17 February 2016

विश्वविद्यालय के अस्मिता का सवाल



जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को लेकर भारत के तथाकथित राष्ट्रभक्त समुदाय बहुत चिन्तित हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इस विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र नक्सलवादी हैं। उनकी चिन्ता है कि इनकी राजनैतिक समझ राष्ट्र विरोधी है। इस तरह के चिन्तन के मूल में जाना जरूरी है। यह समझना जरूरी है कि उनका राष्ट्रवाद क्या है, विश्वविद्यालय का दायित्व क्या है, यदि शिक्षक और छात्र नक्सलवाद के प्रति इतने सम्मोहित होते हैं तो क्यों। यह मान लेना अनुचित नहीं होगा कि इन महानुभावों को भी इन सवालों को समझने में कोई रूचि होगी।
    सबसे पहले इस बात पर बहस करना जरूरी है कि विश्वविद्यालय का दायित्व क्या है। इन्हें ‘विश्वविद्यालय’ क्यों कहा जाता है। वि. वि. ज्ञान सृजन का केन्द्र है। यहाँ प्रकृति के नियमों और समाज के नीतियों के बारे में मौलिक ज्ञान के सृजन का प्रयास होता है। भले ही राज्य विश्वविद्यालय को धन मुहैया कराता हो, इसकी स्वतन्त्रता सृजनात्मकता के लिए जरुरी है। यह राज्य का मानवता के प्रति दायित्व है कि ज्ञान सृजन की संस्था को सुविधाएँ प्रदान करे और उससे संवाद करे। प्राध्यापकों को सोचने की स्वतन्त्रता की रक्षा करे। प्राध्यापक और चारण में अन्तर समझना राजनीतिज्ञों के लिए आवश्यक है। शिक्षक और छात्र चारणों की तरह सत्ता का जयघोष नहीं करते हैं। स्थान और समय की सीमाओं से परे जाकर उनके सोचने समझने की जो क्षमता है उसका लाभ राज्य को ही मिलता है । राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनके शोधों से आखिरकार समाज और राज्य को ही फायदा होता है। इसलिए हर राज्य विश्वविद्यालयों को धन और स्वतन्त्रता मुहैया करवाता है। इन दोनों के बीच संवाद बेहतर समाज का लक्षण है। लेकिन जब राज्य या सरकार विश्वविद्यालय को अपना विरोधी समझने लगे और ‘सोचने पर पहरा’ लगाने लगे तो समाज को सचेत हो जाना चाहिए।
    जनता को सचेत होना चाहिए क्योंकि चुनी हुई सरकार भी कभी–कभी जनहित के खिलाफ काम कर सकती है। दलीय व्यवस्था में विपक्ष भी अपनी नीतियों को जनहित के आधार पर तय नहीं कर केवल जीत–हार और वोट बैंक के आधार पर तय करता है। ऐसे में सत्य के लिए आग्रह का दायित्व खास तौर पर विश्वविद्यालय के जिम्मे आता है। क्योंकि विश्वविद्यालय समुदाय सत्य के ङ्क्तति आस्था रखता है और हार जीत की समस्या से परे है। जनहित के प्रति यही दायित्व विश्वविद्यालय को सरकार और राज्य से अलग करता है। भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था रखनेवाले महान राजनैतिक हस्तियों को इतना तो पता होना चाहिए कि इस संस्कृति में गुरुकुलों में जाने के पहले राजा भी अपने वाहनों से नीचे उतर जाया करते थे। गुरुकुल केवल एक राजा नहीं बल्कि मानवता के कल्याण का चिंतन किया करते थे। तक्षशिला के गुरुकुल ने राजसत्ता को तब चुनौती दी जब उन्हें लगने लगा कि राजा आततायी हो गया है और जनहित के बदले स्वार्थी और सत्तालोलुप हो गया है।
    क्या जनहित के प्रति अपनी जिम्मेदारी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बखूबी निभा पा रहा है? इस विश्वविद्यालय की खासियत है यहाँ की छात्र राजनीति। दुनियाँ में शायद ही कोई ऐसा विश्विद्यालय होगा जहाँ के छात्रों ने मजदूरों को उचित मजदूरी दिए जाने के लिए आन्दोलन किया हो। ज्ञातव्य है कि इस आन्दोलन के बाद अब विश्वविद्यालय ने यह तय किया है ठेकेदारों के लिए मजदूरों को उचित मजदूरी देना अनिवार्य होगा। छात्रों द्वारा इस तरह का आन्दोलन इस बात का द्योतक है कि छात्रों की राजनीति उनके स्वार्थ परक तत्वों पर आधारित नहीं है। इसी तरह दुनिया भर के लोगों ने देखा कि निर्भया कांड में इन्हीं छात्रों ने एक बड़ा सा आन्दोलन खड़ा कर दिया। दुर्भाग्य से राजनैतिक दलों के लिए ये मुद्दे महत्वपूर्ण नहीं थे। इन छात्रों से बात कर यह लगता है कि समाज को निराश होने की जरूरत नहीं है। इस तरह के विश्वविद्यालय अभी हैं और उनमें ऐसे छात्र भी हैं जिन्हें सत्ता और स्वार्थ से ज्यादा जनहित की चिन्ता है। अब समस्या यह है कि बहुत से लोगों के लिए जनहित की बात करना नक्सलवाद हो गया है। जनहित की बात करना सरकार पर सवाल उठाना हो गया है और सरकार पर सवाल उठाना राष्ट्र पर सवाल उठाने जैसा हो गया है। यह इस समाज का दुर्भाग्य होगा यदि जनहित पर बात करने वालों को आतंकवादी कहा जाने लगा। ऐसे ही लोग गाँधी से भी आतंकित हो जाते थे।
    इन राष्ट्रप्रेमियों को जवाहरलाल नेहरु वि. वि. की संरचना को समझने का प्रयास करना चाहिए। इस वि. वि. के नामांकन की पद्धति कुछ ऐसी है कि बड़े पैमाने पर ऐसे छात्र भी यहाँ आते हैं जिनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब रहती है। सैकड़ों ऐसे छात्र यहाँ हैं जिनके माता–पिता खेत मजदूर हैं, छोटी-मोटी दुकान चलाते हैं, लोगों के घरों में काम करते हैं। यह तो दुनियां के लिए एक उदाहरण है कि मनुष्य की प्रतिभा उसके वर्ग और जाति पर निर्भर नहीं करती है। यदि उन्हें उचित खाद–पानी दिया जाये तो साधारण परिवार से आने वाले बच्चे भी ‘तारे जमीं पर’ हैं। अब इन छात्रों को यदि सरकार की आर्थिक नीतियों से सहमति नहीं है तो क्या वे नक्सलवादी हैं? यदि छात्रों को सामाजिक–आर्थिक असमानता के प्रति गुस्सा है तो क्या वे गलत हैं? इतिहास गवाह है कि युवाओं में न्याय के प्रति आग्रह होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। इस देश में भी प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए छात्रों ने कई बार जोखिम उठाया है। दुर्भाग्य यह है देश के अन्य हिस्सों में विश्वविद्यालय को इतना पंगु बना दिया गया है कि उनसे विरोध की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है।
    सवाल उठाने वाले महान राष्ट्र भक्तों का यह मानना है कि विश्वविद्यालय में नक्सलवाद के प्रति सहानुभूति है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ छात्रों के मन को नक्सलवाद का तर्क जंचता है। इन राष्ट्रवादी विभूतियों को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है। क्यों ये नौजवान नक्सलियों को सही और सरकार को गलत मानते हैं। यह तो तय है नक्सलवाद का इलाका देश के सबसे अविकसित इलाके हैं, यहाँ पुलिस और दबंगों का आतंक है। उन्हें न तो विकास का सुख है और न ही जनतन्त्र का। चुनाव के खर्चे ने जनतन्त्र को धोखा बना दिया है। ऐसे में उन्हें अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का क्या उपाय है। इन नौजवानों को इस इलाके की जनता के दुख–दर्द को समझने का मौका मिलता है। न्याय के जिन सिद्धांतों और प्रजातन्त्र के जिन गुणों की व्याख्या उनके शिक्षक उन्हें अध्यापन के दौरान बताते हैं उसे आधार मान कर यदि नक्सलवादियों का तर्क उन्हें सही लगता है तो क्या करें। भारत का मध्यम वर्ग में भले ही बड़े पैमाने पर नक्सलवाद को समर्थन न हो लेकिन उनके प्रति सहानुभूति जरूर है। उन्हें पता है कि नक्सलवादी संघर्ष का तरीका भले ही गलत हो, उनकी मांगे सही हैं। शायद ही कोई यह कहता हो कि गरीबों को अपने हक के लिए संघर्ष करना ही नहीं चाहिए। उन्हें यथास्थितवादी होना चाहिए। अब इस लड़ाई में यदि कुछ नौजवानों की रूचि है तो उसे राष्ट्रविरोधी कह देना, इन राष्ट्रप्रेमियों के बारे में ही शक पैदा करता है।
    इन महानुभावों को इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों पर भी शक है। लाजिमी है शक का होना क्योंकि कि ज्यादातर शिक्षक पुरस्कार लेने के बदले सच की खोज को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते हैं। ऐसे बहुत से शिक्षक इस विश्वविद्यालय में अभी भी हैं जिनके लिए जनहित और छात्रहित सर्वोपरि है, छात्रों से उनका सीधा संवाद है। अब हिन्दुस्तान में कितने विश्वविद्यालय बच गये हैं जहाँ शिक्षक छात्रों के साथ अपनी कक्षा के बाहर भी संपर्क में रहते हैं, जहाँ शिक्षक छात्रों के निजी जिंदगी की समस्याओं से भी वाकिफ होते हैं और यथासम्भव सहायता करने की कोशिश करते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों की सफलता के पीछे इन शिक्षकों की मेहनत है। कई बार ऐसा भी देखा गया ही कि शिक्षक अपने हितों को त्याग कर छात्रों के हित में काम करते रहते हैं। अब यही यदि उन्हें नक्सलवादी और राष्ट्रविरोधी कहने का कारण है तो अलग बात है। शायद ये राष्ट्रवादी उन्हें ‘स्वार्थ रंजित वेतनभोक्ता’ के रूप में देखना चाहते हैं।
    तीसरी दुनिया का विश्वविद्यालय यदि जनहित के प्रति जागरूक नहीं हो तो यहाँ तानाशाही पनप सकती है। बहुमत का आतंक हो सकता है, भ्रष्टाचार का राज हो सकता है । यहाँ वि. वि. को ज्ञान सृजन के अतिरिक्त भी कई दायित्व हैं, जैसे सरकार, राज्य, पक्ष और विपक्ष की आलोचना का दायित्व, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय जन विरोधी ताकतों के बारे में जनता को सचेत करना और उनके खिलाफ लामबन्द करना आदि। इसलिए सरकारों को विश्वविद्यालय से नाराज होने के बदले उनकी प्रतिक्रियाओं को ध्यान से देखना चाहिए ताकि उन्हें यह पता चले कि लोग उन्हें कैसे देख रहे हैं। यह सरकार और पार्टी के फायदे में है। खासकर तब जब अखबारों में अब सरकार के द्वारा दिए गये विज्ञापनों से यह तय होने लगा है कि उसमें क्या छपेगा और यह जग जाहिर है कि समाचार चैनलों में या तो राजनीतिज्ञों के पैसे लगे हैं या फिर उनसे समर्थित उद्योगपतियों के। ऐसे में सच जनता को या सरकार को कौन बताएगा? कौन उन्हें समझाएगा कि उनकी नीतियाँ जनहित में हैं या नहीं।
    सच तो यह है कि सरकार को इन छात्रों से ‘निंदक नियरे राखिये’ के तर्ज पर संवाद करना चाहिए । इस देश के बौद्धिक युवाओं की बात सुननी चाहिए। कुछ अनपढ़ और दम्भी राजनीतिज्ञ यदि जवाहरलाल नेहरु वि. वि. को नक्सलवाद का अड्डा कह कर खारिज करे तो आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है जब पढ़े लिखे लोग भी इसकी आलोचना करते हैं। उन्हें अपने गिरेबान में झांक कर देखने की जरुरत है कि क्या यहाँ के आम छात्रों और शिक्षकों की तुलना में उनका जनहित के प्रति आग्रह ज्यादा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके विश्वविद्यालय आलोचकों की जनस्वीकृति बहुत कम है और यही उनके लिए परेशानी का कारण है। आज की तारीख में भी उनकी तुलना में आम आदमी इस वि. वि. के प्रति ज्यादा सम्मान रखता है। अब यदि यही कारण है वि. वि. के राष्ट्रविरोधी कहने का तो शायद यह सोचना सही होगा कि उनके हिसाब से जनहित और राष्ट्रहित में अन्तर हो गया है। सत्तासीन राजनैतिक दल और उसके समर्थकों को इस दम्भी प्रवृति से बाहर निकलना चाहिए अन्यथा भारतीय जनता लोकतन्त्र के पक्ष में खड़ा होने की समझ भी रखती है और हिम्मत भी।

मणीन्द्रनाथ ठाकुर

लेखक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैं।
Mob- +91 99684 06430

नोट-यह लेख ‘सबलोग’ के जनवरी अंक में छपा है।

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