27 February 2016

विश्वविद्यालय की स्वायत्तता लोकतन्त्र के लिए जरूरी

                                            
मंडी हॉउस से जंतर मंतर तक के विशाल जुलुस में जान से भी प्यारा जे० एन० यके नारे ने मुझे अचम्भित कर दिया अपसंस्कृति के इस दौर में  छात्र यदि विश्वविद्यालय को इतना प्यार करते हों तो लोगों को इस मानसिकता को समझने का प्रयास करना चाहिए. पिछले कुछ दिनों से  भारतीय राजनीति में जो  कुछ हो रहा है वह लोकतंत्र के हित में नहीं है. सरकार ने और उससे भी ज्यादा सतारुढ़ पार्टी ने अपने आप को एक विश्विद्यालय के खिलाफ खड़ा कर दिया है. ऐसा विश्व इतिहास में शायद पहलीबार हुआ होगा. सरकार के इस रवैय्ये का तात्कालिक कारण तो यह कहा जा रहा है कि विश्वविद्यालय प्रांगण में कुछ छात्रों ने एक ऐसे व्यक्ति को शहीद बताकर उसके पक्ष में  नारे लागए जिसे राष्ट्र द्रोह का अपराधी मान कर फांसी दिया जा चुका है. उनका मानना है कि इस नारेबाजी से हमारी राष्ट्रीय भावना आहत हुई है. और इसलिए इस घटना के मद्दे नजर उन छात्रों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाया जाना जरुरी है. इस परिदृश्य में कई सवाल ऐसे हैं जिस पर बहस जरुरी है.

मेरे विचार से प्रश्न एक या दो ऐसी घटना का नहीं है. सवाल है विचारधारात्मक प्रतिरोध का. यह बात जग जाहिर है कि संघ और भाजपा की नजर में  भारत के प्रमुख शैक्षणिक संस्थाओं पर वामपंथी विचारधारा का कब्जा है. भाजपा के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए संस्थाओं में वामपंथियों का वैचारिक कब्जा होना बाधक है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय उन संस्थाओं में सबसे ज्यादा लब्धप्रतिष्ठ ही नहीं बल्कि  मुखर भी है. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अपने पांचजन्य लेख के माध्यम से इस सन्दर्भ में हिन्दुत्ववादी विचारों को स्पष्ट कर दिया है. इसलिए ऐसा सोचना गलत नहीं होगा कि सरकार केवल मौके की तलाश में थी कि अपने विचारों को कार्य रूप दिया जा सके. और जिस तरह से तथ्यों का खुलासा हो रहा है उससे तो यह स्पष्ट है कि एक साजिश के तहत तोड़-मरोड़ कर एक ऐसा वीडियो तैयार किया गया  ताकि पुलिसिया कार्रवाई का एक झूठा आधार बनाया जा सके और जेएनयू  के अलावा अन्य विश्वविद्यालयों को भी  यह सन्देश दिया जा सके कि उनके अच्छे दिनआनेवाले हैं. इसलिए जो लोग यह समझ रहे हैं कि कोई एक घटना हो गयी और ऐसा करना राष्ट्रहित में नहीं है इसलिए विश्वविद्यालय के छात्रों को माफी मांगनी चाहिए, उन्हें इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए कि यदि यह घटना ही महत्त्वपूर्ण होती   मिडिया में विश्वविद्यालय  पर बहस नहीं हो कर कुछ और ही होता. इसलिए महत्वपूर्ण सवाल दो हैं. एक आदर्श विश्वद्यालय कैसा होना चाहिए और दूसरा कि सत्ताधारी पार्टी की  विचारधाराओं का विश्वविद्यालय के क्रियाकलापों में क्या असर होना चाहिए. 

लेकिन इन दोनों मुद्दों पर बातचीत के पहले उस सवाल को सीधे लेना सही रहेगा जिसके चलते पूरे भारत में आम आदमी इस विश्वविद्यालय को शक की नजर से देखने लगा है. यह सच है कि भारत को स्वतंत्रता के लिए लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी है और इस लड़ाई में राष्ट्रवाद हमारा एक महत्वपूर्ण आधार था. और आज भी पूरी दुनिया राष्ट्र राज्यों में बटी है और लोग चाहे कितना भी मानवतावाद और अन्तराष्ट्रीयता की बात कर लें आखिरकार राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है. इसलिए भारत के किसी विश्वविद्यालय में या कहीं और भी राष्ट्रविरोधी नारा लगने से मन सशंकित हो जाता है कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है. और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय  का यह दायित्व है कि आम लोगों को वह  यह विश्वास दिलाए कि इस विश्वविद्यालय  का शोध या इसकी गतिविधियां देश विरोधी या संविधान विरोधी नहीं है. पिछले कई दशकों में इस विश्वविद्यालय ने कई  हजारों छात्रों को नया जीवन दिया है और जिन्होंने भारतीय समाज को बहुत कुछ दिया है. अचानक ऐसा कोई कारण नजर नहीं आ रहा है जिससे यह मान लिया जाये कि उनका सामूहिक या व्यक्तिगत स्वार्थ भारत को तोड़ने में हो जाये. वैचारिक रूप से जिन वामपन्थी दलों के विचारों का यहाँ वर्चस्व माना जाता है वे सब के सब लिखित रूप से भारतीय संविधान के प्रति अपनी आस्था व्यक्त कर चुके हैं.

वास्तविकता यह है कि उनके लिए राष्ट्रवाद के मायने अलग हैं. इसके लिए यह समझना जरूरी है कि भारत का राष्ट्रवाद स्वाधीनता आन्दोलन से उपजा राष्ट्रवाद है जिसमें मानवीय मूल्यों की लड़ाई लड़ी गयी थी. भारतीय चिन्तक उपनिवेशवाद के खिलाफ अपनी निजी लड़ाई जरूर लड़ रहे थे लेकिन साथ में स्वाधीनता और  मानवता के विचारों के इतिहास के लिए भी ज्ञान सृजन कर रहे थे. यह राष्ट्रवाद विवेकानंद, गाँधी और अम्बेडकर जैसे चिन्तकों का मानवमुक्ति का राष्ट्रवाद था न कि हिटलर जैसे लोगों का अतिउग्रवादी राष्ट्रवाद था. इस राष्ट्रवाद में  हर उस आदमी के लिए संवाद की सम्भावना थी जिसे यह लगता कि उसे स्वराजनहीं है. देश के और दुनिया के जिस भी हिस्से में किसी भी प्रकार का शोषण हो, यह राष्ट्रवाद उसके खिलाफ होगा. क्योंकि हम अपनी स्वतन्त्रता की बात ही नहीं कर सकते हैं यदि हमारी स्वतन्त्रता अन्य लोगों की स्वतन्त्रता  में बाधक हो. स्वतन्त्रता पर किसी भी विमर्श की यह आवश्यक शर्त है कि एक व्यक्ति या समाज की स्वतन्त्रता हर किसी की स्वतन्त्रता को निश्चित करे. इसलिए यदि भारत या दुनिया के किसी भी कोने में परतन्त्रता बची है तो भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम अभी अधूरा है. उसकी यात्रा अभी ख़त्म नहीं हुई है.

ऐसे में यदि उनलोगों के लिए जिन्हें वर्तमान व्यवस्था से असन्तोष है कौन सी जगह है जहाँ वे अपने दर्द का इजहार  कर सकें. चाहे वे दो जून रोटी के लिए संघर्ष करता हुआ गरीब मजदूर हो, आत्महत्या करनेवाला किसान हो, पितृसत्ता का मार झेलनेवाली महिला हो, अपनी अस्मिता पर आघात और जल, जंगल, जमीन की लूट से परेशान आदीवासी हो, कश्मीर से भागे पंडित हों, आतंकवाद और भारतीय सेना की मार झेलनेवाले कश्मीरी मुस्लिम हों या इस आधुनिक भारत में भी जातिप्रथा से प्रताड़ित दलित हों; उनके पास किस भाषा, किस माध्यम और किस जगह पर आपनी बात कहने की छूट है. यदि उनके दुःख को कोई समाज ख़त्म नहीं कर पायेगा तो हजार फीट ऊँचा झंडा लगाने से भी राष्ट्रनिर्माण या राष्ट्रीय भावना का विकास नहीं होगा. राष्ट्र कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है, वह तो भावना है जो लगाव से उत्पन्न होता है. यदि किसी विश्वविद्यालय  का छात्र उसे जान से ज्यादा प्रिय मानता है तो क्यों मानता है. क्योंकि उसे उससे लगाव है. लगाव क्यों है? क्योंकि उस विश्वविद्यालय  ने उसे स्वतन्त्र  होने का एहसास करवाया है; निर्भय होने का एहसास करवाया है; उसके महत्वपूर्ण होने का एहसास करवाया है; उसे मनुष्य होने का एहसास करवाया है. उसकी  पारिवारिक स्थिति से इतर उसकी    अपनी  प्रतिभा को तरासने का मौक़ा दिया है. इसलिय सच तो यह है राष्ट्र निर्माण का जो काम राज्य को करना चाहिए, उसे विश्वविद्यालय कर रहे हैं. और शायद इसलिए विश्वविद्यालय को स्वतंत्र भारत में महत्वपूर्ण स्थान भी मिला और सरकारी सहायता भी. देश भर के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग जाति, धर्म और भाषा के लोगों को भारत के राष्ट्र होने का एहसास  ही विश्वविद्यालयों के माध्यम से हुआ है. इसलिए एक आदर्श विश्वविद्यालय वह है जहाँ ज्ञान सृजन हो, जहाँ जनहित की बात की जाये और जहाँ विमर्श की स्वतंत्रता हो. इन मापदण्डों पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय बिलकुल खरा उतरता है. इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि इस घटना के बाद दुनिया के पांच सौ से ज्यादा विश्वविद्यालयों ने इसका समर्थन किया है.

अब सवाल है कि सरकारों के बदलने और उनके अलग-अलग विचारधाराओं का विश्वविद्यालयों पर क्या प्रभाव होना चाहिए. यह सम्भव है कि किसी खास राजनैतिक दल की  विचारधारा का किसी खास विश्वविद्यालय से तालमेल हो. क्या ऐसे में राजनैतिक दलों को उन्हें बदलने का प्रयास करना चाहिए. विभिन्न विचारधाराओं के बीच बौद्धिक और रचनात्मक मुठभेड़  विश्वविद्यालयों के अध्ययन-अध्यापन का हिस्सा तो होना चाहिए लेकिन सरकारों को उसमें दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए. विश्वविद्यालयों में विचारधाराओं के तर्कपूर्ण आपसी सघर्ष से नए विचारों का भी जन्म हो सकता है. राजनैतिक दलों को उस संघर्ष में हिस्सेदारी तो  करनी चाहिए, लेकिन इस संघर्ष का  राजनैतिक उपयोग करना उचित नहीं है. वैचारिक संघर्ष में राजनैतिक हिस्सेदारी जनहित और राष्ट्रहित के विरुद्ध होगा. राष्ट्र निर्माण के लिए इस तरह के विमर्शों की जगह बनाये जाने की जरुरत है न कि बने जगहों को ख़त्म करने की.

जो लोग भारत की परम्परा की बात करते हैं उन्हें इस बात पर शोध करना चाहिए कि भारतीय परम्परा में शिक्षा के केन्दों और उसके शिक्षकों का राजा से क्या सम्बन्ध होता था. परंपरा को जानने वाले लोगों का मानना है कि लगभग सभी गुरुकुल राजाश्रय के सहारे चलते थे, लेकिन कभी भी राजा उन गुरुकुलों में बिना कुलपति के अनुमति के प्रवेश नहीं करते थे. चाणक्य के प्रसंशकों को यह भी जानना चाहिए कि मगध साम्राज्य के पतन के पीछे राजा का बुद्धिजीवी के साथ दुर्व्यवहार ही था. किसी भी देश में बौद्धिक जगत की स्वतंत्रता राष्ट्र के विकास लिए आवश्यक है. दरअसल में आधुनिक भारत के परम्परावादी सरकार के मंत्रियों को कुलपति की गरिमा का ध्यान नहीं रहता है. एक समाचार के अनुसार केन्द्रीय वि०वि० के उपकुलपतियों को प्रबन्धन का कोई कोर्स करने का आदेश दिया गया है. कोई मंत्री जब उपकुलपतियों को आदेश करे तो उसे राष्ट्र पर संकट समझना चाहिए. क्योंकि उससे विश्वविद्यालय की अस्मिता पर खतरे की आशंका होती है.

जे० एन० यु० के छात्रों में बहस की पुरानी परम्परा है. यहाँ देश के उन हिस्सों से भी छात्र  आते हैं जहाँ के लोग भारतीय राष्ट्रवाद से अभी तक आश्वस्त नहीं हैं. उनके तर्कों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं. यही सहमति-असहमति संवाद के लिए जरूरी है. इस विश्वविद्यालय की यही ट्रेनिंग महत्वपूर्ण है. इन बहसों से कभी आतंकवाद नहीं पनप सकता है बल्कि लोगों में संवाद पर आस्था बनती है. इसी संवाद का परिणाम है कि इस विश्वविद्यालय में छात्र महिलाओं, दलितों और मजदूरों के अधिकारों को लेकर सजग रहते हैं.

बहुत से लोग यह तर्क देते हैं कि टैक्सदाताओं के धन पर ये छात्र पलते हैं और फिर भी राष्ट्र के खिलाफ बोलते हैं.. आश्चर्य तब होता है जब सरकार का एक मंत्री भी यही बात दुहराता है. शायद निजी विश्वविद्यालयों के छात्रों को वे इसकी छुट देना चाहते हैं. और जिस धन पर वे टैक्स देते हैं उसका श्रोत भगवान् है. सच तो यह है कि इस प्राकृतिक भूभाग के प्राकृतिक सम्पदा पर यहाँ रहनेवाले हर मनुष्य का अधिकार है. राज्य कुछ लोगों को उसके विकास का अधिकार देती है ताकि बांकी लोगों के लिए यथेष्ट उपलब्ध हो सके. इसलिए जिनलोगों ने धन इकठ्ठा किया है उनके बारे में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि सामूहिक संपत्ति का यह व्यक्तिगत दोहन है. अब उसमें से एक छोटा हिस्सा सामूहिक कोष में वे वापस करते हैं उसमें भी बंकि लोगों के ऊपर एहसान जताना चाहते हैं. राज्य का यह दायित्व है कि उस धन का उपयोग नागरिकों के हित में करे. इसलिए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर खर्च कर सरकार के मंत्रियों को नागरिकों पर एहसान जताने की जरुरत नहीं है. बल्कि यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. यदि इन क्षेत्रों में प्राइवेट पूंजी को प्रवेश देकर उन्हें आर्थिक दोहन के लिए खोला जा रहा है तो यह राष्ट्रद्रोह माना जाना चाहिए क्योंकि इससे राष्ट्र पर जनता की आस्था कम होगी और रष्ट्रीय भावना कमजोर होगी. यदि सरकार चाहती है कि लोग राष्ट्र को जान से ज्यादा प्यारा माने तो झंडा की ऊंचाई बढ़ाने के बदले जनता को जीवन जीने की उचित सुविधा, स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा का एहसास करवाया जाये. यही नहीं बल्कि सरकार इस सुविधाओं की मांग को भी राष्ट्रद्रोह कह देती है. अब विडियो से यह जाहिर है कि छात्र नेता क्यां मांग रहे थे; उन्हें आजादी चाहिए गरीबी से, बेरोजगारी से और हर तरह के शोषण से. लेकिन मंत्री महोदया को ये बातें समझ में नहीं आती है क्योंकि उनके उनकी  सोच में विचारों का विरोध पार्टी का विरोध है, पार्टी का विरोध सरकार का विरोध है, सरकार का विरोध राज्य का  विरोध है और राज्य का विरोध राष्ट्र का विरोध है. इन सबको अलग से देखने की उन्हें आदत नहीं है.

इस घटना को सामान्य राष्ट्र विरोध की घटना समझना गलत होगा. इसे दक्षिणपन्थी राजनीति का हिस्सा समझना  ज्यादा सही होगा. नयी आर्थिक नीति के तहत सरकार उच्च शिक्षा को बाजार का हिस्सा बनाना चाहती है. शोध के लिए सरकार विश्वविद्यालयों पर निर्भर नहीं रहना चाहती है क्योंकि वहां सरकार की नीयत को समझने की क्षमता होती है और विरोध की संभावना भी रहती है.  सरकार समझने लगी  है कि जनहित का शोध अब अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां ही कर सकती हैं. भारतीय जनता तो केवल वेद और पुराण में विज्ञान खोजने के लिए ही सक्षम हैं. इस विचार के अपने खतरे हैं. एक तरफ यह भी कहना गलत होगा कि दुनिया में सारा ज्ञान केवल पश्चिमी जगत में है और अन्य हिस्सों में ज्ञान-विज्ञान नहीं था. लेकिन यह कहना और भी गलत होगा कि ज्ञान का राष्ट्रवाद से सम्बन्ध है. ज्ञान की पुष्टी तो ज्ञान की कसौटी पर ही होनी चाहिए न कि राष्ट्रवाद की कसौटी पर. यदि सरकार भारतीय ज्ञान परम्परा  के प्रति आस्था रखती है हो उसे सत्य की कसौटी पर कसने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.  विश्वविद्यालयों के वैचारिक पक्ष पर हमला करने से तो इसमें कोई फायदा नहीं हो सकता है.   
  
यदि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय को आर्थिक सहायता में कटौती की गयी तो यह बेहद आपत्तिजनक होगा. जिस संस्था और उसकी संस्कृति को बनाने में कई दसक लगे हैं और उसे नष्ट करना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी. यदि सत्तरूढ़ पार्टी अपनी  विचारधारा के सही होने पर इतना आश्वस्त है तो फिर इसे वैचारिक संघर्ष का युद्धक्षेत्र बनाने का प्रयास करना चाहिए. और इस संघर्ष में विश्वविद्यालय की मर्यादा को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए. इस मंथन में संभव है कोई नयी बात भी निकल आये जो आनेवाले समय के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हो. यह समय इस विश्वविद्यालय  के विद्वत मंडली के लिए भी चुनौती का समय है और जनता के मन में जिस तरह की  शंकाएं पैदा की गयी हैं उससे उबरने केलिए इसे नए प्रयास भी करने होंगे. यह घटना इस बात का भी उदाहरण है कि आधुनिक राज्य के पास जनमत को प्रभावित कर कृतिम आम सहमति  बनाने के लिए एक और तंत्र है. जाहिर है मैं मीडिया की बात कर रहा हूँ. अब इस अंधराष्ट्रवाद के विरोधी ताकतों के लिए इस तरह के प्रोपेगेंडा से लड़ने का तरीका भी ढूंढना होगा. विश्वविद्यालय  की गरिमा पर जो चोट इस घटना से हुई है उससे निकलने के लिए नए सिरे से सोचने की जरुरत होगी.  
                                                                                                                                                      

मणीन्द्र नाथ ठाकुर
लेखक प्रसिद्ध समाजशास्त्री
और जेएनयू में प्राध्यापक हैं।
Mob- +91 99684 06430

सबलोग, मार्च 2016

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