27 February 2016

मुनादी

धूल चेहरे पर हो तो आईना चमकाने से क्या होगा?




समाज में हो रहे परिवर्तनों का सांस्कृतिक नियोजन और समुचित विकास के लिए एक उपयुक्त ढांचे की तलाश आदि काल से ही मनुष्य की प्रमुख समस्या रही है. यह सच है कि परिवर्तन और विकास की नीतियों को निर्धारित करने में शासक वर्ग ने ही अपना प्रभुत्व कायम रखा है, चाहे शासन व्यवस्था जिस तरह की भी रही हो. अठ्ठारहवीं शताब्दी में जब दुनिया के कई देशों में क्रान्ति और आजादी की लहर चल रही थी और बदलती हुई शासन व्यवस्था का लोकतंत्रीकरण हो रहा था तो विकास के स्वरूप पर भी विमर्श गहराने लगा और अलग अलग देशों ने अपनी अपनी जरुरत और क्षमता के अनुसार विकास के आकार और प्रकार को ग्रहण किया. 

आम तौर पर विकास का आशय आर्थिक प्रगति और आधरभूत संरचना के विकास से है. बहुत दिनों से  विकास का तात्पर्य केवल एक मंद अर्थव्यवस्था में पाँच से सात प्रतिशत की दर से सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वार्षिक बढ़ोतरी लाना और उसे कायम रखना रहा है. नयी विश्व अर्थव्यवस्था ने ज्यों ज्यों दुनिया को अपने नियन्त्रण में लेना शुरू किया, ‘विकास’ का अर्थ ‘आधुनिकता’ के करीब जाने लगा.आज तो आलम यह है कि विकास आधुनिकता का पर्याय बन गया है.सच्चे अर्थों में कहें तो आज के विकास ने अर्थशास्त्र से अपना जीवन पाया है. इस जीवन में यदि समता, संस्कृति, मानवीय मूल्य और पारिस्थितकीय सन्तुलन को जगह मिली होती तो आज देश पर्यावरणीय संकट, बेरोजगारी और गैरबराबरी के गड्ढे में गड़ा नहीं होता. क्या हम विकास के दायरे को इतना बड़ा नहीं कर सकते कि उसमें संस्कृति, पर्यावरण और मानवीय मूल्यों का भी विकास समाहित हो सके? हर प्रखंड में एक प्रखंड विकास अधिकारी होता है जिन्हें प्रचलित भाषा में बीडीओ कहते हैं. कोई शोधार्थी इस अधिकारी के क्रिया कलापों पर शोध कर ले तो बहुत ही चौंकाने वाले तथ्य सामने आयेंगे. वहाँ अधिकतर काम ऐसे होते हैं जिनमें जनता के पैसों का कर्मचारियों,अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों के बीच आसानी से बन्दरबांट हो सके. यह सिर्फ एक प्रखण्ड का समाचार नहीं है, लगभग सात हजार प्रखंडों का यह देश इसी दलदल में डूबा हुआ है.
दरअसल भूमंडलीकरण के दौर में नयी आर्थिक नीति के लागू होने के बाद भारत वही नहीं रहा जो पहले था. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक द्वारा निर्धारित नीतियों के प्रभाव में देश की नीतियाँ बनने लगीं. कई परियोजनाओं के लिए आसानी से उपलब्ध अकूत धन के कारण लालच बढ़ने और ईमान के डगमगाने की सम्भावना बढ़ गयी. एक तरह से ऐसी विशाल परियोजनाएँ भ्रष्टाचार का प्रवेश द्वार बन गयीं. जाहिर है आम आदमी के हितों की उपेक्षा होने लगी. इसी उपेक्षा के कारण जनपक्षीय सरोकारों की जरुरत महसूस हुई और वैकल्पिक अवधारणा ने आकार लेना प्रारम्भ कर दिया. यह वही दौर था जब वैकल्पिक अर्थनीति, वैकल्पिक खेती, वैकल्पिक मीडिया जैसे शब्द युग्म लोकप्रिय होने लगे. इतना ही नहीं विकास की सरकारी परिभाषा को चुनौती मिलने लगी और सरकार की नीतियों पर सवाल भी उठने लगे.

देश के सभी गांवों तक सड़क पहुंचाना ज्यादा जरूरी है या चार लेन वाले महंगे हाइवे बनाना? यह जानते हुए भी कि हाइवे सिर्फ सड़क नहीं एक संस्कृति भी है और इसका लाभ देश के आम आदमी से ज्यादा उन भू माफियाओं को होगा जो हाइवे के किनारे बड़ी-बड़ी इमारतें, पाँच सितारा होटल और मौल बनायेंगे, सरकारें इसी तरह के निर्माण में निरन्तर लीन हैं तो यह समझा जा सकता है कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं और उनके सरोकार क्या हैं? यह सिर्फ एक सड़क के मामले में नहीं, बिजली, बांध और उद्योग के सन्दर्भ में भी विकास का सरकारी दर्शन यही है. जिस देश के बहुजन (70प्रतिशत) को रेल के साधारण डब्बे में पैर रखने की जगह नहीं मिलती हो वहाँ अभिजन के लिए बुलेट ट्रेन की यदि चर्चा हो रही है तो यह समझना कठिन नहीं है कि शासक वर्ग ऐसा क्यों सोच रहा है और ऐसा सोचने का नैतिक साहस उसे कहाँ से मिल रहा है?  

दुनिया के 20 सबसे अधिक गन्दे शहरों में से 15 भारत में हैं. हर नगर निगम, नगरपालिका और पंचायत यदि अपने नगर और गाँव की गंदगी को ‘ट्रीट’ करके उसे र्जा में तब्दील कर ले तो अनुमान लगाइए र्जा के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता कितनी बढ़ जाएगी? बड़े-बड़े बिजली घर हमें नहीं बनाने होंगे, टिहरी में कोई बांध बनाना नहीं पड़ेगा, कोई हरसूद नहीं डूबेगा, किसी आदिवासी का गाँव नहीं उजड़ेगा, कोई बेघर नहीं होगा. लेकिन हमें तो मोटी रकम चाहिए भले उसके लिए भीख ही क्यों ना मांगनी पड़े. कोई विश्व बैंक हमें दो चार सौ अरबों का कर्ज दे दे तो हमारा कल्याण हो जाये.विश्व बैंक के दिए कर्ज से सम्भव है हमारे शहरों की चमक थोड़ी बढ़ जाए, लेकिन इस भारी रकम से हमारे अधिकारियों और नेताओं का ईमान कितना गन्दा हो जायेगा इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकता
क्या यह जरूरी है कि विकास और आधुनिकता के मामले में हम पश्चिम की ही नक़ल करें? उनके ख़ारिज कर दिए गए जूठे तकनीक को हम सर आँखों पर रखें? क्या हम किराये के ज्ञान और शोध पर भरोसा किये बिना अपने लिए अपनी तरह का एक विकास का ढाँचा नहीं बना सकते?
हाँ, बना सकते हैं उसके लिए अपनी दृष्टि और सा सोच चाहिए।
                                               
                                   किशन कालजयी
                                                                       09868184228



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