सुधार और स्वाधीनता
लेखक हिन्दी के प्रसिद्द आलोचक एवं चिन्तक हैं. यह आलेख सबलोग के नियमित स्तम्भ 'हाशिये से' में सितम्बर 2016 में प्रकाशित है. tiwari.ajay.du@gmail.com +919717170693 पर उनसे सम्पर्क किया जा सकता है.
अजय तिवारी
भारत के
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने स्वाधीनता के बाद की आर्थिक नीतियों से राष्ट्रीय जनतान्त्रिक
गठबंधन सरकार की नीतियों का अंतर बताते हुए कहा है, “आज़ादी के बाद दो-तीन दशकों तक हमारी वृद्धि-दर 1-2% या
हद-से-हद 2.5 % रही। दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं से तुलना करने पर हम कहीं नहीं ठहरते
थे।...जब जापान, कोरिया और ताइवान आर्थिक सफलता की
सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, तब हम नेहरूवादी चिंतन से ग्रस्त
थे कि कुछ काम ऐसे हैं जिन्हें केवल सरकार ही कर सकती है।“ (टाइम्स ऑफ इंडिया, 21 अगस्त 2016)
वित्तमंत्री के
उद्गार एक नीतिगत दिशा का संकेत करते हैं। लेकिन ये अकस्मात नहीं प्रकट हुए। नेहरू
के आर्थिक दर्शन से अलगाव प्रदर्शित करने का भाव यहाँ काफी प्रत्यक्ष है। इस वक्तव्य
की तात्कालिक आवश्यकता पेश हुई अमरीका द्वारा सुधारों की ‘असंतोषजनक’ गति पर क्षोभ जताए जाने के कारण।
लगभग डेढ़ महीने पहले विदेशों में निवेश-वातावरण का अध्ययन करने वाली ‘वार्षिक आकलन रिपोर्ट: 2016’ में अमरीका ने यह अभिमत ज़ाहिर किया था कि ‘भारत की मोदी सरकार उम्मीदों पर खरी नहीं
उतरी है।‘ उसकी राय में विदेशी कंपनियों के
लिए भारत में “अपार संभावनाएँ” हैं;
मोदी सरकार ने हालाँकि ‘नौकरशाही बाधाएँ’ दूर की हैं और नए क्षेत्र खोले हैं, ‘फिर भी सरकार ने अपने भाषणों के अनुरूप काम
नहीं किया है।‘ और तो और, 7.5% वृद्धिदर का दावा ‘काफी बढ़ा-चढ़ा मालूम होता है।‘ (द हिन्दू, 7
जुलाई 2016)
अमरीकी सरकार तो
अमरीकी उद्योगजगत की हिमायती है ही,
विख्यात पूँजीवादी अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलित्ज़ ने कहा है कि स्वयंसेवी संस्थाओं
पर हमलों से और विभिन्न विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के दमन से भारत की
अंतर्राष्ट्रीय छवि पर धब्बा लगा है। स्वयंसेवी संस्थाओं के मामले में उन्होंने
फोर्ड फाउंडेशन पर थोपी गयी शर्तों का विशेष उल्लेख किया। उनके अनुसार, ये घटनाएँ भारत को मिस्र-रूस-तुर्की जैसे उन देशों में शामिल करती
हैं जो तानाशाही की ओर जा रहे हैं।
ज़ाहिर है कि भारत
सरकार पर आर्थिक नीतियों में तेज़ परिवर्तन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बहुत ज़्यादा
है। सरकार इस दबाव के अनुरूप नीतिगत परिवर्तन के लिए तैयार भी है। लेकिन इसके लिए
नेहरू को बलि का बकरा बनाने की आवश्यकता नहीं थी। एक तो इस तरह के बयानों का राजनीतिक
निहितार्थ इतना प्रबल होता है कि उसे नीतिगत स्तर पर गंभीरता से लेना संभव नहीं है; दूसरे ऐसे वक्तव्य ऐतिहासिक विवेक से शून्य
होते हैं।
पहली, नेहरू ने आज़ादी के बाद जब देश की बागडोर सँभाली, तब दो सौ वर्षों की लूट और तबाही के बाद
भारत के सामने विकल्प यह था कि या तो वह पूरी तरह ब्रिटिश-अमरीकी निर्देशों पर चले, जैसा पाकिस्तान ने किया और पाकिस्तान की ही
तरह असफल और संकटग्रस्त समाज में बदल जाय या स्वतंत्र रास्ते पर चलकर अपनी नींव
मजबूत करे और नवस्वाधीन देशों की आवश्यकता के अनुरूप विकास की नयी संकल्पना अपनाए।
नेहरू की स्वप्नदर्शिता का यह सकारात्मक परिणाम था कि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय
मामलों में गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई और राष्ट्रीय संदर्भ में मिश्रित
अर्थव्यवस्था की।
दूसरी, 2008 के आर्थिक संकट के दिनों में, जब विकसित दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियाँ और
बैंक तबाही झेल रहे थे, तब अमरीका तक ने मार्क्स के ‘दास कैपिटल’ में और नेहरू की ‘मिश्रित
अर्थव्यवस्था में काफी रुचि दिखाई। यह रुचि जनता के स्तर पर तो थी ही, सरकार के स्तर पर भी थी। अकारण नहीं है कि ‘बैंक ऑफ अमेरिका’ तबाह हो चला था और उसे सरकार को अपने हाथ में लेना पड़ा; ‘जनरल मोटर्स’ (जीएम) का भी राष्ट्रीयकरण हुआ और वह ‘गवर्नमेंट मोटर्स’
(जीएम) में बदल गया। यानी,
‘जीएम’ के रूप में उसका ब्रांड कायम रहा लेकिन
मिल्कियत बदल गयी! ब्रांड की रक्षा उपभोक्तावादी समाज में सर्वोपरि होती है।
आश्चर्य इस बात पर होता है कि अपने राष्ट्रीय हितों
की अनदेखी करके अमरीकी दबाव में काम करना आज ‘राष्ट्रवाद’ का लक्षण बन गया है। इस कसौटी पर
नेहरू ही क्यों, उदारीकरण का द्वार खोलने वाले
नरसिंह राव और उस रास्ते पर सरपट चलने वाले मनमोहन सिंह भी आज तुच्छ दिखाई देते
हैं। आरएसएस-भाजपा सरकार से पहले खुदरा व्यापार में, रक्षा क्षेत्र में,
प्रिंट मीडिया में,
वित्त (बैंक, बीमा आदि) और रेलवे जैसे क्षेत्रों में
शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की हिम्मत किसी सरकार की नहीं हुई।
देखने की बात यह है
कि उदारीकरण का दबाव बनाने वाले देश और उनकी संस्थाएँ खुद राष्ट्रीय हितों के
अनुरूप नीतियाँ अपनाती हैं, लेकिन विकासशील देशों को या
उदारीकरण अपनानेवाले देशों को राष्ट्रीय हितों के अनुरूप चलने से रोकती हैं। विकसित
देशों का राष्ट्रवादी रुख ‘संरक्षणवाद’ कहलाता है। आजकल इसका सवाल कोई नहीं उठाता। विकासशील देशों का
राष्ट्रवाद निंदनीय समझा जाता है। लेकिन विकसित देश अपने राष्ट्रवाद को ‘राष्ट्रीय हित’ की संज्ञा देते हैं जो ‘पूरी पृथ्वी पर फैले हैं’। इसलिए उन्हें हर जगह बेरोकटोक आने-जाने की इजाज़त है। नहीं है
तो होनी चाहिए। यह अधिकार वे बलपूर्वक ले लेंगे। प्रतिक्रिया में यदि उग्र
राष्ट्रवादी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होंगी तो वे शर्तिया आतंकवाद कही जाएँगी।
हमारी राष्ट्रवादी
सरकार को आर्थिक मामले में नयी लीक बनाने की ऐसी व्याकुलता है कि वित्तमंत्री को
नरसिंह राव-मनमोहन सिंह की जोड़ी भी ‘अपर्याप्त
साहसी’ मालूम होती है, जिसने 1991-92 में नेहरूवादी रास्ता छोड़कर
उदारीकरण का रास्ता अपनाया था। उन दिनों ‘समय सूत्रधार’ (पाक्षिक) के संपादक बद्रीनाथ
तिवारी ने पत्रिका का पहला अंक (पूर्वाङ्क) निकाला था: 1942—भारत छोड़ो; 1992—भारत आओ’! उसका विमोचन नरसिंह राव ने ही किया था और पत्रिका का मुखपृष्ठ
देखकर उनके चेहरे पर तनाव छिपा नहीं रह सका था। इस तरह, स्वाधीनता संघर्ष की गाँधी-नेहरू विरासत से प्रस्थान हुआ था।
यह नयी प्रणाली संकट
रोकने में असमर्थ थी। हालाँकि 1991 के बाद विश्व पूँजीवादी व्यवस्था को पहले
भूतपूर्व सोवियत संघ, फिर चीन, और अब भारत जैसा विशाल बाज़ार मिलता गया है। फिर भी 2008 में
उत्पन्न संकट का समाधान नहीं हुआ। इसे ‘निरंतर
या स्थायी संकट’ की प्रणाली कहा जाता है। जब तक
पूँजी(-वाद) को अपने प्रसार के लिए पिछड़े हुए नए-नए बाज़ार मिलते जायेंगे, तब तक संकट के दौर टलते जायेंगे। लेकिन
खत्म न होंगे।
कारण यह कि
उदारीकरण और भूमंडलीकरण विभिन्न देशों के बीच और प्रत्येक देश के भीतर विषमता के
अनगिनत रूपों को बढ़ाता है। उसके लाभ मुट्ठी भर लोगों तक ही पहुँचते हैं, यह चिंता मनमोहन सिंह से स्टिकलित्ज़ तक
भूमंडलीकरण के अधिकांश समर्थकों को सताती रही है। केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से
आए शासकों को नहीं सताती। वे नाज़ी पार्टी की तरह सबसे प्रतिक्रियावादी पूँजीपतियों
के हिमायती हैं। बल्कि उससे भी बढ़कर भाई-भतीजावादी पूँजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म) के सेवक-सहायक हैं। इसकी
मिसाल अंबानी और अदानी जैसे हेरा-फेरी वाले पूँजीपतियों के साथ सत्ताधारी नेताओं
की, विशेषतः पधानमंत्री की, व्यक्तिगत निकटता है, जो उनपर कृपा बनकर बरसती है।
भारत ने 2008 का
संकट बिना बहुत बड़ी कीमत चुकाए आसानी से झेल लिया। इसका कारण नेहरू हैं। उन्होंने
मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र का एक आधारभूत ढाँचा निर्मित किया था। पूँजीवादी संकट के
समय यह आधारभूत ढाँचा पूँजी से लेकर रोजगार तक बहुत से झटके सह लेता है। इसलिए
जनता तक उस संकट का असर कम पहुँचता है। यह भी कोई समाजवादी या समतमूलक व्यवस्था
नहीं थी। नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था में उदारपंथी पूँजीवाद के ‘लोककल्याणकारी राज्य’ के साथ समाजवादी व्यवस्था के ‘राजकीय क्षेत्र’ का सामंजस्य था। उसीका प्रतिरूप भारत का सार्वजनिक क्षेत्र है।
जैसे-जैसे ‘उदारवादी’ व्यवस्था के संकट तेज़ हुए, क़र्ज़ पर आधारित व्यवस्था में भुगतान संतुलन की स्थिति बिगड़ती
गयी, वैसे-वैसे सार्वजनिक क्षेत्र का
विनिवेश करके विदेशी क़र्ज़ का मूल और सूद चुकाया गया। जनता से यह कहा गया कि राजकीय
घाटे को पूरा करने के लिए यह कार्रवाई अनिवार्य है। लेकिन यह पूछा जाता है, न बताया जाता है कि आखिर राजकीय घाटा क्यों
है?
आम धारणा है कि जनता
को दी गयी रियायत के कारण घाटा होता है। 1991 में जब नए ढंग का क़र्ज़ शुरू हुआ, तब अनेक आर्थशास्त्रियों ने चेतावनी दी थी
कि पाँच साल में ‘रिवर्स फलो’ शुरू हो जाएगा। यानी,
जितना नया क़र्ज़ आयेगा, उससे ज़्यादा पुराने कर्ज़ों का मूल
और सूद वापस करना होगा। इसे ‘उल्टी गंगा’ कहते हैं। यदि सरकारें यह आँकड़ा सार्वजनिक करें कि जनता को
कितनी रियायत मिलती है और विदेशी कर्ज़ों का मूल-सूद मिललार कितनी देनदारी होती है, तो तस्वीर साफ हो जाएगी।
सार्वजनिक क्षेत्र
के उन्मूलन के बाद क्या स्थिति होगी,
इसकी कल्पना भारत के सत्ताधारी नहीं करते। लेकिन वे विकसित साम्राज्यवादी देश नहीं
हैं। उन्हें नए बाज़ार भी नहीं मिलेंगे जिनकी लूट से वे राहत पा सकें। विकसित देशों
में भी अमरीका जैसी स्थिति ब्रिटेन-फ्रांस-जर्मनी की नहीं है। ‘ब्रेकज़िट’ इसका प्रमाण है। जापान-सिंगापुर-ताइवान गहरे संकट में हैं।
क्या यह भारत के भविष्य का आईना नहीं है? इसलिए
निजीकरण और विदेशी क़र्ज़ की अंधी दौड़ लगाने से पहले थोड़ा ठहरकर नीतिगत पुनर्विचार
करना राष्ट्रहित में अनिवार्य है।
No comments:
Post a Comment