धर्म का इस्तेमाल
अकबर रिज़वी
कभी लेनिन ने कहा था कि “फासीवाद सड़ता हुआ पूँजीवाद है।” मैं इसमें थोड़ा
संशोधन करना चाहता हूँ। ‘फासीवाद’ सड़ता हुआ ‘पूँजीवाद’ नहीं बल्कि अपना
क्षेत्र विस्तार करते ‘पूँजीवाद’ का हरावल दस्ता है। पूँजीवाद सड़ नहीं रहा है। पूँजीवाद फैल रहा है—भिन्न-भिन्न
रूपों में। प्रत्येक युग में ख़ुद को बचाने और बढ़ाने के लिए यह एक काल्पनिक शत्रु-वर्ग
को चिह्नित करता है और उसकी आड़ में अपने हित बड़ी होशियारी से साध लेता है। पूँजीवादी
विकास की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि इसमें उत्पादन की जो संगठित प्रक्रिया है,
उससे क्रमशः मजदूर बाहर होते रहते हैं। अर्थात उत्पादन में तो बढ़ोतरी होती है लेकिन
रोज़गार के अवसर संकुचित होते जाते हैं और इस तरह निम्न-मध्य-वर्ग तथा श्रमिक-वर्ग,
असंतोष और आर्थिक असुरक्षा की गिरफ्त में आ जाता है। ऐसी परिस्थिति में यदि इस
आर्थिक असुरक्षा की बुनियाद पर असंतोष संगठित होने में सफल रहता है तो पूँजीवाद का
क़िला दरकने का भय घना हो जाता है। इसलिए पूँजीवाद की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि
असंतोष को संगठित होने से रोका जाए और इसको रोकने का सबसे सहज तरीक़ा है—असंतुष्ट
श्रमिक वर्ग का लम्पटीकरण। लम्पटीकरण का निरापद मार्ग है—फासीवाद। फासीवाद का
आज़माया हुआ नुस्खा है—धार्मिक कट्टरता और अंध-राष्ट्रवाद। भले ही यह उक्ति मार्क्स
की हो कि ‘धर्म अफ़ीम है’, किन्तु इसको व्यवहारिकता के स्तर पर पूँजीवाद ने ही बरता है। दूर देश
से तथ्य बटोरने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि पिछले दो-ढाई दशकों से हमारा मुल्क पूँजीवाद
की प्रयोगशाला बना हुआ है। योग गुरु और धर्म गुरु अब
प्रोडक्ट गुरु हो गए हैं। साधु-महात्मा राजनेता तथा सांस्कृतिक संगठन खुलकर
राजनीति कर रहे हैं। कभी स्त्री की जीवनशैली तय की जाती है तो कभी अल्पसंख्यकों
की। कभी ‘गाय’ की रक्षा के नाम पर मनुष्य की हत्या कर दी जाती है तो कभी व्यक्ति-विशेष
का विरोध देशद्रोह करार दे दिया जाता है। देशभक्ति सिद्ध करने के लिए किसी ख़ास
ब्रांड का प्रोडक्ट बतौर लिटमस पेपर निश्चित कर दिया जाता है। स्थिति कुछ ऐसी है
कि बाज़ार ने पूँजी, धर्म और राष्ट्रवाद का जो शानदार कॉकटेल तैयार किया है, उसकी
डिमांड ख़ूब है।
बात छोटी-सी है। इसे कम्पनी की मार्केट स्ट्रेटजी भी कह सकते हैं, लेकिन
ऐसा है नहीं। 70वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर योग गुरु बाबा रामदेव की कम्पनी
पतंजलि ने स्वदेशी कैम्पेन शुरु किया था, जिसका टैग लाइन था—‘पतंजलि अपनाइए, देश
को आर्थिक आज़ादी दिलाइए।’ बड़ी आसानी से यह कहा जा सकता है कि यह
कम्पनी विशेष का विज्ञापन है जो अवसर विशेष को ध्यान में रखकर उपभोक्ता को आकर्षित
करने की कोशिश से अधिक कुछ भी नहीं है। लेकिन ज़रा-सा ग़ौर फ़र्माएँगे तो यह पूरा
मामला अपनी सांकेतिकता में फासीवाद और धार्मिक कट्टरता को पालता-पोसता नज़र आएगा। विज्ञापन
का प्रारम्भ श्वेत-स्याम दृश्यों से होता है, जिसके पीछे कमेंट्री चल रही है—“सन 1906, पूरे भारत ने एकजुट
होकर स्वदेशी से स्वाधीनता का अभियान शुरू किया था। स्वदेशी अपनाओ और विदेशी जलाओ
का नारा पूरे देश में गूँज रहा था। आज फिर उसी रास्ते पर चलकर देश को आर्थिक
आज़ादी दिलाने की आवश्यकता आन पड़ी है।” श्वेत-स्याम दृश्य के बाद टीवी स्क्रीन
पर भारत का नक्शा नमूदार होता है। नक्शे के ठीक मध्य में पहले छोटे-छोटे तीन ‘क्रॉस’ बनते हैं, जो
क्रमशः बड़े होते जाते हैं। इन तीनों क्रॉस के बीच में ‘ई’, ‘आई’ और ‘को.’ अर्थात ईस्ट
इंडिया कम्पनी लिखा है। पीछे बाबा रामदेव का स्वर गूंज रहा है—“विदेशी कम्पनियाँ
हमारे देश के लिए बहुत ही ख़तरनाक हैं, क्योंकि देश का धन देश के बाहर लेकर जा रही
हैं और देश में कोई भी चैरिटी का बड़ा काम नहीं करती हैं। इन सबका विकल्प है
पतंजलि का यह सात्विक स्वदेशी अभियान। पतंजलि का यह प्रॉफिट किसी व्यक्ति विशेष के
लिए नहीं है, चैरिटी के लिए है।” इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है। देश का
प्रत्येक नागरिक चाहता है कि देश का धन देश में रहे, समृद्धि बढ़े। हमें विज्ञापन
के इस टैक्स्ट से भी आपत्ति नहीं है, जिसमें कहा गया है कि “हमें 70 वर्ष पहले
राजनीतिक स्वतंत्रता मिली थी, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता अभी भी एक सपना
है। जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमें गुलाम बनाकर लूटा था, मल्टिनेशनल कम्पनियाँ
भी साबुन, शैम्पू, टूथपेस्ट, क्रीम, पाउडर और रोजाना के इस्तेमाल वाले आइटम्स महंगे दामों पर बेचकर वही कर
रही हैं।” हमारा भी यही मानना है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस विज्ञापन में जो कुछ
कहा जा रहा है, वह आपत्तिजनक नहीं है। लेकिन दृश्य? तर्क दिया जा सकता
है कि विज्ञापन में भारत के नक्शे पर दिखाया ‘क्रॉस’ का चिह्न दरअसल ईस्ट
इंडिया कम्पनी का ‘लोगो’ है। लेकिन ऐसा है नहीं। ठीक वैसे ही जैसे कि गोरक्षा आंदोलन और इससे
जुड़े लोगों का सरोकार गाय से नहीं है। जिस प्रकार गोरक्षा का मतलब है—मुसलमानों
और दलितों के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक हिन्दू संवेदना को भड़काना। उसी तरह ईस्ट इंडिया
कम्पनी शब्द है और ‘क्रॉस’ प्रतीक है—इसाइयत का। कहने कि आवश्यकता नहीं कि भारत के नक्शे पर फैलता ‘क्रॉस’ विदेशी कम्पनियों
के बढ़ते बाज़ार का नहीं, इसाई समुदाय के प्रतीक में बदल जाता है और निस्संदेह यह
उस समुदाय में भय का संचार करने लगता है। ‘इसाई’ बहुराष्ट्रीय
कम्पनी का नहीं, एक सम्प्रदाय का नाम है और आधुनिक भारत में ‘क्रॉस’ किसी कम्पनी का
लोगो नहीं है। सच तो यह है कि पतंजलि के इस विज्ञापन से कई स्वार्थ सधते हैं—संघ
की आनुषांगिक इकाई ‘स्वदेशी जागरण मंच’ की वैचारिकी का अप्रत्यक्ष प्रक्षेपण
होता है, साथ ही अतीत की आड़ में इसाई समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत की बीज-वमन भी। ब्रॉडकास्ट
ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के डेटा के अनुसार अगस्त के पहले दो सप्ताह में पतंजलि का
यह कैम्पेन तकरीबन 50 हजार बार दिखाया गया। दृश्य-श्रव्य मीडिया का जनमानस पर
त्वरित असर होता है, ऐसे में कहा जा सकता है कि स्वदेशी बनाम विदेशी की आड़ में एक
सम्प्रदाय विशेष के लोगों को बिना कुछ कहे ही विदेशी करार दे दिया गया है। इस
प्रकार ‘गाय’ को दलितों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ तो ‘स्वदेशी’ को इसाइयों के
ख़िलाफ़ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। व्यवस्था और कॉरपोरेट के
ख़िलाफ जो असंतोष था, उसको धर्म की आड़ में अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ शिफ्ट कर
दिया गया है। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने देशभक्ति की नई परिभाषा दी है—‘जो व्यक्ति देशभक्त
है, वह गाय को माता ज़रूर मानेगा।’ और जो व्यक्ति गाय को माता नहीं मानेगा? उत्तर देने की
आवश्यकता क्या शेष रह जाती है?
20वीं सदी के अंतिम दशक में ‘राम’ बाज़ार के हत्थे
चढ़े तो 21वीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते ‘गाय’ निशाने पर आ गई है।
पिछले तीन दशकों में संस्कृति, धर्म आदि की रक्षा के नाम पर सैंकड़ों छोटे-बड़े
संगठन खड़े किए गए और निश्चित रूप से इन संगठनों में उसी असंतुष्ट निम्न-मध्य-वर्ग
और मजदूर-वर्ग के लोगों को शामिल किया गया, जो पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया से
बाहर कर दिए गए या रखे गए हैं। पूँजीवाद को अपना मार्ग निरापद रखना है, इस कार्य
में राम सहायक हों तो राम, गाय सहायक हो तो गाय, ईस्ट इंडिया कम्पनी सहायक हो तो पतंजलि।
धार्मिकता धीरे-धीरे विलोपित होती गई है, अध्यात्म तिरोहित होता गया है, जो चीज़
तेज़ी से पनपी और फैली है, वह है कट्टरता, अन्य सम्प्रदायों के प्रति घृणा और
अविश्वास। अगर कट्टरता नहीं फैलेगी तो समुदायों के बीच हिंसक टकराव भी नहीं होगा।
समुदायों के बीच नफ़रत और धर्म की दीवार भी नहीं खड़ी होगी। ऐसी परिस्थिति में
बहुसंख्यक जनता का ध्यान देश के संसाधनों पर मुट्ठी-भर पूंजीपतियों के कब्ज़े पर
जाएगा, विकास के नाम पर बढ़ते शोषण की तरफ जाएगा और सत्ता-पूँजी का गठजोड़ ख़तरे
में पड़ जाएगा। इसलिए ढेर सारे स्पीड ब्रेकर्स का बंदोबस्त किया गया है। पूँजीवाद
ने अपनी क़िलेबंदी को बहुस्तरीय बनाया है। अब आप किसी जन-विरोधी नीति के ख़िलाफ़
खड़े होते हैं तो मुमकिन है कि पहले आप से पूछा जाए कि ‘तुम किस धर्म के हो?’ अगर धर्म से बात
नहीं बनती दिखेगी तो आपकी जाति पूछी जाएगी। जाति से भी काम नहीं बनेगा तो आपसे
देशभक्ति का प्रमाणपत्र मांगा जा सकता है! यदि इससे भी बात नहीं बने, तो ‘भारत माता की जय’ बुलवाने का प्रयास
होगा। बोल दिया तो ‘गाय को आप माता मानते हैं या नहीं’, ये पूछा जाएगा।
इससे भी बात नहीं बनेगी तो इतिहास का उल्था किया जाएगा, आपके पुरखों की बखिया
उधेड़ी जाएगी। आपके पुरखों का कथित पाप आपके मत्थे मंढ़ा जा सकता है। यह भी काम न
आए तो स्वदेशी-विदेशी विचारधारा के नाम पर आपको देशद्रोही क़रार दिया जा सकता है।
और तो और आपके टूथपेस्ट के ब्राण्ड से भी आपकी विश्वसनीयता-अविश्वसनीयता का
निर्धारण किया जा सकता है। अब कहीं-न-कहीं तो आप फंसेंगे ही, और जैसे ही फंसे की
असली मुद्दा गोल हो जाएगा। पूँजी अपनी राह चलेगी, आपका घर जलेगा। मरता व्यक्ति
अपनी जान बचाएगा कि पूँजीवाद के ख़िलाफ़ नारा लगाएगा?
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