28 September 2016

 
   
  धर्म और कट्टरता
      हितेन्द्र पटेल






धर्म और कट्टरता के बीच का द्वंद्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। धर्म के नाम पर करोड़ों जानें ली गई हैं, जिसे बाद में धार्मिकों का नहीं कट्टरों के खाते में दल दिया जाता रहा है। आधुनिक युग में जमा खर्च का हिसाब अधिक लिया जाता है इसलिए अधिकतर लोगों को लगता है कि अब स्थिति खराब हुई है। यह ध्यान देने वाली बात है कि सबसे अधिक क्रूर कृत्यों के लिए कुख्यात मंगोल बौद्ध धर्म को मानने वाले थे ! पिछली शताब्दी की ही तो बात है जब एक दस साल के अफ्रीकी बच्चे को फांसी पर चढ़ाये जाने का एक चित्र खींचा गया था। उसका अपराध नहीं था, अपराध था उसके किसान पिता का जिसने जमींदार के ज़मीन जोतने के नियमों का पालन नहीं किया था। उस तस्वीर में कई शिक्षित ईसाई खड़े है, एक मुस्कुरा भी रहा है। पर सबसे महत्त्वपूर्ण है एक पादरी का बच्चे के पास खड़े होकर बाइबिल का पाठ करना ॰
जब ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, यह खबर आज के अखबार में मुखपृष्ठ पार हैं कि बारह साल के बच्चे ने तुर्की में एक विवाह उत्सव पर पचास से अधिक लोगों की जान ले ली है।  मुझसे कोई पूछे तो आधुनिक दौर के संदर्भ में पूंजीवाद, आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता पर एक साथ मिलकर विचार किया जाना चाहिए।
धर्म के भीतर से इस तरह के अधर्म के लिए स्वीकृति कैसे मिलती रही है इसपर सोचते हुए एक इतिहासकार बरुण दे ने एक बार कहा था कि धर्म के नाम पर कोई भी हिंसा को हिंसा न मानने की सीख जेसूइट्स से मिली। आप धर्म के लिए किसी भी तरह की हिंसा को सही ठहरा सकते हैं। गीतेश शर्मा की एक पुस्तक धर्म के नाम पर ने धर्म के नाम पर हुई हिंसा के इतिहास का एक संक्षिप्त विवरण पेश किया है। इसे पढ़ना ही पर्याप्त है इसे समझने के लिए कि धर्म के नाम पर कितनी हिंसा हुई है।
यह सच है, लेकिन यह भी सच है कि धर्म किसी भी समाज में सबसे महत्त्वपूर्ण है। कोई भी राज्य-शक्ति अधिक समय तक धर्म की अनदेखी नहीं कर सकती। अब तक नहीं कर पायी है। धर्म जरूरी है। ईश्वर का भय भी जरूरी है। दोस्तोवयेस्की की मानें तो अगर ईश्वर का भाय न हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है।
धर्म रहे और कट्टरता न रहे यह पूरी दुनिया के सभी मानवतावादी की सम्मिलित पुकार है। पूंजीवाद के और अब के पूंजीवाद और आतंकवाद के इस दौर में यही स्वर सब जगह से उठा है और सभी जगहों पर कट्टरता कायम है। पर इस कट्टरता से जितना भय पिछले बीस पच्चीस सालों में बढ़ा है उतना पूरी दुनिया में पहले कभी नहीं रहा। आज तो ऐसा लग रहा है कि एक ओर आधुनिक पूंजीवादी कट्टरता है तो दूसरी ओर इस्लामी आतंकवादी कट्टरता और पूरी दुनिया इस लड़ाई में किसी न किसी रूप में प्रभावित हो रही है।
पूंजीवाद एक बर्बर व्यवस्था है। इसकी आदिम प्रवृत्ति है आंतरिक और बाह्य विस्तार। अगर इसके विस्तार में कोई बाधा आती है तो यह अपने असली रूप- खूंखार रूप में आ जाता है। उदार होने का स्वांग यह छोड देता है। फिर यह उस चीज़ की मदद लेता है जिससे इसको फैलने का मौका मिल सके। यह विश्वयुद्ध करवा सकता है, करोड़ों लोगों की जानें ले सकता है और फिर शीत युद्ध जारी रख सकता है। युद्ध और पूंजीवादी विस्तार का चोली दामन का साथ है। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था लेकिन एक ऐसी चीज़ हो गई जिसने पूंजीवादी बर्बरता के लिए मुसीबत खड़ी कर दी। फैलने के क्रम में पूंजीवाद ने विध्वंस की तकनीक को वैश्विक फैलाव दे दिया। अगर ईरान को ईराक से युद्ध करवाना है तो तकनीक तो देनी ही होगी, या फिर रूस को अफगानिस्तान में शिकस्त देनी हो तो वहाँ के इस्लामी लड़ाकों- जिहादी ओसामा बिन लादेन जैसों को विध्वंस की तकनीकी सहायता भी देनी ही होगी। अब जब यह दे दिया तो फिर तो फिर एक खतरा उभर ही गया। ये भस्मासुर अब अपने बनाने वालों से भिड़ गए। यहीं से सेर को सवा या पौन सेर मिल गया।
आज इस्लामी समाज पूरी दुनिया में निशाने पर है, शायद ही कोई देश हो जहां मुसलमान गैर मुसलमानों के लिए परेशानी का सबब नहीं बना हुआ है। खुद मुसलमान भी इस परेशानी से जूझ रहे हैं। एक दौर था जब अमरीका विरोधी शक्तियाँ इस मुस्लिम उभार को सहानुभूति से देख रहे थे, इस उम्मीद में कि ये अमरीका और अन्य पूंजीवादी शक्तियों को कमजोर करेंगी। पर यह उससे आगे बढ़ गया। भारत जैसे देश में भी धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद के बीच संबंध ढूँढना कठिन नहीं रह गया है।
बहुत सारे विद्वान यह कहते हैं कि सांप्रदायिकता के साथ धर्म का संबंध कम है आधुनिक राजनीति का अधिक। पर यह अधूरा सच है जो खतरनाक है। इससे बात स्पष्ट नहीं होती। दरअसल इस्लामी समाज के बारे में सीधे सीधे बात करते हुए विद्वान लोग संकट में पड़ जाते हैं। भारत जैसे देश में यह संकट बहुत ज़्यादा है। यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस्लाम और अन्य धर्मों को मानने वालों में कुछ अंतर है। मोटे तौर पर यह बात मानी जा सकती है कि मुस्लिम समुदायों में राष्ट्रीयता और आधुनिकता का प्रसार उस तरह से नहीं हुआ है जैसा अन्य धार्मिक समुदायों में हुआ है। इस्लामी समाज का एक अलग रूप बना रहा है। पूरी दुनिया में इस्लाम से जुड़े लोगों को को एक किस्म से जुड़ा हुआ माना जाता रहा है। यह पूरी तरह से सच रहा हो या नहीं आज ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में यह बात इसी रूप में फैल गई है। अफगानिस्तान में अमरीकी सहयोग से जो इस्लामी कट्टरवाद को बढ़ावा मिला उसने एक भारी संकट को पैदा कर दिया। एक तरफ यह अमरीका समेत सभी पूंजीवादी देशों के खिलाफ लड़ने लगा तो दूसरी ओर एक किस्म के इस्लामी भाईचारे के लिए वैश्विक स्तर पर सक्रिय भी हो गया। जो कहानी मध्य पूर्व से शुरू हुई थी उसने पूरी दुनिया के लिए एक संकट पैदा कर दिया। जहां जहां मुसलमान थे सब जगह धीरे धीरे इस्लामी कट्टरतावाद धीरे धीरे पाँव पसारने लगा। इस बात के सबूत मिलने लगे कि दुनिया के तमाम देशों से इस्लामी हुकूमत के लिए शहादत देने के लिए युवा अपनी सेवाएँ और शीष दोनों देने को तैयार हो गए। भारत और बंगला देश जैसे देशों में इस्लामी संगठनों के लिए लोगों की नियुक्ति होने लगी।
एक तरह का कट्टरवाद दूसरे तरह के कट्टरवाद के लिए अवसर पैदा करता है। तमिल आतंकवादियों ने सिंहलों के बीच भी कट्टरवाद को बढ़ावा दिया। भारत में हिन्दू आतंकवादी संगठन और उसकी गतिविधियां लक्षित की गईं। फ्रांस में इस्लामी आतंकवाद ने उदार देश के रूप में प्रतिष्ठित फ़्रांस जैसे देश में भी कट्टरता के बढ्ने के संकेत दिए। आज अमरीका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ट्रम्प जिस भाषा का प्रयोग करके लोगों का समर्थन जुटाने में लगे हैं उसे देखते हुए यह माना जा सकता है कि वहाँ भी धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है या कम से कम बढ़ सकती है।
इन सब कारणों से पूरी दुनिया में एक नए किस्म का संकट गहराया है। बंगला देश जैसे देश में जिस तरह कट्टरवादी संगठन सक्रिय हैं और एक के बाद एक हत्याएँ कर रहे हैं वह किसी को भी डरा देने के लिए काफी हैं। भारत जैसे देश में भी हिन्दू कट्टरवादियों के माथे पर हत्या के आरोप हैं। यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत में हिन्दू कट्टरवादियों का जितना ज़ोर इन दिनों है उतना पहले कभी नहीं रहा।
दो प्रश्न हमारे सामने हैं। पहला- इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? इस स्थिति के लिए पूंजीवाद और धर्म किस हद तक दोषी माने जा सकते हैं?और दूसरा इन परिस्थितियों में उपाय क्या है ? किस तरह इस तरह के क्ट्टरतावाद के फैलाव को रोका जा सकता है?
पूंजीवाद को निश्चित रूप से इस कठिन परिस्थिति के निर्माता के रूप में देखना सही होगा। इसने ही वो सरो सामाँ मुहैया कराया है जिससे यह संकट तैयार हुआ है। रोबर्ट फिस्क की एक महत्त्वपूर्ण किताब है – द ग्रेट वार फॉर सिविलिजेसन: द कोंकुएस्ट ऑफ द मिडिल ईस्ट (2005) जिसने दिखलाया है कि कैसे तीस बरसों में पश्चिमी सभ्य समाजों ने लाखों लोगों को मरवाया ताकि मध्य-पूर्व के देशों पर उनका अधिकार बना रहे । जो लोग कम से कम ईरान-ईराक युद्ध के दौर से उन देशों में चल रहे युद्धों की मामूली खबर भी रखते हैं उन्हें पता है कि कौन लड़ा रहा है और कौन आपस में कट मर रहे हैं। ईरान के इतिहास में आयतुल्लाह खुमैनी के उदय ने अमरीका की मुसीबत बढ़ा दी लेकिन क्या किसी को यह इंकार करना चाहिए कि अमरीका ने इस तरह के कट्टरतावाद के उदय के लिए ज़मीन तैयार की थी ? फिलीस्तीन में कट्टर संगठन सक्रिय हैं लेकिन ब्रिटेन और अमरीका समेत तमाम देशों की 1916 से शुरू हुई साज़िशों का इसमें योगदान नहीं है ? अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बारे में तो कुछ भी कहने की जरूरत ही नहीं है।
आज सीरिया में जो कुछ हो रहा है उसका इतिहास इस बात का गवाह है कि कैसे एक देश को पूंजीवादी देशों ने बरबादी के कगार पर खड़ा कर दिया। यह सब अभी खत्म होंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है। एडवर्ड सईद ने 9/11 के अमरीकी हमले के बाद एक मार्के की बात कही थी कि जैसे कैप्टन वहाब शार्क को मारने के जुनून में अंतत: शार्क के साथ खुद भी मर जाता है वैसे ही आतंकवाद के खात्मे के लिए कहीं अमरीका का हाल भी वहाब जैसा न हो जाए ! पूंजीवादी देश आज इस आतंकवाद के विरुद्ध लड़ते हुए पार पा ही लेंगे अभी भी कहना कठिन है। और देखिए कैसे रूस जैसा देश भी सीरिया जैसे देश के कट्टर –आतंकी संगठनों को खत्म करने के लिए कैसे कट्टर बन गया है ! हाल ही में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ने भी एक के बाद एक भयानक किस्म के संदेश दिए हैं।    
क्या किया जाए ? यह तय है कि इस्लामी कट्टरतावाद पूरी दुनिया के लिए एक खतरा बन चुका है। जो लोग इस भ्रम में थे कि यह सिर्फ अमरीका और उसके समर्थक देशों के लिए खतरा है अब अपनी गलती मान रहे हैं। बांग्लादेश जैसे  देश में आज लोकतन्त्र खतरे में है। इस समय इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए यह बेहद जरूरी हो गया है कि वे अपने धर्म की रक्षा के लिए इस्लामी कट्टरतावाद के खिलाफ मुखर हों। इस्लाम को नई दुनिया के हिसाब से अपने को व्यवस्थित करने का जोखिम उठाना ही होगा। यह भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न तरीकों से ही हो सकता है, लेकिन यह होना ही होगा। इस्लाम का राष्ट्रीयकरण और आधुनिकीकरण अगर नहीं हुआ तो यह संकट और बढ़ेगा। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में इस्लाम के विरुद्ध जो माहौल बन रहा है वह किसी भी तरह से शुभ नहीं है। इस पूरी प्रक्रिया में अगर इस्लाम को मानने वाले अपनी ज़िम्मेदारी से भागेंगे तो उनके विरुद्ध सक्रिय अन्य कट्टरवादी संगठनों को विष वमन करने का मौका मिलेगा। हिन्दी के एक विख्यात लेखक ने आज़ादी के बाद मुसलमानों से भारतीय वेश –भूषा और  नाम आदि को अपनाकर देश की संस्कृति के साथ एकाकार करने की सलाह दी थी, जिसे कट्टर सोच का मानकर उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया था। आज इस बात को याद करना भी कट्टर सोच के एक उदाहरण के रूप में चिन्हित किया जाए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी। पर जो सही लगे उसे कहने और मानने की आज़ादी होनी चाहिए । जो इसे न माने उसे भी कट्टर माना जा सकता है। जॉर्ज बुश और सद्दमान हुसैन में कौन ज़्यादा कट्टर था  


लेखक इतिहास के प्राध्यापक और उपन्यासकार हैं.
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