17 April 2017





भाजपा की असाधारण जीत के मायने


कर्मेंदु शिशिर



 पांच राज्यों में हुए चुनाव में खासकर उप्र के नतीजे ने न सिर्फ दलों को बल्कि तरजियाकारों को भी अचंभित किया।इसकी उम्मीद खुद भाजपा को भी न थी।लेकिन ऐसा ही आश्चर्य तब हुआ जब मायावती जी की ईवीएम पर व्यक्त शंका को ही बाकी दलों और अनेक बुद्धिजीवियों ने दुहराना शुरू कर दिया।यह सोच की एक तरह से गंभीर दरिद्रता ही थी कि हम भाजपा जैसी पार्टी के खतरे को अब भी समझने के लिए तैयार नहीं।जो विरोधी दल या लोग इस सोच के सहारे खड़े हैं उनकी राजनीति अब भी दो-तीन दशक पीछे की है।2014 में भाजपा की बागडोर का मोदी के हाथ में आना और दशकों बाद प्रचंड बहुमत हासिल करना देश में बहुत बड़ा परिवर्तन था।यह पूरे बदले हुए भारत की मानसिकता को प्रतिबिंबित कर रहा था।भाजपा की न मंशा बदली थी ,न एजेंडा।भाजपा ही बदल गई थी।भाजपा समझ गई थी की पुराने हिन्दुत्व के साथ अथवा दो चार मुद्दों को लेकर वह लंबी यात्रा नहीं कर सकती।उसे इस बात का खूब पता था कि एक हद तक सर्वस्वीकार्यता वाली कांग्रेस छीज चुकी है और उसका सामना प्रदेशीय बिरादरी बहुल वाली जुगाड़ कर सत्ता पाने वाले पार्टियों से है लिहाजा उसने चुपचाप इस पर काम शुरू किया।
      सबसे पहले तो उसने ब्राह्मण-बनिये की पार्टी से भाजपा को बाहर किया।मध्य और निम्न जातियों को लेकर वह गंभीर हुई।उसने छोटी लेकिन असंतुष्ट जातियों के असरदार नेताओं पर डोरे डालने शुरू किए और एक एक कर सफल भी हुई।दलितों में भी जो मायावती जी का मूल आधार था उससे सटी जातियों पर ज्यादा ध्यान दिया।दूसरी तरफ यह भी ध्यान देना चाहिए कि सपा और बसपा ने अपनी अपनी मूल आधार वाली एक ही जाति को जमकर लाभ पहुँचाया था इसलिए असंतुष्ट हिस्से को अपने पक्ष मे करना ज्यादा मुश्किल भी नहीं हुआ।मुसलमानों को लेकर सपा और बसपा की छीनझपट ने उस थोक वोट बैंक को थोड़ा कमजोर तो कर ही दिया था।उस पर असमय तीन तलाक की बहस ने एक नई संभावना भी पैदा कर दी।आप कल्पना कीजिए पचास हजार तलाक के केस तो अदालत में हैं।इस प्रसंग में सारी पार्टिया चुप रहीं मगर भाजपा की कोशिश यही रही कि वह खुद को तीन तलाक में कट्टर मुस्लिम महिला हितैषी दिखे।काफी हद तक वह अपने आभियान में सफल भी रही।
 सपा आपसी विवाद में  एक तरफ अंदरूनी भीतरघात से कमजोर हुई और दूसरी ओर अखिलेश जी के अति आत्मविश्वास और अहंकार ने और पार्टी के सर्जक मुलायम जी की शिथिलता ने रही सही कसर पूरी कर दी।इस घटना ने पार्टी को अपने ऐतिहासिक पुरुषार्थ,उपलब्धि और ताकत को भी एकदम पेंदे में पहुंचा दिया।इस विवाद को इतना लंबा खींचा गया कि पार्टी टिकट बंटवारे से प्रचार तक में सपा पिछड़ गई।दूसरी भयानक भूल यह हुई कि उसने लाइफसपोर्ट पर पड़ी कांग्रेस को एक चौथाई सीट पता नहीं क्या सोच कर दी जो 27 साल से सत्ता से  बाहर थी।अगर उसे इस बात का इलहाम था कि इससे मुस्लिम वोट देंगे तो यह सोच की दरिद्रता ही थी कि मुस्लिम सपा से ज्यादा कांग्रेस पर यकीन करेंगे।अगर वह यह सोचती थी कि बसपा ने ज्यादा मुसलमानों को टिकट देकर उसे लालच में दे दिया है तो यह सपा की बुनियादी मुस्लिम वोट पैटर्न की  समझ का  घोर अभाव है।मुस्लिम वोट का निर्णय करने में मुसलमान प्रत्याशी की बात बाद में,पहले वह सरकार को ध्यान में रखकर अपना  निर्णय लेता है।ऐसे में सपा ने सौ सीट पहले ही गंवा दी।बेशक अखिलेश जी की छवि बहुत अच्छी थी लेकिन प्रचार में राहुल के साथ उनकी प्रमुखता भी प्रभावित हुई।राहुल हुल हुल कर आगे बढ़ तो जाते थे मगर जनता चिढ़ जाती थी।उनकी नेता की इकलौती छवि ज्यादा सामने रहती तो और असरदार होती।मुझको यह बात समझ से परे लगती है कि वे राहुल -अखिलेश के साथ को  जोर देकर जनता से जो बलात मनवाना चाहते थे उसकी तुलना में बाप और बेटे को जनता ज्यादा जगह और वजन देने को उत्सुक थी।अखिलेश जी यह बात नहीं समझ सके।मुलायम जी का एक ऐतिहासिक योगदान यह है कि बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद मुस्लिम कौम के टूटे विश्वास की उन्होंने वापसी की थी।पूरा जीवन प्रदेश में गुजारा था।गांव गांव घूमे थे।उनकी जड़े गहरी थीं।भले विधायक उनके साथ नहीं गये मगर जनता?यह अखिलेश जी की  बड़ी चूक थी।
मेरे मित्र डा.रामलखन मंडल ने एक बारीक सवाल उठाया कि डिंपल यादव के साथ प्रियंका गांधी की जोड़ी बना  पूरे प्रदेश में धुंआधार प्रचार हुआ  होता तो जरूर  असर पड़ता।लेकिन प्रियंका नेहरू खानदान के गरूर में इतना भाव डिंपल यादव को देने के लिए तैयार नहीं थी।उनकी बात में दम है लोगों में ऐसी बातों का असर होता है।ऐसी अनेक बातों ने सपा को पीछे धकेल दिया।
बसपा सुप्रीमो मायावती अपनी परंपरागत रणनीति के अनुरूप ही रही।लोकसभा में
पराजय के बावजूद उन्होंने कोई सीख नहीं ली।उनकी रणनीति इतनी सीधी थी जिसे कोई बच्चा भी समझ सकता था।दलित वोट को वे रजिस्ट्री मानकर उस तरफ से पूरी तरह गाफिल थीं।99 सीट मुसलमानों को देकर उन्होंने मान लिया कि इस कीमत पर पूरी कौम को उन्होंने खरीद लिया।फिर प्रत्याशी की अपनी जाति के वोट को जोड़कर वे इतमीनान थीं की दो तिहाई बहुमत वाली सरकार की वे पांच वर्षों तक का मालकिन बनी रहेगी।इतनी बचकानी राजनीति करने वाली मायावती जी की वही गति होनी थी जो उनकी हुई।
अगर यूपी में 18 प्रतिशत मुस्लिम आबादी थी तो उनके पास साफ तर्क था कि वे 72 सीट मुसलमानों को देकर यह बात प्रचारित कर सकती थीं कि मैंने चुनाव पूर्व उनका हक दे दिया है और इसी तरह चुनाव बाद भी हक जरूर दूंगी।बसपा की इस एकतरफा रणनीति ने भाजपा का काम बहुत ही आसान कर दिया।उसे हिन्दुत्व की हवा बनाने के लिए इतना अनुकूल वातावरण बिन मांगे मिल चुका था।रही सही कसर उनके पढ़े भाषणों ने पूरा कर दिया।वे चुनाव आयोग के निर्देशों की धज्जियां उड़ाती हुई बार बार मुसलमानों पर केन्द्रित भाषण पढ़ती रहीं।मुसलमान सपा को वोट देकर बर्बाद न करें।उनको इस बात का तनिक इलहाम नहीं था कि उनका भाषण भाजपा को सींच रहा था।उसका हिन्दुत्व लहलहा रहा था।वे अगर 19 सीट पर सिमट गई तो इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं थी।वे अपनी मगरूरियत में उन्मत्त हो लगातार मोदी को निशाना बनाती रही।वैसे भी अपने पांव के नीचे तो वे तभी देखती हैं जब कोई उनको जूती पहना रहा होता है।
भाजपा एक शातिर लोमड़ी की तरह अपनी हर चाल बहुत ही बुद्धिमत्ता से चल रही थी।एक तो उसने चुनाव का ऐसा मनोनुकूल एजेंडा खुद तय किया जिसकी चाल में सपा बसपा दोनों आसानी से फंस गये।उसके तय ऐजेंडे पर ही प्रचार होना था। भाजपा ने छोटे छोटे पाकेट पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया।उसने हर वर्ग,समुदाय और जाति के कोनों अंतरों की पड़ताल कर ऐसे हिस्से को जिसमें थोड़ी भी गुंजाइश थी ,अपने पक्ष में किया।वह जानती थी कि सपा की सत्ता के समय प्रिवलेज जिस जाति विशेष के हिस्से आई उससे बाकी जातियां महरूम रही होगी।उसने तेली,राजभर,कुशवाहा,मल्लाह,पटेल,कांछी,कुर्मी जैसी तमाम छोटी छोटी मध्य जातियों की गोलबंदी कर ली।उसे यह भी पता था कि कोई सत्ता चाहकर भी किसी एक जाति विशेष को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकती।ऐसे में उसने यादवों या दलितों तक में जगह बना ली और सपा के खिलाफ भाजपा के  यादव प्रत्याशी तक  को जिताने में कामयाब हो गई।दलितों को जागीर मानकर एकदम जमींदाराना सलूक करने वाली मायावती जी को यह पता ही नहीं चला कि यह 2017 है और कोई जाति किसी की गुलाम नहीं।सभी को आत्मसम्मान चाहिए।ऐसे ईबीएम पर ठीकरा फोड़ने वाली मायावती जी को अपना सामंती गरूर फोड़ना चाहिए।
    भाजपा का  यह दावा कि उसे जाति धर्म से ऊपर उठकर वोट मिला है ---एक तरह का पाखंड ही है।सच यह है कि यहाँ जमीन पर जाति के यथार्थ की गहरी पड़ताल कर बहुत उन्नत किस्म की जातिवादी रणनीति बनाई गई है और चुनाव जीत को सुनिश्चित किया गया है।सोची समझी रणनीति के तहत उसने तीन तलाक को लेकर बहुत पहले से जो बहस छेड़ी उसे किसी पार्टी ने इस नजरिये से नहीं सोचा।बहुत छोटा ही सही लेकिन वोट का  एक नया इलाका उसने मुस्लिम समुदाय में भी खोज ही लिया।जो लोग उग्र हिन्दुवादी थे उसके लिए भाजपा ने कुछ लोगों.को ड्यूपुट कर रखा था जो समय समय पर बेतुके बयान देते थे।यह सोची समझी साजिश का ही नतीजा था।
 जैसा कि युवा कवि और विचारक  अच्युतानन्द मिश्र  जी ने कहा कि यह नई भाजपा विकास को हिन्दुत्व से जोड़कर एक तरह की आधुनिक सांप्रदायिकता के साथ सामने आई है जो पहले की सांप्रयिक भाजपा से अलग है।इस बात को अगर हम विस्तार दें  तो आज का जो युवा है वह लगभग अराजनीतिक है।वह भले जातिवादी या सांप्रदायिक न हो मगर थोड़े बहुत हिन्दुत्व की छौंक से उसे गुरेज भी नहीं है।वह तकनीकी आधुनिकता के लिए आसानी से भाजपा के साथ खड़ा हो जायेगा।लालू मुलायम की बिरादरीवादी राजनीति की तुलना में वह भाजपा से जल्द कनेक्ट हो जाता है। बेशक भाजपा ने बड़े काम न किए मगर उसकी कुछ योजना निश्चित रूप से वोट खीचूं है।जैसे गैस,जो औरत चूल्हे पर खाना बनाती है उसे गैस मिल जाय और बदले में एक वोट देना पड़े , तो वह दे सकती है।जो औरत शौच के लिए बाहर जाती है उसके घर में कोई शौचालय बना दे और बदले में एक वोट मांगे तो मिल सकता है।हमें जनता को अपनी समझ,अपनी आकांक्षा या बौद्धिकता के ही आलोक में  नहीं परखना चाहिए।


कांग्रेस ने मुसलमानों के लिये किया तो कुछ नहीं मगर उसकी ऐसी छवि बना दी गोया वह दामाद हो।वह ठगा महसूस करता रहा और उसके भीतर उदासीनता भरती गई। न सिर्फ इतना ही बल्कि सपा और बसपा में मुस्लिम वोटों के बंटवारे ने भी भाजपा को भरपूर फायदा पहुंचाया।यहां जो बात गौर करने वाली है वह इन पार्टियों की विचारधारा।मायावती जी अपने सारे पढ़े भाषण में यही कहती रही कि वह भाजपा के साथ किसी कीमत पर न जायेगी ।मुसलमान सपा को वोट न दे।उनके पास विकास का कोई विजन न था।सपा के पास विकास के कार्यक्रम थे और अखिलेश जी उसे जनता के बीच रखते भी थे।उनकी बातों में एक झीना ही सही लेकिन रचनात्मकता थी। मुस्लिम समुदाय को लेकर भाजपा विरोधी पार्टियों के ट्रैक रिकार्ड ठीक नहीं थे ,सभी ने उनका विश्वास खो दिया है।उनकी शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार को लेकर किसी सरकार ने कभी कोई ठोस पहल नहीं की।कांग्रेस ने कुछ भी ठोस न किया।बस यह किया कि उसके प्रति हिन्दुओं में असंतोष , ईर्ष्या और ऐसी नफरत की शुरुआत की जिसकी फसल भाजपा ने काटी। लालू जी या मुलायम जी  ने सिर्फ भाजपा का भय दिखाया और कुछ मुस्लिम दबंगों को मनमानी की खुली छूट दी।कुछ को पद दिए।लेकिन मुस्लिम समुदाय की गुरबत खत्म करने के लिए क्या किया?अलबत्ता नीतीश जी ने ठोस पहल की और कई बुनियादी काम किए।एक तो पूरे बिहार में कब्रगाहों की घेराबंदी करा के  विवाद का टंटा ही खत्म कर दिया।पोशाक और साइकिल योजना ने एक मौन क्रांति ही कर दी।बड़े पैमाने पर मुस्लिम लड़कियां स्कूलों में गई।शानदार हज भवन बनवाया।एक विश्वास पैदा किया।लेकिन उनकी और बिहार की एक सीमा थी।वे कुर्मी कुशवाहा वोट बंटे नहीं इस कारण उप्र में चुनाव नहीं लड़े। इस पूरे प्रकरण में  जनता और समाज की बेहतरी का भाव मुख्य था जिसका अधिकतम लाभ भाजपा को मिला।
अब अगर विरोधी दल यह समझ रहे हैं कि वे तमाम मतभेद भूलकर एक हो जायेंगे तो भाजपा हट जायेगी।यह सोच की भयावह दरिद्रता है।इसमें वैचारिक शून्यता के साथ सिर्फ गिरोहबंदी है।मसलन स्पष्ट बात यह कि हम सपा का यादव,बसपा का दलित और मुस्लिम मिलाकर साफ साफ बहुमत बना लेंगे!यही सरलीकरण इन दलों को यहां तक लाया है।मूल बात विचार की है।हमें छद्म भाजपाई हिन्दुत्व के सामने गांधी,विवेकानंद और राधाकृष्णन के  हिन्दुत्व को  रखना होगा।हमें मुस्लिम के साथ विकास से वंचित जातियों,समुदायों,या वर्गों के लिए सोच समझकर  ब्लू प्रिंट बनाकर ग्रासरूट जनता के पास जाना होगा।यह काम ये घोर सामंती आचरण वाले मौजूदा नेताओं से होगा या अखिलेश वाली पूरी नई पीढ़ी को बागडोर थामनी होगी ,यह विचार करने वाली बात है।

भाजपा ने योगी आदित्यनाथ के चयन से यह साफ संदेश दे दिया है कि इस बार वह पीछे हटने वाली नहीं है।इसका मुकाबला अब किसी कीमत पर पूर्व राजनीति से नहीं हो सकती।न सिर्फ बिरादरीवाद बल्कि क्षेत्रीय दलों की राजनीति भी अब नहीं चल सकती।जैसा कि कवि अरुण कमल कहते हैं कि कांग्रेस और वामपंथ के पतन के बाद भाजपा राष्द्रीय नैरेटिव वाली अकेली पार्टी रह गई है।इसलिए अगर भाजपा का सामना करना है तो एक राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सोच की वैचारिकता के साथ नये ब्लूप्रिंट बनाकर  पार्टी खड़ी करनी होगी। इससे बहुत लम्बी लड़ाई करनी होगी।अंग्रेजों से लड़ने जैसे जज्बे और विचारों के साथ।यह काफी मुश्किल चुनौती है।जाति जुगाड़ और जोड़ तोड़ से अब कुछ नहीं होने वाला।              सबलोग अप्रैल 2017 में प्रकाशित.  
                
 लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं.


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