24 September 2016


इस धर्म को कैसे धारण करें?

        प्रियदर्शन 




रियो ओलंपिक में जिस शाम पीवी सिंधु स्वर्ण पदक के लिए स्पेन की कैरोलीना मारिन का मुकाबला करने वाली थीं, उस दिन देश के तमाम शहरों में उनकी कामयाबी के लिए पूजा-अर्चना चलती रही। इस मामले में धार्मिक एकता के राष्ट्रीय प्रदर्शन के साथ मंदिरों और मस्जिदों में कामनाओं और दुआओं का दौर चल पड़ा। मगर भगवान ने किसी की नहीं सुनी। वह कैरोलीना मारिन का दिन था जिसने कड़े मुकाबले के बाद पीवी सिंधु को आखिरकार हरा दिया।
लेकिन हिंदुस्तान अपने ईश्वर से मायूस नहीं हुआ। दो दिन बाद योगेश्वर दत्त के लिए वही प्रार्थनाएं शुरू हो गईं। लेकिन चार साल पहले जब ये प्रार्थनाएं नहीं थीं तब योगेश्वर पदक जीत लाए, लेकिन जब सारा कर्मकांड होता रहा, तब ईश्वर ने धोखा दे दिया। यह कोई नया सिलसिला नहीं है। सदियों से हिंदुस्तान अपनी प्रार्थनाओं के सहारे जीता रहा है। महात्मा गांधी ने तो प्रार्थना को अपने सत्याग्रह का हिस्सा बना लिया था। लेकिन आजादी की लड़ाई प्रार्थनाओं से नहीं संघर्ष से जीती गई थी। उसके पीछे बहुत सारे मामूली लोगों का त्याग और बलिदान था जिन्हें बेशक, महात्मा की प्रार्थनाओं ने भी अभिभूत किया होगा।
लेकिन गांधी की प्रार्थना चल गई और उसने देश को आज़ादी दिला दी, जबकि बाकी देश की प्रार्थना नहीं चल सकी और वह देश को एक सोना नहीं दिला सकी?  इन दोनों प्रार्थनाओं का अंतर क्या हैक्या यह सच्ची धार्मिकता और कर्मकांड के बीच का अंतर है? इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है। सच्ची धार्मिकता की रेखा कहां ख़त्म होती है और कर्मकांड का जाल कहां शुरू होता है, यह बताना आसान नहीं। दुनिया के बहुत सारे लेखकों ने इस गुत्थी को खोजने-खोलने की कोशिश की है और पाया है कि ध्रर्म से जुड़े संस्थान- मंदिर-मस्जिद, मठ, चर्च- सच्ची धार्मिकता का तिरस्कार करते हैं और एक तरह के सांगठनिक धर्म को बढ़ावा देते हैं जिसमें उसकी आध्यात्मिक शक्ति जाती रहती है और उसका राजनीतिक और कारोबारी इस्तेमाल बढ़ता जाता है.
यह कहना कि पूंजीवाद धर्म और कट्टरता को बढ़ावा देता है, एक तरह का सरलीकरण है। धर्म के नाम पर युद्ध पूंजीवादी व्यवस्था से पुराने हैं और सबसे क्रूरतम क़िस्म के झगड़ों में रहे हैं। धार्मिक कर्मकांडों में निहित क्रूरताओं का इतिहास भी बहुत पुराना है। लेकिन यह सच है कि धर्म सभ्य़ता के सबसे पुराने प्रभावों में हैं। बल्कि सभ्यता के उषाकाल में उसकी बड़ी सकारात्मक भूमिका रही है। उसने समाज को संगठित करने का, उसके जीवन के मूल्य निर्धारित करने का काम किया। वह सम्राट की मदद भी करता रहा, उस पर अंकुश भी लगाता रहा। लेकिन सभ्यता के विकास के साथ धीरे-धीरे धर्म की उपयोगिता ख़त्म होती जाती है। उसकी सामाजिक भूमिका को बहुत सारी दूसरी संस्थाएं और विधाएं हस्तगत कर लेती हैं। स्कूल धार्मिक संगठन के दायरे से बाहर चले जाते हैं, कविता धर्म से कहीं ज़्यादा करुणा सिखा देती है। धार्मिक अनुभवों का अतिवाद तंत्र-मंत्र के गलियारे में फंस जाता है, जो बचा रहता है, वह एक आध्यात्मिक अनुभव में ढल जाता है।
धर्म के इस परिसर को विज्ञान और सीमित करता चलता है। वह एक-एक कर धर्म के सारे उपकरण छीनता चलता है। अब देवता पानी नहीं बरसाते, आग पैदा नहीं करते, सूर्य और चंद्रमा और दूसरे ग्रह अपनी ईश्वरीय चमक खो देते हैं, ईश्वर किसी काल्पनिक शक्तिपूंज में जाकर छुप जाता है।
कायदे से यहां धर्म की सत्ता ख़त्म होती जानी चाहिए थी, मगर यहीं राजनीति उसे बचाए रखती है। धर्म बहुत सारे लोगों के दुख के लिए दिलासे का काम करने लगता है। ईश्वर बहुत सारे अन्यायों का कवच हो जाता है। कर्मकांड यह बताने लगता है कि इस जन्म के दुख बीते जन्मों के पाप का नतीजा हैं। जिन धर्मों में पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं है, वहां यह एक अनिश्चित उम्मीद का वाहक बनता है- इस तसल्ली के साथ कि ईश्वर एक दिन सबकुछ ठीक करेंगे। दरअसल यह तसल्ली, यह मलहम ही वह चीज़ है जिसकी वजह से मार्क्स ने धर्म को अफीम का नाम दिया था- एक ऐसे नशे का, जो लोगों को सदियों से सुलाए हुए है।
दरअसल धर्म के भीतर लोगों को झूठी तसल्ली देने की क्षमता वह चीज़ है जो पूंजीवाद को काफी रास आती है। इस व्यवस्था में उत्पादन और मुनाफ़े के बीच खड़ा जो बिचौलिया होता है, वह सबसे ज़्यादा कमाता है। अक्सर वह इसे अपनी व्यवस्थागत बेईमानी की तरह नहीं, ईश्वर की ओर से दी गई कृपा की तरह देखता है। गरीबी इस व्यवस्था में एक उत्पीड़क तंत्र का नतीजा नहीं, बदकिस्मती की बात है। यह भाग्यवाद अमीर और गरीब दोनों को धर्म के खाने में धकेलता है। गरीब को यहां कुछ राहत मिलती है और अमीर को प्रायश्चित के मौके। दूसरी बात यह कि यह भाग्यवाद निजी पुरुषार्थ में अपनी आस्था नहीं रहने देता। जो मिला है, ईश्वर की कृपा से मिला है इसलिए जो कमाया जा रहा है, वह ईश्वर के नाम पर समर्पित किया जाना है। जाहिर है, ईश्वर के साथ लेनदेन की यह प्रवृत्ति अंततः धर्म के ठेकेदारों को ही फायदा पहुंचाती है। यह अनायास नहीं है कि जैसे-जैसे लोगों के पास संपत्ति बढ़ती जाती है, उनकी धर्मभीरुता भी बढ़ती जाती है।
आधुनिक समय में कई मनीषियों ने धर्म के सार्थक इस्तेमाल की कोशिश की। महात्मा गांधी के अलावा दलाई लामा का राजनीतिक आंदोलन मूलतः आध्यात्मिकता की कोख से निकला दिखता है। लेकिन यही इनकी सीमा भी है। दलाई लामा चाहे जितनी बड़ी शख्सियत हों, चीन के राजनीतिक वर्चस्व से वे तिब्बत को बचा नहीं पाए। गांधी अपने धर्म को उसके दुरुपयोग की छाया से इसलिए बचा पाए कि उनके भीतर एक सतत प्रयोगशीलता थी जो कर्मकांड के बाहर जाती थी और अंततः धर्म में निहित नैतिकता की तलाश करती थी। हालांकि यह तलाश भी इस अर्थ में विफल रही कि उसने राजनीतिक बदलाव का एक बड़ा आंदोलन तो पैदा किया, लेकिन सामाजिक ठहराव को तोड़ने में नाकाम रहा। गांधी का आंदोलन न भारतीय समाज के जात-पांत को ख़त्म कर सका, न अछूतों को उनका वास्तविक सम्मान दिला सका और न ही सांप्रदायिकता के राक्षस का सामना कर सका। 
दरअसल धर्म एक संगठन के रूप में सिर्फ राजनीति का साधन रह गया है, इसको शायद गांधी से ज़्यादा जिन्ना ने समझा और ख़ुद बुरी तरह धर्मविमुख होते हुए धार्मिक चेतना को सांप्रदायिक उन्माद में बदलते हुए अपने हिस्से का देश ले लिया। धर्म के इस राजनीतिक इस्तेमाल की मिसालें लगातार बढ़ती गई हैं। बल्कि धर्म के कट्टरता के रसायन को जान बूझ कर बढ़ाया गया है। पश्चिम एशिया के कई देशों में धर्म की इस कट्टरता ने कितने ख़ौफ़नाक नतीजे पैदा किए हैं। ख़तरनाक बात यह है कि हमारे समाज में भी यह कट्टरता लगातार पोसी जा रही है। राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े बहुसंख्यकवाद लगातार आक्रामक हुआ है और भारतीयता का रंग और मिज़ाज बदलने की कोशिश में है। धर्म के साथ राजनीति का यह दुराभिसंधि मौजूदा समाज में नवपूंजीवाद की विडंबनाओं के साथ और मजबूत हुई जाती है। इत्तिफ़ाक से इस  दौर में  जब हमारी सारी सामाजिक-सांस्कृतिक समझ पर एक तरह की कारोबारी प्राथमिकताएं हावी हैं- पढ़ाई-लिखाई का वास्ता साहित्य, इतिहास और समाजशास्त्र से नहीं रह गया है, पैसे कमाने वाली पढ़ाई से रह गया है। देश के ऐसे कमाऊ पूत सांस्कृतिक तौर पर उतने ही विपन्न हैं और बड़ी तेज़ी से धार्मिक कट्टरताओं की गिरफ़्त में आने को तैयार। क्योंकि उनके पास धर्म और राष्ट्र की कोई वास्तविक और रचनात्मक समझ नहीं है और अपने खोखले दर्प के नाम पर कुछ देवताओं और भारत माता की जय के अलावा वे कुछ और नहीं सोच पाते। यह एक सभ्यतागत संकट है जो पूंजीवाद को भी रास आता है और धार्मिक कट्टरता के बीच पलने वाली राजनीति को भी। यह अनायास नहीं है कि भारत में भी इन दिनों वे राजनीतिक ताकतें सत्ता में हैं जो राष्ट्र, धर्म और संस्कृति के बहुत छिछले आशयों को बड़ी आक्रामकता के साथ पेश करने में लगी हैं और उन मूल्यों को लगातार चोट पहुंचा रही हैं  जिनका वास्ता इस देश की बहुलतावादी परंपरा और उदार लोकतांत्रिक चेतना से है।

दरअसल पूंजीवाद ने इस दौर में धर्म और विज्ञान दोनों को महज उपकरण में बदल डाला है। यही वजह है कि विज्ञान ने इस दौर में चाहे जितनी तरक्की की हो, अंततः वह पूंजीवाद का दास सिद्ध हुआ है, उसने वैज्ञानिक चेतना के विकास में योगदान नहीं किया है। इसी तरह धर्म लगातार चोले बदल रहा है, वैज्ञानिक साधनों का इस्तेमाल कर रहा है, कंप्यूटर पर भी कुंडलियां बांच रहा है, और अंततः वह राजनीति कर रहा है जो देश और दुनिया को बंटवारे और बरबादी की ओर ले जाती है। इसका सामना हम कैसे करें, यह बहुत बड़ा सवाल है। 




लेखक कवि,कथाकार और पत्रकार हैं.+919811901398 priyadarshan.parag@gmail.com पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.

4 comments:

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    1. Sambhawtah apne isee swaroop ke karan dharma jodne ki bhoomika ke wipareet todne ki bhoomika nibhane wala charitra prateet hota hai.Dharma hamari aawashyakata hai par wartaman swaroop mein nahin.
      -Arun kumar paswan

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