10 September 2017

            हिन्दी समाज का सांस्कृतिक वितान 

                    अर्चना वर्मा 

भाषा के पैमाने पर हिन्दी समाज का मतलब हिन्दीभाषी प्रदेशों की आबादी को माना जा सकता है भारत की कुल आबादी का लगभग 43% राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र समेत दिल्ली, बिहार, राजस्थान, हरियाणा उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, हिमाचल-प्रदेश  तक का ओर-छोर नापता इतना बड़ा भारी इलाका जो असल मेँ वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, सांस्कृतिक समुदायोँ आदि-आदि अस्मिताओं के पैमाने पर बहुत सारे समाजों का संकलन कहा जा सकता है। और उस हिन्दी के भी असल में अनेक विभिन्न प्रादेशिक, सामुदायिक, स्थानीय रूप हैँअवधी, ब्रज, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, भोजपुरी, हरयानवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, झारखण्डी, कुमाउँनी, मगही आदि जिसके आधार पर उसके वक्ता-समाज को एक बृहत हिन्दी-समाज के अन्तर्गत  ‘अस्मिताविहीनकर दिया जाता है। अस्मिता की राजनीति के विखण्डन कार्यक्रम के अनुसार उनकी संख्या शायद दर्जन भर से अधिक में गिनी जा सकती है और जहाँ तक भाषिक अस्मिताओं का सवाल है, उनके वक्ता और प्रवक्ता खड़ी बोली हिन्दी को वैसी ही वर्चस्वी और दमनकारी सत्ता मानते हैँ जैसी कि अन्य समस्त भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में अंग्रेजी को माना जाता है। सामाजिक न्याय के सिलसिले में संकटों और समस्याओं को सूचीविद्ध करने के लिये ऐसा विखण्डन ज़रूरी भी है लेकिन उतना ही ज़रूरी उसके पूरक पक्ष की तरह यह याद रखना भी है कि स्वतःसम्पूर्ण सा प्रतीत होने वाला कोई समुदाय वस्तुत: एक बृहत्तर अखण्ड का एक खण्ड ही हो सकता है।
बहुत सारी भाषाओं में से किसी एक भाषा का वर्चस्वी और केन्द्रीय हो उठना और मानक भाषा की जगह ले लेना बहुत सारे कारणो पर निर्भर करता है। उनकी चर्चा यहाँ अवान्तर है। निष्कर्ष यह है कि मानक भाषा को अब ‘’सही भाषा’’ की कसौटी नहीं, बल्किसही भाषाकी अवधारणा को शक्ति-विमर्श की प्रक्रिया का फल और वर्चस्व का प्रमाण माना जाता है और सदियों के व्यावहारिक अनुभव   का निष्कर्ष यह कि ऐसा होना अवश्यम्भावी है। सच यही है कि इस समूचे इलाके के जीवन को व्यक्त करने वाले साहित्य की भाषावर्चस्वी या दमनकारी या बाकी जो कुछ भी उसे कहा जायहै तो यही खड़ी बोली हिन्दी ही। और जब हम हिन्दी समाज के सन्दर्भ में हिन्दी साहित्य की बात कर रहे हैँ तो उसका मतलब खड़ी बोली हिन्दी का ही साहित्य होता है।
समाज के सिरे से देखें तो ऐसे विविधवर्णी समाज के बहुरंगी जीवन की अभिव्यक्ति की अपेक्षाओं को खण्ड-प्रतिखण्ड पूरा करने के लिये हिन्दी साहित्य की क्षमताओं और कार्यान्वितियों का आकलन बहुत आसान नहीं है। तो साहित्य के सिरे से ही देखें। शायद उसी सिरे से देखना संभव भी है।
साहित्य के लिये तरह तरह से परिभाषित भूमिकाएँ हैँ, तरह तरह से निर्धारित प्रकार्य हैँ। कभी उसे  समाज का दर्पण और परिस्थितियों का दस्तावेज माना गया, कभी समाज को रास्ता दिखाने वाली मशाल, कभी वास्तविकता का निषेध और प्रतिरोध तो कभी संशोधन, कभी सामंजस्य तो कभी अतिरंजना, कभी प्रतिरूप तो कभी प्रतिसंसार, कभी रूप का सृजन तो कभी समांतर संरचना और संरचना का विखण्डन भी हर भूमिका, हर प्रकार्य के पीछे कोई न कोई विचारधारा है, प्रमुख रूप से वाम और दक्षिण में विभाजित। और अपने अपने हिसाब से इन विचारधाराओं के बीच मारधाड़ और सिरफुटौव्वल की हद तक बहस भी चलती रहती है।
हिन्दी समाज और हिन्दी साहित्य को एक दूसरे की परस्परता और प्रत्याशा में देखने के लिये बहसों के परे जाकर देखना और सब विचारधाराओं को एकसाथ समेटना ज़रूरी है। इसके लिये भाषा की मौलिक भूमिका मेँ निहित समाजीकरण की प्रक्रिया को देखना होगा। साहित्य भी इसी प्रक्रिया का एक फल है। मनुष्य एक सामाजिक उत्तराधिकार की तरह भाषा का अर्जन करता है और अभिव्यक्ति के माध्यम से अपने नितान्त निजी और व्यक्तिगत अस्तित्व का भी समाजीकरण करता है। इस समाजीकरण के द्वारा समाज को निजी और व्यक्तिगत कोशों में से निकाले गये अनुभव, विचार, स्मृतियाँ, स्वप्न, दुःस्वप्न, कल्पना, आविष्कार, चेतावनी आदि आदि का भाण्डार निरन्तर अपने बृहत्कोश में दाखिल और संचित करते रहने का मौका मिलता रहता है। और यह प्रवाह एक अनवरत और परस्पर प्रक्रिया की तरह कायम रहता है।
मुझे मानना होगा कि दिल्ली में रहते हुए और हिन्दी की एक प्रमुख साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन करते हुए मैँ साहित्य के बारे में अपनी जानकारी और समझ को लेकर इस ग़लतफ़हमी का शिकार रही कि मुझे अगर सब नहीं, तो बहुत कुछ तो मालूम है ही मुख्यधारा और उसके प्रमुख सरोकारों के बारे में। लेकिन पिछले वर्ष संयोगवश रायपुर, इन्दौर, लखनऊ, इलाहाबाद जैसे साहित्यिक केन्द्रों की यात्राओं का मौका मिला तो मैने पाया कि मेरी ग़लतफ़हमी कितनी बड़ी थी। हिन्दीभाषी राज्यों जितने बड़े इलाके में वस्तुतः असंभव है किसी मुख्यधारा का होना। असल मेँ इन सभी शहरों में महसूस हुआ कि सबके अपने अपने स्थानीय साहित्यिक दायरे हैं, बल्कि शायद कई। अपने संचार-क्षेत्र के भीतर प्रसार-प्रचार वाली अच्छी खासी पत्रिकाएँ हैँ, अपने अच्छे-खासे लेखक हैँ और इसके अलावा सोशल मीडिया नें उन्हें मुख्यधारा तक पहुँचने के लियेहंस’, ‘ज्ञानोदययाकथादेशजैसी तथाकथित मुख्यधारा पत्रिकाओं का मोहताज होने से बचा रखा है। इस विविधता और बहुलता के बीच कोई एक मुख्यधारा कहीं है नहीं। न कथ्य की दृष्टि से, न कथन-शैलियों की दृष्टि से, न रूपविधाओं की दृष्टि से। यहाँ तक कि अस्मिताविमर्शों ने अपने अपने चौखटों मेँ जड़कर यथार्थ का जो बँटवारा दलित, स्त्री, पिछड़ा, अल्पसंख्यक आदि नामोँ से किया था और कथ्य को उतने से ही स्पेस में कील दिया था, अगली पीढ़ी ने उसे भी विविध आयामों में फैलाया और बहुरंग बनाया है।
इन हिन्दीभाषी इलाकों का लेखक समुदाय प्रायः मध्यवर्ग से आता है। जाति, सम्प्रदाय, सांस्कृतिक समुदाय आदि अमूमन हर तबके का मध्य-वर्ग इसमें शामिल है। पिछली पीढ़ियों के विपरीत अब कई बार वह केवल हिन्दी माध्यम से पढ़ा हुआ या हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी रहा हुआ व्यक्ति नहीं है। कई बार वे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक अधिकारी, सूचना अभियांत्रिकी में प्रशिक्षित आदि आदि अनेक विभिन्न व्यवसायों से जुड़े हुए ऐसे भी व्यक्ति हो सकते हैं जिन्होंने  हिन्दी साहित्य का विधिवत अध्ययन नहीँ किया क्योंकि उनके पास छात्र-जीवन में विषयक्षेत्र का चुनाव व्यवसाय-सुलभता की दृष्टि से करने का विकल्प था और अब उन्हें अपने हिन्दी-प्रेम, साहित्य-रसज्ञता और सृजनात्मक कौशल के परिपोषण का मौका मिला है। इन सामाजिक स्तरों पर प्रवेश करते ही वे अपने बहुसंख्यक समाज से प्राय: कटे हुए और उत्तरोत्तर कटते हुए दिखाई देते हैँ। या फिर शायद जैसे प्रकाण्ड परिवर्तनों से होकर हमारा समाज गुजर रहा है उनके कारण मेरी पीढ़ी के लिये उसका यथार्थ इतना अपरिचित हो चुका है कि लेखक हमारे जाने समझे यथार्थ से कटा हुआ प्रतीत होता है जबकि असल में हम ही मौजूदा समाज और उसके यथार्थ से कट चुके हैं।
हिन्दी समाज की बहुसंख्यक आबादी और उसके जीवन को परिभाषित करने का एक मोटा और सीधा तरीका मुझको यह समझ में आता है कि वह ठेठ हिन्दी की बोलियों और उपभाषाओं मेँ पला समाज है। प्राय: वह पाठक समाज भी नहीं है। प्राय: वह निम्न मध्यवर्गीय कस्बाई मानसिकता का समाज है जिसके लिये हवा और आकाश के रास्ते बन्द हैं। बहुत संभव है कि हमारा लेखक यहीं से उठ कर वहाँ तक पहुँचा हो और अब लेखन के माध्यम से अपने नये संसार की पैमाइश के उत्तेजनाप्रद कार्यक्रम में मुब्तला हो और वह संसार हमारी समझ के परे हो।   
जाना बूझा सच है कि तकनीकी विकासों के साथ कलात्मक अभिव्यक्ति की पद्धतियाँ भी बदलती हैं। बहुत परिचित उदाहरण कैमरा के आविष्कार का है। छायाचित्र के मुकाबले में चित्रकला ने अपने प्रभाववादी कलेवर को त्याग कर अभिव्यंजनावादी तेवर का आविष्कार किया। इसी तरह साहित्य के पास जो दस्तावेज, मार्गदर्शन वगैरह के प्रकार्य थे वे छापाखाने और कैमरा की शुरुआत के साथ अपर्याप्त रह गये, उपदेश और सन्देश के बदले कल्पना और सृजन के आयाम प्रमुख हो गये। कृति और यथार्थ का फासला जब न्यूनतम था तब साहित्य में समाज  साफ़ साफ़ सन्निविष्ट नज़र आता था। जैसे प्रेमचंद युग के कथा-साहित्य में। वास्तविक कथ्य को छिपाने की ज़रूरत से इस फ़ासले को बढ़ाया और आच्छादन की नयी नयी युक्तियाँ खोजी जाती हैं, जैसे अंग्रेजी शासन के अधीन क्रान्ति के सन्देश को छिपाने के लिये प्रसाद के नाटकों मेँ इतिहास का आच्छादन। आज का यथार्थ आच्छादन से विद्रोह का, चुप्पियाँ तोड़ने के साहस का, अपने हक और अपनी स्च्छंदता की माँग की खुले आम क्रान्ति का आह्वान करता है। औद्योगीकरण और विकास के अंधेरे पक्ष विस्थापन और विषमता के बढ़ते अनुपातों को उजागर करता है जो कि प्रायः हिन्दी-समाज के हिस्से में आया है  लेकिन खुद हिन्दी समाज को ही इसखुल्लमखुल्ला’, ‘दिन-दहाड़ेकी आदत नहीं है। उसे यह उद्दण्डता और धृष्टता महसूस होती है, साहित्य उसे अपने पथ से विचलन की ओर जाता प्रतीत होता है। लेकिन दर-अस्ल जिस प्रकाण्ड परिवर्तन से इस समय हमारा समाज गुजर रहा है उसके समेत वह साहित्य मेँ सन्निविष्ट है, भले ही साहित्य इस वक्त दर्ज कर देने की जल्दबाजी में स्वयं अपने प्रति न्याय न कर पा रहा हो। 
सूचना और तकनीक के प्रसार ने हमारे समय के समाज का यथार्थ और साहित्य के प्रकार्य दोनो बदल दिये हैँ। साहित्य की पुरानी भूमिकाएँ जाती रही हैं। संचार माध्यमों के सौजन्य से हम एक बार फिर वाचिक और दृश्य माध्यमों के युग में और संजाल की कृपा से सारे विश्व के सम्पर्क में हैं। माध्यम के रूप में मुद्रण पीछे छूट रहा है। दृश्य-श्रव्य माध्यमों के इस आगम में फ़िल्म साहित्य का नवीनतम अवतार है और तकनीकी विकास नेवन मैन इण्डस्ट्रीकी संभावना को सच करके साहित्य को फ़िल्म का उपजीव्य बना दिया है। साहित्य को इस दुनिया में अनेक सांस्कृतिक संरचनाओं में से बस एक और सांस्कृतिक संरचना की तरह पहचाना जाता है।
सितम्बर 2017 में प्रकाशित 
 
लेखिका वरिष्ठ आलोचक हैं|
सम्पर्क -  mamusha46@gmail.com