10 January 2015

'ठंडी आग सुलग सकती है' - अनिल प्रकाश

केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी से जुड़ी समस्याओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन–तीन मन्त्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। एक बार पहले भी राजीव गाँधी के भी प्रधानमन्त्रित्व काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर–शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा ऐक्शन प्लान बना। मनमोहन सिंह सरकार ने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी ही घोषित कर दिया। मानो पहले यह राष्ट्रीय नदी नहीं रही हो। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह–जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है। गंगा का सवाल ऊपर से जितना आसान दिखता है, वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई में विचार करने पर पता चलता है कि गंगा को निर्मल रखने के लिए देश की कृषि, उद्योग, शहरी विकास तथा पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी।

दरअसल, ‘गंगा को साफ रखने’ या ‘क्लीन गंगा’ की अवधारणा ही सही नहीं है। सही नारा या अवधारणा यह होनी चाहिए कि ‘गंगा को गन्दा मत करो’। थोड़ी बहुत शुद्धिकरण तो गंगा खुद ही करती है। उसके अन्दर स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता है। जहाँ गांगा का पानी साफ हो वहाँ से जल लेकर यदि किसी बोतल में रखें तो यह सालों साल सड़ता नहीं है। वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को इस पानी में डालकर देखा तो पाया कि चार घंटे के बाद हैजे के जीवाणु नष्ट हो गये थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही मानी जाएगी।

गंगा तथा अन्य नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल–कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि बताते हैं कि गंगा के प्रदूषण में इंडस्ट्रीयल एफ्रलूएंट सिर्फ आठ प्रतिशत जिम्मेदार है। यह आंकड़ा विश्वास करने योग्य नहीं है। दूसरी बात यह कि जब कल कारखानों या थर्मल पावर स्टेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्रलूएंट नदी में जाता है, तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ–साथ नदी के स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है।

इसी प्रकार बहुतेरे जीव-जन्तु भी सफाई करते रहते हैं। लेकिन उद्योगों के प्रदूषण के कारण गंगा में तथा अन्य नदियों में भी जगह–जगह डेड जोन बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटर, कहीं एक किलोमीटर तो कही दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं। यहां से गुजरने वाला कोई जीव–जन्तु या वनस्पति जीवित नहीं बचता। क्या उद्योगों, बिजलीघरों का गर्म पानी जहरीला कचरे को नदी में बहाने पर सख्ती से रोक लगेगी? क्या प्रदूषण के लिए जिम्मेदार उद्योगों के मालिकों, बिजलीघरों के बड़े अधिकारियों को जेल भेजने के लिए सख्त कानून बनेंगे और उसे मुस्तैदी से लागू किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो गंगा निर्मल कैसे रहेगी?

गंगा के तथा अन्य नदियों के प्रदूषण का बड़ा कारण है खेती में रसायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग। ये रसायन बरसात के समय बहकर नदी में पहुँच जाते हैं तथा जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों को नष्ट करके नदी की पारिस्थतिकी को बिगाड़ देते हैं। इसलिए नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए इन रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी को बन्द करके पूरी राशि जैविक खाद तथा जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों को देनी पड़ेगी। और अंततः रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर पूर्ण रोक लगानी पड़ेगी।

जैविक खेती में उत्पादकता कम नहीं होती है, बल्कि अनाज, सब्जी तथा फल भी जहर मुक्त और स्वास्थ्यवर्द्धक होते हैं। इसमें सिंचाई के लिए पानी की खपत भी बहुत घटती है और खेती की लागत घटने से मुनाफा भी बढ़ाता है। अगर इस पर कड़ा फैसला लिया गया तभी नदियों को साफ रखा जा सकेगा।

शहरों के सीवर तथा नालों से बहने वाले एफ्रलूएंट को ट्रीट करके साफ पानी नदी में गिराने के लिए बहुत बातें हो चुकी हैं। केवल गंगा के बगल के क्लास–1 के 36 शहरों में प्रतिदिन 2,601–3 एमएलडी गन्दा पानी निकलता है, जिसका मात्र 46 प्रतिशत ही साफ करके नदी में गिराया जाता है।

क्लास–2 के 14 शहरों से प्रतिदिन 122 एमएलडी एफ्रलूएंट निकलता है। जिसका मात्र 13 प्रतिशत ही साफ करके गिराया जाता है। गंगा के किनारे के कस्बों तथा छोटे शहरों के प्रदूषण की तो सरकार चर्चा भी नहीं करती। शहरी मलजल तथा कचरा ऐसी चीजें हैं, जिसे सोना बनाया जा सकता है। देश के कुछ शहरों में इस कचरे से खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लगाया जाता है। ऐसा प्रयोग गंगा तथा अन्य नदियों के सभी शहरों–कस्बों में किया जा सकता है। अब तक यह मामला टलता रहा है। इसमें भी मुस्तैदी की सख्ती से जरूरत है। प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा नदी गंगा में मिलती है। वरुणा शहर की सारी गंदगी गंगा में डालती है। क्या प्रधानमन्त्री का ध्यान इस पर गया है? अगर न देखा हो तो जाकर देख लें।

गंगा या अन्य नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन से पहले उन करोड़ों-करोड़ लोगों की ओर नजर डालना जरूरी है, जिनकी जीविका और जिनका सामाजिक सांस्कृतिक जीवन इनसे जुड़ा है। गंगा पर विचार के साथ–साथ गंगा में मिलने वाली सहायक नदियों के बारे में विचार करना जरूरी है। आठ राज्यों की नदियों का पानी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गंगा में मिलता है। इन नदियों में होने वाले प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा पर शुरू में ही टिहरी में तथा अन्य स्थानों पर बान्ध और बराज बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आयी है। गंगा के प्रदूषण का यह भी बहुत बड़ा कारण है। बान्धों और बराजों के कारण नदी की स्वाभाविक उड़ाही यडी–सिल्टिंगद्ध की प्रतिक्रिया रुकी है। गाद का जमाव बढ़ने से नदी की गहराई घटती गयी है और बाढ़ तथा कटाव का प्रकोप भयावह होता गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा में आने वाले पानी का लगभग आधा नेपाल के हिमालय क्षेत्र की नदियों से आता है। हिमायल में हर साल लगभग एक हजार भूकम्प के झटके रिकॉर्ड किये जाते हैं। इन झटकों के कारण हिमालय में भूस्खलन होता रहता है। बरसात में यह मिट्टी बहकर नदियों के माध्यम से खेतों, मैदानों तथा गंगा में आता है। हर साल खरबों टन मिट्टी आती है। इसी मिट्टी से गंगा के मैदानों का निर्माण हुआ है। यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी।

1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्का बराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्का बराज बना सिल्ट की उड़ाही की यह प्रतिक्रिया रुक गयी और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियाँ भी बुरी तरह प्रभावित हुईं। जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह–फरक्का से लेकर बिहार के छपरा तक यहाँ तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्रभाव दिखता है।

फरक्का बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गयी। फीश लैडर बालू– मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है, जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेष के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रतिक्रिया रुक गयी तथा गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियाँ समाप्त हो गयीं। इससे भोजन में प्रोटीन की कमी हो गयी। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में अब रोजाना आंध्र प्रदेश से मछली आती है। इसके साथ ही मछली से जीविका चलाकर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों–लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गये।

इसलिए जब गडकरी साहब ने गंगा में हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बराज बनाने की बात शुरू की, तब गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। गंगा की उड़ाही की बात तो ठीक, लेकिन बराजो की श्रृंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझबूझ की बात नहीं। इस पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। नहीं तो सरकर को जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा और लेने के देने पड़ जाएंगे। आज से 32 साल पहले 1982 में कहलगाँव (जिला – भागलपुर, बिहार) से गंगा मुक्ति आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। जन प्रतिरोध के कारण 1990 आते-आते गंगा में चल रही जमींदारी और पूरे बिहार के 500 किलोमीटर गंगा क्षेत्र तथा बिहार की सभी नदियों में मछुआरों के लिए मछली पकड़ना कर मुक्त कर दिया गया था। गंगा मुक्ति आन्दोलन ने ऊपर वर्णित सवालों को लगातार उठाया और लाखों-लाख लोग उसमें सक्रिय हुए थे। आज भी वह आग बुझी नहीं है। आह अंदर से सुलग रही है। गंगा के नाम पर गलत नीतियां अपनाई गयीं तो बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में यह ठंडी आग फिर से लपट बन सकती है।

(यह आलेख 'सबलोग' के नवंबर अंक में प्रकाशित है।)


 
अनिल प्रकाश
लेखक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।
anilprakashganga@gmail.com
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