15 January 2015

'प्रेम के पक्ष में' - अरुण कमल

ऐसा कहा जाता है कि हर सम्बन्ध जो प्रेम पर आधारित है वह उचित और वैध है। जो सम्बन्ध प्रेम पर आधारित नहीं है वह अवैध है। लेकिन हमारे समाज में प्रचलित अधिकांश वैवाहिक सम्बन्ध भी अनिवार्यतः प्रेम पर ही आधारित नहीं होते। विवाह–सम्बन्ध अनेक प्रकार के बाहरी कारकों तथा विवशताओं से निर्धारित होते हैं। इनमें सबसे प्रमुख है धर्म, जाति तथा क्षेत्र का कारक। प्रायः इनके बाहर जा पाना बहुत कम हो पाता है। बहुत कठिन भी। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं कि इन सम्बन्धों में प्रेम तथा आपसी सहमति नहीं ही होगी। वो बाद में होती है और टिकाऊ भी हो सकती है, लेकिन वह आरम्भिक बिन्दु नहीं होती। दूसरा सबसे बड़ा कारक पैसा और सामाजिक हैसियत है। तिलक–दहेज और धन तथा सामाजिक रोब दाब की भूमिका आज बहुत ज्यादा है। बल्कि धन और दहेज के लिए बहुओं की हत्याएँ भी होती हैं। इस तरह से स्थापित होने वाले सम्बन्ध कहीं से उचित नहीं कहे जा सकते। लेकिन हमारा समाज आज ऐसा ही है। और इसे खत्म करना बेहद कठिन है।

इसीलिए बहुत लम्बे समय से प्रेम को विद्रोह माना जाता रहा है। प्रेम विद्रोह है। दुनिया की सारी प्रेम कथाएँ - रोमियो–जूलियट, हीर–राँझा, लैला–मजनू आदि वर्जनाओं का उल्लंघन हैं। और अन्ततः दुखान्त क्योंकि इन समाजों में प्रेम के लिए कोई जगह नहीं है। आज भी हमारे भारतीय समाज के एक बहुत बड़े हिस्से में प्रेम के लिए कोई जगह नहीं है। मान–सम्मान के नाम पर लड़कियों की हत्या और उनके प्रेमियों के साथ दुर्व्यवहार आमबात है। बिना दहेज के विवाह भी कठिन है। कई क्षेत्रों में विवाह के लिए अपहरण, उठाईगिरी, जबर्दस्ती भी आम बात है। ऐसी स्थिति में दो अलग अलग जातियों–धर्मों–संस्कारों के जोड़े का प्रेम और फिर विवाह निश्चय ही सुखद और क्रान्तिकारी है और समाज को बदलने वाली शक्तियों को बल पहुँचाने वाला है। और स्वागत योग्य है। अगर प्रेम और विवाह का यह वर्जनातोड़क निर्णय सचमुच प्रेम पर आधारित है तो निश्चय ही स्वागतयोग्य है और इस बात का प्रमाण है कि हमारा समाज सही दिशा में बदल रहा है।

हालाँकि इसी के साथ कुछ सवाल भी खड़े होते हैं। महान अँग्रेजी उपन्यास ‘वुदरिंग हाइट्स’ की प्रेममग्न नायिका से उसकी दाई पूछती है - क्या तुम इस लड़के को सिर्फ इसीलिए प्रेम करते हो कि वह बहुत सुन्दर है, तब तो कोई दूसरा जो उससे ज्यादा सुन्दर हो उसके लिए तुम इसे छोड़ दोगी? इसी तरह, क्या तुम इस लड़के को इसलिए प्रेम करती हो कि वह बहुत अमीर है, तब तो तुम इसे छोड़ दोगी अगर कोई ज्यादा अमीर मिले। कहने का मतलब यह कि यह प्रेम वास्तव में व्यक्ति या व्यक्तियों के आन्तरिक, नितान्त अभ्यांतरिक गुणों पर आधारित होना चाहिए, किसी बाहरी, भौतिक या प्रत्यक्ष कारण पर नहीं। जब कभी बाहरी कारण हमारी पसन्द को प्रभावित करते हैं तो यह अनैतिक होता है।

और प्रेम किसी को किसी से भी हो सकता है। अपने समुदाय में भी, अपने समुदाय से बाहर भी। यहाँ नेहरू जी एवं चौधरी चरण सिंह के बीच हुए पत्राचार को याद करना समीचीन होगा। चरण सिंह ने अन्तर्जातीय विवाह को अनिवार्य करने का प्रस्ताव किया। नेहरू जी ने कहा कि इसे अनिवार्य करना उचित नहीं होगा क्योंकि प्रेम किसी भी अनिवार्यता को नहीं मानता। किसी को किसी से भी प्रेम हो सकता है।

भारत में अर्न्तजातीय तथा अर्न्तधार्मिक विवाहों की कुछ भीतरी समस्यायों पर भी सोचना जरूरी है। पहले हम दो अलग-अलग जातियों में होने वाले विवाहों को लें। यहाँ विवाह के बाद भी जाति नहीं बदलती या नहीं बदलनी चाहिए। लेकिन कुछ राज्यों में कानून है कि यदि सामान्य वर्ग (सवर्ण जाति) के पुरुष से कोई इतर स्त्री विवाह करती है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। यानी उसकी जाति रूपान्तरित मानी जाएगी। जहाँ ऐसा नहीं भी है वहाँ दो भिन्न जातियों के जोड़े की सन्तान की जाति क्या होगी? भारत में सन्तान की जाति वही होगी जो पति यानी पुरुष की होगी। ऐसा क्यों? क्या यह स्त्री की स्वाधीनता, उसके व्यक्तित्व और गरिमा का हनन नहीं है? यह तो पितृसत्तात्मक समाज का अधिनायकवाद है जो कभी जाति–प्रथा को समाप्त नहीं होने देगा। होना तो चाहिए कि यह सन्तान पूर्णतः मुक्त, जाति–मुक्त, नया इंसान कहलाए।

अब अर्न्तधार्मिक विवाह को लें यहाँ भी स्त्री का धर्म क्या होगा विवाह के बाद? होना तो यह चाहिए कि दोनों (पति–पत्नी) स्वतन्त्रता पूर्वक रहे और धर्म के आधार पर कोई विभेद नहीं क्योंकि उनका विवाह किसी धर्म–विघान से सम्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि वे अपने अपने धर्म को पार कर एक नये इंसानी धरातल पर जीवन आरम्भ कर रहे हैं। ऐसे में दोनो में से किसी का भी प्रत्यक्षतः या परोक्षतः बलपूर्वक धर्मान्तरण इस विवाह की नैनिकता और पवित्रता को ही खंडित करता है। प्रत्येक अर्न्तजातीय तथा अर्न्तधार्मिक विवाह जाति और धर्म के पार जाने के बराबर है। और हमारा लक्ष्य भी ऐसे ही सार्वभौम समाज की स्थापना होनी चाहिए न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हम वास्तव में पूर्ण समरस समाज नहीं बना सकते।

स्त्री अथवा पुरुष किसी को भी अपनी ही जाति या धर्म को दूसरे के ऊपर थोपने का अधिकार नहीं है। नहीं होना चाहिए। जैसे ही ऐसा किया जाता है हम जाति और धर्म की उसी पुरानी गुलामी में वापस लौटते हैं जिससे निकलने के लिए प्रेम की उदात्त भावना ने हमें प्रेरित किया था। प्रेम का अर्थ ही है सभी बन्धनों से मुक्ति। दुर्भाग्य से व्यवहार में ऐसा नहीं हो पाता। इसीलिए दुनिया की सभी प्रेम–कथा दुखान्त हुई हैं। लोककथाएँ भी और मादाम बुवादी तथा अन्ना करेनिना की कथाएँ भी।

प्रेम का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति की निजता और गरिमा का सम्मान। प्रेम एक जनतान्त्रिक मूल्य है जो मानता है कि प्रत्येक मनुष्य अन्ततः एक ही है, मनुष्यमात्र, जाति, धर्म, नस्ल सभी प्रकार के बन्धनों तथा विभाजनों के ऊपर। दुर्भाग्य से विवाह इन मूल्यों को अपरिहार्य नहीं मानता। मैं प्रेम के पक्ष में हाथ उठाता हूँ। समानता के पक्ष में...। 
(सबलोग के नवंबर 2014 अंक से साभार)




अरूण कमल
लेखक पटना विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के
प्रोफेसर और हिंदी के प्रसिद्ध कवि हैं
arunkamal11954@gmail.com
+91-9931443866

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