18 November 2014

'गंगा यदि मैली है तो नीयत भी साफ कहाँ!' - किशन कालजयी

 
इस सृष्टि की रचना जल से हुई है और मनुष्य ही नहीं, समूची सृष्टि को निर्मित करने वाले क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर नामक पंचभूतों में एक जल भी है। मानव जाति का इतिहास भी जल से जुड़ा हुआ है। आदमी की आदि प्रजाति अमीबा की उत्पत्ति जल के बिना सम्भव ही नहीं थी। अधिकांश सभ्यताओं का विकास भी नदियों के किनारे हुआ है। आज भी महत्त्वपूर्ण नगर किसी न किसी नदी के किनारे ही अवस्थित हैं। गाँवों के भी आस–पास छोटी–बड़ी नदी बहती रही है और पहले तालाबों और बगीचों से तो गाँव घिरा ही रहता था। तब खेती के लिए किसनों को किसी कीटनाशक या रासायनिक खाद का उपयोग करने की कोई जरूरत नहीं होती थी। पेड़–पत्तों और घर के कूड़े से बनी जैविक खाद ही जमीन की उर्वरता को लगातार बढ़ाती जाती थी। तब कल–कारखानों के कचरों ने जमीन और आकाश को प्रदूषित नहीं किया था, औद्योगिक विकास के नाम पर जंगल की अन्धाधुन्ध कटाई नहीं हुई थी। हरियाली जमीन पर बिछी रहती थी, नदी और तालाब जीवन के गीत गाते थे और पेड़–पौधे संगीत सुनाते थे। दरअसल जल, जमीन और जंगल प्रकृति के चेहरे नहीं, प्रकृति की आत्मा के अवयव हैं और इनसे मनुष्य का आत्मिक सम्बन्ध सदियों से रहा है। आज की आधुनिकता ने इसी सम्बन्ध पर हमला किया है। आधुनिक विकास के असन्तुलित ढाँचे ने मनुष्य और प्रकृति के पारस्परिक सम्बन्ध को जिस तरह से एकतरफा और भोगवादी बना दिया है, सिर्फ मनुष्य का नहीं तमाम प्राणियो और वनस्पतियों का जीवन नष्ट हो गया है।

यह दौर ऐसी आधुनिकता का है जिसके मोहक मकड़जाल में मनुष्य लगातार फंसता चला जा रहा है। सोचा गया था कि यह आधुनिकता मनुष्य को अभाव और असुविधा से मुक्ति दिलाएगी और विकास की धारा को जनोन्मुखी बनाएगी। लेकिन बात उल्टी हो गयी। एकांगी विकास के वर्चस्व ने सामाजिक ताने–बाने को तहस–नहस कर दिया है। प्रचंड उपभोक्तावाद और भौतिक वैभव के अशिष्ट प्रदर्शन से सामाजिक संरचना जिस तरह से प्रदूषित हुई है, ऐसे में मनुष्यता का दम घुट रहा है। एक अजीब किस्म के अनगढ़ अँधेरे में डूबा यह समाज रोशनी और रास्ते के लिए बेचैन है।

क्या यह अँधेरा अचानक आ गया? आजादी के बाद हम लगातार गर्त की ओर बढ़ते रहे। विकास का ढाँचा ही हमने ऐसा चुना जिसमें गैर बराबरी बढ़नी थी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलना ही था। कोई यह कैसे यकीन कर सकता है कि गंगा की सफाई के नाम पर अब तक बीस हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और गंगा पहले से ज्यादा मैली हो गयी है। बीस हजार करोड़ रुपये कोई छोटी राशि नहीं है जिसे यूँ ही गंगा में बहा दिया जाए। आखिर इतने बड़े खर्च से हासिल क्या हुआ? इस सवाल का जवाब देश को चाहिए कौन देगा।

गंगा के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि सरकार जिस तरह से काम कर रही है अगले दो सौ वर्षों में भी गंगा की सफाई नहीं हो पाएगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय की कड़ी फटकार के बावजूद सरकार के होश ठिकाने नहीं आये हैं। पिछली कई सरकारों की करतूत से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गंगा यदि गन्दी है तो सरकार की भी नीयत साफ नहीं है। आखिर इसी नीयत की पहचान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की होगी कि अगले दो सौ वर्षों तक भी गंगा साफ नहीं हो पाएगी। ऐसे में सिर्फ सरकारी तन्त्र के भरोसे हम गंगा को नहीं छोड़ सकते।

गंगा सफाई अभियान के लिए उचित और उपयुक्त विकल्प तलाश करने के लिए भटकने और अरबों रुपये खर्च करने से बेहतर है कि हम गंगा को गन्दा नहीं करने का संकल्प लें। गंगा कैसे गन्दा होती है और इसे गन्दा कौन करता है यह जानना कोई मुश्किल काम नहीं है।

उत्तराखण्ड से पश्चिम बंगाल तक पाँच राज्यों में गंगा लगभग पचास नगरों को पार करती हुई हुगली में मिलती है। जिन नगरों से होकर गंगा गुजरती है वहाँ के नगर निगमों और नगरपालिकाओं के प्रधान की जवाबदेही गंगा के मामले में तय कर दी जाए तो स्थिति में तत्काल सुधार आ सकता है। जिन जिलों से होकर गंगा बहती है उन जिलों के जिलाधीशों और आरक्षी अधीक्षकों से यदि पाँचों राज्यों के मुख्यमन्त्री गंगा की गन्दगी और सफाई का हिसाब हर महीने पूछने लगें तो क्या लगता है गंगा की दुर्दशा ऐसी ही रह जाएगी?

दरअसल इस बात में सरकार की दिलचस्पी नहीं है कि गंगा की सफाई हो और यह साफ रहे। उसकी दिलचस्पी इस बात में है कि पिछले तीस वर्षों में यदि गंगा अभियान में बीस हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं तो अगले पाँच वर्षों में पचास हजार करोड़ रुपये खर्च हो जाएँ। इसलिए यह अकारण नहीं कि इस नयी सरकार ने सिर्फ गंगा के लिए एक मन्त्रालय का गठन किया है।

दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा उदाहरण हो कि एक नदी को सम्हालने के लिए एक मन्त्रालय बनाया गया हो। भारत की तमाम छोटी–बड़ी नदियों को सम्हालना हो तो सारे मन्त्रालयों को नदियों के नाम करना होगा फिर भी मन्त्रालय कम पड़ जाएँगे। इस तरह के मन्त्रालय के गठन का जो ‘गुप्त एजेंडा’ है उसे समझने की जरूरत है। जिस दिन जनता ने यह बात समझ ली उसे किसी संस्था या सरकार के सहयोग की जरूरत नहीं होगी। अनुमान लगाएँ यदि गंगा के किनारे रहने वाले तमाम गंगाजीवी यह तय कर लें कि गंगा की निर्मलता बरकरार रखनी है तो कौन ठेकेदार, कौन उद्योगपति और कौन सरकार इस मुहिम को रोक लेगी? गंगा के साथ कदाचार करने वालों से जनता खुद निबट लेगी। गंगा को साफ रखने का अभियान यदि सफल हो गया तो फिर इस देश की तमाम नदियाँ अपनी पवित्रता और अपने जीवन के गीत कलकल ध्वनि से गाएँगी। 

('सबलोग' के नवंबर 2014 अंक 'नदियों की आवाज' से संपादकीय 'मुनादी')



किशन कालजयी
संपादक

No comments:

Post a Comment