29 April 2015

पार्टी, विचारधारा और संगठन





   पार्टी, विचारधारा और संगठन  

                              शंकर शरण 
                   



विचारधारा के नाम पर आम आदमी पार्टी या अरविन्द केजरीवाल की छीछालेदर दो कारणों से ठीक नहीं लगती। एक तो इसलिए क्योंकि आम आदमी पार्टी किसी विचारधारा के नाम पर नहीं बनी थी। वह नये प्रकार की शैली और जमीनी एक्टिविज्म के नाम पर बनी थी। उस में शुरू से ही कई तरह के विचारों वालेलोग रहे हैं। हाँ, यह जरूर है कि उस में ऐसे लोग  प्रमुख रहे हैं जो विचारधारा वाले हैं। जैसे, योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, एडमिरल रामदास, आदि। इन लोगों की विचारधारा को आम आदमी की विचारधारा मान कर चलना ठीक नहीं, क्योंकि इस पार्टी ने ऐसी कोई घोषणाएँ नहीं की हैं। किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण कुछ और है,

जिस पर अधिक गम्भीरता से विचार करना चाहिए। वह यह कि विचारधारा केंद्रित राजनीति अपने आप में कोई अच्छी चीज नहीं। उलटे, पूरी दुनिया का अनुभव है कि ऐसी राजनीति आम तौर पर हानिकारक, संकीर्ण, जिद्दी,
अन्यायी और तानाशाही होती रही है। अभी ताजा उदाहरण आईसिस  ( इस्लामिक स्टेट आॅपफ सीरिया एंड ईराक  )  है। जिन्हें भ्रम है कि सीरिया, ईराक या नाइजीरिया में कहर बरपाने वाला आईसिस या
बोको हराम किन्हीं पागलों, सिरफिरों का कारनामा है,  वे हाल में प्रकाशित येल विश्वविद्यालय के प्रो । ग्रेइम वुड का विस्तृत शोध-पत्र ‘ह्वाट आईसिस रियली वान्ट्स’ ( द आटलांटिक, मार्च 2015 )  अवश्य पढ़ लें। वे
जानकर चकित होंगे कि सैकडों निरीह लोगों का सिर कलम करने वाले आईसिस नेता बड़े संजीदे, आदर्शवादी और इस्लाम के गम्भीर जानकार हैं। वे वस्तुतः एक विचारधारा की राजनीति ही निष्ठापूर्वक कर रहे हैं।
विचारधारा का मोल दो कौड़ी-  इसलिए, यह बहुत बड़ा भ्रम है कि विचारधारा कोई अच्छी चीज है। सच तो यह है कि विचारधारा अपनी परिभाषा से ही एक बँधी हुई चीज है। जो अपनी कुछ मान्यताओं को ऐसी पवित्र  बुनियाद मान बैठती है कि  फिर  इस के प्रतिकूल पड़ने वाली हर सचाई को ठुकराना उसकी लाचारी बन जाती है। शब्दसचाई पर ध्यान दें। सचाई और विचारधारा दो प्रवर्ग हैं। दोनों पर्यायवाची नहीं है। अर्थात, किन्ही बिन्दुओं पर सचाई और विचारधारा विपरीत हो सकती है। उसी प्रकार, नैतिकता और विचारधारा भी पर्याय नहीं हैं। इसीलिए कोई भी विचारधारा सचाई और नैतिकता की समय-समय पर उपेक्षा करती रह सकती है। विचारधारा-ग्रस्त आदमी सचाई या नैतिकता को छोटी चीज मानकर अपनी विचारधारा पकड़े रहता है। यही सारी आफत की जड़ हो जाती है। आईसिस मूलतः वैसी ही मानसिकता से ग्रस्त है जिससे माओ और स्तालिन भीग्रस्त थे। सचाई और नैतिकता के बदले अपनी विचारधारा को सर्वोच्च मार्गदर्शक मानना। आईसिस इस्लाम को मानता है, स्तालिन लेनिनवाद को मानता था। इस प्रकार, विचारधारा एक बेड़ी है। विचार स्वतन्त्रा हो सकते हैं, उन्मुक्त हो सकते हैं। किन्तु जैसे ही कुछ विशिष्ट विचारों को जोड़कर एक विचारधारा बना ली जाए, वैसे ही यह स्वतः बँध जाती है। यही विचारधारा-ग्रस्त लोगों को संकीर्ण, कट्टर, मतिहीन, यहाँ तक कि हिंसक भी बनाने लगती है। ऐसे लोगों में महात्मा गाँधी को भी गिना जा सकता है।
जिन्होंने अहिंसा को अपनी विचारधारा बनाकर भयंकर नरसंहारों को चुप-चाप स्वीकार कर लिया, और पीडि़तों को उपदेश दिया कि वे ‘अहिंसा के पुजारी’ बनकर मारे जाएँ। इसे समझने की कोशिश करें, कि यह विचारधारा
की कैद के कारण हुआ। विचारधारा की बेड़ी से मुक्त नेता यही कहता कि अपनी रक्षा के
लिए हथियार उठाओ, और आक्रमणकारियों को मार डालो। मगर गाँधीजी ऐसा कह ही नहीं सकते थे। क्योंकि वे अपनी अहिंसा  विचारधारा के बन्दी हो गये थे। बात यह है कि विचारधारा-ग्रस्त लोगों की दृष्टि  संकीर्ण हो जाती है। आम आदमी पार्टी में भी यादव, भूषण और रामदास ऐसे ही लोग है। वे सारी तिकड़में सदैव किसी
स्वार्थवश नहीं करते। बल्कि इसलिए भी करते हैं कि उन्हें लगता है कि उनकी विचारधारा
की यह माँग है। उदाहरणार्थ, यादव और भूषण कश्मीर में भारतीय सेना को ‘ओक्कूपेश आर्मी’
( विदेशी अतिक्रमणकारीद्ध ) मानते हैं। यह विचारधारा-ग्रस्त है, जो सचाई नहीं झेल सकती। क्योंकि उस तर्क से हैदराबाद, पटियाला, जूनागढ़, त्रावणकोर, भोपाल, ग्वालियर, आदि जगहों पर भी भारतीय सेना विदेशी कहलाएगी। क्योंकि जिस नियम, पद्धति दित  से जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ में सम्मिलित हुआ था, ठीक उसी
से सभी भारतीय राज्य-रजवाड़े हुए थे। अतः यदि यादव, भूषण के लिए कश्मीर में भारतीय
सेना ‘बाहरी कब्जावर’ है, तो वह लगभग सभी प्रान्तों में भी वही है।
पिफर दूसरी समस्या उठती है। इस ‘भारतीय’सेना के सैनिक, संचालक और आदेशकर्ता
किस देश के हैं? तब ‘भारत’ का ही कोई अर्थ समझ में नहीं आएगा। सभी प्रान्तों के
लोग भारतीय सेना के संचालक, कमांडर और राज्य-नीति तय करते रहे हैं। भारतीय राज्यतन्त्रा
में कश्मीरी भी गृह मन्त्राी, विदेश मन्त्राी, आदि महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। लेकिन विचारधारा 
ग्रस्त, विशेषकर वामपन्थी लोगों को यह सब सोचने-विचारने की जरूरत नहीं होती। उन्हें
अपनी झक का ऐसा अहंकार रहता है कि वे उसे रटते रहने में ही सन्तुष्ट रहते हैं।
इसीलिए किसी पार्टी में विचारधारा का होना उसकी दुर्बलता है, योग्यता नहीं। लोकतन्त्रा
में अधिक अच्छी पार्टी वह है जो सचाई, नैतिकता और देश-हित को आधार बनाए। तदनुरूप योग्य लोगों और नीतियों को बढ़ावा  दे। तभी उस में लचीलापन, खुलापन और उदारता रहती है। विचारधारा आधारित पार्टियाँ
इसके उलट प्रायः अनम्य, जिद्दी और संकीर्ण होती जाती हैं। वामपन्थी पार्टियाँ और बुद्धिजीवी इस के
प्रतिनिधि उदाहरण हैं। स्वभाव से ही सचाई और नैतिकता को पीछे, और अपने बने-बनाए
निष्कर्षों को आगे रखते हैं। ‘वर्गीय’ राजनीति उनकी बुनियादी मानसिकता है। उन में ‘हम’
और ‘वे’, ‘जनवादी’ और ‘प्रतिक्रियावादी’, ‘सेक्यूलर’ और ‘साम्प्रदायिक’, आदि प्रवर्गों में कुछ भी देखने की आदत होती है। इसीलिए कोई सत्यनिष्ठ, परिश्रमी, न्यायपूर्ण नेता भी उनके लिए घृणित है, यदि वह भाजपा या शिवसेना में है। उसी तरह, अय्याश  भ्रष्ट, निकम्मा भी उनका मित्रा या सहयोगी हो सकता है यदि वह गैर-भाजपा, गैर-काँग्रेसी है। मित्र और शत्रा का ऐसा चयन विचारधारा की बीमारी है, जो किसी मामले को ठोस
तथ्यों और न्याय पर नहीं, बल्कि किसी विचारधारा पर तोलती है। इस तरह, विचारशीलता और विचारधारा प्रायः एक-दूसरे के विरुद्ध  जा पड़ती है। योगेन्द्र यादव द्वारा तैयार करवाई गयी स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में भी विचारधारा के कारण हुई घोर हानि देखी जा सकती है। अपने कारनामे पर वे दम्भपूर्वक लिखते हैं, ‘हमने
तय किया कि हमें इससे कोई मतलब नहीं है कि राजनीति विज्ञान क्या है, अर्थशास्त्रा क्या
है और समाजशास्त्र क्या है। हमें लगता है कि बच्चा अपने इर्द-गिर्द परिवेश के बारे में जानना चाहता है और उसे जानने दिया जाए।’ इन शब्दों का भोलापन या मूढ़ता देखने लायक है। आखिर, किसी बच्चे को ‘अपना इर्द-गिर्द परिवेश’ जानने के लिए पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता ही क्या है! अपने मुहल्ले, गाँव, कस्बे को तो हर बच्चा चप्पा-चप्पा, राई-रत्ती स्वयं जानता है। फिर , मुम्बई की चाल, शिलांग के पहाड़, भुवनेश्वर के समुद्र-तट और ल्यूटन की दिल्ली, आदि विभिन्न ‘परिवेश’ को जानने के लिए एक नहीं, पचास किस्म की
अलग-अलग पुस्तकें देनी होंगी। कैसा विचित्रा अहंकार है कि अनगिन विभिन्न परिवेशों के
बच्चों को एक ही किताब देकर समझ लिया जाए कि उन्हें अपना ‘इर्द-गिर्द’ जानने में मदद
की जा रही है. मगर विचारधारा-ग्रस्त लोगों की यही सिपफत होती है। वे अपने अनुमान, घोषणाओं,
आदि को निरन्तर दुहराते हुए स्वयं अपना अन्धविश्वास सच मानने लगते हैं। सोवियत संघ का सम्पूर्ण अकादमिक, राजनीतिक वर्ग तीन पीढि़यों तक इसी रोग से ग्रस्त रहा। हमारे देश के मतवादी कुछ यही दिखाते हैं। उनकी किसी मान्यता पर प्रश्न उठाते ही उन के माथे पर बल पड़ जाते हैं, कि पूछने वाला जरूर
साम्प्रदायिक या किसी का एजेंट है. मानो किसी बड़े पदधारी लेखक-प्रचारक से किसी
मान्यता का प्रमाण माँगना उस की तौहीन करना है। विचारधारा की मारी हुई सबसे आभागी
पार्टियाँ भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ हैं। वे समय-समय पर वैचारिक मंथन करती हैं। इस
पर नहीं कि क्यों उसका नाम-लोपत  होता जा रहा है, बल्कि इस बात पर कि शत्राुओं को हराने
के लिए क्या किया जाए? यानी, अपनी विचारधारा में वे सही थीं और हैं, समस्या
केवल उन्हें लागू करने की है। विचारधारा किस तरह विचारहीनता थोप देती है, यह उसी का उदाहरण है। रूस और चीन द्वारा दशकों माक्र्सवाद-लेनिनवाद को अपना पर, व्यवहार में उसे निष्पफल, हानिकारक पाकर तौबा करने के बाद भी भारतीय कम्युनिस्ट उसी से चिपटे हैं। यही है विचारधारा-ग्रस्तता, जो सचाई को
कोई महत्त्व नहीं देती। सभी कम्युनिस्टों, वामपंथियों के विमर्श में यही समस्या है। विचारधारा या सचाई?
क्या विचारधारा सचाई से ऊँची चीज है? या कि वामपन्थी बन्धु सचाई का सामना करने की
ताब नहीं रखते? सभी वामपंथियों को अपना हृदय टटोल कर देखना चाहिए। उत्तर
अलग-अलग कामरेडों, प्रगतिशीलों, सेक्यूलरों के लिए अलग-अलग होंगे, किन्तु यह तय  है कि जब तक इस बुनियादी प्रश्न का बेलाग सामना नहीं किया जाता, यहाँ के सारे वामपन्थी मतवादी नेता, बुद्धिजीवी  उसी तरह
भटकते-भटकते लुप्त हो जाएँगे, जैसे कई देशों में हो चुके।
हैरत कि दशकों तक रूस और चीन से ‘सीखने’ की आदत रखने वाले कम्युनिस्ट अब
उन से सीखने से कतराते हैं. रूसी गोर्बाचेव येल्तसिन हों या चीनी देंग-पफेंग, सब ने झक मारकर यही पाया कि सचाई की ताकत  विचारधारा से बहुत अधिक है। जैसा महान लेखक सोल्झेनित्सिन ने अपने अनुभवों से
लिखा था, ‘सचाई का एक शब्द पूरी दुनिया पर भारी पड़ता है।’ हरेक बिन्दु पर वामपंथियों का मूल
दिग्भ्रम विचारधारा बनाम सचाई का है। दशकों के और विश्वव्यापी अनुभव से यह स्पष्ट हो
जाना चाहिए था कि स्थितियों, समस्याओं को केवल अच्छे, बुरे नए नाम दे देने से कुछ नहीं
बदलता। हम स्वयं को ही छलते हैं। मनीषियों ने समझाया है कि दुनिया आज भी उन्हीं पुराने अज्ञान, लोभ, ईष्या, कामना, अहंकार, आदि से विभाजित विखण्डित हो रही है। उसे वर्ग-संघर्ष, नस्लवाद, आत्मनिर्णय,
मानवाधिकार, जैसी पफैशनेबल संज्ञाएँ ओढ़ा देने से कुछ उपलब्ध नहीं हुआ। सचाई से इंकार की प्रवृत्ति को विचारधारा की जिद में बदल कर सिद्धांत - निष्ठा सा महिमंडित कर लिया गया। पर यह अन्तहीन छल-प्रपंच में बदलता जाता है। केवल प्रचार, दुहराव से बुद्धि को अवसन्न कर ठोक-पीट कर सही को गलत
और गलत को सही दिखाने की कोशिश करता है। कोई भोला-भाला अनुयायी या अन्धविश्वासी
कार्यकर्ता बरस-दर-बरस उसे मानता चलता है। पर सचाई की दुर्निवार शक्ति उसे समय के साथ
वस्तुस्थिति से अवगत करा देती है। तब वह उदासीन या मुक्त हो जाता है। सारी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों के अवसान की यही संक्षिप्त कथा है। लेनिन-स्तालिन-माओ की जड़-भक्ति से यह
सच ओझल नहीं हो सकता कि अच्छाई, न्याय और उपलब्धि की धारणाएँ विचारधाराओं पर
निर्भर नहीं। इसलिए लाख दलीलें दें, यह शीशे की तरह साफ हो चुका कि माक्र्सवादी तजवीजों
में रूस, चीन या बंगाल को खुशहाल बनाने की  सामथ्र्य नहीं थी। उनमें अत्यधिक नकारवाद
और असहिष्णुता है। रचनात्मकता का घोर अभाव भी। अन्यथा तीन दशक के सुदृढ़ शासन और बहुमूल्य संसाधनों के साथ पश्चिम बंगाल को अग्रणी राज्य बनाया ही जा सकता था. उसमें विफलता, किसी नेता या इस, उस गुट की नहीं, बल्कि उस विचारधारा की है जिसने माकपाइयों में घृणा, हिंसा, नकार, मिथ्याचार
और अहंकार भर दिया। उसी ने माकपा कार्यकर्ताओं को सिखाया कि जन-हित से पार्टी-हित ऊपर है। उस
विचारधारा ने यह विचित्रा बात भी सिखायी कि उद्योगपतियों से घृणा करो, उन्हें सताओ, मिटाओ।
उन्हें खत्म करके ही नया, प्रगतिशील समाज बनना आरम्भ होगा। मनमानी तोड़-पफोड़ और
हिंसा के पक्ष में यही तर्क कभी युवा ज्योति बसु ने बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर को दिया था। अब चार-पाँच दशक के अनुभव के बाद तो यह देख सकना चाहिए कि वह विचारधारात्मक अन्धविश्वास था जिसने बंगाल की दुर्गति की। वही दुर्गति पूरे देश की नहीं हुई, इस के लिए उस जनता को ही श्रेय है जिस ने काँग्रेस और
भाजपा को अधिक ठीक समझा। यहाँ अनपढ़ जनता की तुलना में वामपन्थी बुद्धिजीवी 
अधिक मूढ़ साबित हुए हैं। दरअसल, यह सब कोई अंतदृष्टि  पाने की समस्या नहीं जिससे उन्हें कठिनाई हो रही है। बल्कि जानने की इच्छा की कमी है। अन्यथा वे बखूबी समझ सकते हैं कि टाटा, बिरला , अम्बानी या अमेरिका को दिन-रात कोसने से लोग कायल क्यों नहीं होते? बात वही, सचाई की कसौटी पर आती है। इसी पर
लोग देर-सवेर वास्तविक लाभ-हानि पहचानते हैं। अथवा कभी-कभी किसी अधिक बुरे की तुलना में कम अच्छे को अवसर देते हैं। यह लोकतान्त्रिाक राजनीति की सहज प्रक्रिया है, जिसमें भाग लेते हुए भी कम्युनिस्ट इसे स्वीकार नहीं कर पाये। उनकी विचारधारा उन्हें इस लोकतन्त्रा को ही बुरा-भला कहना और पार्टी-तानाशाही को उपयुक्त समझना सिखाती रही है। वे देख कर भी नहीं देखना चाहते कि युग पलट चुका है। तानाशाहियाँ एक-एक कर धराशायी हो चुकीं। कौन जाने, हर कहीं इस्लामी संगठनों, नेताओं की अतिशय हिंसा,
उग्रता भी बुझने से पहले भभकने जैसा संकेत ही हो. कवि अज्ञेय ने लिखा था: ‘हठ-लक्ष्य से चिपटने की, या कि रास्ते से? कोई भी मार्ग छोड़ा जा सकता है, बदला जा सकता है: पथ-भ्रष्ट होना कुछ नहीं होता अगर लक्ष्य-भ्रष्ट न हुए।’ अभी समय है कि भारतीय कम्युनिस्ट अपने को देश और समाज के लिए उपयोगी बना सकें। सचाई की कीमत पर विचारधारा का हठ छोड़ कर ही यह सम्भव है। पार्टी संगठन कैसा हो जहाँ तक पार्टी संगठनों के आन्तरिक लोकतन्त्र का मुद्दा है, उस में लोकतन्त्रा के अर्थ के प्रति भ्रम झलकता है। लोकतन्त्रा केवल यही नहीं कि हर चीज किसी समिति या किसी बहुमत से तय की जाए। नहीं तो क्या अमेरिकी राष्ट्रपति
कोई तानाशाह है? वह तो सारे निर्णय स्वयं लेता  है। किसी से पूछने की उसे अनिवार्यता नहीं।
अपने सलाहकार वह स्वयं तय करता है या हटाता है। लेकिन उसे पूर्ण अधिकार देते हुए
भी देश के संविधान, न्यायपालिका, प्रेस स्वतन्त्रता पर कोई आँच नहीं आती। फिर  उसे निश्चित
अवधि का कार्यकाल मिलता है। यह भी लोकतन्त्रा है। इसीलिए अरविन्द केजरीवाल की आलोचना
सही नहीं है। उन्होंने लोगों का विश्वास जीता है, किसी और ने नहीं। अतः उन्हें अपने सहयोगी को रखने, हटाने का पूरा अधिकार अपने हाथ रखने में कोई तानाशाही या गलती नहीं मानी जा सकती। योगेन्द्र यादव या प्रशान्त भूषण को कुछ कर के दिखाना अभी शेष है। समस्या यह भी है कि अधिकांश राजनीतिक दलों के सांगठनिक नियम प्रायः पाखंडी हैं। इनके लिखित संविधान, तदनुरूप ‘पार्टी समिति’
के कार्य-अधिकार एक चीज हैं, वास्तविकता कुछ अलग। सभी पार्टियाँ वस्तुतः अध्यक्षीय
रूप से चलती हैं। किन्तु कागज पर अधिकांश ने तरह-तरह की सामूहिक व्यवस्था बना रखी
है। सब जानते हैं कि पार्टी के गम्भीर निर्णय सोनिया जी या अमित जी, मुलायम जी, लालू जी, अरविन्द जी, आदि करेंगे। लेकिन दिखावा रहता है कि पार्टी के ‘संसदीय बोर्ड’ या ‘कार्यकारिणी’, ‘चुनाव समिति’ आदि ने वह किया।
यह पाखंड उस समस्या की जड़ में है, जिस से आम आदमी पार्टी अभी जूझ रही है। हर चीज समिति से तय होना जरूरी नहीं। एक बार समिति द्वारा किसी को चार साल या पाँच साल के लिए सर्वोच्च पद पर नियुक्त करना,
फिर  उसे निर्बाध अधिकार देना भी लोकतान्त्रिक ही है। बल्कि उस से कई लाभ भी होते हैं। प्रथम, निर्णय लेने वाले को उत्तरदायी होना पड़ता है। वह हानिकारक निर्णय लेकर भी जबावदेही से बच नहीं सकता। दूसरे, इस
पध्दित  से निर्णय में समुचित सोच-विचार जरूरी हो जाता है। क्योंकि किसी की जिम्मेदारी तय रहती है। तीसरे, नेतृत्व-चयन का मान्य पैमाना रहता है। लेकिन ऐसे खुले, व्यक्ति-केन्द्रित, उत्तरदायी संगठन व्यवस्था के बदले नकली समिति व्यवस्था पाखण्ड, भ्रम और उत्तरदायित्वहीनता को बढ़ावा देती है। आखिर दिल्ली विधान सभा चुनाव में भाजपा का मुखियेमंत्री  उम्मीदवार  किस ने तय किया? दिल्ली प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष की नियुक्ति किस आधार पर हुई? इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। क्योंकि सागंठनिक नियम हाथी के दाँत की तरह खाने के और, दिखाने के और हैं। यही हमारे राजनीतिक दलों की सांगठनिक समस्या की जड़ है। पार्टी में प्रतिद्वन्दी नेताओं के दिल जलते रहते हैं। वे आपस में तने रहते हैं। क्योंकि कोई कसौटी नहीं जिस से तय हो
कि कौन किस पद का अधिकारी है अथवा नहीं है। इनमें ऐसे भी हैं जो वास्तव में पार्टी या देश के लिए कुछ करना चाहते हैं किन्तु दोषपूर्ण सांगठनिक  उन्हें सही स्थान नहीं लेने देती। इसके विपरीत, कई चुके हुए नेता जिनमें उतनी योग्यता या हौसला नहीं, इस या उस पद को घेरे रहते हैं। क्योंकि उन पर अदृश्य
वरदहस्त है। सामूहिकतावादी पाखण्ड से सबसे बड़ी हानि यह होती है कि पार्टी में नये, योग्य और
आदर्शवादी व्यक्तियों के आगे आने की गुंजाइश घट जाती है जो कोई सही योजना बना और
लागू कर देश की कुछ सेवा कर सकते थे। क्योंकि जिन स्थानों पर किसी कर्मठ को होना चाहिए, वहाँ अयोग्य या चापलूस जमे रहते हैं। अथवा वैसे जरदगव जिनका सक्रिय काल बीत चुका। पर उन्हें ‘पिछले’ कामों के ईनाम स्वरूप जीवनपर्यंत किसी पद, राज्य-सभा या राज-भवन में रखा जाता है।
दर्जनों ऐसे सासंद रहे हैं, जो चल-पिफर या सोच-विचार तक करने की स्थिति में नहीं थे। टीवी पर उन्हें देख कर करुणा उपजती थी।  पिफर भी वे रिटायर नहीं होते! यह देश के संसाधनों की बर्बादी ही नहीं, योग्य लोगों को
राष्ट्रीय काम से बाहर रख कर अधिक बड़ी हानि करना है। क्या देश की सर्वोच्च संस्थाओं-संसद, विधान सभा-का काम इतना उपेक्षणीय है कि वहाँ जिस किसी बीमार या चापलूस को भेज दिया जाए? यह बन्द होना
चाहिए। जहाँ पहुँच कर कोई मेधावी, लगनशील और सक्रिय व्यक्ति देश का भला कर सकता है, वहाँ व्यर्थ, लाचार या मतलबियों को नियुक्त करना पाप है। चुके लोगों को पिछली सेवाओं का ईनाम किसी और तरह दिया जाना चाहिए। जिम्मेदारी के पदों को पुरस्कार मात्रा समझने की प्रथा अविलम्ब समाप्त होनी चाहिए।
इसी से हर तरह की राजनीतिक बीमारियाँ  फैली हैं। हर तरह के अयोग्य, गन्दे लोग संसद से लेकर सरकार के सबसे महत्वपूर्ण  पदों की ओर आँख लगाए बैठे रहते हैं। क्योंकि गाँधी-नेहरू परम्परा ने पदों के अधिकारी होने का आधार योग्यता नहीं, वपफादारी या  चापलूसी मात्रा बना दिया है। यह रोग सभी राजनीतिक दलों में घर
कर गया है। सभी दलों के बड़े नेता ऐसे ‘वपफादारों’ को ही प्रश्रय देते हैं, जो सदैव योग्य नहीं होते। मगर इसकी व्यवस्था कर लेते हैं कि महत्त्वपूर्ण पार्टी समितियों में बने रहें और नेता के हाथ मजबूत करें। यह समितियाँ नेता को मजबूत तो करती हैं, किन्तु उसे अपने कामों और निर्णयों के लिए उत्तरदायी नहीं बनातीं।
यदि पार्टियों और सरकार में भी खुली अध्यक्षीय प्रणाली अपना ली जाए तो
उत्तरदायित्वपूर्ण शासन के लिए अच्छा रहेगा। तब सर्वोच्च से लेकर हर कार्य का जिम्मेदार
कोई व्यक्ति विशेष होगा। तब जो व्यक्ति निर्णय करेगा, उसके परिणामों का उसे ही पुरस्कार
या दंड मिलेगा। वैसी अवस्था में अध्यक्ष को सोच-समझ कर अपने सहयोगी चुनने होंगे,
क्योंकि तब सहयोगी के कार्य की जिम्मेदारी भी अन्ततः उसी की योग्यता या अयोग्यता दर्शाएगी।
अतः राजनीतिक दलों में प्रचलित अदृश्य ‘हाई कमान’, यानी परोक्ष अध्यक्षीय प्रणाली, को प्रत्यक्ष बना देना ही उस समस्या का समाधान है, जिस से अभी आम आदमी पार्टी जूझ रही है। किन्तु यह अन्य दलों की भी
समस्या है। जो नेता चुक गया, अस्वीकृत हो गया, या कोई बड़ी गलती कर बैठा, उसे रिटायरमेंट में जाना ही चाहिए। इसी में देश का और उसका भी सम्मान है। राजनीति में नयी प्रतिभाओं के आते रहने का मार्ग भी तभी
खुलेगा। जैसा, अमेरिका, यूरोप में है। वहाँ किसी की बड़ी गलती या हार के बाद उसके राजनीति में रहने की परम्परा नहीं है। पार्टी में घोषित अध्यक्षीय प्रणाली से यह भी लाभ होगा कि नेताओं की आपसी प्रतिस्पर्धा
को न्यायोचित मार्ग मिल जाएगा। यदि प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों
ने किसी को अधिक पसन्द कर लिया तब दूसरे प्रतिद्वन्दी की महत्त्वाकांक्षा भी शान्त हो रचनात्मक
होने में लगेगी। तब वे पुनः मिल कर काम कर  सकेंगे या कोई दूसरा कार्य करेंगे। उनकी
योग्यता मुँह फुलाए समय बर्बाद करने से हटकर कुछ न कुछ उपयोगी कर सकने में लगेगी।
अमेरिकीयों से हमें कुछ अच्छा भी सीखना चाहिए।





                                                          
                                                                          शंकर शरण 
                                             लेखक राजनीतिशास्त्र  के प्रोफेसर है .
                                                               +919911035650


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