चम्पारण की विचार यात्रा
मणीन्द्र नाथ ठाकुर
मैं इतिहास में ज़्यादा रुचि नहीं ले पाता हूँ। क्योंकि आमतौर पर लोगों में
इतिहास से सीखने के बदले उसका उत्सव मनाने का भाव रहता
है। इतिहास सामाजिक ज़ख़्मों को भवनों और घटनाओं के साथ ताज़ा रखता है। यादों की
दुनियाँ में अच्छी बातें भी होती हैं लेकिन उनकी यादें काम और दुखों की यादें
ज़्यादा रहती हैं। आप चंपारण को ही लें। ज़्यादातर जिन बातों को याद किया
जा रहा है, उसमें अंग्रेज़ों के द्वारा दिए गए कष्ट और सरकार के द्वारा उस ऐतिहासिक जगह
की उपेक्षा है। अब सवाल है की जिस देश का इतिहास पाँच हज़ार वर्षों का हो वहाँ
यदि यदि इन
ऐतिहासिक धरोहरों को सम्भालने में ही लगा जाए तो सरकार के पास धन की कमी हो जाएगी;
सारी ज़मीन इसी
में चली जाएगी। मनुष्य का असली धरोहर विचार है,
ज़मीन या भवन
नहीं। इसलिए चंपारण भी एक जगह से ज़्यादा एक विचार है और एक वैचारिक प्रयोग है।
चंपारण का यह प्रयोग आज ज़्यादा महत्वपूर्ण इसलिय है कि आज किसान आत्महत्या कर रहा
है, नील की खेती के कारण नहीं बल्कि कपास की खेती के कारण। यह समझने के लिय चंपारण
की विचार यात्रा करनी होगी की भारत में अब किसका शासन है बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों का या
जनता का? इस संदर्भ में कुछ सवाल महत्वपूर्ण हैं। इन सवालों के माध्यम से चंपारण को
समझने का प्रयास करना उचित होगा।
पहला सवाल है कि गांधी को ही किसानों ने आंदोलन की अगुआयी के लिय क्यों चुना?
गांधी तो
अभी-अभी दक्षिण अफ़्रीका से आए ही थे। उनके अलावे भी यहाँ बहुत बड़े-बड़े नेता थे
जिनके चंपारण जाने से व्यापक प्रभाव पड़ सकता था। कहीं ऐसा तो नहीं था कि जो भी
स्थापित नेतृत्व उस समय था उनसे किसानों का संवाद सम्भव नहीं हो
सकता था। ज़्यादातर नेता न केवल शहरी लोग थे बल्कि उनमें से ज़्यादातर लोगों की
शिक्षा-दीक्षा भी विदेशों में हुई थी। ये एक तरह से समृद्ध भारतीय पृष्ठभूमि के
लोगों का नेतृत्व ही कर रहे थे। गांधी इन में से अकेले थे जिनकी
दक्षिण अफ़्रीका
की लड़ाई ने शायद किसानों में उम्मीद जगाई थी। भारतीय अंग्रेज़ी शिक्षित नेतृत्व
में किसानों से जुड़ने की न इच्छा थी, न समझ और न ही क्षमता थी। अकेले गांधी में
शायद ये सभी बातें थी।
दूसरा सवाल है कि गांधी वहाँ गए क्यों? गांधी को न तो गाँव का ही कोई अनुभव था,
न खेती-किसानी
से कोई सम्बंध और न उन्हें मालूम ही था की चंपारण है कहाँ । ऐसे में यह सवाल बहुत
महत्वपूर्ण है कि गाँधी ने वहाँ जाने का निर्णय क्या सोच कर लिया होगा। सम्भव है
कि बहुत शोध करने पर भी इस बात का कोई प्रामाणिक उत्तर न मिल सके। लेकिन हम अनुमान
कर सकते हैं। गांधी अभी-अभी भारत आए थे। उनके दक्षिण अफ़्रीकी प्रयोग से लोग
परिचित भी थे और प्रभावित भी। लेकिन इतने मात्र से भारत के
प्रभावशाली नेता आंदोलन का कमान उन्हें शौप देते इसमें शक करना उचित होगा। शायद
ग़ाँधी को नेतृत्व की दावेदारी के लिय भारत में कुछ
करना ज़रूरी रहा होगा जिससे उनकी क्षमता और
सूझ-बुझ पर लोगों का विश्वास जम सके। अपनी भारत यात्रा के दौरान
गाँधी को यह बात समझ में आ गयी थी कि किसानों को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल किए
बिना अंग्रेज़ों को हराना सम्भव नहीं होगा। चंपारण ने इन्हें अच्छा मौक़ा दिया
किसानों को समझने और आगे की दिशा तय करने का।
वैसे तो चंपारण को नील की खेती और उसके कारण किसानों
पर हो रहे अत्याचार के लिए जाना जाता है। लेकिन सच यह है कि आंदोलन के समय तक नील
की खेती अपने आप ही बहुत कम हो गई थी, क्योंकि रासायनिक नील की खोज हो चुकी थी।
लेकिन नील से आमदनी कम होने के कारण अंग्रेज़ों ने अलग-अलग तरह के शुल्क
लगा दिया था और
उसकी वसूली के लिए अत्याचार बढ़ गया था। कुछ टैक्स इस तरह थे:
होली-रामनवमी कर,
पाइन कर (सिंचाई
के लिय), बैंट माफ़ी कर (हल रखने के लिए) , कोलहुवान कर (तेल निकालने
के लिय), चूल्हियावन कर (चूल्हा बनाने के लिए),
बापही -पुतही कर
(बच्चा होने पर)। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक था ‘घवही कर’ जो घाव होने पर
देना पड़ता था। ग़ाँधी का आंदोलन किसानों के वर्तमान से ज़्यादा उनके भविष्य में
होनेवाले शोषण के लिय था। किसानों पर कर बोझ तो बढ़ ही रहा था साथ ही उसके उसूली
के लिए अत्याचार में भी विस्तार हो रहा था। गांधी को न केवल इसकी
समझ थी बल्कि उन्हें यह भी लग रहा था कि उपनिवेशवाद का
यह सबसे घिनौना
रूप था और इसके ख़िलाफ़ लड़ना किसानों को स्वतंत्रता
आंदोलन की ओर आकर्षित करेगा।
मेरे ख़याल से गांधी के लिय चंपारण एक और कारण से आकर्षक
रहा होगा। गांधी
ने भारत आकर
लगभग यह तय कर लिया था कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन एक तरह से दुनियाँ के लिय
पश्चिमी सभ्यता का एक विकल्प प्रस्तुत करने का भी मौक़ा था । यह विकल्प केवल एक
स्वतंत्र राष्ट्र केरूप में नहीं बल्कि एक पूरी सभ्यता के रूप में होना चाहिय। और
गांधी के लिय भारत की ग्रामीण सभ्यता में ये सम्भावनाएँ थी।
गांधी
जब गाँवों
की बात करते थे
तो उसका अर्थ केवल शहर से दूर कोई जगह जहाँ खेती किसानी की आर्थिक व्यवस्था थी ऐसा
गाँव नहीं था,
बल्कि एक पूरी
सभ्यता थी; एक अलग तरह की जीवन प्रणाली, नैतिक मूल्य और सामाजिक व्यवस्था थी। चंपारन में गाँधी उसी खोज में जाते हैं।
यही कारण था कि जिस व्यक्ति ने गांधी को चंपारण के
लिय आमंत्रित किया था, उसमें उन्हे वे चीज़ें दिखती नहीं थी और कई बार गाँधी
इससे उदास और नाराज़ भी हो जाते थे।
अब तीसरा सवाल है कि गांधी ने क्या किया वहाँ जा कर ?
सबसे पहले तो
उन्होंने ने लड़ने के अपने तरीक़े को स्पष्ट तौर पर
स्थापित किया। सत्याग्रह का मूल मंत्र था अपने विरोधी को यह समझा देना कि उनका
विरोध किसी व्यक्ति से नहीं बल्कि उस सोच से है जिसका परिणाम है शोषण। यह
कोई आसान काम नहीं था। यह समझ अभी भी नक्सलवादियों को नहीं है। जब-जब
पुलिस के लोगों
को मारने में उन्हें सफलता मिलती है,
तब-तब उनके
विचारों को सर्वमान्य बनाने में उन्हें असफलता मिलती है। सफलता तो निकटगामी है ओर
असफलता दूरगामी; एक क्षणिक है और दूसरा स्थाई। गांधी को इस बात की
समझ थी और लड़ाई का यही मूल मंत्र उनके पास था। चंपारण में गांधी ने घोषणा कर दी
कि किसानों का आंदोलन अलग तरह का है। इसमें मानवीय मूल्यों की
सर्वामन्यता को हथियार बनाया जाएगा। विद्यालय बनाना, सफ़ाई करना, स्वास्थ्य की देख-भाल करना। इन बातों का
आंदोलन से सीधा सम्बंध तो नहीं ही होगा। फिर गांधी के आंदोलन के तकनीक में इन सबका
की क्या भूमिका थी? इसमें समझने की बात यह है कि गांधी की राजनीतिक समझ
में सरकार और राज्य से इतर समाज की स्वायत्ता का दर्शन शामिल था। यह उनकी कल्पना
की पहली उड़ान थी। उनका दूसरा मंत्र था औपनिवेशिक राज्य के डर को लोगों के मन से बाहर
निकालना। उन्होंने तय किया कि जहाँ प्रदर्शन के लिय मना किया गया है,
ठीक वहीं
प्रदर्शन होगा और गिरफ़्तारी दी जाएगी। उन्हें गिरफ़्तार किया
गया। लेकिन जन विरोध के आगे प्रसाशान को ख़ुद ही उनका
ज़मानत भर कर उन्हें मुक्त करना पड़ा। यह औपनिवेशिक मानसिकता की पहली हार थी। यही
चंपारण महत्व
है।
अब चौथा सवाल है कि इस आंदोलन का प्रभाव बिहार की राजनैतिक संस्कृति पर,
राष्ट्रीय
आंदोलन पर और कांग्रेस के नेतृत्व पर क्या पड़ा? राष्ट्रीय आंदोलन और कांग्रेस के नेतृत्व पर
इस आंदोलन की सफलता का प्रभाव तो जग ज़ाहिर है। इसलिए यहाँ इस सवाल पर ग़ौर
किया जाए कि क्या बिहार के राजनीतिक संस्कृति पर भी इसका कोई प्रभाव पड़ा। निश्चित
रूप से गांधी का बिहार आगमन एक बड़ी घटना थी। चंपारण के एक
किसान राजकुमार शुक्ल ने उन्हें बिहार आने के लिए बहुत आग्रह किया। गांधी
उनसे बहुत
आश्वस्त नहीं थे। अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उन्हें चंपारण के बारे में कुछ भी
मालूम नहीं था। राजकुमार शुक्ल से वे बहुत प्रभावित
भी नहीं थे। शुक्ल जी एक वक़ील ब्रजकिशोर
बाबू को उनसे
बात करने के लिय साथ ले कर गए। गांधी उनसे भी प्रभावित नहीं हुए। लेकिन शुक्ल के
बार-बार मिलने और अथक प्रयास के कारण वहाँ जाने को तैयार हो गए। पटना पहुँच कर
राजेंद्र बाबू की अनुपस्थिति में उनके घर पर उनका जो स्वागत हुआ उससे गांधी को
बहुत निराशा हुई। सेवकों को गांधी की जाति का अंदाज़ा
नहीं था इसलिय
उनके साथ हुए व्यवहार में जातिगत अवमानना भी शामिल था। फिर कुछ और पुराने मित्रों
की सहायता से चंपारण। और फिर राजेंद्र प्रसाद और ब्रजकिशोर
प्रसाद जैसे कई नामी वकील उनके साथ शामिल हो गए।
बिहार के लोगों पर गांधी के विचार उल्लेखनीय हैं। अपनी आत्मकथा में
उन्होंने लिखा है कि बिहार के लोग सरकारी आतंक से डरे हुए थे। वकीलों ने उनसे साफ़
कहा कि यहाँ बहुत कुछ हो पाना सम्भव नहीं होगा। लेकिन आचार्य कृपलानी जैसे लोग भी
वहाँ थे जो मुज़फ़्फ़रपुर में प्रोफ़ेसर थे लगभग गांधी की तरह सोचते थे। उन्होंने
अपनी आमदनी का अच्छा ख़ास हिस्सा किसानों की सहायता के लिय देना शुरुकर दिया
था। गांधी के आगमन से प्रभावित हो कर नौकरी छोड़ कर गांधी के साथ शामिल हो गए।
धीरे-धीरे बाँकि लोग भी गांधी सहायता के लिए
आगे आ गए। गांधी बिहार के लोगों की सादगी से प्रभावित थे। इस आंदोलन का प्रभाव था
कि गांधी को राष्ट्रीय आंदोलन के लिय कई अभिन्न सहयोगी
मिले। इस बात पर
शोध की ज़रूरत है कि गांधी के इस प्रयोग का बिहार की राजनीतिक
संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ा। क्या यह हो सकता है कि इस कारण से ही बिहार में
दलित आंदोलन का ख़ास स्वरूप उभरा जो महाराष्ट्र का अंबेडकरवादी आंदोलन से लग है।
शायद उस आंदोलन का ही प्रभाव है कि बिहार में दलित आंदोलन अस्मिता आंदोलन नहीं
होकर एक बड़े आंदोलन का हिस्सा बना रहा और भारत को पहला दलित उपप्रधान मंत्री और
पहला दलित मुख्यमंत्री दिया। अब जबकि दलित आस्मिता आंदोलन की सीमाएँ नज़र आने लगी
हैं, बिहार के दलित राजनीति को चंपारण के इस आंदोलन से जोड़ कर देखने की ज़रूरत है।
क्या आपातकाल के विरोध के आंदोलन की शुरुआत बिहार से हुई इसमें भी
चंपारण-संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है? इस गांधीवादी आंदोलन को क्या चंपारण का दूसरा
चरण माना जा सकता है? ग़ौर करने की बात है कि जयप्रकाश का आंदोलन के सरकार परिवर्तन के लिय नहीं था,
बल्कि उनका
आग्रह व्यवस्था परिवर्तन का था। सम्पूर्ण क्रांति का उनका सपना गांधी से उधार लिया
हुआ था, चाहे दलविहीन जनतंत्र का हो या फिर ग्राम स्वराज का। भले ही इस आंदोलन से
निकले नेतृत्व में गांधी का कोई गुण नहीं हो लेकिन जनमानस में आज भी गांधी बसते
हैं। सत्तर के दसक में ग्रामीण विद्यालयों में जिन लोगों ने अपनी पढ़ाई-लिखाई की
होगी उन्हें याद होगा कि गांधी अदृश्यरूप में आसपास उपस्थित रहते थे। सुबह के
प्रभात फेरी में जब बच्चे नारा लगते ‘टन पर हव वस्त्र स्वदेशी,
मन में हव भाव
स्वदेशी और मारने पर भी कफ़न स्वदेशी’ तो इसकी प्रतिध्वनि वहाँ की जन चेतना में
गूँजती थी। आज भी यदि आप बिहार की चाय की दुकानों पर बैठ जाएँ और किसी मुद्दे पर
बहस की शुरुआत कर दें तो चंपारण का सुगंध आपको मिलेगा। गांधी का प्रभाव वहाँ की
सामूहिक चेतना पर पकड़पाना कोई मुश्किल काम नहीं है।
अब एक नज़र इस बात पर भी डाल लें कि क्या इस प्रयोग से हम आज
के किसान आंदोलन
के लिय भी कुछ सबक़ ले सकते हैं। चंपारण के प्रयोग की ख़ास बात किसान के कर माफ़ी
के लिए लड़ना नहीं था, बल्कि ग्रामीण सभ्यता को पुनः स्थापित करने के लिए एक प्रयास की शुरुआत थी। आज
भी किसानों की बदहाली का कारण उन पर लगाए जाने वाला कर नहीं है,
बल्कि उस सभ्यता
की मौत है। जिस सभ्यता में सहयोग और साहचर्य आदर्श था,
हर व्यक्ति में
पंच परमेश्वर की सम्भावना थी। लोग विश्वास कर सकते थे एक दूसरे पर। विवाह हो या
श्राध, सबकुछ सहयोग से निपट जाया करता था, वृक्ष के फलों को बेचने की परम्परा नहीं थी,
बाँटने की
परम्परा थी। किसान आत्महत्या केवल इसलिए नहीं कर रहे हैं कि उनके ऊपर क़र्ज़ है,
बल्कि इसलिए भी
कर रहे हैं कि इस संकट की घड़ी में उनका साथ देने वाले लोग नहीं रहे। चंपारण
आंदोलन इस स्थिति के विरोध का आंदोलन था और ग्रामीण समाज के पुनः चिंतन का आंदोलन
था।
इस पुनः चिंतन के लिय गांधी ने शोध किया था, जिससे आज के समाज वैज्ञानिकों और
राजनीतिज्ञों को भी सीखने की ज़रूरत है। उन्होंने पत्रकारों को वहाँ आने से माना
कर दिया था। इसके बदले लोगों की कहानियाँ उनकी ज़ुबानी जमा की गई। लगभग दस हज़ार
कहानियाँ जमा हुए, इसे समाजशास्त्र की भाषा में टेस्टिमोनीयल कहते हैं। यह उदारवाद
का दावा
करनेवाले ब्रितानी बुद्धिजीवियों के लिए शासन के अत्याचार का प्रमाण भी था और
गांधी के लिय स्थिति को समझने के लिय दस्तावेज़ भी। लगभग ऐसे एक काम हाल ही में
नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया है। रूस की प्रसिद्ध लेखिका स्वेतलाना अलेक्सेविस ने
अपनी पुस्तक ‘सेकंड हैंड टाइम’ में सोवियत संघ विघटन काल के लगभग एक हज़ार कहानियों में कुछ को
इसमें संकलित किया है। गांधी का यह प्रयास यह एक तरह की जनसुनवाई थी,
शायद भारत की
पहली जनसुनवाई।
No comments:
Post a Comment