29 May 2015

मई 2015


खासी समाज से गुजरते हुए                      
                     बनना राम मीणा 

कुछ दिनों पहले पूर्वोतर के मेघालय राज्य में जाना हुआ। वास्तव में मेघालय की धरती खासी, गारो और जयंतिया आदिवासियों की धरती है। यहाँ का जन जीवन कुदरत के बहुत नजदीक है। मेघालय घूमना वहाँ के प्रमुख आदिवासी समाज खासी और गारो की संस्कृति, प्रकृति, लोग और उनकी भाषा से होकर ही
गुजरना था। मन्त्र मुग्ध कर देने वाले नजारों से तो मेघालय कापफी खूबसूरत जगह है। लेकिन मुझे यहाँ के खासी समाज की संस्कृति ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। असम से चेरापूँजी जाते हुए हम लोग खासी के कुछ गाँव सोरा, मौसिमग्राम, रि-भोई, नाँनपोह, उमनिंग और शिलांग में रुके और वहाँ के समाज और  संस्कृति को करीब से जानने की कोशिश की। मेरे गुरूवर मानते थे कि यात्राएँ ज्ञान का अक्षय स्रोत होती है और वह भौगोलिक ही नहीं मानसिक स्तर पर भी अपना अस्तित्व रखती है। खासी समाज के सन्दर्भ में इस यात्रा ने हमारे समाज के बीच पफैले कई पूर्वग्रहों को भी दूर किया। दरअसल, यहाँ पर शुरू से ही ईसाई धर्म का बहुत प्रभाव रहा है। पूर्वोतर शुरू से ही  ईसाई मिशनरियों का केन्द्र रहा है। भारत में ईसाई प्रचारकों का आदिवासियों के बीच आगमन 19 वीं सदी के तीसरे दशक में हुआ था। ईसाई मिशनरियों को जनजातियों के साथ निरन्तर सम्पर्क का एक प्रतिपफल हुआ  जनजातियों में दृढ़ विश्वास और आन्तरिक शक्ति का उद्भव। वहाँ के स्थानीय लोगों से  पत्ता चला कि खासी समाज में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन के उदाहरण न के बराबर है। हाँ, अपनी मर्जी से अधिकाँश लोगों ने ‘ईसाईयत’ को अपना रखा है। ईसाई धर्म के प्रभाव में आने के बावजूद उन्होंने अपनी कुछ परम्परा, रीति रिवाजों और आदिवासियत को आज तक बचाये रखा है। 
आज भले ही आर.एस.एस थिंकर यह कहकर कुलाचें भर रहे कि ‘मदर टेरेसा’ ने गरीबी की आड़ में जबरदस्ती ईसाई धर्म परिवर्तन कराया जबकि शुरू से लेकर अब तक खासतौर से खासी समाज में मिशनरियों
के योगदान का आकलन करें तो सापफ होगा कि यहाँ कहीं भी मिशनरियों द्वारा जबरदस्ती या सेवाभाव की आड़ में धर्म परिर्वतन के उदाहरण नही मिलते हैं।  बल्कि उन्होंने तो उनके लिए आधुनिक शिक्षा-दीक्षा के दरवाजे खोले। उन्हें आत्मसम्मान से जीने के सपने और सम्भावनाएँ दिखायी। वहाँ जाकर यह अहसास हुआ कि वास्तव में यह समाज शेष भारत के समाजों से बहुत अलग है। हिन्दू प्रभाव से मुक्त ऐसा समाज जहाँ मातृप्रधान व्यवस्था है। महिलाओं के प्रति आदर उनकी संस्कृति है। स्त्रिायों का समाज में सम्मानजनक स्थान है और वे पुरुष की दासी या अधीनस्थ नहीं हैं न ही धौंस जमाने वाली पुरुष प्रवृति की गुलाम। ‘मौसिमग्राम’ गाँव के कुछ लोगों ने उन्हीं की अपनी भाषा मे हमें एक अपनी लोकोक्ति सुनाई-‘अदुर लानोत,वेई बाला किन्इह का क्यिर किनथेई’ अर्थात ‘जब मुर्गीयाँ बांग देने लगे’ तो समझो समय खराब है। दरअसल यहाँ औरत की शालीनता और सहनशीलता को ही उसका सबसे बड़ा गुण माना है। उनकी अवमाना और अपमानित करने वाली शोषित मानसिकता वहाँ नही है। वह स्वतन्त्र एंव स्वछन्द वातावरण में सांस लेती है। एक तरपफ जहाँ दिल्ली में चलती बस और कारों में हो रहे बलात्कार, सड़क पर छेड़खानी, दफ्रतरों में महिला अधिकारियों का शोषण होने जैसी घटनाएँ दिल को दहला देती हैं वही हिन्दुस्तान में एक ऐसा राज्य भी है जहाँ स्त्री और पुरूष में बराबरी का दर्जा है। यहाँ बलात्कार, महिलाओं का शोषण, अन्याय अत्याचार जैसी घटनाएँ न के बराबर हैं। यहाँ पर महिलाएँ अपने आप को सहज सुरक्षित और संरक्षित महसूस करती हैं। रात को भी शिलांग और आसपास के शहरों में महिलाएँ बैखोपफ बेपिफक्र होकर घूमती हैं वहाँ लड़की के पिता को यह चिन्ता नही सताती कि मेरी बेटी सुरक्षित घर पहुँचेगी या नहीं। हमारे यहाँ मुख्यधारा के समाजों में स्त्री पुरुष के सम्बन्धों में मर्दवाद का इतिहास बहुत खराब है। स्त्री पर पुरूष का हक जैसी धारणाएँ स्त्री का जीना मुश्किल कर देती हैं। खासी समाज स्त्राी को खुली आजादी देता है। भारतीय संस्कृति के उलट यहाँ स्त्री को अपना वर खुद चुनने की आजादी है। खासी समाज में स्त्राी के हक और अधिकार सुरक्षित हैं। वह बारात लेकर दूल्हे के घर जाती है और वहाँ के रीति रिवाजों के अनुसार शादी कर अपने घर लाती है। 
शेष भारत के समाजों की तरह,  दहेज जैसी कुप्रथा यहाँ नही है। वर्चस्ववाद, मर्दवाद, असमानता की अवधारणा से यह समाज कोसों दूर है। चाहे महानगर हो या शहर गली हो या मोहल्ला किसी भी स्थान पर महिलाओं के
प्रति अन्याय अत्याचार असमानता का भाव कहीं भी नही दिखा। यहाँ के आदिवासी समाज ने आधुनिकता और परम्परा के बीच सांमजस्य बैठा रखा है। अपने जीवन के आधारभूत रीति रिवाजों से लेकर अपने कार्यों में मौसम और प्रकृति को संजोया है। बरसों का अर्जन, विचार  विमर्श, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विचारों
का आदान प्रदान इस समुदाय की संस्कृति का हिस्सा है। मुख्यधारा का समाज खासी समाज को उपेक्षित भरी नजरों से देखता है। शेष भारतके लोगों की नजर में उनकी संस्कृति हेय है। लेकिन मुझे बहुत से मामलों में उनकी जीवन शैली, सांस्कृतिक विरासत बेहतर लगी। इसलिए श्रेष्ठता का दम्भ भर रहे समाजों को भी उनसे कुछ सीखने की जरूरत है न कि इन समुदायों के आन्तरिक लोकतन्त्र को हेय दृष्टि से देखने की। इन लोगों में बहुत अनुशासन है और वे भारत में अधिकांश लोगों की तुलनामें कहीं अधिक लोकतान्त्रिक भी हैं। आज हमारे अकादमिक माहौल में पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज को लेकर बहुत कम चर्चा होती हैं। अभी सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेले की थीम ‘पूर्वोत्तर के आदिवासी स्वर’ थी। किन्तु मेले से पूर्वोत्तर के स्वर गायब थे। ज्ञान, विचार और सांस्कृतिक आयोजनों में इस समाज पर बातचीत न होने से शेष भारत का  समाज झूठे तथ्यों और प्रतिमानों के आधार पर पूर्वोंतर के बारे में अपने मनगढ़न्त डिजाईन बना लेता है और उसी दृष्टि से उस समाज का आकलन और व्याख्या करता है। परम्परा और आधुनिकता के बीच एक बेहतर तालमेल बैठा रहे समाज के सन्दर्भ में मुख्यधारा का समाज अपने प्रतिमानों के आधार पर गलत समझ विकसित किये हुए है। निश्चित रूप से किसी समाज को बिना देखे समझे अपने सर्टिपिफकेट बाँटना उस समाज के साथ अन्याय करना ही होगा। शेष भारत ने उनमें परायेपन का बोध कराया है वहाँ का खासी समुदाय यह सोचता है कि हम लोग भारत के हैं भी या नहीं? एक अलगाव की भावना उनके मन में बस गयी। हम रात को शिलांग में घूम रहे थे, हमें तो वहाँ किसी ने अजनबी आँखों से नही ताड़ा। जब दिल्ली में इसी प्रदेश के वाशिन्दे सड़कों पर घूमते हैं तो लोगों की नजरें तिरिस्कृत, उपेक्षित भाव से ताड़ती हैं साथ ही उन्हें चिंकी, चीनी जैसे शब्दों से कटाक्ष करने से भी नही चूकते और लाजपत नगर  जैसी घटनाएँ घटती हैं। ये परायेपन की पीड़ा  पल-पल उन्हें कचोटती रहती है। इसका अहसास मुझे वहाँ के स्थानीय नागरीक ‘जेम्स फ्रलांओग’ जिन्हें हिन्दी की अच्छी खासी समझ थी, से बातचीत करने से हुआ। उनका  कहना था- सर हम तो आपको ‘भाई’ मानते हैं और आप हमें ‘चारा’ ये कैसा ‘भाई-चारा’ है ? ऐसे कैसा चलेगा? हम दिल्ली जाते हैं तो हमें विदेशी ;नेपाली, चीनीद्ध समझा जाता है? आदि बहुत से सवालों ने मन को उदास कर दिया। हमारे जैसे पर्यटकों के साथ मिलकर यहाँ के निवासी नर्तकों के अखाड़े में नाचे और कहा ये हमारा ‘कल्चर’ है सरजी, हम लोग झुण्ड बनाकर सामूहिकता में अपने ईश्वर की अराधना करते हैं। अपनी कला और संस्कृति के अनूठे रंग में रंगा यह समूह अपनी सरलता सामूहिकता सहभागिता को आज भी जीवित रखे हुए है। आज मुख्यधारा के समाज को उनसे कुछ सीखने की जरूरत है, न कि उन्हें अपनी अध-कचरी संस्कृति सिखाने की। 


              लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग  
                              में असिस्टेंट प्रोपफेसर हैं।
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