04 September 2014

यह भी कोई वक्त था जाने का...


(कवि रविशंकर उपाध्याय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लोकप्रिय शोध छात्र थे। 19 जून 2014 को बनारस में उनकी आसामयिक मृत्यू हो गयी। साहित्य और संस्कृतिकर्म में रविशंकर जितना सक्रिय थे, आचरण में उतना ही विनम्र और उदार। रविशंकर का जाना ऐसे संस्कृतिकर्मी का जाना है, जिसकी क्षतिपूर्ती साधारणतया असंभव है)

यही मौसम रहा होगा, हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हर वर्ष की तरह तुलसी जयन्ती का आयोजन था, बलराज सर लड़कों को बटोर रहे थे, दरअसल उस समय विभाग में नवागन्तुक छात्रों की भीड़ रहती है, जो अभी-अभी स्नातक पास करके आये रहते हैं अगर इसी विश्वविद्यालय के छात्र हो तो गोष्ठी-संगोष्ठी का अभ्यास रहता है मगर मेरे जैसे बाहरी के लिए तो इन सब से पहला सामना था। उस वर्ष बाहरी छात्रों की आमद ज्यादा हुई थी इसलिए बलराज सर को प्रयास ज्यादा करना पड़ा ये समझाने के लिए कि तुलसी बाबा को जन्मदिन के दिन जरुर याद करना चाहिए। फिलहाल सभा शुरू हुई कुछ गुरुजन, कुछ अग्रज सबने अपनी बात रखी। फिर नवागंतुको से भी आग्रह किया गया, अधिकतर लोग संकोच में अगल-बगल की तरफ देखने लगे और सीट के अन्तिम दोनों तरफ के छात्र दीवारों की तरफ। फिर एक छात्र खड़ा हुआ, और तुलसी बाबा पर बोलना शुरू किया ढेर सारी चैपाई, ढेर सारे प्रसंग सुनाते हुए उसने अपनी बात खत्म की। उसने क्या-क्या कहा यह तो नहीं याद मगर वह आवाज और वह शैली बहुत प्रभावशाली थी, उस प्रभाव की एक छोटी सी बानगी मैं उस व्याख्यान के बाद अपनी अज्ञानता पर इतना हीनता बोध से ग्रषित हो गया कि शाम को ही संकट मोचन से तुलसी बाबा की सारी किताबें खरीद लाया कि अब पढना होगा। वह पहली मुलाकात थी हमारी आचार्य के आचार्यत्व से, और वह आजीवन हमारे जीवन में तारी हो गयी। रविशंकर जी को हम लोग आचार्य कहते थे, कभी भी नाम नहीं लिया और अब ये आदत में शुमार है तो शायद ही मैं कहीं उनका नाम लिख पाऊँ।

मैंने वर्ष 2006 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवेश के लिए आवेदन किया, प्रवेश परीक्षा में बहुत अच्छा नम्बर न होने पर विभाग द्वारा प्रवेश की गुंजाइश खत्म कर दी गयी थी। मैं हर तरफ से हताश–निराश होकर लौटने लगा था कि अचानक रास्ते में आचार्य मिले, अपने अन्दाज में पूछा, बालक क्या हुआ? मैंने अपनी सारी व्यथा–कथा उनको सुना दी। तब आचार्य ने ढांढस बधाया और कहा लगे रहो जरुर हो जाएगा। उसके बाद जब तक मेरा प्रवेश नहीं हुआ मैं जब भी विभाग जाता मेरी नजरें सिर्फ आचार्य को खोजती, मेरे लिए आशा की किरण सिर्फ एक आचार्य ही थे, और अन्तत: प्रवेश के बाद उन्होंने मेरा साहित्य से परिचय करवाया, पत्र–पत्रिकाओं के बारे में बताया। उसके बाद से मेरी सुबह भी उन्हीं के साथ और शाम भी, अब?

आचार्य के जाने के बाद उनके साथ बिताए तमाम पल जेहन में आवा जाही कर रहे हैं, जो इस बात को मानने ही नहीं दे रहे कि अब आचार्य हमारे बीच नहीं। आचार्य के विषय में अब कुछ लिखना कितना कठिन कार्य है ये मैं ही जान रहा हूँ, वरना सब जानते हैं कि मेरा सबसे प्रिय कार्य आचार्य पर लिखना ही था। आचार्य ने साहित्य का जो पाठ हम लोगों को पढ़ाया था वही आज हमारी आधारभूमि है। न जाने कितने छात्र आज इस बात के लिए उनके ऋणी हैं कि उनकी जिन्दगी में आचार्य के होने का क्या मतलब था। मुझे नहीं पता कि आज के 10 साल बाद आने वाली पीढ़ी हमारे बैच के किसी छात्र को जानेगी कि नहीं, मगर मुझे 100 फीसदी पता है कि आचार्य को उस पीढ़ी और उस पीढ़ी के बाद के बच्चे भी जानेंगे। जहाँ तक मुझे याद है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग भारत के सर्वश्रेष्ठ विभाग होने के बावजूद साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय नहीं था, 2005 के बाद से हमारे अग्रजों ने साहित्यिक कार्यक्रमों को करवाने की पहल की और आगाज के बाद इसे परवान चढ़ाया आचार्य ने, युवा कवि संगम का होना आचार्य की ही देन थी। यहाँ मैं उसमें शामिल किसी शख्स की भूमिका को कमतर नहीं कहता मगर इस कार्यक्रम के संयोजन से लेकर सम्पूर्णता में आचार्य ही थे। साहित्यिक कार्यक्रमों का सयोंजन वह बड़े मन से करते थे, विभाग का कोई कार्यक्रम उनके बिना पूर्ण नहीं हो सकता था। इसके पीछे सिर्फ-सिर्फ एक ही कारण था उनका साहित्य के प्रति लगाव। एमए में आने के बाद कौन सा वर्ष ऐसा गुजरा होगा जिसमें आचार्य ने कोई गोष्ठी-संगोष्ठी न करायी हो। साथ ही बनारस में कोई साहित्यिक गोष्ठी हो रही हो और उसमें आचार्य न जाएं ऐसा कदापि सम्भव नहीं, अगर कहीं घर गये हों तो हर हाल में सुबह लौटना और शामिल होना। कहीं न कहीं अपने स्वास्थ्य के ऊपर ध्यान न दे पाने की वजह भी यह भागदौड़ ही थी जो आज उनके हमारे बीच से चले जाने का कारण बनी।

आचार्य का पठन–पाठन के साथ-साथ किताबों को खरीदने और सहेजने का जो तरीका था, वो उनसे रश्क करने का कारण बन सकता था। साहित्य की अधिकतर पठनीय और महत्त्वपूर्ण किताबें उनके पास थीं। समकालीन लेखकों में कौन नहीं था जिसे आचार्य ने पढ़ा न हो या उनकी किताब उनके पास न हो। पुस्तक मेला लगने पर दिल्ली जरुर जाना होता और किसी कारणवश न जा पाए तो जो जाए उसे सूची बना कर सौंपते थे कि क्या-क्या आपको लाना है। खुद कवि होने के कारण कविता में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी, मगर कथा साहित्य में अगर कोई नाम चर्चा में आ रहा तो फिर वह रात उस लेखक के नाम कुर्बान। मैं जब कभी आचार्य से कहता था कि आप लिखते क्यूँ नहीं? आचार्य हमेशा समझाते कि पहले खूब पढ़ लिया जाए फिर लिखा जाएगा। इस बात का आचार्य पालन भी करते थे। मैंने हमेशा देखा कि लिखने से पहले सम्बन्धित बिषय खूब पढ़ते थे। यही एक कारण भी था कि थीसिस लिखने में जो देर हुई। हम सभी दोस्त जानते थे कि अगर किसी लेखक या किताब के बारे में जानना हो तो आचार्य से सम्पर्क किया जाए। बस समस्या बता कर फोन काट दीजिये वे खुद फोन करके सब बता देते थे।

आचार्य समकालीन साहित्य से न सिर्फ अपने बावस्ता होते थे अपितु हम लोगों को भी पढने पर जोर देते थे, पत्रिकाओं में कौन छप रहा है, कहाँ कौन लिख रहा है, कौन सी पत्रिका में क्या आया है इन सबका इन्सैक्लोपिडिया थे आचार्य। जब हम लोगों के बीच सम्भावना पत्रिका निकालने की सहमति बनी तो सबने सम्पादक के लिए आचार्य के नाम की ही सहमति दी। संवेद पत्रिका का जब विश्वविद्यालय पर अंक निकल रहा था तो हमारे विश्विद्यालय के अंक का सम्पादन आचार्य ने ही किया था।

आचार्य जितना मिलनसार व्यक्तित्व बहुत मुश्किल है, हो सकता है लोगों को लगे कि मैं उनका दोस्त हूँ तो ऐसी बात कर रहा मगर आप उनसे परिचित किसी से मिल कर पूछिये। उनके साथ स्नातक में पढने वाला कौन छात्र ऐसा होगा जो आचार्य को न जानता हो (यहाँ स्नातक कहने का मतलब कम से कम 100 छात्र से ऊपर है) और किसका नाम आचार्य को ना याद हो, मैं सुकेश तिवारी से बात कर रहा था जो स्नातक के दौरान उनके अनन्य मित्र थे, उन्होंने बताया कि हम लोगों के बीच आचार्य का जो सम्मान था वैसा कम ही देखने को मिलता था। आचार्य जैसा सम्मान देते थे वह भी अपने में अनूठा है। वे हर छात्र चाहे वह स्नातक का हो या परास्नातक का सबको मित्र का ही सम्बोधन करते और सबसे हाथ मिलाते। जबकि मैंने देखा है कैसे लोग सीनियर-जूनियर करते रहते हैं। मुझे लगता है कि पूरे विश्वविद्यालय में अगर कोई छात्र अन्तर-अनुशासनिक विषय में रूचि रखता होगा तो वह आचार्य को जरुर जानता होगा, हर विभाग से उनका सम्पर्क था, हर विषय के बड़े विद्वानों के व्याख्यान वे जरूर सुनते थे।

आचार्य हमेशा मदद को तत्पर रहते थे, पिछले 8 साल के दौरान कोई छात्र अगर बीमार पड़ा तो आचार्य उसका हाल-चाल जरुर लेते थे। कभी-कभी हम झल्ला जाते थे कि अरे डाक्टर है न वह ठीक कर देगा आपके जाने से होगा, वे बिना गुस्साए, मुस्कुरा के कहते अरे तुम चलो, मैं आता हूँ देखकर। सबके लिए आचार्य थे हर समय, हर परिस्थिति में। एक बार मेरे गाँव से एक मरीज आये, गम्भीर बीमार इमरजेंसी में भर्ती घर वालों ने मेरा नम्बर भी दे दिया कि ये बीएचयू में पढ़ते हैं मदद करेंगे। मैं अस्पताल जाने से उतना ही बचता था। परेशान होने पर आचार्य से सम्पर्क किया। आचार्य तो बने ही मदद करने के लिए थे। तब से नियमित उस मरीज के डिस्चार्ज होने तक आचार्य मुझे लिवा कर जाते और मरीज के देखभाल कर रहे लोगों को समझाते, मैं चुपचाप खड़ा ये सब देखता रहता। जब कभी आचार्य पूछते अस्पताल चलोगे तो मैं समझ जाता कि कोई छात्र बीमार है, क्योंकि अपने तो कभी दिखाने के लिए साथ चलने को नहीं कहते, अपना हर काम अकेले कर आते थे।

मेरे लिए बनारस और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हमेशा महत्त्वपूर्ण रहा, कहीं आऊँ-जाऊँ लौट कर जब पहुँचता तो बड़ा सुकून मिलता, अगर आचार्य को पता रहता कि मैं आ रहा, और कभी ऐसा हुआ नहीं कि उन्हें बिना बताये मैं आऊँ बनारस, तो बनारस में मेरी ट्रेन पहुँची नहीं कि आचार्य का फोन आ जाता कि आओ मैं इन्तजार कर रहा, अब जाने पर कौन इन्तजार करेगा। और बनारस का जो आकर्षण था वो भी खत्म, आखिर बनारस को मैं जाना भी तो आचार्य के कारण ही। वो घाटों पर एक किनारे से दूसरे किनारे तक सब कुछ बतलाते हुए ले जाना। गोदौलिया की गलियों में घुमाना। मैंने बनारस को जितना जाना आचार्य के मार्फत से जाना। संगीत का कौन सा समारोह था जिसे आचार्य सुनने नहीं जाते थे, ध्रुपद समारोह हो या संकट मोचन समारोह, रात-रात भर संगीत सुनते। एक प्रसंग याद आ रहा है, आचार्य मैं और विशाल गंगा महोत्सव में राजन साजन मिश्र को सुनने गये थे, सुन कर जब लौटने को हुआ तो तय हुआ कहीं खाना खा लिया जाए। एक ही दूकान खुली थी जोकि शायद पराठा खिला रहा था। खाने के बाद तीनों लोग एक रिक्शे पर सवार हुए। दुर्गाकुंड चैराहे पर एक बड़ा-सा होर्डिंग लगा हुआ था उसी गंगा महोत्सव का, उसमें एक जगह लिखा था अर्ध-शास्त्रीय गायक। आचार्य ने पूछा ये अर्ध-शास्त्रीय क्या होता है, विशाल ने छूटते ही उत्तर दिया सेमी क्लासिकल... आचार्य ने जिस अन्दाज से ‘हूँ’ कहा कि मुझे हंसी आ गयी। विशाल के पूछने पर आचार्य ने बताया कि आपके तरह ही एक विद्वान् थे उनसे किसी ने पूछा था पानी क्या होता है तो उन्होंने बताया ‘वाटर’।

आचार्य का जीवन बड़ा नियम सयंम से चलता था, छात्र जीवन की आदतानुसार हम घर से आये पैसे तुरन्त खत्म कर देते फिर महीने भर उधार से काम चलाते, मगर आचार्य कभी भी ऐसा नहीं करते हर काम बिल्कूल फिट। जब भी हम कहते कि आचार्य पैसा दे दीजिये या आचार्य ये खिला दीजिये तो आचार्य का सुप्रसिद्ध कथन था कि यही 100 रुपया है पर्स में और इसी में महीना चलाना है चाहे आप महीने के पहले दिन कहे या अन्तिम दिन, आचार्य यही बात कहते थे तो हम लोग धीरे-धीरे कहने लगे थे कि जीवन न चल जाएगा आपका इसमें। हालाँकि जो कह दो आचार्य खिलाते थे और जब पैसा मांगो दे देते थे। उनके होने से मुझे अपने होने का एहसास था।

आचार्य जल्दी किसी बात पर नाराज नहीं होते थे, होते भी थे तो केवल अतार्किक बहसों से, लेकिन लाख नाराज हो जाएँ मगर वह बात उस प्रसंग के साथ ही खत्म, दूसरे दिन जब आप मिलेंगे तो आपको लगेगा ही नहीं कि इसी शख्स से रात में बहसा–बहसी हो रही थी, सुबह उसी तरह का व्यवहार जैसे हमेशा से था। मुझे याद है युवा कवि संगम के दूसरे आयोजन के अन्तिम दिन मेरी उनसे किसी बात पर बहस हो गयी, जिसमें मैंने उनसे खराब तरीके से बात कर दी। बात तो कर दी आचार्य वहाँ से चले गये, मगर मेरे अन्दर एक डर बैठ गया आचार्य के नाराज होने का, किसी तरह खुद को मना कर मैं यूनिवर्सिटी छोड़कर दिल्ली के लिए निकल पड़ा, अभी लंका पहुँचा नहीं था कि आचार्य मोबाइल स्क्रीन पर चमक उठे, फोन उठाने पर उधर से आवाज आई डॉ. कब जा रहे हो... बस मुझे वापस प्राण मिल गये। मैंने कहा आचार्य अभी, बस आचार्य इतना सुनते ही वहाँ प्रकट हो गये और मेरे साथ मुगलसराय तक आये और जब तक ट्रेन नहीं चल दी तब तक रुके रहे, ये थे आचार्य, अगर उस दिन वे हमारे साथ न होते तो इस बात को लेकर मैं अपराध बोध महसूस करता कि मैंने आचार्य से ऐसी बातें कर दी, मगर आचार्य का बड़प्पन हमेशा हमें उबार लेता था।

ऐसी तमाम बातें जिनमें आचार्य हैं वे आजीवन हमारे साथ जुड़ी रहेंगी। अगर आप आचार्य को कुछ लिख-पढ़ कर दिखाया कि आचार्य देखिये ठीक लिखा है तो पहले अपना सिग्नेचर करते और कहते अब ठीक। आप कोई भरा हुआ फार्म दिखाएँ कि आचार्य देखिये कोई गलती तो नहीं तो कहते बिना मेरे साइन के मान्य नहीं होगा और हमें डराते कि कर रहा हूँ। उनके हस्ताक्षर किये हुए तमाम कागजात आज मेरे मेज और अलमारी में हैं। जिन दिनों मैं अपना एमफिल लिख रहा था, और बाद में पीएचडी की थीसिस लिखने के दौरान उनको दिखाए हर पेज पर उनका दस्तखत मौजूद होगा।

आचार्य से आप कोई बात बताइये अगर बात सही है तब तो मान लेंगे कि सही कह रहे हो डॉ., और किंचित मात्र सहीं नहीं है तो फिर कहेंगे - अच्छा (फिर किसी बड़े विद्वान् का नाम लेकर) एक वे हुए थे और एक आप विद्वान्। आचार्य लोक की कहावतों और मुहावरों का खूब प्रयोग करते थे, अपनों के बीच ठेठ भदेस भी चलता और समाज में सामजिक। लोकगीतों के बड़े जानकार थे और ऐसा नहीं था कि ये जानकारी गाँव में रहने के कारण हुई, वे तो हाईस्कूल से ही बनारस जैसे बड़े शहर में रहते थे मगर लोक के प्रति जो उनका जुड़ाव था, वे उन्हें उस तरफ खीच ले जाता था, आप उनकी कविताओं में लोक के प्रति विशेष आग्रह देखेंगे। जब कभी आप उन्हें कहीं राह चलते देखकर पूछ दीजिये यहाँ कहाँ आचार्य? तो जवाब हाजिर है, ‘सड़क का आदमी हूँ सड़क पर ही मिलूँगा’। और यात्रा मंर रुकने के प्रबन्ध पर जवाब था कि, ‘दिन बागों में बीता / रात पटरी पे सोया’। ये सब बातें हम किससे सुनेंगे! जिन्दगी में तमाम लोग आपको मिलेगे जो आपका भला करेंगे, और जब भला करेंगे तो आपको अच्छे भी लगेंगे। मगर अच्छे तो तब है कि किसी का बुरा न करते हों। आचार्य ऐसे ही थे, आजतक किसी का बुरा नहीं किया जहाँ तक हो सका सबका भला करने की ही कोशिश की। कितनी बार मैंने देखा कि यह जानते हुए कि सामने वाला आचार्य के खिलाफ है, आचार्य कभी उसके खिलाफ नहीं हुए।

आचार्य किस तरह हमारे बीच से चले गये इस पर मुझे कभी भरोसा नहीं हुआ, जितने नियम सयंम से वे रहते थे शायद ही छात्र जीवन में लोग पालन कर पाए। मुझे न लगा है न लगेगा, बस यही बात दु:ख देती है कि वे अब फोन नहीं करते नहीं तो एमए के बाद से बहुत गम्भीर परिस्थिति में ही कोई दिन हो जिस दिन हमारी बात न हुई हो, अन्यथा मैं कहीं रहूँ बिना आचार्य से बात किये दिन नहीं गुजरता था। अब गुजार रहा हूँ इससे बड़ा दु:ख और क्या देखना था इस जीवन में अभी। अन्दर से एक ललक थी जो कुछ जानता आचार्य से बता देता, ऐसी सारी बातें जमा हो रही हैं कि जब आचार्य मिलेंगे तो उनसे बताने के लिए। मुझे आजीवन इस बात पर गर्व रहेगा कि मैंने आचार्य के साथ पढ़ाई की है उनके संरक्षण में जीवन व्यतीत किया है। होने और न होने की कोई बात नहीं आचार्य जैसे पहले थे वैसे आज भी है मेरे साथ...।
 (यह संस्मरणात्मक आलेख 'सबलोग' मासिक पत्रिका के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित है) 
आदित्य विक्रम सिंह

 

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