14 April 2015

आम आदमी पार्टी का संकट



आम आदमी पार्टी का संकट


मणीन्द्र नाथ ठाकुर


आम आदमी पार्टी के आतंरिक कलह से जितना पार्टी के लोग परेशान हैं उससे ज्यादा आम लोग दुखी  और हैरान  हैं. इस प्रयोग पर लोगों का बड़ा भरोषा बना था. आज के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक संकट के समय सबकुछ धीरे-धीरे बदलने का कुछ-कुछ एहसास लोगों को होने लगा था. अचानक पार्टी की पोल खुलने लगी. सबकुछ पिघलने लगा. यह सब एक हादसा जैसा हुआ. दुनियां भर के लोग इस प्रयोग को गौर से देख रहे थे, क्योंकि भारत का यह प्रयोग विश्वव्यापी परिवर्तनकामी राजनीति के लिए एक उदाहरण सा माना जाने लगा था. दुनियां भर के लोग वर्तमान व्यवस्था से दुखी होकर सड़क पर   उतर रहे हैं. सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद से निकलने का कोई रास्ता लोगों को दिख नहीं रहा है. ऐसे में हर छोटा-बड़ा राजनैतिक प्रयोग आनेवाले समय के लिए महत्वपूर्ण है.

अन्ना आन्दोलन के अपने प्रारंभिक अवतार में ऐसा लगता था कि यह दल आधुनिक व्यवस्था के विकल्प की खोज है. पार्टी, प्रॉपर्टी और पार्लियामेंट अर्थात राजनैतिक प्रतिनिधित्व, संपत्ति और प्रतिनिधि संस्थाओं के विरोधों का यह आन्दोलन व्यवस्था परिवर्तन की घोषणा हो सकती है. फिर वैकल्पिक राजनीति की व्याख्या करते हुए अपने दूसरे अवतार ‘आम आदमी पार्टी’ के रूप में भी लोगों में आशा बंकि थी कि शायद यह पार्टी औरों से अलग होगी. लेकिन इसका तीसरा अवतार सभी संभावनाओं को ख़ारिज करते हुए पूरी तरह पदलोलुप लोगों की एक जमात नजर आने लगा. इतनी जल्दी इसके स्वरुप में इतना बदलाव कैसे आया?  वही लोग जो केजरीवाल को दूसरा गाँधी बनाने पर तुले थे अचानक उसे नटवरलाल क्यों बताने लगे. ऐसे में यह प्रश्न उठाना लाजिमी है किआम आदमी पार्टी की क्या संभावनाएं हैं. चुनाव में भारी  जीत ने इतना तो साबित कर दिया है कि भारतीय राजनीति को विकल्प की खोज है लेकिन क्या आम आदमी पार्टी स्थाई विकल्प हो सकता है.  

यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब खुद इस पार्टी के पास  नहीं है. यह सच है कि आज की हालत में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों की बदहाली के बाद यदि देश भर में कोई जगह खाली हुई है तो उसे भरने के लिए जो थोड़ी बहुत संभावना है वो केवल इसी पार्टी में है. कुछ लोग यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि कांग्रेस की वापसी होगी. यदि उसकी वापसी होगी भी तो उसे राजनीति की नयी जमीन तलाशनी होगी. इस बात की संभावना है कि यदि आम आदमी पार्टी ने अपना पुनर्गठन ठीक से किया और हाशिये के लोगों में अपनी पकड़ को कायम रखा तो कांग्रेस की जमीन हमेशा के लिए खिसक जाएगी.

लेकिन इस पार्टी के लिए अपनी पकड़ को बनाये रखना आसान नहीं होगा. क्योंकि अबतक पार्टी केवल नकारात्मक छवि पर टिकी है. भ्रष्टाचार के विरोध का मुद्दा फिलहाल इनके पास नहीं रह गया है. जिस कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ किये आन्दोलन ने इस पार्टी को जन्म दियाजनता उसे दण्डित कर चुकी है. यह संभव है कि अब कांग्रेस के प्रति सद्भावना  की बयार भी बहने लगे. भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ भष्ट्राचार के मुद्दों का मिलना फिलहाल कठिन होगा. एक तो मोदी इसे लेकर सजग है और दूसरे, कांग्रेस की तुलना में इनके पास फेर बदल के लिए लोग ज्यादा हैं. मोदी यह भी इंगित करते रहते हैं कि यदि कोई मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए तो उन्हें मंत्री मंडल से  बाहर होने को लिए तैयार रहना चाहिए.
ऐसे में आम आदमी पार्टी भी अन्य विरोधी दलों की तरह यदि केवल  विरोध के लिए विरोध का सूत्र अपनाएगी तो लोगों के लिए इसमें कुछ आकर्षण नहीं बचेगा. इसके बदले इस पार्टी को अपनी रचनात्मक छवि बनानी पड़ेगी. कोई भी राजनीतिक दल बहुद दिनों तक केवल नकारात्मक छवि लेकर चल नहीं सकता है. खास कर ऐसे समय में जब भारतीय रजनीति के व्याकरण में भारी परिवर्तन हो रहा हो. यदि इस पार्टी के छोटे इतिहास को देखें तो इतना समझना मुश्किल नहीं होगा कि सफलता के लिए इसका मूल मन्त्र हंगामा करना और मीडिया में बने रहना है. वैसे भी मिडिया के प्रति पार्टी को शुक्रगुजार होना चाहिए. कई लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि पार्टी मिडिया की ही बनाई हुई है. कुछ लोगों का कहना है कि पार्टी के कुछ बड़े नेता भी मानते है कि आम आदमी पार्टी मिडिया के द्वारा फुलाया हुआ बलून है.

लेकिन इस पार्टी  के नेतृत्व को समझने के लिए  मिडिया के चरित्र को समझना होगा. भारतीय मिडिया मूलतः व्यापार है. और यदि व्यापर की प्रक्रिया में आप सहायक हैं तो कैमरा आप पर टिकेगाअन्यथा नहीं. संचार विशेषज्ञों का मानना है कि मिडिया कई बार कृत्रिम तरीके ऐसे पात्रों को गढ़ता है जिससे दर्शकों को आकर्षित किया जा सके. बाजार में बिकनेवाले सामान की तरह उसकी ब्रांडिंग की जाती है और इस प्रक्रिया में मिडिया धनोपार्जन करती है. जब ब्रांड पुराना हो जाये तो फिर उसे ध्वस्त करती है और उस प्रक्रिया में भी धनोपार्जन करती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि आम आदमी का पूरा खेल मिडिया के इस बड़े खेल का हिस्सा है. यदि न भी रहा हो तो इतना तो तय है कि दिल्ली के कुछ दिनों के संघर्ष की ब्रांडिंग कर आम आदमी पार्टी पूरे देश में इसी  मिडिया  के सहारे अपने को बेचने में लगी है.  लेकिन राजनीति और अर्थशास्त्र में यही अंतर है. पहला मानवीय संबंधों पर निर्भर है दूसरा मानव और भौतिक पदार्थों के बीच के संबंधों पर. राजनीति लोगों के हितों को समझना उसे संग्रह कर पार्टी का निर्माण करना और फिर उन हितों के लिए संघर्ष का नाम है. ऐसा संभव नहीं है कि जनता के लिए नैतिकता का सबक दिया जाये और स्वयं राजनीति का स्वार्थपरक लाभ लिया जाये. यदि आम आदमी पार्टी के बारे में जनता में विश्वास नहीं जमा तो फिर इसके अस्तित्व पर खतरा भी हो सकता है. फिर कोई और  संगठन खाली जगह को भरने के लिए आगे आ सकता है. पार्टी के अंदरूनी कलह से इतना तो पता चल रहा है कि इसके अन्दर सबकुछ सामान्य नहीं है. पैसे का लेन-देन हो या खराब छवि के लोगों को टिकट देने का मामला हो, हर मायने में पार्टी पर आरोप लग रहा है. पार्टी के लोग ही यह कहने लगे हैं कि शीर्ष नेतृत्व ने हर ऐसे आदर्श के साथ समझौता किया है और उसकी असलियत सामने लाने की जरुरत है.


इस पार्टी की बड़ी समस्या है कि इसके पास न तो कोई विचारधारा ही है न उस पर कोई चिंतन की ही सम्भावना है और भारतीय जनमानस शायद कुछ दिनों के लिए नकारात्मक राजनीति को सह सकता है. एक सीमा के बाद लोग उससे आकर्षित नहीं होते हैं. ऐसा लगता है कि पार्टी अपने प्रारंभिक राजनैतिक प्रयोगों से बाहर नहीं निकल पा रही है और कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर जो लोकप्रियता पार्टी ने हासिल की है उसमें भारी कमी आ रही है. जानकार लोगों का कहना है कि दिल्ली में शानदार सफलता के बाद भी पार्टी की लोकप्रियता में भारी कमी आई है. पार्टी के लिए शायद अब समय है  विचारधारा पर काम करने का ताकि जिन मतदाताओं को इसने आकर्षित किया है उसे पार्टी का आधार बनाया जा सके. लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है. इसका क्या कारण हो सकता है?

इस दल में तीन तरह के लोग हैं. एक तो स्वयंसेवी संस्थाओं में काम करनेवाले लोग हैं जिनके बारे में यह कहना गलत नहीं होगा कि उनमें बाहरी तौर पर तो जनतांत्रिक मूल्यों की खूब बातें होती हैं, लकिन  अन्दर प्रजातान्त्रिक मूल्यों की रोज बली चढ़ती है. इसलिए तथाकथित सिविल सोसाइटी के महानुभावों में लोगों को संगठित करने की क्षमता यदि होती भी है तो ज्यादा समय तक उन्हें आन्दोलन के मूड में बांधे रहना आसान नहीं होता है. यही कारण कि इस  वर्ग के लोगों में विचारधारा की राजनीति को लेकर एक विकर्षण है.   

दूसरे तरह के लोग हैं जो समाजवादी आंदोलनों से आये हैं. कुछ शीर्ष के नतृत्व में पुराने समाजवादियों के होने से बड़े पैमाने पर देश भर के समाजवादी आम आदमी पार्टी से जुड़ते चले गए. लेकिन समाजवादियों में संगठनात्मक या वैचारिक स्तर पर कुछ नया सोच पाने की कितनी क्षमता है, कहना कठिन है. उनका पहले का रिकार्ड भी कुछ अच्छा नहीं है. इसलिए राजनैतिक दल के रूप में लोगों की इन पर कोई खास आस्था नहीं है. इनके लिए आम आदमी पार्टी एक ऐसा मौका था जिसके माध्यम से राजनीति में फिर से अपना  पैर जमा सकने की इनकी चाहत को पूरा करने का मौक़ा मिल सकता था. लेकिन समस्या यह है कि पार्टी में बड़े समाजवादी नेता भी विचारधारा को अभाव को विचारधारा की समाप्ति का तर्क देकर सही ठहराते रहे.

तीसरे तरह के लोग हैं जिन्हें न तो राजनीति का ही कोई अनुभव है और न ही स्वयं सेवी संस्था का; मिडिया कर्मीमध्यम वर्गीय लोग और चुके हुए प्राध्यापक या वकील आदि-आदि. इनमें से कई लोगों ने अपने क्षेत्र में नाम तो कमाया है लेकिन उसे राजिनीति के लिए सफलता की कुंजी मानना बड़ी भूल हो सकती है और उनमें विचारधारा को लेकर न तो कोई सोच है और न ही उसकी संभावना.

इन तीनों तरह के लोगों में हो रही खींच तान को आप आसानी से आम आदमी पार्टी की गतिविधियों में देख सकते हैं. और यही कारण है कि उनके लिए किसी  तरह के विचारधारा की बात करनी मुश्किल है. कुछ समय तक तो लोगों ने इस पार्टी के कुछ नेताओं की बात पर यकीन कर लिया था कि शायद यह नयी राजनीति की शुरुआत है जिसमें विचारधारा की जरुरत नहीं है. लेकिन अब इस पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा है. और इसके आभाव में पार्टी की छवि केवल एक ऐसे लोगों के समूह के रूप में बन रही है जो राजनीति में फ्री लांसर हैं.

आम आदमी पार्टी की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन इन संभावनाओं को सफलताओं में बदलना आसान भी नहीं है. यहाँ न केवल विचारधारा के अभाव का संकट  है बल्कि पार्टी स्वाभाव का भी संकट है. यानि पार्टी के संगठनात्मक ढांचा, कार्यक्रम, आतंरिक जनतंत्र, लगभग हर क्षेत्र में पार्टी का रिपोर्ट कार्ड के सुधारने  की जरुरत है. स्वराज और गांधीवादी नेता अन्ना हजारे से जुड़ने पर गाँधी के विरासत का लाभ उठा पाना तभी संभव है जब गाँधी के संगठनात्मक मूल्यों को भी अपनाया जाये. यह तभी हो सकता है जब पार्टी लगातार संघर्ष का रास्ता अपना सके. सत्ता के करीब आते ही त्याग की जगह सत्ता लोलुपता ले लेती है और फिर नेतृत्व का  संकट दिखने लगता है.

इस संकट से बचने के लिए नेतृत्व को न केवल नैतिक मूल्यों पर टिके रहने की जरुरत है बल्कि समर्थकों के बीच भी लगातार उसका संचार करने का प्रयास करने की आवश्यकता है. पार्टी में नैतिक मूल्यों की जगह सत्ता के समीप हो पाने की संस्कृति पनपती जा रही है. इसका प्रमाण यह है कि हर नेता पार्टी में अपनी जगह को लेकर चिंतित है और सही जगह नहीं मिलने की आशंका में दूसरी पार्टी के साथ रिश्ता बनाने की सोच रखता है. इस बात का पुख्ता सबूत तो शायद देना संभव नहीं है. लेकिन जो खबर गर्म है उसके अनुसार कुछ शीर्ष नेतृत्व का झुकाव कांग्रेस की तरफ है तो कुछ का भारतीय जनता पार्टी की तरफ. दिल्ली चुनाव के पहले ही पार्टी का संकट स्पष्ट होने लगा था. नैतिकता का जामा उतरना शुरू हो गया था.


इन  बातों से निजात पाने के लिए पार्टी को अपने संगठनात्मक ढाँचे पर काम करना होगा. समझना यह होगा कि पार्टी और स्वयं सेवी संस्था के ढाँचे में बहुत अंतर होता है. पार्टी में ऊर्जा संचार की जरुरत होती है और इसके लिए लगातार कार्यक्रमों का सिलसिला बनाये रखना होता है. संगठन की जरूरत केवल चुनाव लड़ने के लिए नहीं होती है बल्कि इस उर्जा के संचार के लिए होती है ताकि चुनाव के समय उसका उपयोग हो सके. व्यक्ति केन्द्रित नेतृत्व में इस बात की संभावना कम है कि ऐसे संगठन का निर्माण कर सके. क्योंकि राजनीतिक संगठन की अपनी गति होती है और कई बार उसके शुरू करने वाले ही हाशिये पर चले जाते हैं.  सवाल है कि क्या आम आदमी पार्टी इसके लिए तैयार है.

नेतृत्व की जो लड़ाई पार्टी में चल रही है क्या उसके पीछे वैचारिक मतभेद है या फिर व्यकिगत वर्चश्व की लड़ाई है. इतना तो निश्चित  है कि इस लड़ाई के पीछे समाजवादी राजनीति और स्वयंसेवी संस्था की राजनीति का अंतर है. लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं का यह भी मानना है कि इस व्यक्तिव की लड़ाई भी है. शायद केजरीवाल की लोकप्रियता ने उनके नेतृत्व के खिलाफ आवाज को फिलहाल तो दबा दिया, लेकिन आनेवाले समय में भी ऐसा ही होगा कोई जरूरी नहीं है. पार्टी के केजरीवाल समर्थक द्वयं दर्जे के नेता, जिनका अपना कोई जनाआधार नहीं है, समाजवादी घटक से घबडाते हैं. उनकी समस्या यह कि केजरीवाल यदि हाशिये पर गए तो उनका साफ़ होना तय है. मजे की बात यह है कि जब केजरीवाल और उनके लेफ्टिनेंट अपने आप को दिल्ली जीतने में व्यस्त रखा था समाजवादी घटक लगातार दिल्ली के बाहर पार्टी का आधार बनाने में लगे थे. अब केजरीवाल के लिए धर्म संकट है. यदि दिल्ली के बाहर विस्तार करते हैं तो समाजवादीयों का उसमें बोलबाला होगा. यदि ऐसा नहीं करते हैं तो पार्टी केवल एक क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह जाएगी. समाजवादियों का संकट यह है कि उनकी राजनीति पहले ही चुक गयी है. बिना केजरीवाल के उनका कोई ख़ास महत्व रह पायेगा कहना कठिन है.

कुल मिलाकर, जिस तरह की उम्मीद इस आन्दोलन से की गई थी लगता हा उसका अंत आ गया है. सवाल है कि क्या राजनैतिक परिवर्तन की जो आंधी दुनियां भर में उठी थी, सबका यही अंत होगा; पूंजी के आधार स्तंभों के विरोध में जो गोलबंदी होनी शुरू हुई थी उन सबका  यही हाल होगा.  आन्दोलन का पार्टी में बदल जाना इस बात का प्रमाण है कि जनतंत्र में बिना पार्टी के सत्ता के करीब पहुंचना मुश्किल है. लेकिन पार्टी बनते ही आन्दोलन उस तंत्र का हिस्सा बन जाती है जिसमें से जनहित ही गायब हो जाता है. शायद हमें इस प्रयोग के असफल होने के बाद कोई और प्रयोग की उम्मीद करनी चाहिए. लेकिन ऐसे किसी विल्कप की एक शर्त यह भी  है कि उसे अविश्वास की राजनीति की जगह विश्वास की राजनीति की तैयारी करनी होगी. संवाद के नए सूत्र तलाशने होंगे. 


                                  (सबलोग के अप्रैल 2015 से साभार)

   
                                    मणीन्द्र नाथ ठाकुर 
                                                  लेखक समाजशास्त्री                                            और जेएनयू में प्राध्यापक हैं.
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                                          manindrat@gmail.com 

                                                           

2 comments:

  1. आम आदमी पार्टी अब "अपना आदमी पार्टी" में परिवर्तित हो चुकी है।स्वराज, आंतरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता,स्वतंत्र और तटस्थ लोकपाल की नियुक्ति, सभी प्रकार के भ्रष्टाचार की समाप्ति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा एक नयी वैकल्पिक राजनीति की बड़ी-बड़ी बातें करने के बाद सर्वाधिकारवाद और एक 'सुप्रीमो' की पार्टी बन गयी है।अब इस पार्टी से किसी नयी विचारधारा की बात करना व्यर्थ है।वस्तुतः यह नोटंकीबाजों और नटवरलालों की पार्टी है।

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