07 September 2014

तुम्हारा साहित्यकरवा सब फ्रॉड है!

‘जयहिन्द! जयभारत!’

फ़ोन रिसीव करते ही रामपदारथ भाई की आवाज़ ठन्न–से कान के पर्दे पर टकरायी। एकदम करंट–सा लगा। अपन ने प्यार से झिड़की दी, ‘हाय–हैलो की जगह जयहिन्द– जयभारत! पदारथ भाई, ये क्या हाल बना रखा है? कुछ लेते क्यों नहीं?’

‘अच्छा बेट्टा! अब तुम भी ‘कुछ’ कहने लगे! देख रहे हैं कि मोदिया के आने के बाद से सबका जुबान शाकाहारी हो गया है।’

‘मतलब?’

‘मतलब उतलब छोड़ो। तुम अ–नारी हो, अनाड़ी थोड़े ही हो कि मतलब समझाएँ?’ पदारथ भाई मानो शब्दों का खेल खेलने पर ही आमादा थे।

ऐसे खिलाड़ी बकैत से कौन उलझे! हार मानते हुए हमने आग्रह किया कि ‘कुछ’ विषयक अपनी आपत्ति का न सही, कम–से–कम अपने अभिवादन में आए हल्लाबोल बदलाव का मतलब तो समझा दें।

पदारथ भाई उवाच, ‘देखो ऐसा है, जिस कारण से तुम्हारा जुबान विशुद्ध शाकाहारी हो गया है, उसी कारण से हमारा जुबान भी विशुद्ध भारतीय हो गया है। मोदिया के आने के बाद से हम देख रहे हैं, बौद्धिक जगत में भारतीयता अइसा उछाल मार रहा है कि खुद मोदी उसके आगे विदेशी लगने लगा है। हमारे बात पर विश्वास न हो तो कुछ दिन के लिए ‘जनसत्ता’ लगवा लो।’

‘मैं ‘जनसत्ता’ का नियमित पाठक हूँ और इस जागरूकता के लिए आपके मशवरे का मोहताज नहीं। काम की बात पर आइये।’ मैंने चिढ़ कर कहा।

‘चिढ़ो मत बेटा! आराधन का दृढ़आराधन से दो उत्तर!’ शक्तिपूजा विशेषज्ञ जामवंत की भूमिका में पदारथ भाई बोले, ‘अगर तुम नियमित और जागरूक पाठक हो तो मेरे बात पर तुमको सीधा उदयनवाजपेइयों और रमेशचंद्रशाहों का नाम याद आना चाहिए था। पवन कुमार गुप्ताओं को तो मान लो छोड़ भी सकते हैं।’

‘समझ गया, समझ गया’, मैंने अपनी जागरूकता पर आती आंच को आनन–फानन रोका, ‘पिछले दिनों मोदी सरकार के प्रति उम्मीद ज़ाहिर करने वाले जो लेख छपे हैं, उनकी बात कर रहे हैं आप।’

‘वही वही वही! - थोड़ा मन्द ही सही, बुद्धि है तुम्हारे पास! ई लेखकवा लोग वाला हाल नहीं है।’, जनाब ने सर्टिफिकेट इश्शू करते हुए फ़रमाया, ‘पर नहीं, हम गलत कह रहे हैं। इन सबको बुद्धिहीन मानना ठीक नहीं होगा। सचाई तो यह है कि ये बड़े बुद्धिमान लोग हैं। कभी भाजपा में नहीं रहे, खुल कर उसका समर्थन भी नहीं किया, पर अब जब दिल्ली की कुर्सी पर उसका कब्जा हो गया है तो घुमा फिराके बता रहे हैं कि अजी हम तो आपके ही हैं, ऊ का कहते हैं, परकारांतर से। कहीं अशोक वाजपेयी के साथ हमारे सम्बन्धों को देखते हुए ई मत समझ लीजिएगा कि हम भी उन्हीं की तरह इस जीत को हत्यारों की जीत मानते हैं।’

‘नहीं पदारथ भाई, यह बात तो गलत है। अरे, सीधा सा मामला है। मुलायम टाइप लोगों के हाथों सेक्युलरवाद का जो हश्र हुआ है, ये उससे चिढ़े हुए लोग हैं और उसी की प्रतिक्रिया में प्रतिक्रियावादी हुए जा रहे हैं। बस, इतनी सी बात है। एक क़िस्म की ईमानदारी इनके कहने में भी है, यह तो मानना पड़ेगा।’

‘ए विद्वान पाठक जी, हमको एक भी वाक्य इनके लेख का निकाल के दिखा दीजिए जो मुलायम टाइप लोगों या पार्टियों को ध्यान में रखके लिखा गया हो। सारा गुस्सा तो नेहरू टाइप सेक्युलरवाद पर, अँग्रेज़ीदां विद्वानों पर और कम्युनिस्टों पर उतर रहा है। एक जनाब उदयन वाजपेयी हैं जिनको सोवियत भूमंडलीकरण का भूत सता रहा है और हजूर बम–बम हैं कि मोदी सरकार आ गयी है तो इसे मार भगाएगी। उनको लग रहा है कि अब भारत के राजनीतिक विमर्श में ज्यादा खुलापन आ पाएगा। वाह रे मरदे! सबसे कट्टर टाइप लोग, जो वैचारिक मतभेद को लात–जूता और तोड़–फोड़ से हल करते हैं, वही खुलापन लाएँगे। और जो लोग बहस मुबाहिसा करते हैं, उनके बारे में उनका मानना है कि ऊ अदृश्य सेंसर लगाने वाले लोग हैं। ऐसा विद्वान तुम्हारा साहित्य वाला सब हो सकता है बर्खुरदार! और तुम कह रहे हो कि उनके कहने में भी ईमानदारी है!’

‘देखिए, ईमानदारी का मतलब – मतलब ये है कि’, पदारथ भाई के हमले से मेरी वाक्यरचना व्यूहरचना की तरह बिखरने लगी थी, ‘माने मैं कहना चाहता हूँ कि ऐसा उनको सचमुच लगता है तो कह रहे हैं, इसमें बेइमानी वाली तो कोई बात नहीं है।’

‘बेइमानी वाली बात है। जो सीधे-सीधे कुतर्क करे, उसका इरादा ठीक कैसे हो सकता है? ससुरे, गुजरात का 
मियांमारी भूल जाओगे और खुलापन का उम्मीद जाहिर करने लगोगे, ई साफ-साफ बेइमानी नहीं त और का है? तुम्हारे दूसरे साहित्यकार रमेशचंद्र शाह जी का वाक्य पढ़के तुमको सुनाते हैं, ‘‘तात्कालिक आवश्यकता इस समाज में अन्तर्निहित, लेकिन दबी–घुटी मूल्यचेतना और आत्मज्ञान को उभारने–जगाने की है। फिलहाल लक्षण कुछ ऐसे ही प्रतीत हो रहे हैं कि नया राजनीतिक नेतृत्व अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में इस मानी में ज्यादा संवेदनशील और जनोन्मुखी होगा।’’ सुन रहे हो ना! इनको मोदी और उनकी सरकार मूल्यचेतना और आत्मज्ञान उभारने–जगाने वाली लग रही है। ऐसा बात कोई बिना बेइमान हुए कैसे सोच सकता है? आपको प्रेरणा मिलता है गाँधी के ‘हिन्द स्वराज’ से, और उम्मीद किससे रखते हैं? कॉरपोरेट के पैसा का नंगा नाच करवानेवाला, अपना बेरहमी का मिसाल कायम करनेवाला नेतृत्व से। वाह रे शाह जी! शक्ति की मौलिक कल्पना करते–करते एतना मौलिक हो जाएँगे, ई कौन सोचा था? मामला साफ़ है। देख लिये कि भाजपा लम्बा पारी खेलने वाला है, त अब घुमा फिराके बताना है कि हम आपसे अलग नहीं हैं, अशोक को देखके हमारे बारे में अन्दाजा मत लगाइए।’

‘पर पदारथ भाई, घुमा पिफराके बताने की उन्हें ज़रूरत क्या थी? कोई लिखते समय हाथ थोड़े ही थामे ले रहा था?’

‘यही तो हम कह रहे हैं। कोई हाथ नहीं थाम रहा था, फिर भी ये...’

मैंने बीच में ही पकड़ा, ‘मेरा मतलब यह है कि यही इनके विचारों की ईमानदारी का सबूत है, उनसे आप सहमत हों या न हों।’

‘ई ईमानदारी का कौन सा डेफनीशन ले आए हो भइवा? भारत का अन्त:करण, भारत की अन्त:चेतना, मूल्यचेतना, आत्मचिन्तन – ई सब ईमानदार आदमी का बोली है? गोल–गोल बात करो, जिसमें बेरहम जातिप्रथा और ब्राह्मणवाद से ले के आज का नवउदारवाद, कॉरपोरेट हमला, एपफडीआई, सब लुकछिप जाए – ई बेईमानी नहीं तो और का है? अरे, ईमानदारी तो ई है कि तवलीन सिंह की तरह खुलके नवउदारवाद का समर्थन करो या ऊ जो आईसीएचआर का चेयरमैन बना है, कौन तो राव, उसके तरह जातिप्रथा का गुणगान करो। पर नहीं, यहाँ तो उनके जैसा कहलाने से भी बचना है और सरकार के गुडबुक में अपना नाम भी दर्ज करवाना है। यहीं भारत का अन्त:करण और आत्मचिन्तन जैसा मुहावरा काम आता है। तवलीन सिंह फ्रॉड नहीं है, तुम्हारा साहित्यकरवा सब फ्रॉड है।’

पदारथ भाई की तल्ख़ी बढ़ते–बढ़ते इस हद तक चली जाएगी, मैंने कल्पना न की थी। इस कल्पनातीत बदतमीज़ी पर अपना गुस्सा फट पड़ा, ‘पदारथ भाई, किसी भी चीज़ की हद होती है। हम साहित्यवाले अगर फ्रॉड हैं तो आप अपनी ईमानदारी का घंटा वहाँ पटना में बैठ कर बजाते रहिए और हमें बख़्श दीजिए।’ कह कर मैंने फ़ोन पटकने जैसा कुछ करना चाहा, पर पाया कि कमबख़्त मोबाइल को तो पटका भी नहीं जा सकता।

काश, लैंडलाइन पर बात हो रही होती! फिर तो हम पूरा–पूरा दिखा ही देते कि पवित्र भारतीय अन्त:करण से निकला पवित्र भारतीय गुस्सा कैसा होता है!
                     
                        (यह आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित है.)

                                                                                   संजीव कुमार

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