27 September 2016


धर्म और साम्प्रदायिक कट्टरता

         आनन्द कुमार 




धर्मं की आड़ में कायरों की क्रूरता का विस्तार एक गंभीर सामाजिक बीमारी है. यह सामाजिक-सांस्कृतिक कट्टरता के रूप में सामने आती है. इसे संस्कृति रक्षा और राष्ट्रभक्ति का नाम दिया जाता है. इससे सबसे पहले स्त्री, फिर निर्धन सर्वहारा, तब हाशिये के समुदाय और अंतत: विषमता के शिकार हिस्से समाज के दबंग हिस्से के निशाने पर आते हैं. यह प्राय: पराजित समाजों और समुदायों में पाई जाती है. वैसे कट्टरता के समर्थक किसी भी समाज – समुदाय में घर में छुपे मच्छर-सांप की तरह बराबर होते हैं. लेकिन इनका प्रभाव सामाजिक अवनति के विपरीत अनुपात में घटता – बढ़ता रहता है. जब समाज सशक्त और आत्मविश्वासी होते हैं तो कट्टरता की जगह उदारता, व्यापकता और प्रयोगशीलता की प्रवृति प्रबल होती है. लेकिन पराजय और पतन के दौर में रस्सी भी सांप जैसी दीखती है और हम ‘अन्य’, ‘अनजाने’. और अज्ञात के प्रति आतंकित और हिंसक हो जाते हैं. इस प्रकार कट्टरता को सामाजिक जीवन का एक महादोष माना जाता है. इसे निर्मूल किये बिना आगे का रास्ता नहीं खुलता. बार बार अतीत के पराजय की स्मृतियाँ विजय और विस्तार के अध्यायों को ओझल कर देती हैं. कदम रुक जाते हैं और बाहें आत्मघाती हो जाती हैं. आशाजनक सपने मर जाते हैं. फिर बिना आशावादी सोच और सपने के आजके सवालों को कैसे सुलझाया जायेगा और आजकी उपलब्धियों को कैसे आगे की यात्रा की पूंजी बनाया जायेगा?    
इस चर्चा में आगे बढ़ने से पहले धर्म को परिभाषित करते हुए आस्था आधारित सामूहिकता और आस्था से जुडी भिन्नताओं से पैदा साम्प्रदायिकता को समझना चाहिए. धर्म समाज को धारण करने की प्रक्रियाओं से पैदा एक आचार व्यवस्था को कहा जाता है. नियम निष्ठां धर्म का प्रधान तत्त्व है. इसलिए इसे पश्चिमी विमर्श से १७वीन शताब्दी से प्रचलित  अंग्रेज़ी के ‘रीलिजन’ शब्द से अलग समझना होगा. रिलिजन में आस्था और समर्पण आधारित एकात्मता का आग्रह है. इसी आस्था के आधार पर रीती-रिवाज, कर्मकाण्ड, अंदरुनी विभेद, पुरोहित-जजमान, प्रतीक-भवन-किताब-जीवन् दृष्टी और प्रकृति सृजन का सिद्धांत अपनाया जाता है. अपने से अलग रीती-रिवाज, मान्यताओं और कर्मकांड से सामना होने पर बेहतर-बराबर-बेकार की कसौटी सामने आते है. इससे यह सच भिन्नता की चेतना पैदा करके साम्प्रदायिकता मे बदलने को बेचैन रहता है. साम्प्रदायिकता और कट्टरता में चोली-दामन का सम्बन्ध होता है.  
भारतीय अस्मिता की यह ऐतिहासिक चुनौती रही है कि वह धर्म की आड़ में पैदा होनेवाली  सांप्रदायिक कट्टरता से समाज की रक्षा के उपाय ढूंढे जिससे समाज की प्रगति का रास्ता सुगम हो. अवनति के खतरे से हम बचें. इसमें हमने देशी-विदेशी उपायों को आजमाया है. शासन की व्यवस्था को साम्प्रदायिकता से जोड़कर देखा है. अलग रखकर सर्वधर्म समभाव के रास्ते भी चले हैं. हर रास्ते की अपने सुख-दुःख रहे हैं. इसके लिए १. प्राचीन वैदिक सभ्यता, २. बुद्धमार्ग (अशोक की परम्पराएँ) के अनुभव, ३. शंकराचार्य से जुड़ा हिन्दू पुनरोदय काल, ४. चोला – चालुक्य का शासन प्रबंध, ५. मुस्लिम शासन व्यवस्था की विविधताएँ, ६. विजयनगर राज, मराठा राज, सिख राज, हैदराबाद और कश्मीर की राज प्रणालियाँ, ७. ब्रिटिश राज, और ८. स्वाधीन भारत के सात दशकों की अनुभव पूंजी से बहुत कुछ सीखने-समझने को है.
लेकिन सीखने के लिए उचित परिवेश चाहिए. समझने के लिए इच्छा और आत्मविश्वास चाहिए. अन्य के प्रति अपनत्व चाहिए. नए के प्रति जिज्ञासा चाहिए. दूसरे शब्दों में, वसुधैव कुटुम्बकम का भाव चाहिए. डरे हुए लोग कायरता से पीड़ित होते हैं. डर सबसे पहले आत्मविश्वास का नाश करता है. फिर कट्टरता यानि ‘अपने’ और ‘दुसरे’ के बीच लम्बी दूरियों और गहरी खाइयों को बनाता है. कट्टरता की आड़ में अपने से कमजोर में शत्रु देखते हैं. हमारे बीच के ही कुछ लोग चारो तरफ शत्रुभाव की प्रबलता होने का प्रचार कर रहे है, उनका दावा है कि भारत खतरे में है. पड़ोसियों की हरकते और विश्व राजनीति के सन्दर्भ में भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान की अदूरदृष्टि से इस भय को बल मिलता है. जबकि हम परमाणु बम से लैस हैं. उनको लगता है कि पिछली आधी शताब्दी से ८४% प्रतिशत के आसपास बने होने के बावजूद हिन्दू धर्मं खतरे में है. हिन्दुओं के बीच आत्मा समीक्षा और पुरुष प्रधान जातिव्यवस्था में निहित अन्यायों के प्रति प्रबल असंतोष का शताब्दी पुराना सच उनकी तरफ से सबूत नहीं है. ऐसी किसी भी सचाई से इन्कारते हुए इस्लाम और ईसाइयत की ओर आरोपी उंगलियाँ उठाई जाति हैं. जबकि यह दोनों धर्म विश्वव्यापी प्रतिरोधों और आलोचनाओं और अंदरुनी अंतर्विरोधों से हिन्दू धर्म से जादा आक्रान्त  हैं.  

अद्वैत दर्शन की जननी संस्कृति में सांप्रदायिक कट्टरता सबसे बड़ी विडम्बना है. फिर जनतंत्र में निहित राजनितिक समानता और सामाजिक तथा आर्थिक न्याय के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता का हमारी राष्ट्रीयता को बल मिला है. फिर भी भयभीत होने का सच सामने है. चूँकि वैश्वीकरण में निहित समस्याओं का समाधान इन कट्टरता के हामियों के बस के बाहर है इसलिए अपने से कमजोर को संस्कृति रक्षा और धर्म-पालन के नाम पर आतंकित बनांये रखना और सामाजिक हिंसा को धर्मबोध से जोड़ना इनका कर्तव्यपथ बनाता जा रहा है. इससे आगे जाने के लिए हमें धर्म को नैतिकता की नियमावली और मानवीय कर्तव्यों की संहिता से जोड़ना होगा. यह प्रयास उपनिसदों से शुरू करके बुद्ध-महावीर के जरिये कबीर-रैदास-नानक-निज़ामुद्दीन औलिया- संत फ्रांसिस –टैगोर-गाँधी-आम्बेडकर तक की बनाई धार्मिकता की डगर पर ले जायेगी. धर्मं को कायरों की सम्पदा बनाना बड़ी भूल होगी. क्योंके बिना धर्म के समाज को आधार नहीं मिलेगा. यह अलग बात है कि इसके लिए अंतर-संप्रदाय संवाद और धर्मं के मानवीकरण के दो पहियों वाला वहां चाहिए.
                                                         सबलोग के सितम्बर 2016 में प्रकाशित

  



जेएनयू में प्राध्यापक रह चुके प्रो.आनन्द कुमार  प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैं और इन दिनों स्वराज अभियान में राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं.  anandkumar1@hotmail.com +919650944604 पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.

1 comment:

  1. Antar sampraday samwad aurDharma ka manavikaran in donon ka marg Dharma ke rajnitikaran aur Rajniti ke sampradayikaran ne rok liya hai.

    ReplyDelete