कर लेते हैं कि महत्त्वपूर्ण पार्टी समितियों में बने रहें और नेता के हाथ मजबूत करें। यह समितियाँ नेता को मजबूत तो करती हैं, किन्तु उसे अपने कामों और निर्णयों के लिए उत्तरदायी नहीं बनातीं।
यदि पार्टियों और सरकार में भी खुली अध्यक्षीय प्रणाली अपना ली जाए तो
उत्तरदायित्वपूर्ण शासन के लिए अच्छा रहेगा। तब सर्वोच्च से लेकर हर कार्य का जिम्मेदार
कोई व्यक्ति विशेष होगा। तब जो व्यक्ति निर्णय करेगा, उसके परिणामों का उसे ही पुरस्कार
या दंड मिलेगा। वैसी अवस्था में अध्यक्ष को सोच-समझ कर अपने सहयोगी चुनने होंगे,
क्योंकि तब सहयोगी के कार्य की जिम्मेदारी भी अन्ततः उसी की योग्यता या अयोग्यता दर्शाएगी।
अतः राजनीतिक दलों में प्रचलित अदृश्य ‘हाई कमान’, यानी परोक्ष अध्यक्षीय प्रणाली, को प्रत्यक्ष बना देना ही उस समस्या का समाधान है, जिस से अभी आम आदमी पार्टी जूझ रही है। किन्तु यह अन्य दलों की भी
समस्या है। जो नेता चुक गया, अस्वीकृत हो गया, या कोई बड़ी गलती कर बैठा, उसे रिटायरमेंट में जाना ही चाहिए। इसी में देश का और उसका भी सम्मान है। राजनीति में नयी प्रतिभाओं के आते रहने का मार्ग भी तभी
खुलेगा। जैसा, अमेरिका, यूरोप में है। वहाँ किसी की बड़ी गलती या हार के बाद उसके राजनीति में रहने की परम्परा नहीं है। पार्टी में घोषित अध्यक्षीय प्रणाली से यह भी लाभ होगा कि नेताओं की आपसी प्रतिस्पर्धा
को न्यायोचित मार्ग मिल जाएगा। यदि प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों
ने किसी को अधिक पसन्द कर लिया तब दूसरे प्रतिद्वन्दी की महत्त्वाकांक्षा भी शान्त हो रचनात्मक
होने में लगेगी। तब वे पुनः मिल कर काम कर  सकेंगे या कोई दूसरा कार्य करेंगे। उनकी
योग्यता मुँह फुलाए समय बर्बाद करने से हटकर कुछ न कुछ उपयोगी कर सकने में लगेगी।
अमेरिकीयों से हमें कुछ अच्छा भी सीखना चाहिए।





                                                          
                                                                          शंकर शरण 
                                             लेखक राजनीतिशास्त्र  के प्रोफेसर है .
                                                               +919911035650


28 April 2015

साइकिल चिन्तन


साइकिल चिन्तन

विजय कुमार 


सड़क पर तरह-तरह के वाहनों की एक
सामूहिक गति होती है.अक्सर खौफनाक और
हिंसक गति। अन्धाधुन्ध गति और रेल-पेल के
बीच एक मिनट के लिए किसी साइकिल
सवार पर नजर डालिए। क्या ऐसा नहीं लगता
कि सड़क पर सामूहिक गति के समानान्तर
एक वैयक्तिक गति भी है? गति की यह त्वरा
संवेदना, बुद्धि  और तर्क की ताकत से चालित
है। हर साइकिल सवार राह के अवरोधों के
साथ बड़ी जल्दी अपना सामंजस्य बिठा लेता
है। उसमें एक गजब का लचीलापन है। गति
उस पर भूत की तरह सवार नहीं है। साइकिल
सवार की अपनी इच्छा कभी उसका दामन
नहीं छोड़ती।
बड़े शहरों में संवेदना, बुद्धि  और तर्क केसाथ रफ्रतार का तालमेल बिठाते ये लोग कौनहै? काले शीशों वाली सरपट दौडती घमंडी कारों के बीच  जब भी कोई साइकिल सवार दिखाई पड़ता है तो वह या तो हैंडिल पर सब्जी का झोला लटकाये घर आता कोई मजदूर होता है या छोटे-छोटे मासूम स्कूली
बच्चे अथवा दूध के हंडे वाले, अण्डे और पावरोटी वाले, डाकिये, परचूनिये, पफेरीवाले अखबार वाले और इस तरह तमाम लोग। 
सभ्यता के इतिहास में पहिये के आविष्कार
के बाद साइकिल शायद सबसे अधिक रूमानी सवारी रही है। सड़क पर तमाम तरह के वाहनों की भीड़ में साइकिल अहिंसक वाहन है।  उसकी धीमी रफ्रतार में एक तरह की मानवीयता रची बसी है। यह एक ऐसा वाहन है जो पैदल राह चलते आदमी के साथ दोस्ताना ताल्लुक रखता है। साइकिल सवार अमूमन एक उत्पफुल्ल, उन्मुक्त और धीरज से भरा इंसान होता है। वह रफ्रतार की जरूरत तथा उसकी व्यर्थता दोनों
को जानता है। साइकिल सवार एक पैदल आदमी के कन्धे पर हाथ रखे आराम से गपियाते चल सकता है। सड़कों पर साइकिल सवार और पैदल आदमी की यह जुगलबन्दी हमेशा संगीत की लय से भरी लगती है। उसमें एक भरोसा है, एक मासूमियत है, एक कविता है, सड़क और आदमी के सम्बन्धों की उष्मा
और एक मधुर मिलन है। 
दूर से साइकिल पर लहराते आते किसी अलमस्त किशोर को देखकर क्या आप सहसा ठिठककर खड़े नहीं हो गये हैं ? वह पल जब आप अपनी जगह पर खड़े हैं, वह मुस्कराता,
गाता हुआ सर्र से बगल से निकल जाता है। एक पल सिर झुका कर सड़क को देखता है,
दूसरे पल सामने, तीसरे पल दायें, चैथे पल बायें। आगे जाकर वह क्षण भर पीछे मुड़कर भी देखता है और आपको अपनी ओर लगातार  ताकता हुआ पाकर पलभर शर्माता है। साइकिल कभी इस तरपफ झुकती है कभी उस तरपफ। उसकी जुल्फें हवा में लहराती हैं और उसकी कमीज किसी फूले हुए गुब्बारे की तरह है।
हवा उसके चारों तरपफ ही नहीं उसके समूचे बदन में भी भरी हुई है। गति लेने उसकी पीठ धनुष की तरह झुकती है और अगले पल गर्व से अकड़ जाती है। उसके कूल्हे सीट के कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ। उसकी पिंडलियाँ  धुली हुई पीतल की कटोरियों की तरह दूर तक चमकती जाती हैं। और इस सबके साथ हवा
में तैरती चली जाती है उसके कण्ठ से फूटी एक दिलकश स्वर रागिनी-‘है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आयेगा’। 
सड़क पर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं पर दो साइकिल सवारों की टक्कर कभी भी दुर्घटना शब्द के दायरे में नहीं आती। दो साइकिल सवार टकराते हैं, गिरते हैं, धूल झाड़ते हैं, मुस्कराते हैं और विपरीत दिशाओं में चले जाते हैं। भीड़ के बीच से साइकिल गुजरती है और भीड़ का हिस्सा बनी रहती है। गति और ठहराव का ऐसा द्वन्द्वात्मक रिश्ता आदमी को इंसान बनाता है। यहाँ यन्त्र आदमी से बड़ा नहीं है। आदमी जब
चाहे इस यन्त्र से उतर कर राहगीर बन जाता है। जब साइकिल सवार पैदल चलता है तब यन्त्र एक आज्ञाकारी बालक की तरह सिर झुकाये उसके साथ साथ चलता है। जिन साइकिलों में ब्रेक नहीं होते वे भी बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं करतीं। ब्रेक लगाने से पहले आदमी घंटी बजाता है  जिसकी आवाज मधुर होती है। साइकिल सबसे ज्यादा आत्मनिर्भर वाहन  है। इसकी वजह से आदमी को तेल के कुएँ नहीं खोदने पड़े, हवा में प्रदूषण नहीं फैला,
राह बनाने के लिए पेड़ नहीं काटे गये, पहाड़ों  का सीना नहीं रौंदा गया। साइकिलों ने पहियों में ठीक-ठाक हवा, पुर्जों में थोड़ा सा तेल,  बैठने लायक सीट और एक काम चलाऊ घण्टी के अलावा आदमी से कभी कुछ नहीं
माँगा। वे गउएँ चुपचाप कहीं भी खड़ी हो जाती हैं। अपनी अद्वितीयता के प्रमाण के लिए वे नंबर प्लेट भी नहीं चाहतीं 
पिछली सदी में जिन दूरियों को साइकिलों ने नापा उनमें एक बीता हुआ युग छिपा है। जीवन सरल था, ज्यादा पेचीदगियाँ नहीं थीं, दूरियाँ कम थीं। इस छोटी सी दुनिया में हर कोई हर किसी से परिचित था। जब दूरियाँ कम थीं तो वक्त ज्यादा था ,रफ्रतार से आदमी की जिन्दगी का अलग तरह का रिश्ता था।
उसके अनुभव अलग थे। जिन दूरियों को आदमी ने तय किया उनमें मुकाम ही सबकुछ नहीं था, राहों की भी अहमियत थी।


साइकिल सवार तार सप्तक गाता हुआ राहों का अन्वेषी था। रास्ता चलते कुछ दुआ सलाम होती रहती थी, खैरियत का लेन-देन होता था। पहुँचने की फ़िक्र  थी तो राह की तसल्ली भी थी.एक मंथर गति और एक अलमस्त चाल। साइकिल चिकनी सपाट सड़कों पर चली तो धूल भरी पगडंडियों, बीहड़ रास्तों और खाई
खन्दकों में भी निर्विकार रही। बन्धी लीक छोड़ आदमी जब भी कच्चे रास्ते पर उतरा 
साइकिल उसके साथ थी। जब भी एक दोस्त ने दूसरे दोस्त को अपनी साइकिल पर बिठाया तो उसमें एक शरीर का भार खींचने की
उदारता थी। प्रेमी-प्रेमिका के बीच साइकिल ने अन्तरंगता के अनिर्वचनीय क्षण जुटाये। भाप
के इंजन की सीटी हमारी नींद में गूंजती रही और साइकिल की घंटी किसी खोये हुए सुख की धुन बजाती रही। जाॅर्ज बेर्नार्ड शाॅ ने साइकिल को एक साहित्यिक आदमी की पूँजी कहा था। पूँजी यानी अनुभवों का कच्चा माल।
वे स्वयं लंदन के पार्कों में साइकिल चलाते अक्सर दिखाई पड़ते थे।

भारत में बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध में लिखे कथा साहित्य में जगह-जगह साइकिल दिखाई देती है। यह शोध का विषय है कि प्रेमचन्द की कौन कौन सी कहानियों में साइकिल के दर्शन होते हैं। इन कहानियों में
जब साइकिल पर कोई पात्रा आ रहा होता है या जा रहा होता है तो वहाँ कौन-सी परिस्थितियाँ
चित्रित हो रही होती हैं? कौन से लोग इन साइकिलों पर चलते दिखाई देते हैं? सरकारी वकील, दफ्रतर के बड़े बाबू, कस्बे के डाॅक्टर, कालेज के हाॅस्टल में रहने वाला कोई नवयुवक या पुलिस का दरोगा।
आज भी बार बार देखी जाने योग्य उन पुरानी लोकप्रिय श्वेत-श्याम फिल्मो  में कुंदनलाल सहगल, अशोक कुमार, करण दीवान, शेख मुख्तार, जयन्त, बलराज साहनी, देवानन्द, अजित, राजकपूर, दिलीप कुमार, सुनील दत्त जब तब साइकिलों पर चढ़े दिखाई देते हैं। टिफिन  बाॅक्स साइकिल के हैंडल पर लटकाये
हुए ये सीधे साधे पर अलमस्त लोग हैं-अपनी सीमित सी जिन्दगी में खुशहाल। नर्गिस, नूतन
और आशा पारिख जब साइकिल चलाती दिखती हैं तो वहाँ नये जमाने की एक पढ़ी लिखी आजाद ख्याल लड़की का बिम्ब उभरता है। चार्ली चैपलिन की फिल्मो मे साइकिल  से जुड़े अनेक करूण-हास्य के प्रसंग हमारी यादों में हैं। यूरोप के सिनेमा में नवयथार्थवादी आन्दोलन को शुरू करने वाले मशहूर इतालवी
निर्देशक डि सिका की उस महान फिल्म ‘बाइसिकिल थीपफ’ को भला कौन भूल सकता
है? युद्ध से पहले के मन्दी के वे दिन जब फिल्म  का नायक अपने बच्चे को साइकिल
पर बिठाये काम खोजने जाता दिखाई है। बाद में उसकी भयावह बेकारी और परेशानी का
वह समय। उसे थोड़े से पैसों के लिए अपनी साइकिल बेचनी पड़ती है। और एक दिन
किसी और की साइकिल चुराने पर वह पकड़ा जाता है और उसकी समूची जिन्दगी बदल
जाती है। एक गहरी तकलीपफ की असाधारण फिल्म ‘बाइसिकिल थीपफ’।

19 वीं सदी जब समाप्त हो रही थी तो तोलस्ताॅय ने सड़सठ साल की पकी उम्र में
साइकिल चलाना सीखा था। काले चोगे में एक भव्य बूढ़े को साइलकिल पर सवार देख
उनकी इस्टेट के एक किसान ने कहा कि ‘तोलस्ताॅय ईसाई भी हैं और साइकिल भी
चलाते हैं , ये दोनों बातें एक साथ कैसे सम्भव हैं’ एल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने बेटे से कहा था
कि ‘जीवन साइकिल चलाने की तरह है। अ ना सन्तुलन बनाए रखने के लिए आपको
लगातार चलते रहना होता है। पर आज मन उदास है। इक्कीसवीँ सदी के इन वर्षों में धीमी और इत्मीनान वाली रफ्रतार का जमाना बीता हुआ जमाना माना जा रहा है। कुछ दिन पहले हमारे मोहल्ले में
जुम्मन मियाँ की साइकिल की पुरानी दूकान बिक गयी। वहाँ अब एक ब्यूटी पार्लर खुला
है। कभी-कभी किसी सूनी सड़क पर देर रात  जब कोई तनहा साइकिल सवार दिखता है तो
मुझे चेखव की किसी कहानी की याद आती है।

                                     
                                                                   विजय कुमार
                                                                +919820370825
                               लेखक हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक है .




14 April 2015

आम आदमी पार्टी का संकट



आम आदमी पार्टी का संकट


मणीन्द्र नाथ ठाकुर


आम आदमी पार्टी के आतंरिक कलह से जितना पार्टी के लोग परेशान हैं उससे ज्यादा आम लोग दुखी  और हैरान  हैं. इस प्रयोग पर लोगों का बड़ा भरोषा बना था. आज के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक संकट के समय सबकुछ धीरे-धीरे बदलने का कुछ-कुछ एहसास लोगों को होने लगा था. अचानक पार्टी की पोल खुलने लगी. सबकुछ पिघलने लगा. यह सब एक हादसा जैसा हुआ. दुनियां भर के लोग इस प्रयोग को गौर से देख रहे थे, क्योंकि भारत का यह प्रयोग विश्वव्यापी परिवर्तनकामी राजनीति के लिए एक उदाहरण सा माना जाने लगा था. दुनियां भर के लोग वर्तमान व्यवस्था से दुखी होकर सड़क पर   उतर रहे हैं. सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद से निकलने का कोई रास्ता लोगों को दिख नहीं रहा है. ऐसे में हर छोटा-बड़ा राजनैतिक प्रयोग आनेवाले समय के लिए महत्वपूर्ण है.

अन्ना आन्दोलन के अपने प्रारंभिक अवतार में ऐसा लगता था कि यह दल आधुनिक व्यवस्था के विकल्प की खोज है. पार्टी, प्रॉपर्टी और पार्लियामेंट अर्थात राजनैतिक प्रतिनिधित्व, संपत्ति और प्रतिनिधि संस्थाओं के विरोधों का यह आन्दोलन व्यवस्था परिवर्तन की घोषणा हो सकती है. फिर वैकल्पिक राजनीति की व्याख्या करते हुए अपने दूसरे अवतार ‘आम आदमी पार्टी’ के रूप में भी लोगों में आशा बंकि थी कि शायद यह पार्टी औरों से अलग होगी. लेकिन इसका तीसरा अवतार सभी संभावनाओं को ख़ारिज करते हुए पूरी तरह पदलोलुप लोगों की एक जमात नजर आने लगा. इतनी जल्दी इसके स्वरुप में इतना बदलाव कैसे आया?  वही लोग जो केजरीवाल को दूसरा गाँधी बनाने पर तुले थे अचानक उसे नटवरलाल क्यों बताने लगे. ऐसे में यह प्रश्न उठाना लाजिमी है किआम आदमी पार्टी की क्या संभावनाएं हैं. चुनाव में भारी  जीत ने इतना तो साबित कर दिया है कि भारतीय राजनीति को विकल्प की खोज है लेकिन क्या आम आदमी पार्टी स्थाई विकल्प हो सकता है.  

यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब खुद इस पार्टी के पास  नहीं है. यह सच है कि आज की हालत में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों की बदहाली के बाद यदि देश भर में कोई जगह खाली हुई है तो उसे भरने के लिए जो थोड़ी बहुत संभावना है वो केवल इसी पार्टी में है. कुछ लोग यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि कांग्रेस की वापसी होगी. यदि उसकी वापसी होगी भी तो उसे राजनीति की नयी जमीन तलाशनी होगी. इस बात की संभावना है कि यदि आम आदमी पार्टी ने अपना पुनर्गठन ठीक से किया और हाशिये के लोगों में अपनी पकड़ को कायम रखा तो कांग्रेस की जमीन हमेशा के लिए खिसक जाएगी.

लेकिन इस पार्टी के लिए अपनी पकड़ को बनाये रखना आसान नहीं होगा. क्योंकि अबतक पार्टी केवल नकारात्मक छवि पर टिकी है. भ्रष्टाचार के विरोध का मुद्दा फिलहाल इनके पास नहीं रह गया है. जिस कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ किये आन्दोलन ने इस पार्टी को जन्म दियाजनता उसे दण्डित कर चुकी है. यह संभव है कि अब कांग्रेस के प्रति सद्भावना  की बयार भी बहने लगे. भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ भष्ट्राचार के मुद्दों का मिलना फिलहाल कठिन होगा. एक तो मोदी इसे लेकर सजग है और दूसरे, कांग्रेस की तुलना में इनके पास फेर बदल के लिए लोग ज्यादा हैं. मोदी यह भी इंगित करते रहते हैं कि यदि कोई मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए तो उन्हें मंत्री मंडल से  बाहर होने को लिए तैयार रहना चाहिए.
ऐसे में आम आदमी पार्टी भी अन्य विरोधी दलों की तरह यदि केवल  विरोध के लिए विरोध का सूत्र अपनाएगी तो लोगों के लिए इसमें कुछ आकर्षण नहीं बचेगा. इसके बदले इस पार्टी को अपनी रचनात्मक छवि बनानी पड़ेगी. कोई भी राजनीतिक दल बहुद दिनों तक केवल नकारात्मक छवि लेकर चल नहीं सकता है. खास कर ऐसे समय में जब भारतीय रजनीति के व्याकरण में भारी परिवर्तन हो रहा हो. यदि इस पार्टी के छोटे इतिहास को देखें तो इतना समझना मुश्किल नहीं होगा कि सफलता के लिए इसका मूल मन्त्र हंगामा करना और मीडिया में बने रहना है. वैसे भी मिडिया के प्रति पार्टी को शुक्रगुजार होना चाहिए. कई लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि पार्टी मिडिया की ही बनाई हुई है. कुछ लोगों का कहना है कि पार्टी के कुछ बड़े नेता भी मानते है कि आम आदमी पार्टी मिडिया के द्वारा फुलाया हुआ बलून है.

लेकिन इस पार्टी  के नेतृत्व को समझने के लिए  मिडिया के चरित्र को समझना होगा. भारतीय मिडिया मूलतः व्यापार है. और यदि व्यापर की प्रक्रिया में आप सहायक हैं तो कैमरा आप पर टिकेगाअन्यथा नहीं. संचार विशेषज्ञों का मानना है कि मिडिया कई बार कृत्रिम तरीके ऐसे पात्रों को गढ़ता है जिससे दर्शकों को आकर्षित किया जा सके. बाजार में बिकनेवाले सामान की तरह उसकी ब्रांडिंग की जाती है और इस प्रक्रिया में मिडिया धनोपार्जन करती है. जब ब्रांड पुराना हो जाये तो फिर उसे ध्वस्त करती है और उस प्रक्रिया में भी धनोपार्जन करती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि आम आदमी का पूरा खेल मिडिया के इस बड़े खेल का हिस्सा है. यदि न भी रहा हो तो इतना तो तय है कि दिल्ली के कुछ दिनों के संघर्ष की ब्रांडिंग कर आम आदमी पार्टी पूरे देश में इसी  मिडिया  के सहारे अपने को बेचने में लगी है.  लेकिन राजनीति और अर्थशास्त्र में यही अंतर है. पहला मानवीय संबंधों पर निर्भर है दूसरा मानव और भौतिक पदार्थों के बीच के संबंधों पर. राजनीति लोगों के हितों को समझना उसे संग्रह कर पार्टी का निर्माण करना और फिर उन हितों के लिए संघर्ष का नाम है. ऐसा संभव नहीं है कि जनता के लिए नैतिकता का सबक दिया जाये और स्वयं राजनीति का स्वार्थपरक लाभ लिया जाये. यदि आम आदमी पार्टी के बारे में जनता में विश्वास नहीं जमा तो फिर इसके अस्तित्व पर खतरा भी हो सकता है. फिर कोई और  संगठन खाली जगह को भरने के लिए आगे आ सकता है. पार्टी के अंदरूनी कलह से इतना तो पता चल रहा है कि इसके अन्दर सबकुछ सामान्य नहीं है. पैसे का लेन-देन हो या खराब छवि के लोगों को टिकट देने का मामला हो, हर मायने में पार्टी पर आरोप लग रहा है. पार्टी के लोग ही यह कहने लगे हैं कि शीर्ष नेतृत्व ने हर ऐसे आदर्श के साथ समझौता किया है और उसकी असलियत सामने लाने की जरुरत है.


इस पार्टी की बड़ी समस्या है कि इसके पास न तो कोई विचारधारा ही है न उस पर कोई चिंतन की ही सम्भावना है और भारतीय जनमानस शायद कुछ दिनों के लिए नकारात्मक राजनीति को सह सकता है. एक सीमा के बाद लोग उससे आकर्षित नहीं होते हैं. ऐसा लगता है कि पार्टी अपने प्रारंभिक राजनैतिक प्रयोगों से बाहर नहीं निकल पा रही है और कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर जो लोकप्रियता पार्टी ने हासिल की है उसमें भारी कमी आ रही है. जानकार लोगों का कहना है कि दिल्ली में शानदार सफलता के बाद भी पार्टी की लोकप्रियता में भारी कमी आई है. पार्टी के लिए शायद अब समय है  विचारधारा पर काम करने का ताकि जिन मतदाताओं को इसने आकर्षित किया है उसे पार्टी का आधार बनाया जा सके. लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है. इसका क्या कारण हो सकता है?

इस दल में तीन तरह के लोग हैं. एक तो स्वयंसेवी संस्थाओं में काम करनेवाले लोग हैं जिनके बारे में यह कहना गलत नहीं होगा कि उनमें बाहरी तौर पर तो जनतांत्रिक मूल्यों की खूब बातें होती हैं, लकिन  अन्दर प्रजातान्त्रिक मूल्यों की रोज बली चढ़ती है. इसलिए तथाकथित सिविल सोसाइटी के महानुभावों में लोगों को संगठित करने की क्षमता यदि होती भी है तो ज्यादा समय तक उन्हें आन्दोलन के मूड में बांधे रहना आसान नहीं होता है. यही कारण कि इस  वर्ग के लोगों में विचारधारा की राजनीति को लेकर एक विकर्षण है.   

दूसरे तरह के लोग हैं जो समाजवादी आंदोलनों से आये हैं. कुछ शीर्ष के नतृत्व में पुराने समाजवादियों के होने से बड़े पैमाने पर देश भर के समाजवादी आम आदमी पार्टी से जुड़ते चले गए. लेकिन समाजवादियों में संगठनात्मक या वैचारिक स्तर पर कुछ नया सोच पाने की कितनी क्षमता है, कहना कठिन है. उनका पहले का रिकार्ड भी कुछ अच्छा नहीं है. इसलिए राजनैतिक दल के रूप में लोगों की इन पर कोई खास आस्था नहीं है. इनके लिए आम आदमी पार्टी एक ऐसा मौका था जिसके माध्यम से राजनीति में फिर से अपना  पैर जमा सकने की इनकी चाहत को पूरा करने का मौक़ा मिल सकता था. लेकिन समस्या यह है कि पार्टी में बड़े समाजवादी नेता भी विचारधारा को अभाव को विचारधारा की समाप्ति का तर्क देकर सही ठहराते रहे.

तीसरे तरह के लोग हैं जिन्हें न तो राजनीति का ही कोई अनुभव है और न ही स्वयं सेवी संस्था का; मिडिया कर्मीमध्यम वर्गीय लोग और चुके हुए प्राध्यापक या वकील आदि-आदि. इनमें से कई लोगों ने अपने क्षेत्र में नाम तो कमाया है लेकिन उसे राजिनीति के लिए सफलता की कुंजी मानना बड़ी भूल हो सकती है और उनमें विचारधारा को लेकर न तो कोई सोच है और न ही उसकी संभावना.

इन तीनों तरह के लोगों में हो रही खींच तान को आप आसानी से आम आदमी पार्टी की गतिविधियों में देख सकते हैं. और यही कारण है कि उनके लिए किसी  तरह के विचारधारा की बात करनी मुश्किल है. कुछ समय तक तो लोगों ने इस पार्टी के कुछ नेताओं की बात पर यकीन कर लिया था कि शायद यह नयी राजनीति की शुरुआत है जिसमें विचारधारा की जरुरत नहीं है. लेकिन अब इस पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा है. और इसके आभाव में पार्टी की छवि केवल एक ऐसे लोगों के समूह के रूप में बन रही है जो राजनीति में फ्री लांसर हैं.

आम आदमी पार्टी की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन इन संभावनाओं को सफलताओं में बदलना आसान भी नहीं है. यहाँ न केवल विचारधारा के अभाव का संकट  है बल्कि पार्टी स्वाभाव का भी संकट है. यानि पार्टी के संगठनात्मक ढांचा, कार्यक्रम, आतंरिक जनतंत्र, लगभग हर क्षेत्र में पार्टी का रिपोर्ट कार्ड के सुधारने  की जरुरत है. स्वराज और गांधीवादी नेता अन्ना हजारे से जुड़ने पर गाँधी के विरासत का लाभ उठा पाना तभी संभव है जब गाँधी के संगठनात्मक मूल्यों को भी अपनाया जाये. यह तभी हो सकता है जब पार्टी लगातार संघर्ष का रास्ता अपना सके. सत्ता के करीब आते ही त्याग की जगह सत्ता लोलुपता ले लेती है और फिर नेतृत्व का  संकट दिखने लगता है.

इस संकट से बचने के लिए नेतृत्व को न केवल नैतिक मूल्यों पर टिके रहने की जरुरत है बल्कि समर्थकों के बीच भी लगातार उसका संचार करने का प्रयास करने की आवश्यकता है. पार्टी में नैतिक मूल्यों की जगह सत्ता के समीप हो पाने की संस्कृति पनपती जा रही है. इसका प्रमाण यह है कि हर नेता पार्टी में अपनी जगह को लेकर चिंतित है और सही जगह नहीं मिलने की आशंका में दूसरी पार्टी के साथ रिश्ता बनाने की सोच रखता है. इस बात का पुख्ता सबूत तो शायद देना संभव नहीं है. लेकिन जो खबर गर्म है उसके अनुसार कुछ शीर्ष नेतृत्व का झुकाव कांग्रेस की तरफ है तो कुछ का भारतीय जनता पार्टी की तरफ. दिल्ली चुनाव के पहले ही पार्टी का संकट स्पष्ट होने लगा था. नैतिकता का जामा उतरना शुरू हो गया था.


इन  बातों से निजात पाने के लिए पार्टी को अपने संगठनात्मक ढाँचे पर काम करना होगा. समझना यह होगा कि पार्टी और स्वयं सेवी संस्था के ढाँचे में बहुत अंतर होता है. पार्टी में ऊर्जा संचार की जरुरत होती है और इसके लिए लगातार कार्यक्रमों का सिलसिला बनाये रखना होता है. संगठन की जरूरत केवल चुनाव लड़ने के लिए नहीं होती है बल्कि इस उर्जा के संचार के लिए होती है ताकि चुनाव के समय उसका उपयोग हो सके. व्यक्ति केन्द्रित नेतृत्व में इस बात की संभावना कम है कि ऐसे संगठन का निर्माण कर सके. क्योंकि राजनीतिक संगठन की अपनी गति होती है और कई बार उसके शुरू करने वाले ही हाशिये पर चले जाते हैं.  सवाल है कि क्या आम आदमी पार्टी इसके लिए तैयार है.

नेतृत्व की जो लड़ाई पार्टी में चल रही है क्या उसके पीछे वैचारिक मतभेद है या फिर व्यकिगत वर्चश्व की लड़ाई है. इतना तो निश्चित  है कि इस लड़ाई के पीछे समाजवादी राजनीति और स्वयंसेवी संस्था की राजनीति का अंतर है. लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं का यह भी मानना है कि इस व्यक्तिव की लड़ाई भी है. शायद केजरीवाल की लोकप्रियता ने उनके नेतृत्व के खिलाफ आवाज को फिलहाल तो दबा दिया, लेकिन आनेवाले समय में भी ऐसा ही होगा कोई जरूरी नहीं है. पार्टी के केजरीवाल समर्थक द्वयं दर्जे के नेता, जिनका अपना कोई जनाआधार नहीं है, समाजवादी घटक से घबडाते हैं. उनकी समस्या यह कि केजरीवाल यदि हाशिये पर गए तो उनका साफ़ होना तय है. मजे की बात यह है कि जब केजरीवाल और उनके लेफ्टिनेंट अपने आप को दिल्ली जीतने में व्यस्त रखा था समाजवादी घटक लगातार दिल्ली के बाहर पार्टी का आधार बनाने में लगे थे. अब केजरीवाल के लिए धर्म संकट है. यदि दिल्ली के बाहर विस्तार करते हैं तो समाजवादीयों का उसमें बोलबाला होगा. यदि ऐसा नहीं करते हैं तो पार्टी केवल एक क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह जाएगी. समाजवादियों का संकट यह है कि उनकी राजनीति पहले ही चुक गयी है. बिना केजरीवाल के उनका कोई ख़ास महत्व रह पायेगा कहना कठिन है.

कुल मिलाकर, जिस तरह की उम्मीद इस आन्दोलन से की गई थी लगता हा उसका अंत आ गया है. सवाल है कि क्या राजनैतिक परिवर्तन की जो आंधी दुनियां भर में उठी थी, सबका यही अंत होगा; पूंजी के आधार स्तंभों के विरोध में जो गोलबंदी होनी शुरू हुई थी उन सबका  यही हाल होगा.  आन्दोलन का पार्टी में बदल जाना इस बात का प्रमाण है कि जनतंत्र में बिना पार्टी के सत्ता के करीब पहुंचना मुश्किल है. लेकिन पार्टी बनते ही आन्दोलन उस तंत्र का हिस्सा बन जाती है जिसमें से जनहित ही गायब हो जाता है. शायद हमें इस प्रयोग के असफल होने के बाद कोई और प्रयोग की उम्मीद करनी चाहिए. लेकिन ऐसे किसी विल्कप की एक शर्त यह भी  है कि उसे अविश्वास की राजनीति की जगह विश्वास की राजनीति की तैयारी करनी होगी. संवाद के नए सूत्र तलाशने होंगे. 


                                  (सबलोग के अप्रैल 2015 से साभार)

   
                                    मणीन्द्र नाथ ठाकुर 
                                                  लेखक समाजशास्त्री                                            और जेएनयू में प्राध्यापक हैं.
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