28 April 2015

साइकिल चिन्तन


साइकिल चिन्तन

विजय कुमार 


सड़क पर तरह-तरह के वाहनों की एक
सामूहिक गति होती है.अक्सर खौफनाक और
हिंसक गति। अन्धाधुन्ध गति और रेल-पेल के
बीच एक मिनट के लिए किसी साइकिल
सवार पर नजर डालिए। क्या ऐसा नहीं लगता
कि सड़क पर सामूहिक गति के समानान्तर
एक वैयक्तिक गति भी है? गति की यह त्वरा
संवेदना, बुद्धि  और तर्क की ताकत से चालित
है। हर साइकिल सवार राह के अवरोधों के
साथ बड़ी जल्दी अपना सामंजस्य बिठा लेता
है। उसमें एक गजब का लचीलापन है। गति
उस पर भूत की तरह सवार नहीं है। साइकिल
सवार की अपनी इच्छा कभी उसका दामन
नहीं छोड़ती।
बड़े शहरों में संवेदना, बुद्धि  और तर्क केसाथ रफ्रतार का तालमेल बिठाते ये लोग कौनहै? काले शीशों वाली सरपट दौडती घमंडी कारों के बीच  जब भी कोई साइकिल सवार दिखाई पड़ता है तो वह या तो हैंडिल पर सब्जी का झोला लटकाये घर आता कोई मजदूर होता है या छोटे-छोटे मासूम स्कूली
बच्चे अथवा दूध के हंडे वाले, अण्डे और पावरोटी वाले, डाकिये, परचूनिये, पफेरीवाले अखबार वाले और इस तरह तमाम लोग। 
सभ्यता के इतिहास में पहिये के आविष्कार
के बाद साइकिल शायद सबसे अधिक रूमानी सवारी रही है। सड़क पर तमाम तरह के वाहनों की भीड़ में साइकिल अहिंसक वाहन है।  उसकी धीमी रफ्रतार में एक तरह की मानवीयता रची बसी है। यह एक ऐसा वाहन है जो पैदल राह चलते आदमी के साथ दोस्ताना ताल्लुक रखता है। साइकिल सवार अमूमन एक उत्पफुल्ल, उन्मुक्त और धीरज से भरा इंसान होता है। वह रफ्रतार की जरूरत तथा उसकी व्यर्थता दोनों
को जानता है। साइकिल सवार एक पैदल आदमी के कन्धे पर हाथ रखे आराम से गपियाते चल सकता है। सड़कों पर साइकिल सवार और पैदल आदमी की यह जुगलबन्दी हमेशा संगीत की लय से भरी लगती है। उसमें एक भरोसा है, एक मासूमियत है, एक कविता है, सड़क और आदमी के सम्बन्धों की उष्मा
और एक मधुर मिलन है। 
दूर से साइकिल पर लहराते आते किसी अलमस्त किशोर को देखकर क्या आप सहसा ठिठककर खड़े नहीं हो गये हैं ? वह पल जब आप अपनी जगह पर खड़े हैं, वह मुस्कराता,
गाता हुआ सर्र से बगल से निकल जाता है। एक पल सिर झुका कर सड़क को देखता है,
दूसरे पल सामने, तीसरे पल दायें, चैथे पल बायें। आगे जाकर वह क्षण भर पीछे मुड़कर भी देखता है और आपको अपनी ओर लगातार  ताकता हुआ पाकर पलभर शर्माता है। साइकिल कभी इस तरपफ झुकती है कभी उस तरपफ। उसकी जुल्फें हवा में लहराती हैं और उसकी कमीज किसी फूले हुए गुब्बारे की तरह है।
हवा उसके चारों तरपफ ही नहीं उसके समूचे बदन में भी भरी हुई है। गति लेने उसकी पीठ धनुष की तरह झुकती है और अगले पल गर्व से अकड़ जाती है। उसके कूल्हे सीट के कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ। उसकी पिंडलियाँ  धुली हुई पीतल की कटोरियों की तरह दूर तक चमकती जाती हैं। और इस सबके साथ हवा
में तैरती चली जाती है उसके कण्ठ से फूटी एक दिलकश स्वर रागिनी-‘है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आयेगा’। 
सड़क पर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं पर दो साइकिल सवारों की टक्कर कभी भी दुर्घटना शब्द के दायरे में नहीं आती। दो साइकिल सवार टकराते हैं, गिरते हैं, धूल झाड़ते हैं, मुस्कराते हैं और विपरीत दिशाओं में चले जाते हैं। भीड़ के बीच से साइकिल गुजरती है और भीड़ का हिस्सा बनी रहती है। गति और ठहराव का ऐसा द्वन्द्वात्मक रिश्ता आदमी को इंसान बनाता है। यहाँ यन्त्र आदमी से बड़ा नहीं है। आदमी जब
चाहे इस यन्त्र से उतर कर राहगीर बन जाता है। जब साइकिल सवार पैदल चलता है तब यन्त्र एक आज्ञाकारी बालक की तरह सिर झुकाये उसके साथ साथ चलता है। जिन साइकिलों में ब्रेक नहीं होते वे भी बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं करतीं। ब्रेक लगाने से पहले आदमी घंटी बजाता है  जिसकी आवाज मधुर होती है। साइकिल सबसे ज्यादा आत्मनिर्भर वाहन  है। इसकी वजह से आदमी को तेल के कुएँ नहीं खोदने पड़े, हवा में प्रदूषण नहीं फैला,
राह बनाने के लिए पेड़ नहीं काटे गये, पहाड़ों  का सीना नहीं रौंदा गया। साइकिलों ने पहियों में ठीक-ठाक हवा, पुर्जों में थोड़ा सा तेल,  बैठने लायक सीट और एक काम चलाऊ घण्टी के अलावा आदमी से कभी कुछ नहीं
माँगा। वे गउएँ चुपचाप कहीं भी खड़ी हो जाती हैं। अपनी अद्वितीयता के प्रमाण के लिए वे नंबर प्लेट भी नहीं चाहतीं 
पिछली सदी में जिन दूरियों को साइकिलों ने नापा उनमें एक बीता हुआ युग छिपा है। जीवन सरल था, ज्यादा पेचीदगियाँ नहीं थीं, दूरियाँ कम थीं। इस छोटी सी दुनिया में हर कोई हर किसी से परिचित था। जब दूरियाँ कम थीं तो वक्त ज्यादा था ,रफ्रतार से आदमी की जिन्दगी का अलग तरह का रिश्ता था।
उसके अनुभव अलग थे। जिन दूरियों को आदमी ने तय किया उनमें मुकाम ही सबकुछ नहीं था, राहों की भी अहमियत थी।


साइकिल सवार तार सप्तक गाता हुआ राहों का अन्वेषी था। रास्ता चलते कुछ दुआ सलाम होती रहती थी, खैरियत का लेन-देन होता था। पहुँचने की फ़िक्र  थी तो राह की तसल्ली भी थी.एक मंथर गति और एक अलमस्त चाल। साइकिल चिकनी सपाट सड़कों पर चली तो धूल भरी पगडंडियों, बीहड़ रास्तों और खाई
खन्दकों में भी निर्विकार रही। बन्धी लीक छोड़ आदमी जब भी कच्चे रास्ते पर उतरा 
साइकिल उसके साथ थी। जब भी एक दोस्त ने दूसरे दोस्त को अपनी साइकिल पर बिठाया तो उसमें एक शरीर का भार खींचने की
उदारता थी। प्रेमी-प्रेमिका के बीच साइकिल ने अन्तरंगता के अनिर्वचनीय क्षण जुटाये। भाप
के इंजन की सीटी हमारी नींद में गूंजती रही और साइकिल की घंटी किसी खोये हुए सुख की धुन बजाती रही। जाॅर्ज बेर्नार्ड शाॅ ने साइकिल को एक साहित्यिक आदमी की पूँजी कहा था। पूँजी यानी अनुभवों का कच्चा माल।
वे स्वयं लंदन के पार्कों में साइकिल चलाते अक्सर दिखाई पड़ते थे।

भारत में बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध में लिखे कथा साहित्य में जगह-जगह साइकिल दिखाई देती है। यह शोध का विषय है कि प्रेमचन्द की कौन कौन सी कहानियों में साइकिल के दर्शन होते हैं। इन कहानियों में
जब साइकिल पर कोई पात्रा आ रहा होता है या जा रहा होता है तो वहाँ कौन-सी परिस्थितियाँ
चित्रित हो रही होती हैं? कौन से लोग इन साइकिलों पर चलते दिखाई देते हैं? सरकारी वकील, दफ्रतर के बड़े बाबू, कस्बे के डाॅक्टर, कालेज के हाॅस्टल में रहने वाला कोई नवयुवक या पुलिस का दरोगा।
आज भी बार बार देखी जाने योग्य उन पुरानी लोकप्रिय श्वेत-श्याम फिल्मो  में कुंदनलाल सहगल, अशोक कुमार, करण दीवान, शेख मुख्तार, जयन्त, बलराज साहनी, देवानन्द, अजित, राजकपूर, दिलीप कुमार, सुनील दत्त जब तब साइकिलों पर चढ़े दिखाई देते हैं। टिफिन  बाॅक्स साइकिल के हैंडल पर लटकाये
हुए ये सीधे साधे पर अलमस्त लोग हैं-अपनी सीमित सी जिन्दगी में खुशहाल। नर्गिस, नूतन
और आशा पारिख जब साइकिल चलाती दिखती हैं तो वहाँ नये जमाने की एक पढ़ी लिखी आजाद ख्याल लड़की का बिम्ब उभरता है। चार्ली चैपलिन की फिल्मो मे साइकिल  से जुड़े अनेक करूण-हास्य के प्रसंग हमारी यादों में हैं। यूरोप के सिनेमा में नवयथार्थवादी आन्दोलन को शुरू करने वाले मशहूर इतालवी
निर्देशक डि सिका की उस महान फिल्म ‘बाइसिकिल थीपफ’ को भला कौन भूल सकता
है? युद्ध से पहले के मन्दी के वे दिन जब फिल्म  का नायक अपने बच्चे को साइकिल
पर बिठाये काम खोजने जाता दिखाई है। बाद में उसकी भयावह बेकारी और परेशानी का
वह समय। उसे थोड़े से पैसों के लिए अपनी साइकिल बेचनी पड़ती है। और एक दिन
किसी और की साइकिल चुराने पर वह पकड़ा जाता है और उसकी समूची जिन्दगी बदल
जाती है। एक गहरी तकलीपफ की असाधारण फिल्म ‘बाइसिकिल थीपफ’।

19 वीं सदी जब समाप्त हो रही थी तो तोलस्ताॅय ने सड़सठ साल की पकी उम्र में
साइकिल चलाना सीखा था। काले चोगे में एक भव्य बूढ़े को साइलकिल पर सवार देख
उनकी इस्टेट के एक किसान ने कहा कि ‘तोलस्ताॅय ईसाई भी हैं और साइकिल भी
चलाते हैं , ये दोनों बातें एक साथ कैसे सम्भव हैं’ एल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने बेटे से कहा था
कि ‘जीवन साइकिल चलाने की तरह है। अ ना सन्तुलन बनाए रखने के लिए आपको
लगातार चलते रहना होता है। पर आज मन उदास है। इक्कीसवीँ सदी के इन वर्षों में धीमी और इत्मीनान वाली रफ्रतार का जमाना बीता हुआ जमाना माना जा रहा है। कुछ दिन पहले हमारे मोहल्ले में
जुम्मन मियाँ की साइकिल की पुरानी दूकान बिक गयी। वहाँ अब एक ब्यूटी पार्लर खुला
है। कभी-कभी किसी सूनी सड़क पर देर रात  जब कोई तनहा साइकिल सवार दिखता है तो
मुझे चेखव की किसी कहानी की याद आती है।

                                     
                                                                   विजय कुमार
                                                                +919820370825
                               लेखक हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक है .




No comments:

Post a Comment