14 May 2016

अतीत की राजनीति और अम्बेडकर

          अजय तिवारी 

     सन 1930 में डॉ. अंबेडकर ने एक भाषण में कहा था: मुझे अंदेशा है कि अंग्रेजों ने अछूतों की दुर्दशा का जो विज्ञापन किया है, उसका उद्देश्य इस दशा को दूर करना नहीं, वरन भारत की राजनीतिक प्रगति को रोक रखना है।...कोई भी तुम्हारी शिकायतें उस तरह दूर नहीं कर सकता जिस तरह तुम खुद दूर कर सकते हो। यह तुम तब तक नहीं कर सकते जब तक तुम्हारे हाथ में राजनीतिक सत्ता न आए। राजसत्ता में, राजनीतिक शक्ति में तुम तब तक भागीदार नहीं हो सकते जब तक ब्रिटिश सरकार वैसी ही बनी रहती है जैसी आज है। स्वराज से जो संविधान बनेगा, उसी से तुम्हारे राजनीतिक शक्ति पाने की संभावना है। उसके बिना तुम्हारा उद्धार नहीं हो सकता। (डॉ. बाबा साहब अंबेडकर राइटिंग्स ऐंड स्पीचेज़, खंड-6, पृ.243-244)
     ज़ाहिर है कि डॉ. अंबेडकर को दलितों की जीवनदशा में परिवर्तन की आशा भारतीय रूढ़िवाद से थी न ब्रिटिश उपनिवेशवाद से। उनका आक्रमण ब्रिटिश सत्ता पर अधिक था क्योंकि उसने भारत की राजनीतिक प्रगति को रोकने के लिए दलितों की दुर्दशा का विज्ञापन किया। ब्रिटिश सत्ता के रहते राजसत्ता में दलितों का पहुँचना असंभव था। दलितों का उद्धार तभी होगा जब वे राजसत्ता में पहुँचें। यह काम स्वराज में हो सकता है। डॉ. अंबेडकर का यह विश्वास बहुत गलत भी नहीं था। स्वराज के संविधान-निर्माण में डॉ. अंबेडकर स्वयं भागीदार थे।
    आज़ादी के बाद दलितों के जीवन में जितना परिवर्तन आया, वह औपनिवेशिक भारत में अकल्पनीय था। यह परिवर्तन अंबेडकर की अपेक्षाओं के अनुरूप न था। वह पर्याप्त भी न था। फलतः उन्होने नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और काफी पहले कही गयी अपनी इस बात को क्रियान्वित किया कि मैं हिन्दू पैदा हूँ लेकिन हिन्दू मरूँगा नहीं। आखिर 14 अक्तूबर 1956 को, अपनी मृत्यु से लगभग दो महीने पहले, बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। धर्मपरिवर्तन से दलितों की दशा में सुधार हुआ या नहीं, यह अलग से विचारणीय है। लेकिन संविधान द्वारा अनेवाले परिवर्तन और धर्मपरिवर्तन द्वारा अनेवाले परिवर्तन में फर्क है। इसीलिए अंबेडकर के साथ बौद्ध बनने वाले एक सज्जन ने चुनाव लड़ने के लिए अदालत में हफनामा दिया कि उन्होंने दीक्षा नहीं ली थी, केवल सेवा कर रहे थे! (नागपुर में डी. पी. मेश्राम का प्रसंग याद करें!)
    स्वभावतः संविधान-प्रदत्त अधिकार और धर्म-प्रदत्त विश्वास में अंतर है। एक का संबंध सामाजिक स्थिति में परिवर्तन से है, दूसरे का व्यक्तिगत स्थिति में परिवर्तन से। दलितों की दुर्दशा का कारण सामाजिक सम्बन्धों में है; भेदभाव की प्रणाली और आर्थिक शोषण के संपत्ति-सम्बन्धों में है। क्या डॉ. अंबेडकर ने यह सोचा था कि धर्मपरिवर्तन से दलितों को सामाजिक उत्पीड़न, भेदभाव और शोषण से मुक्ति मिल जाएगी? सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन संविधान द्वारा आ सकता है या धर्म द्वारा? अंबेडकर की 125वीं जयंती के वर्ष में सभी राजनीतिक दल और नेता उनके प्रीतिमा-पूजन की होड़ कर रहे हैं, यह प्रश्न कोई नहीं पूछेगा कि उनके चिंतन में संविधान और धर्म की भूमिकाओं को लेकर यह अंतर्विरोध या असंगति क्यों थी?
     यदि धर्मपरिवर्तन द्वारा यह संभव होता तो दलित समस्या मध्ययुग में ही समाप्त हो गयी होती जब तथाकथित ब्राह्मण (वस्तुतः सनातन) धर्म से निकलकर बड़ी संख्या में दलितों ने बौद्ध धर्म अंगीकार किया था। उस युग में तो राजनीति भी कमोवेश धर्म के पीछे चलती थी। धर्म अब अतीत की वस्तु हुई। धर्म को राजनीति का साधन बनानेवाली शक्तियाँ अतीत के आदर्शों और सम्बन्धों को ही लागू करने का प्रयत्न करती हैं। इसलिए समाज को बदलने, सम्बन्धों को न्यायपूर्ण बनाने का संघर्ष करनेवाली शक्तियाँ अतीत से प्रेरणा ले सकती हैं, उसे साधन या हथियार नहीं बना सकतीं। डॉ. अंबेडकर के चिंतन में संविधान द्वारा समाज-परिवर्तन और धर्म द्वारा भाग्य-परिवर्तन के बीच गहरी खाई दिखाई देती है, जिसका समाधान दलित आंदोलन आज तक नहीं कर सका है।
     यह संभव है कि विशेष परिस्थिति में अतीत का उपयोग प्रतीकात्मक रूप में किया जाय। स्वयं अंबेडकर ने मनुस्मृति जलायी। यह भेदभाव के सम्बन्धों को औचित्य प्रदान करनेवाले ग्रंथ का विरोध था। यह प्रतीकात्मक कार्रवाई थी। आंदोलन के सामी या आंदोलन के लिए ऐसे प्रतीकों का उपयोग होता है। गांधी ने जब कहा कि चरखा ही स्वराज है या लेनिन ने कहा कि बिजलीकरण ही समाजवाद है, तब उन्होंने भी इसी तरह का प्रतीकात्मक उपयोग किया। लेकिन म्नुस्मृति को जालना दलितोद्धार के लिए पर्याप्त न था, उसके लिए संविधान की आवश्यकता थी; चरखा चलना स्वराज न था, उसके लिए देशी उद्योग और बाज़ार भी आवश्यक था; बिजली खुद समाजवाद न थी, उसके द्वारा विकास की आधारशिला निर्मित करना आवश्यक था। 
     डॉ. अंबेडकर के राजनीतिक अनुयाई प्रतीक और वास्तविकता का अंतर प्रायः नहीं करते। इसीलिए अंबेडकर व्यक्तिपूजा के विरोधी थे लेकिन उनके अनुयाई अंबेडकर को ही पूजा की वस्तु समझते है। यह पूजाभाव अतीतमुखी चेतना का एक रूप है। इसके प्रमाण अक्सर मिलते हैं। समकालीन इतिहास में सबसे ज्वलंत प्रमाण मिला 2006 में। एनसीईआरटी ने कक्षा 11 की पाठ्यपुस्तक में एक कार्टून दिया था। वह भारतीय कार्टून के शीर्षपुरुष शंकर का बनाया था। उसमें  संविधान-निर्माण कच्छप-गति पर व्यंग्य था। वह अंबेडकर के सामने बना था। तब न अंबेडकर को एतराज़ हुआ था, न उनके किसी अनुयाई को। लेकिन 2006 में उसपर इतना विवाद हुआ कि उसे पाठ्यक्रम से हटाना पड़ा! क्या यह उसी तरह की असहिष्णुता नहीं है जो आस्था की राजनीति करती है?
      विरोध और विवाद का जोखिम उठाकर भी कहना पड़ेगा कि इस असंगति का संबंध अंशतः खुद अंबेडकर से है। वे एक ओर व्यक्तिपूजा के विरोधी, समज्पृवर्तन के पक्षधर थे, दूसरी ओर धर्मपरिवर्तन द्वारा दलितोद्धार का स्वप्न देखते थे। यह अंतर्विरोध उनके समग्र चिंतन में था। वे संविधान-प्रदत्त राजनीतिक जनतंत्र को पर्याप्त नहीं मानते थे, उसके साथ सामाजिक जनतंत्र और आर्थिक जनतंत्र लाने की आवश्यकता भली भाँति समझते थे। वे दलितों के सामाजिक और आर्थिक अस्तित्व में विभेद नहीं करते थे इसलिए अछूत और श्रमिक के एकीकरण को रेखांकित करते थे। उसी के अनुरूप ब्रहमनवद और पूँजीवाद को दलितों का समान शत्रु मानते थे। फिर भी, उनके सामाजिक समता के विचार और पश्चिमी जनतंत्र के आदर्श के बीच आंतरिक टकराव था। उनके संघर्ष की महत्ता और उनके मोहभंग की विवशता, दोनों का संबंध उनके इसी अंतर्विरोध से है।
    क्या उनकी विरासत की रक्षा और विकास के लिए इस बात के प्रति सचेत होने के जरूरत नहीं है? यह बात ज़ोर देकर कहने की है कि समस्या अंबेडकर के साथ फिर भी उतनी नहीं है जितनी उनके अनुयायियों के साथ है या दलित-वोटाकांक्षी अन्य राजनीतिज्ञों के साथ है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि अंबेडकर जिस अतीतमुखी और सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध अपना वैचारिक विकास कर रहे थे, आज वही उनकी विरासत हथियाने का सबसे प्रबल उपाय कर रही है।
    अंबेडकर के चिंतन में अंतर्विरोध हो सकते हैं परंतु वे पुनरुत्थानवादी नहीं थे। उन्होंने भारत के प्राचीन व्यापार पर कोलम्बिया विश्वविद्यालय में एमए का शोधप्रबंध लिखा था। पूर्ववर्ती भ्रांतियों और परवर्ती आग्रहों से अलग अंबेडकर इस तथ्य से अवगत थे कि “आर्य एक जंस्मूदय का नाम था। जो चीज़ उन्हें आपस में बांधेहुए थी, वह थी एक विशेष संस्कृति, जो आर्य कहलाती थी।...जो भी आर्य संस्कृति को स्वीकार करता था, वह आर्य था। आर्य नामकी कोई नस्ल नहीं थी।“ (राइटिंग्स एंड स्पीचेज़, खंड-3, पृ. 419) इसलिए “यह धारणा गलत है कि आर्यों ने शूद्रों को जीता। पहली बात तो यह कि आर्य भारत में बाहर से आए थे और उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों पर आक्रमण किया, इस कहानी के समर्थन के लिए कोई भी प्रमाण नहीं हैं। भारत ही आर्यों का मूल निवास स्थान था, यह सिद्ध करने के लिए काफी अधिक प्रमाण-सामग्री है। आर्यों और दस्युओं में युद्ध हुआ, यह साबित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है। फिर दस्युओं को शूद्रों से कुछ लेने-देना नहीं है।“ (उपर्युक्त, पृ. 420)
     अंबेडकर का इतिहासबोध तार्किक था। उसका आधार सामाजिक-आर्थिक तथ्यों का संकलन था, आग्रह या दुराग्रह नहीं। उनका संघर्ष तत्कालीन आभिजात विचारकों से था जो मनु को प्रमाण समझते थे। अंबेडकर ने लिखा, “मनु शूद्र की चर्चा इस तरह करते हें मानो वह अनार्य हो जिसे आर्यों के सामाजिक और धार्मिक अधिकारों से बाहर रखा जाय। दुर्भाग्य से आम लोग यह बात बहुत आसानी से स्वीकार कर लेते हें कि शूद्र अनार्य थे। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राचीन आर्यों के साहित्य में इसके लिए रत्ती भर प्रमाण नहीं।“ (उपर्युक्त, पृ. 418)
     दुर्भाग्य से दलित विचारक ही आज इस बात को आम तौर से स्वीकार करके चलते हैं। अतीत के प्रति गलत समझ का परिणाम वर्तमान संघर्षों पर पड़ता है। यह बात वामपंथियों और अंबेडकरवादियों में समान रूप से देखी जाती है। कभी-कभी वर्तमान दबावों के कारण भी अतीत के प्रति भ्रांति प्रकट होती है। जिन सवर्णों को मनु की धारणा पर विश्वास था, वे अपने समय में दलितों को उनके सामान्य मानव-अधिकार से वंचित रखते थे। अँग्रेजी राज्य ने इन दुराग्रहों को मजबूत किया था। अंबेडकर ने उसपर भी विस्तार से लिखा था। इन दुराग्रहों से संघर्ष के किसी दुर्बल क्षण में अंबेडकर यदि संविधान के द्वारा समाज-परिवर्तन के विवेक से विचलित होकर धर्मपरिवर्तन को साधन मान लेते हैं तो उसे आज कोई विकल्प नहीं माना जा सकता।
                                                



     

13 May 2016

उत्तर प्रदेश- रेवड़ियों की तरह बँटी ‘यश भारती’

       डी.एम. मिश्रा
उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार के अमूमन हर पुरस्कार पर लोगों की उँगलियाँ उठ रही हैं। चाहे वह यश भारतीका पुरस्कार/सम्मान हो चाहे भाषा संस्थान’, ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थानया उर्दू अकादमीया अन्य किसी विभाग का। इन पुरस्कारों पर दलालों और चाटुकारों के माध्यम से वोट बैंक पुख़्ता करने का आरोप लग रहा है। माना यह जा रहा है कि सरकारी पैसे को पानी की तरह बहाकर इस बहाने वोट खरीदा जा रहा है। यह भी प्रचार किया जा रहा है कि यदि बहुजन समाज पार्टीया अन्य कोई पार्टी सत्ता में आयी तो आगे से पुरस्कार बँटना तो बंद हो ही जायेगा। साथ ही यशभारती  वालों को जो 50 हजार रुपये महीने की पेंशन दी जा रही है वह भी चली जायेगी। इससे समाजवादी सरकार ही फिर से सत्ता में आये इसके लिए दलाल अभी से सक्रिय और लामबंद हो रहे हैं। साथ ही साथ प्रदेश सरकार सभी बड़े अखबारों को हर दिन तीन-चार फुल पेज का विज्ञापन उनका मुंह बंद रखने के लिए दे रही है और उनसे  मदद की उम्मीद कर रही है, सब जनता के पैसे से।
ऐसा कहा जाता है । संगीत, गायन, नृत्य, ललित कला, फिल्म, साहित्य, शिक्षा, खेल, चिकित्सा, विज्ञान, समाज सेवा में विशिष्ट सेवा करने वालों को यह पुरस्कार/सम्मान देय है। पर, अभी तक इसका कोई वास्तविक मानक तय नहीं। संभवतः पुरस्कार की कोई निर्णायक समिति भी नहीं। मुख्यमंत्री या सपा के मुखिया जिसको चाह लें वह यह पुरस्कार और सम्मान पाने का हकदार है। सर्वप्रथम 1994 में समाजवादी सरकार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इसकी शुरुआत की थी।
     1994 से 2012 के बीच में बसपा और भाजपा की सरकारें रहीं तब यह पुरस्कार बंद हो गया था। फिर समाजवादी पार्टी की सरकार अस्तित्व में आयी तो 2013 से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस पुरस्कार का पुनः शुभारम्भ किया। 2013 में पुरस्कार की राशि मात्र 5 लाख थी जो अब रुपये 11 लाख, साथ में 50 हजार मासिक पेन्शन का रूप धारण कर चुकी है। फरवरी 2015 में 56 हस्तियों को यश भारतीदिया गया था जिसमें यादवों की संख्या 14 थी तो इस बार फरवरी 2016 में यश भारतीपाने वालों में मुस्लिमों की संख्या सर्वोपरि 9 रही। सन् 2015 में भी यश भारतीविवादित रही। जगद्गुरू रामानंदाचार्य स्वामी भद्राचार्य जैसे लोगों को भी सम्मानित किया गया था। जहां गायक रवीन्द्र जैन ने सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और मुख्य मंत्री अखिलेश की शान में कसीदे पढ़े थे, वहीं गायक अनूप जलोटा ने सम्पूर्ण पुरस्कार राशि 11 लाख लखनऊ की ‘‘हेल्प यू एजूकेशनल एन्ड चैरिटेबिल’’ संस्था को दान कर दी थी।
          21मार्च 2016 को 46 हस्तियों को सम्मानित करते हुए सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कहा-यश भारती से सम्मानित हस्तियाँ देश-विदेश में यूपी का नाम रोशन कर रही हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी कहा-कि ढूँढ़ -ढूँढ़ कर यूपी का नाम रोशन करने वाली हस्तियों को सम्मानित किया जा रहा है। जिनमें हमारे कर्तव्यनिष्ठ प्रमुख सचिव श्री आलोक रंजन की धर्मपत्नी श्री मती सुरभि रंजन भी शामिल हैं। उन्हें ‘‘यश भारती’’ गायन के लिए दिया जा रहा है। तथाकथित 46 इन महाविभूतियों में कई नाम ऐसे हैं जिन्हें लोगों ने पहली बार सुना हो। कई नाम ऐसे हैं जो कभी न कभी सुने तो गये हैं लेकिन डिजर्विंग’  नहीं कहे जा सकते। अंकित तिवारी पार्श्वगायक (जिनका नाम मैंने भी पहली ही बार सुना है) ने यश भारती लेते हुए कहा कि जल्द ही आप लोगों को मेरे गाये हुए गाने सुनने को मिलने लगेंगे। राजू श्रीवास्तव कमेडियन ने जब अपने सिर पर यश भारतीरखकर लोगों का मनोरंजन किया तो हाल ठहाकों से गूंज उठा मानो वह कह रहा होयश भारतीका स्तर यही है। महानायक अमिताभ बच्चन की तो पूरी फैमिली को ही यश भारतीसे नवाजा गया। जैसे फिल्म इंडस्ट्री में यूपी का और कोई नायक-नायिका येाग्य हो ही न। ये तो अमिताभ बच्चन का बड़प्पन कहिए कि उन्होंने पेंशन लेने से मना कर दिया यह कहते हुए कि इस राशि को जरूरतमंदों को दान में दे दिया जाय। शायद उन्हें इसका आभास हो गया हो कि कुछ गलत हो रहा है। मुशायरों की निजामत (संचालन) करने वाले एक शायर अनवर जलालपुरी को भी साहित्य के लिए यह पुरस्कार दिया गया है।
आइये अब यश भारतीके कुछ ऐसे विवादों पर भी नज़र डालें जो सुर्खियों में रहे। मुख्यमंत्री के हाथों शायर इमरान प्रतापगढ़ी को बतौर कवि साहित्य के लिए 21 मार्च को यश भारतीप्रदान किया गया। इसको लेकर लोगों में काफी रोष रहा और जमकर विरोध हुआ। इमरान प्रतापगढ़ी  को लोग शायर के रूप में उतना नहीं जानते जितना बाहुबली अतीक अहमद से उनकी नजदीकियों को लेकर जानते हैं। जमीन कब्जा और मारपीट के मामलों में अतीक अहमद के साथ उनका नाम कई बार जुड़ा है। हुआ यूँ कि फेसबुक पर प्रतापगढ़ के ही रहने वाले कवि व साहित्यकार शीतला प्रसाद सुजान ने यश भारतीजैसे  बड़े सम्मान के लिए इमरान की योग्यता और पात्रता को संदिग्ध बताते हुए एक पोस्ट डाल दी। इतना ही नहीं उन पर चोरी की रचनाएँ पढ़ने का भी आरोप मढ़ दिया। उस पर लोगों के तमाम लाईकऔर कमेन्ट भी आने लगे। जिसे देखकर इमरान भड़क उठे और उन्हें तुरन्त पोस्ट डिलीट करने का दबाव बनाते हुए अंजाम भुगतने की धमकी भी दे डाली। साहित्यकार सुजान को जब लगा कि उनकी जान का ख़तरा बढ़ गया है तेा उन्होंने तुरन्त डी.एम. और एस.पी. को तहरीर देकर अपने जान-माल की सुरक्षा की गुहार लगाई।
सबसे दिलचस्प मामला आई.पी.एस. अधिकारी अमिताभ ठाकुर का आया। अमिताभ ठाकुर ने कहा जब एक आई.पी.एस. अधिकारी अपर्णा कुमार को यह पुरस्कार पर्वतारोही के रूप में दिया जा सकता है, प्रमुख सचिव की पत्नी को गायन के नाम पर दिया जा सकता है तो मुझे क्यों नहीं। उन्होंने सीधे मुख्यमंत्री को इस आशय का पत्र लिख डाला। उन्होंने माँग की कि उनके काम को देखते हुए सूबे की सरकार को उन्हें भी यश भारतीप्रदान करनी चाहिए। अमिताभ ठाकुर ने लिखा कि यद्यपि वे एक राज्यकर्मी हैं लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर वह एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी जाने-पहचाने जाते हैं। विशेषकर पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के क्षेत्र में उनकी अच्छी खासी अहम भूमिका रहती है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि सरकार की ओर से सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे लोगों को सम्मानित किया जाता है जिनका योगदान मुझसे बहुत कम है, तो मुझे क्यों नहीं। शुरू में यह सूची मात्र 22  लोगों की बताई गयी थी जो धीरे- धीरे बढ़कर 46 तक पहुँच गयी। इसे देखकर मेरे मन में भी आशा जगी है कि यह महान पुरस्कार मुझे भी मिल सकता है जो सम्भवतः भूलवश छूट गया हो। अतः निवेदन है कि मुझे  भी यश भारतीप्रदान करके मेरा उत्साहवर्धन करें साथ ही यश भारतीका गौरव और बढ़ायें।
इसके अतिरिक्त छोटे-मोटे और भी कई विवाद इस सम्मान से जुड़े हैं जो इस लेख में दे पाना सम्भव नहीं। हाँ, पाठकों को इतना बताना जरूरी है कि इलाहाबाद की लखनऊ बेंच में एक याचिका अभी भी लंबित चल रही है, जिसमें हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार से सूबे के सर्वोच्च सम्मान यश भारती के मामले में जवाब-तलब किया है। कोर्ट ने पूछा है कि ये पुरस्कार किस वित्तीय मद से दिये जा रहे हैं? साथ ही सरकार से यह भी पूछा है कि पुरस्कार देने के लिए निर्धारित योग्यता और चयन प्रक्रिया क्या है? उर्दू अकादमी औरहिन्दी संस्थान के पुरस्कारों का और बुरा हाल है। इज़्ज़दार लोग ऐसे पुरस्कारों को लेने से भी कतराते हैं। उर्दू के लेक्चरर और साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की पुरस्कार समिति के सदस्य डॉ. अजय मालवीय ने इन पुरस्कारों पर सवालिया निशान लगाते हुए उर्दू अकादमी से मिले अपने पुरस्कार को पिछले महीने लौटा दिया। तथाकथित दावेदार हमेशा इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं कि किससे सम्पर्क साधें कि वह भी ‘‘यश भारती’’ जैसा पुरस्कार हथिया कर बिना कुछ किये धरे आजीवन पचास हजार की मोटी रकम पेंशन के रूप में लेते रहें।

 




लेखक कवि, साहित्यकार और पत्रकार हैं

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