16 May 2017

यातना का प्रतिकार प्रेम                



पंकज चतुर्वेदी


मंगलेश डबराल सरापा कवि हैं । उनके व्यक्तित्व और कविता, संवेदना और विचारशीलता, प्रेम और  प्रतिबद्धता के बीच कोई फाँक नहीं । इस तरह विचार, संवेदना, सौंदर्यबोध और मूल्यनिष्ठा की संश्लिष्ट समग्रता उनके यहाँ कविता में रूपान्तरित हुई है । उन्होंने अपने समूचे वजूद से कविता को संभव किया है, क्योंकि उससे कम या अधूरा कुछ करना एक गुनाह ही होता |
      आज से लगभग पैंतालीस बरस पहले मंगलेश डबराल को टिहरी गढ़वाल ज़िले के काफलपानी गाँव से विस्थापित होकर जीविका की तलाश में देश की राजधानी दिल्ली की शरण लेनी पड़ी थी । गोकि वह इसेएक धुँधली युवावस्था में पहाड़ से पत्थर की तरह लुढ़कते हुएआना कहते हैं और इससे यह ख़ुशफ़हमी हो सकती है कि वह किसी सहज घटना की ओर इशारा कर रहे हैं । मगर उनके पहले कवितासंग्रह की शीर्षक कवितापहाड़ पर लालटेन’ (1981) का एक बिम्ब याद करें—‘‘वह पहाड़ दुख की तरह टूटता आता है हर साल’’, तो मालूम होगा कि यह विस्थापन उनका चुनाव नहीं, बल्कि विवशता थी । इसलिए आरम्भिक कविताओं में एक ओर पीछे छूट गये प्राकृतिक परिवेश की आत्मीय और सजल स्मृतियाँ हैं, तो दूसरी तरफ़ युयुत्सा है, जो उस जीवन की विपन्नता और अवसाद के प्रतिकार के लिए कवि को ज़रूरी लगी । चाहे वहपहाड़ पर एक तेज़ आँख की तरह जलती लालटेन के धीरेधीरे आग बननेका बिम्ब हो यागाँव में एक बाघ के डुकरने की आवाज़का सुन पड़नाय इन्हें आठवें दशक में मुख्य तौर पर नक्सलबाड़ी की क्रांतिधर्मिता से उपजी उम्मीद और बेचैनी के प्रतीकों की तरह पढ़ा जा सकता है । कवि के भीतर पहाड़ी गाँव से आये हुए एक निश्छल, संवेदनशील और न्यायप्रिय इंसान को हम बराबर महसूस करते हैं, जो शहरी चकाचैंध में व्याप्त अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टता से बहुत सावधान, सहमा हुआ और आहत है । लेकिन कुछ मूल्यों के लिए यह संघर्ष किया जाना अनिवार्य था ।  एक स्तर पर उनकी समूची काव्ययात्राविस्थापन के अर्थकी तलाश है औरदुनिया को बदलने के पुराने, अनिवार्य और असंभव कामसे वाबस्ता है । यह विडम्बना ही कही जायेगी कि कवि को अपनी मूलभूमि से बिछुड़ना पड़ा और शहर के अजनबी और क्रूर चेहरे को वह कभी अपना अंतरंग बना नहीं सका । जिस संस्कृति से  विस्मय और विरक्ति थी, उसी का हिस्सा बन जाने की कचोट, उसका आत्मव्यंग्य इस मुस्कराहट में छिपा है
      ‘‘मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया
      वहाँ कोई कैसे रह सकता है
      यह जानने मैं गया
      और वापस न आया ।’’
      1988 में दूसरे कवितासंग्रहघर का रास्ताके आतेआते मंगलेश डबराल के सामने स्पष्ट हो जाता हैउन्हीं के शब्दों में कहें तो—‘‘कुछ भी उस तरह आसान नहीं है जैसा हम सोचते थे ।’’ मगर विफलता के एहसास से उनकी कविता की गहनता और मर्मस्पर्शिता बढ़ती है ।
      गाँव की ज़िंदगी के और अभावग्रस्त और तकलीफ़देह हो जाने का दंश । मंगलेश डबराल बेशक कवियों की मैनोशी, काव्यात्मक चिंताओं और उनके बनठनकर टहलने को गै़रज़रूरी मानते हैं, क्योंकि उनके मुताबिक़ एक सच्चे कवि की पहचान यह है कि वहरोज़ रात में ख़ुद को लहूलुहानपाता है । यातना के इस मंज़र से गुज़रकर वह अपनी नागरिकता का शुल्क ही अदा नहीं करते, मुख्यधारा की संस्कृति से अपनी नाइत्तिफाकी जताते हैं । यों उनके यहाँ जो आत्मकरुणा है, वह उसी वक़्त प्रतिकार की भी कार्रवाई है ।
      प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा कहते हैं किमंगलेश फूल की तरह नाजु़क और पवित्र हैं ।निश्चय ही स्वभाव की सचाई, कोमलता, संजीदगी, निस्पृहता और युयुत्सा उन्हें अपनी जड़ों से हासिल हुई है, पर इन मूल्यों को उन्होंने अपनी प्रतिश्रुति से अक्षुण्ण रखा है—‘‘मैं भूल नहीं जाना चाहता था/अपने घर का रास्ता ।’’
      मंगलेश डबराल की काव्यानुभूति की बनावट में उनके स्वभाव की केन्द्रीय भूमिका है । उनके अंदाज़ेबयाँ में संकोच, मर्यादा और करुणा की एक लर्ज़िश है । एक आक्रामक, वाचाल और लालची समय में उन्होंने सफलता नहीं, सार्थकता को स्पृहणीय माना है और जब उनका मंतव्य यह हो कि मनुष्य होना सबसे बड़ी सार्थकता है, तो ऐसा नहीं कि यह कोई आसान मक़सद है, बल्कि सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि यह आसानी कितनी दुश्वार है ।
      मंगलेश की कविताओं में समय के साथ ट्रेजेडी का बोध इतना गहन और सशक्त होता गया है कि उसे किसी प्रशंसा, पुरस्कार या प्रलोभन से विचलित नहीं किया जा सकता । समय की नृशंसता का इतना साफ़, सीधा और अचूक बयान शायद ही किसी ने दर्ज किया हो
      ‘‘यह ऐसा समय है
      जब कोई हो जा सकता है अंधा लँगड़ा
      बहरा बेघर पागल ।’’
(‘हम जो देखते हैं’, 1995 )

      ऐसे समय में आततायी शक्तियों से कोई निर्णायक संग्राम नहीं किया जा सका, जिसकी कविता के सफ़र की शुरूआत में एक उम्मीद नज़र आती थी । इसलिए कवि कोअपनी तस्वीरमेंकिसी युद्ध से लौटने की यातनादिखती है । मंगलेश तृणमूल स्तर की यथार्थचेतना के कवि हैं । उनकी कला और दार्शनिकता इसी चेतना की कोख से जनमती है । मसलन वैराग्य किसी गहरे सरोकार की निशानी हो सकता है और सुंदरता के अभाव में भी उसके इसरार का अपना सौंदर्य है
      उनकी कविता की संजीदगी, सांद्रता और औदात्य उनके इसी लहज़े पर निर्भर है । यह रूप और अंतर्वस्तु की द्वन्द्वात्मक संहति है । बुनियादी तौर पर अभिव्यक्ति की यह शैली लोकतंत्र की सच्ची संस्कृति से निर्मित है । असम्प्रेषणीय होना दमनकारी सत्तातंत्र की रणनीति हो सकती है, मगर कवि के लिए मंगलेश चाहते हैं—‘‘कुछ सरल शब्द/जिन्हें बोलते हुए शर्म न महसूस हो ।’’ भाषा में सरलता, प्रेम में निश्छलता और कविता में पारदर्शिता की माँग दरअसल जीवन में एक ही तत्त्व की चाहत है और वह है सचाई
      ‘‘एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है
      मसलन यह कि हम इंसान हैं
      मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सचाई बची रहे–––
      मैं चाहता हूँ निराशा बची रहे
      जो फिर से एक उम्मीद
      पैदा करती है अपने लिए
      शब्द बचे रहें
      जो चिड़ियों की तरह कभी पकड़ में नहीं आते
      प्रेम में बचकानापन बचा रहे
      कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा ।’’
      उत्कृष्टता, परिष्कार और प्रभविष्णुता के लिहाज़ से 2000 में प्रकाशितआवाज़ भी एक जगह है’  मंगलेश डबराल का ही नहीं, हिन्दी कविता का एक अप्रतिम संग्रह है । इसी ने कविता मेंमंगलेशियतकी अवधारणा पर विचार और उसे स्वीकार करने के लिए काव्यमर्मज्ञों को विवश किया । उन्नीसवीं सदी के अंग्रेज़ी के कला एवं साहित्यचिंतक, निबंधकार वाल्टर पेटर का एक मशहूर कथन है—‘‘ऑल आर्ट एस्पायर्स टु दि कंडीशन ऑफ़ म्यूज़िक’’, यानी समस्त कला अपनी अंतिम परिणति में संगीत हो जाना चाहती है । यों यह विशेषताहम जो देखते हैंकी कविताओं में काफ़ी हद तक मौजूद है, मगर परवर्ती संग्रह तो और अधिक अपने आशयों की सघनता तथा व्याप्ति में संगीत कासा प्रभाव पैदा करते हैं । अगरचे यह भूलना मुनासिब न होगा कि संगीत से कविता की भूमिका इस मानी में अलग है कि वह सांसारिक अराजकता, अन्याय और हिंसा से दूर नहीं ले जाती, बल्कि इनकेप्रतिकारको ही संगीत के तौर पर आविष्कृत करती है
      सबब यह कि कविता विस्मरण नहीं, विचलन को अपना प्रस्थानबिंदु बनाती है । उसकी आकांक्षा इतिहास का हिस्सा बनने की नहीं, उसे बदलने की होती है । इसलिए वह प्रेम की ही मानिंद निरीवास्तविकयासामान्यस्थितियों में संभव नहीं होती, बल्कि उनकी अपेक्षा एक उदात्त भूमि पर रची जाती है । कवि के एक अर्थसंदर्भ को विस्तृत करके कहें, तो वहइतिहास के बाहरघटित होती है और उसके अनुभव के अनन्तर हम पाते हैं कि हम अपने उसी रोज़मर्रा के बियाबान में लौट आये हैं
      पाँचवें कवितासंग्रहनये युग में शत्रु’ (2013) तक आतेआते विडम्बना का यह एहसास मानो अपने चरम बिन्दु पर पहुँच जाता है
      ‘‘लेकिन कहाँ लोप हो गये वे हक़ीर और फ़क़ीर
      जो सब कुछ छोड़कर चले जाते थे और फिर ख़ाली हाथ लौट आते
      ग़रीबी और दीवानगी किस रसातल में गयी’’
      मंगलेश की एक कविताक्रेमलिन कथाके साक्ष्य से कहें, तो बीसवीं सदी के अख़ीर में आम जनता के पास सबकी मुक्ति का कोई स्वप्न नहीं रह गया । इसकी बजाए उसमेंसे हरेक आदमी अबअपने लिए एकएक क्रेमलिन बनाने का सपना देखता है ।नतीजतन यह एक प्रकार से फ़ासीवादी दौर की ही वापसी है
      ‘‘जगहजगह अब भी बने हुए हैं छोटेछोटे यातना शिविर
      जो जितना ताक़तवर उसके भीतर बैठा हुआ उसी के आकार का एक हिटलर
      और आज भी अँधेरे का वही युग’’
      लोकतंत्र की इससे बड़ी हार क्या होगी कि हिंसा और विध्वंस करनेवाली ताक़तों को व्यापक जनसमर्थन हासिल है
      ‘‘जिसने कुछ रचा नहीं समाज में
      उसी का हो चला समाज
      वही है नियंता जो कहता है तोड़ूँगा अभी और भी कुछ
      जो है खू़ँख़ार हँसी है उसके पास
      जो नष्ट कर सकता है उसी का है सम्मान
      झूठ फ़िलहाल जाना जाता है सच की तरह
      प्रेम की जगह सिंहासन पर विराजती घृणा’’
      ऐसे तत्त्व सिर्फ़ राजनीति तक सीमित नहीं, कला, संस्कृति और विज्ञापन के क्षेत्रों में भी इनका दबदबा है
      ‘‘महँगे ताक़तवर चेहरे हर तरफ़ बढ़ते जा रहे हैं––––
      एक महानायक समाज को आँख मारता है
      इन्हीं चेहरों से बना है हमारे वक़्त का प्रमुख आततायी विचार’’ 
      एकध्रुवीय हो चुकी दुनिया अमेरिका के नेतृत्व में जिस नवउदार आर्थिक सैन्य साम्राज्यवाद के साये में साँस लेने को अभिशप्त हैय उसके मुख़्तलिफ़ रूपों और पहलुओं की शिनाख़्त की बदौलत मंगलेश डबराल  की कविता हमारे समय के शायद सबसे अनिवार्य, विचारोत्तेजक और मार्मिक पाठ में बदल जाती है
      ‘‘अंतत% हमारा शत्रु भी एक नये युग में प्रवेश करता है
      अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ–––
      वह अपने को कंप्यूटरों टेलीविज़नों मोबाइलों
      आइपैडों की जटिल आँतों के भीतर फैला देता है
      अचानक किसी महँगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नज़र आती है’’
      ‘होटल, दूकान और अस्पतालही इस नयी विश्वव्यवस्था के सच हैं, यहयुद्ध के भी कुशल प्रबंधनमें यक़ीन करती है और यातना के व्यवसायीकरण में इसे कोई संकोच नहीं
      जैसेजैसे नवउदार पूँजीवाद व्यापक और सशक्त होता गया है, उसके द्वारा पोषित पितृसत्तात्मक और हिन्दुत्ववादी प्रभुवर्ग की बर्बरता और हिंसा बढ़ी है । ज़ाहिर है कि इसके निशाने पर सबसे ज़्यादा स्त्रियाँ, अल्पसंख्यक और दलित रहते हैं । मंगलेश डबराल की कविता न सिर्फ़ इन समुदायों के समर्थन में  खड़ी हैजो शायद सामान्य तौर पर वांछनीय एक विशेषता हैउससे बड़ी बात यह है कि यह उनसे एकात्म है । यों उसने अपने अन्त%करण की विशालता को सत्यापित किया है—‘‘आँसुओं से भीगे हुए लोगों को कविता ले जाती है अपने भीतर ।’’ दबेकुचले वर्गों की साधारणता की वह सहचर है, इसलिए उससे सहानुभूति ही नहीं रखती, उसका सम्मान भी करती है । प्रतिभा या श्रेष्ठता को मंगलेश ने मनुष्य का जन्मजात गुण कभी नहीं माना । उनके लिए वह श्रेष्ठता अस्वीकार्य है, जो सामान्य जनसमाज पर ऊपर से थोप दी जाय । इसके विपरीत वह उस औदात्य के क़ायल हैं, जिसे हर साधारण जन अपने अध्यवसाय और निष्ठा से अर्जित कर सकता है और जिसका एक स्वतंत्र और न्यायप्रिय व्यवस्था में उसे अधिकार होना चाहिए । स्वयं उनकी कविता इसकी साक्ष्य है, जिसके उद्भव और उन्नयन दोनों में कोई करिश्मा नहीं है, बल्कि जो उनके संघर्ष, संवेदना और चिंतन के संश्लेष से उत्तरोत्तर उत्कृष्ट होती गयी है । उसके इस तरक़्क़ीयाफ़्ता सफ़र के मद्देनज़र एक तरफ़ आधुनिक हिन्दी के प्रेमचंद, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय सरीखे रचनाकार याद आते हैं, दूसरी ओर उनकी ही यह काव्यपंक्ति—‘‘एक साधारण जीवन में एक असाधारण आग जलती रहती है ।’’ 
      मंगलेश डबराल की काव्ययात्रा में साधारण जन के प्रति उनकी अजस्र ममता और करुणा अन्त%सलिल है । इसी की बदौलत उन्होंने हिंसक होते समय में भी अपनी कविता की आंतरिक कोमलता, संगीत और सजलता को बचाकर रखा है । एक तपते हुए और बंजर यथार्थबोध के बरअक्स प्यार और संवेदना की यह अनिवार्य कसौटी उनके सृजन ही नहीं, जीवनदर्शन को भी हमारे लिए आत्मीय और मूल्यवान् बनाती है—‘‘अपने भीतर जाओ और एक नमी को छुओ/देखो वह बची हुई है या नहीं इस निर्मम समय में–’’ इसलिए पहले की जगह अगर आम आदमी है, जो विस्मृत, वंचित, उत्पीड़ित, नष्ट अथवा मृत है, तो कवि उसके बदले हमेशाहाज़िरी लगाता हुआदूसरा है । पहले से उसकी भिन्नता की कोई वजह नहीं है, वह महज़ इत्तिफ़ाक़ है
      ‘‘मैं पहले की चीख़ हूँ पहले का शोक पहले का प्रेम
      पहले को याद करता हुआ एक अंतहीन दूसरा ।’’
      कहने की ज़रूरत नहीं कि सामान्य जन से यह अनन्त सादृश्य, असीम एकात्मता और इसलिए अदम्य संवेदनात्मक प्रतिबद्धता मंगलेश की कविता की एक बड़ी उपलब्धि है । इसी औदात्य का दूसरा पहलू उनके संवेदनाजगत् में स्त्रीत्व की मौजूदगी है । प्यार का शायद सर्वश्रेष्ठ रूप अपने प्रिय की विशेषताओं का  आत्मसातीकरण है । उसके प्रति कृतज्ञता की भी यह संभवत% सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है । मनुष्यसमाज ने सत्ता, सम्पत्ति, सम्प्रदाय, जाति, जेंडर, नस्ल और राष्ट्रीयता के आधार पर जो विभाजक रेखाएँ खींच रखी हैं, उन्हें मिटाने को मंगलेश की कविता अपना प्राथमिक कर्तव्य मानती है । विषमता और पार्थक्य की दीवारों को गिराने का काम जितने संजीदा, संपूर्ण और प्रभावशाली ढंग से उन्होंने किया हैय शायद वह इस वक़्त की हिन्दी कविता में अन्यतम है ।
      प्रसंगवश, 2002 में गुजरात में अल्पसंख्यकों का क़त्लेआम आज़ाद हिन्दुस्तान की शायद सबसे स्तब्ध करनेवाली त्रासदी थी । हिन्दी कविता ने एकजुट होकर व्यापक और विविध स्तर पर उस नृशंसता का ज़बरदस्त प्रतिकार किया था । आलोकधन्वा के शब्दों का सहारा लेकर कहें, तो इतिहास मेंइस बात का महत्त्व कभी धूमिल नहीं होगाकि मंगलेश डबराल की कवितागुजरात के मृतक का बयानइस सामूहिक रचनात्मक कार्रवाई की शीर्ष उपलब्धि के तौर पर तस्लीम की गयी । यों इसकी सार्थकता के कई ग़ौरतलब पहलू हैं, पर सबसे मार्मिक अंतर्विरोध यह है कि एक साधारण श्रमिककारीगर के अस्तित्वरक्षा के संघर्ष में सत्ता कभी मददगार तो नहीं ही रही, जो उसका स्वाभाविक कर्तव्य याराजधर्मथाय उलटे वक़्त के एक नाज़ुक मोड़ पर उसकी और उसके जैसे अदना लोगों की हत्या को एक महान् काम की तरह अंजाम देने में उसे कोई हिचक नहीं हुई
      आग को वह मानवीय मूल्यों की आभा और अन्याय के प्रति आक्रोश की आँच के रूप में मनुष्यआत्मा के लिए अपरिहार्य मानते हैं और इसलिए भी कि पूर्वजों ने उसका आविष्कार मनुष्यता के पोषण के लिए किया था, उत्पीड़न के लिए नहीं
      ‘‘आग लगानेवालो
      इससे दूसरों के घर मत जलाओ
      आग मनुष्य की सबसे पुरानी अच्छाई है
      यह आत्मा में निवास करती है और हमारा भोजन पकाती है’’
      कैसी विडम्बना है कि हमारे समय में एक ओर आग के मनुष्यहंता इस्तेमाल के तरीक़े विकसित किये गये हैंय दूसरी तरफ़ उसकी श्रेष्ठता को अंगीकार किया जा रहा है, तो उसके क्रांतिकारी आशयों से विच्छिन्न करके । महज़ सिद्धांत, विज्ञापन या शोभा के वास्ते । आग की ऐसी निष्क्रियनिर्जीव चमक से सत्ता को भला क्या एतिराज़ हो सकता है ? मंगलेश 2012 में लिखी गयी एक कविता में अपने बचपन को याद करते हैं, जब उनके पिता एकसुंदरसीटॉर्च लाये थे । उसे ठीकठीक न जानने के कारण पड़ोस की एक वृद्ध स्त्री ने उससे चूल्हा जलाने के लिए थोड़ीसी आग माँगी थी । पिता ने जब सचाई बयान की, तो उस स्त्री ने कहा—‘‘उजाले में थोड़ा आग भी होती तो कितना अच्छा था ।’’ प्रसंगवश, शमशेर का एक शेर है—‘‘कहीं सर्द ख़ूँ में तड़पती है बिजली/ज़माने का रद्दोबदल कोई लाए ।’’ इसके बरअक्स अब उजाला तो बहुत है, पर अपनी आंतरिक ऊर्जा से महरूम होकर वह यथास्थिति को मज़बूत करने के काम आता है । इस परिदृश्य में प्रतिगामी शक्तियाँ बहुत संगठित और हमलावर हैं, जबकि उनका प्रतिपक्ष उतना ही बिखरा हुआ और लाचार नज़र आता हैमंगलेश की कविता में दुख, विवशता, अपमान और अन्याय के संदर्भ क्रमश% बढ़ते गये हैंय क्योंकि लोगों के बीच की बेगानगी, ख़ुदग़रज़ी, अस्थिरता और संवेदनहीनता बेतहाशा बढ़ी है । संचारसाधनों परकुछ दूसरी तरह के वार्तालापहैं, जिनमेंमहज़ व्यापार महज़ लेनदेन ख़रीदफ़रोख़्त की आवाज़ेंसुनायी पड़ती हैं । पूँजी के वर्चस्व और वस्तुपूजा के शिकार तो लोग पहले भी किसी हद तक थे, पर इस दर्जे का आत्मछल, अभिनय और अगंभीरता उनमें शायद कभी न थी । जब वे सिर्फ़ सत्ता, सम्पत्ति और सफलता के तलबगार रह गये हों, तो उनकी और मंज़िल भी क्या हो सकती थी ? जिस समाज में सच को जानने की परवाह, उसका सामना करने की हिम्मत और उसे बदलने की बेचैनी न रह गयी हो, ज़ाहिर है कि वह लड़ाई के सबसे मुश्किल दौर में है
      ‘‘नये गु़लाम इतने मज़े में दिखते हैं
      कि उन्हें किसी दुख के बारे में बताना कठिन लगता है––––
      और यह भी तय है कि इस बार लड़ना ज़्यादा कठिन है
      क्योंकि ज़्यादातर लोग अपने को जीता हुआ मानते हैं और हँसते हैं
      हर बार कुछ छिपाते हुए लगते हैं
      कोई हादसा जिसे बारबार अनदेखा किया जाता है
      उसकी एक बची हुई चीख़ जो हमेशा अनसुनी छोड़ दी जाती है–’’
      इस तरह हम देखते हैं कि मंगलेश डबराल के यहाँ जिस संवेदना की अभिव्यक्ति हुई है, उसकी जड़ें हमारे वक़्त के यथार्थ में बहुत गहरे गयी हैं । जिस तरहआदिवासीके सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि ‘‘यह गहरा अरण्य उसका अध्यात्म नहीं उसका घर है’’, वैसे ही उनकी कविता में निराशा का सर्वातिशायी इसरार उसका भावातिरेक नहीं, उसकी सचाई है । यह निजी क़िस्म की निराशा नहीं है, इसीलिए उसका अंत खुला हुआ है—‘वह फिर से एक उम्मीद पैदा करती है अपने लिएऔरउसे हम इस तरह बचाये रखते हैं जैसे वही सबसे बड़ी ख़ुशी हो ।दरअसल कवि के लिए सही होना सबसे बड़ी सांत्वना है । इसी तर्क से निराशा में उम्मीद की गली खुलती है । मनुष्यता के जिस चरम स्तर पर हम उससे रूबरू होते हैंय वहाँ सुख और दुख, आशा और निराशा, स्वप्न और वास्तविकता के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रह जाता, वे एक ही सच के अविभाज्य पहलू हैं । वहाँ एक ही कसौटी है कि आप कितने विवेकशील और ईमानदार हैं
      ‘‘जो लोग दुख को ईजाद नहीं कर पाते वे उसे देख भी नहीं पाते
      क्योंकि सोचना ही देखने की पहली अनिवार्य शर्त है’’
      सोच की संजीदगी के इस विरल प्रस्ताव का मूल्य तब और बढ़ जाता है, जब हम अपने चारों ओर पाते हैं कि ‘‘प्र्रेम की एक परत का नाम है प्रेम/अध्यात्म की खाल जैसा अध्यात्म ।’’ ऐसे समय में अचरज नहीं कि मंगलेश डबराल को अपनी कवितारोज़ एक निर्जन में जाकर, उस निर्जन के दरवाजे़ पर दस्तक देनेसरीखी कार्रवाई मालूम होती है । यों कविता के रूप में आशा और निराशा के जिस द्वन्द्व की रचना उन्होंने की है, अन्तोनियो ग्राम्शी के शब्दों में कहें, तो वहपैसिमिज़्म ऑफ़ दि इंटेलेक्ट, ऑप्टिमिज़्म ऑफ़ दि विल, यानी बुद्धिजन्य नैराश्य और इच्छाशक्तिजन्य आशावादकी गतिशील द्वन्द्वात्मक संहति है । ग़ौरतलब है कि हाल ही में साहित्य अकादेमी में अपने एकल कवितापाठ के कार्यक्रमकविसंधिमें पाठकोंश्रोताओं से मुख़ातब होते हुए उन्होंने सिर्फ़ यह कहने का साहस नहीं किया किमैं निराशा का कवि हूँ’, बल्कि आत्मस्वीकार को इस इंतिहा तक ले गये किमैं अपनी कविता से भी निराश हूँ ।यह आत्यन्तिक आत्मनिर्ममता उनके जैसे कवि के लिए ही मुमकिन है । इसकी बुनियाद में जो सहृदयता है, उससे उन्हीं के शब्द याद आते हैं —‘‘जीवन के आख़िरी हासिल में/एक बड़ासा काग़ज़ बचा हुआ रहता है ।’’ कहने की ज़रूरत नहीं कि इस काग़ज़ पर वह स्वयं या कोई भी कवि एक नयी कविता लिख सकता है ।
      मंगलेश डबराल के काव्यसंसार में निराशा की वजह है प्रेम की असंभाव्यता और मनुष्यता की संकटापन्न हालत, जिसके नेपथ्य में पूँजी का अप्रत्याशित आधिपत्य है । इसे वह मानवसभ्यता की केन्द्रीय विडम्बना की तरह चिह्नित करते हैं । मार्क्स के शब्दों को ज़रा बदलकर कहें, तोसार्वभौमिकता का सूरज डूब जाने से जो अंधकार उमड़ता आता है, उसमें पतंगा निजता की शमा को खोजता है ।ऐसे परिदृश्य में साधारण जनसमाज की वेध्यता और संघर्ष में कवि ने अपना जो अक्स देखा है, उससे अधिक मार्मिक और प्रभावशाली हमारे समय की तस्वीर क्या होगीमंगलेश की कविता ने प्रेम को बराबर एक सर्वोच्च मूल्य के तौर पर प्रतिष्ठित किया है । लेकिन एकान्त में नहीं, यातना के बरअक्सय क्योंकि प्रेम को नष्ट किया जाना ही यातना का सबब है और मुक्ति अगर सम्भव है, तो प्रेम की ही मार्फ़त । इसलिए न उन्होंने प्रेम और यातना की अलगअलग कोटियाँ निर्मित कीं, न कला और प्रतिबद्धता की । शमशेर और मुक्तिबोध की स्मृति में उनकी एक कविता है—‘दो कवियों की कथा’, जिसमें वह कहते हैं कि ‘‘प्रेम के सबसे सघन कवि को प्रेम नहीं मिला’’ और ‘‘यातना के सबसे बीहड़ कवि को यातना ही मिली ।’’ पर यह जानना ज़रूरी है कियातना का कवि ही प्रेम के कवि का एक सच्चा दोस्त था ।दरअसल दोस्ती के इस आईने में दोनों तरह की अंतर्वस्तुओं की मूलभूत एकता पहचानी जा सकती है । वैसे तो यह एक रूपक ही है, मगर आज की हिन्दी कविता में मंगलेश डबराल का होना इस मानी में असाधारण है कि उनके कवि मेंयातना का कवि’  औरप्रेम का कविदोनों जैसे एकाकार हो गये हैं
      ‘‘यातना का कवि जल्दी ही इस संसार से चला गया
      तब प्रेम के कवि ने सोचा मुझे रहना चाहिए यहाँ कुछ दिन और
      अंतत% प्रेम ही है यातना का प्रतिकार
      अन्याय का प्रतिशोध
      फिर वह अकेला झेलता रहा सारी यातना रह सका जितनी देर ।’’
लेखक द्वारा सम्पादित तथा राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक (प्रतिनिधि कविताएँमंगलेश डबराल) की भूमिका के सम्पादित अंश।
                                                              सबलोग के मई 2017 में प्रकाशित.


 लेखक भरत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित कवि तथा देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार से सम्मानित आलोचक हैं और सागर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं.                          cidrpankaj@gmail.com  +919425614005

2 comments:

  1. Sameeksha oonche darze ki hai.Inhone na sirf kavi ki kritiyon ko balki kavi ko gahre samjha hai aur anek sahityikon kinazar paathkon ko dee hai Manglesh jee tatha unke rachna sansaar ko samajhne ke liye.

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